
शादी की बदलती परंपराएँ
“शादी की बदलती परंपराएँ – खर्च और दिखावा” लेख में जानें कैसे भारतीय विवाह अब सादगी से प्रदर्शन में बदल गए हैं। समझें खर्च, दिखावे और आधुनिक सोच के बीच संतुलन की आवश्यकता।
Table of Contents
विवाह का अर्थ और उसका सामाजिक महत्व
भारतीय समाज में विवाह सिर्फ दो व्यक्तियों का मिलन नहीं होता, यह दो आत्माओं, दो परिवारों और दो संस्कृतियों का संगम होता है। हमारे यहाँ विवाह को संस्कारों की श्रृंखला में सबसे महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है। जहाँ पश्चिमी दुनिया में शादी को एक कॉन्ट्रैक्ट यानी समझौता कहा जाता है, वहीं भारत में इसे बंधन या बंधन में पवित्रता का प्रतीक माना गया है।
विवाह हमारे जीवन की सबसे बड़ी सामाजिक संस्था है — जो परिवार, समाज और संस्कारों की नींव को बनाए रखती है। किसी भी व्यक्ति के जीवन में यह वह अवसर होता है जब सामाजिक जिम्मेदारियाँ, भावनात्मक जुड़ाव और परंपरागत मूल्य एक साथ आते हैं।
🌺 भारतीय विवाह की आत्मा – साथ निभाने का वादा
“सात फेरे”, “मांग में सिंदूर”, “हाथों में मेंहदी”, “अन्नदान” और “कन्यादान” — ये सब प्रतीक हैं उस गहरे अर्थ के जो विवाह को केवल एक रस्म नहीं, बल्कि जीवनभर की प्रतिज्ञा बनाते हैं। हर फेर में जो वचन दिए जाते हैं, उनमें सिर्फ प्रेम नहीं बल्कि कर्तव्य, समर्पण और आदर भी शामिल है। विवाह की परंपरा यही सिखाती है कि जीवन केवल अपने सुख के लिए नहीं, बल्कि एक-दूसरे के सम्मान और समझदारी के लिए भी है।
परंतु… 21वीं सदी में जैसे-जैसे समाज बदला, अर्थव्यवस्था बदली और तकनीक का प्रभाव बढ़ा — विवाह की परिभाषा भी बदलने लगी। अब शादी एक संस्कार से अधिक एक इवेंट बनती जा रही है। आज के समय में जब कोई शादी होती है, तो लोग यह नहीं पूछते कि “लड़का-लड़की कितने समझदार हैं?” बल्कि पूछते हैं — “कहाँ हुई शादी?”, “कितने गेस्ट आए?”, “कैटरिंग कैसी थी?”, “फोटोशूट कहाँ हुआ?”
यही बदलाव इस लेख का केंद्र है — “शादी की बदलती परंपराएँ – खर्च और दिखावा।”
परंपरागत भारतीय विवाह – एक सांस्कृतिक उत्सव
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, जहाँ हर 100 किलोमीटर पर भाषा, खानपान और संस्कृति बदल जाती है, वहाँ विवाह की परंपराएँ भी उतनी ही विविध हैं। लेकिन इन सबमें एक चीज़ समान रही है — भावनाओं की सादगी और रिश्तों की पवित्रता।
🌿 पारंपरिक विवाह की विशेषताएँ
पहले की शादियाँ सादगी और परंपरा का अद्भुत मिश्रण थीं।
- विवाह का आयोजन घर या गाँव में ही होता था।
- रिश्तेदार, पड़ोसी और पूरा समाज मिलकर तैयारी करता था।
- सजावट में कृत्रिम चमक नहीं होती थी, बल्कि प्राकृतिक सौंदर्य होता था — आम की पत्तियाँ, फूलों की मालाएँ, मिट्टी की दीये।
- संगीत था, लेकिन आत्मीय — “हल्दी”, “मेहंदी” और “संगीत” के गीतों में परिवार की आत्मा झलकती थी।
इन शादियों में खर्च नहीं, सहयोग होता था। गाँव में लोग एक-दूसरे की मदद करते थे। कोई खाना बनाता, कोई सजावट करता, कोई मेहमानों की देखभाल करता।
👨👩👧👦 रिश्तों की गहराई
पुरानी शादियों में रिश्ते दिल से बनते थे, पैसे से नहीं। कन्यादान करते समय पिता की आँखों में आँसू और गर्व दोनों होते थे। मेहमानों के लिए प्यार से बनाए गए पकवान और गीत-संगीत का माहौल — यही असली “इंडियन वेडिंग” थी। तब शादी सिर्फ एक दिन की नहीं, बल्कि कई दिनों का उत्सव होती थी। हर रस्म का अर्थ होता था —
“हल्दी” पवित्रता का प्रतीक थी, “मेंहदी” सौभाग्य का, “सात फेरे” सात वचनों के प्रतीक।
🌸 विवाह और समाज की एकता
पहले शादी एक सामुदायिक उत्सव थी। लोग इसमें जुड़ाव महसूस करते थे। यह सिर्फ दूल्हा-दुल्हन का नहीं, बल्कि पूरे समाज का कार्यक्रम होता था। उस समय “शादी” सामाजिक एकता और पारिवारिक सम्मान का प्रतीक थी, न कि प्रतिष्ठा और प्रतियोगिता का। दुल्हन के गहने या खाना कितना महँगा है — इस पर चर्चा नहीं होती थी। बल्कि यह देखा जाता था कि “शादी में कितनी आत्मीयता थी?”
आधुनिक युग की शादियाँ – परंपरा से ट्रेंड तक का सफर
21वीं सदी की शादी अब एक इवेंट इंडस्ट्री बन चुकी है। जहाँ पहले रिश्ते भावना से बनते थे, अब वे फोटोग्राफी और थीम से परिभाषित होने लगे हैं।
💍 “डेस्टिनेशन वेडिंग” का चलन
गोवा, जयपुर, उदयपुर, केरल या विदेशों में “डेस्टिनेशन वेडिंग” अब नया स्टेटस सिंबल बन गया है। लोग लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करते हैं ताकि शादी “यादगार” बन सके —
पर यह यादें अधिकतर कैमरे के लिए होती हैं, दिलों के लिए नहीं। जहाँ पहले लोग कहते थे “शादी भगवान की मर्ज़ी से होती है”, अब कहते हैं “शादी इवेंट प्लानर की मर्ज़ी से होती है।”
📸 फोटोग्राफी और सोशल मीडिया का प्रभाव
अब हर शादी “इंस्टाग्राम रील्स”, “प्री-वेडिंग शूट” और “थीम्ड फोटो सेशन” का हिस्सा होती है। शादी से पहले ही वीडियो टीज़र रिलीज़ होता है, जैसे कोई फिल्म आ रही हो!
यह सब सुंदर है, पर सवाल यह है — क्या हम शादी के भाव से अधिक उसकी प्रदर्शनी में उलझ गए हैं?
🏦 खर्च और प्रतियोगिता
अब शादियाँ “प्रतिष्ठा” का प्रश्न बन चुकी हैं। माता-पिता अपनी जीवनभर की बचत, कर्ज़ या लोन तक लगा देते हैं ताकि समाज में नाक ऊँची रहे। जहाँ पहले “शादी दो दिलों का संगम” थी, अब वह “दो परिवारों की प्रतिस्पर्धा” बन चुकी है — कौन ज़्यादा महँगा कपड़ा पहनता है, किसने बड़ी कार भेजी, किस होटल में रिसेप्शन हुआ।
🌆 शादी अब एक व्यवसाय बन चुकी है
भारत में अब “वेडिंग इंडस्ट्री” का आकार लगभग 6 लाख करोड़ रुपये से अधिक है। यह हर साल तेज़ी से बढ़ रही है। शादी अब भावनाओं से नहीं, बजट से मापी जाने लगी है।
- वेडिंग प्लानर लाखों चार्ज करते हैं
- कैटरिंग कंपनियाँ पैकेज देती हैं
- फोटोग्राफर फिल्ममेकिंग के स्तर पर शूट करते हैं
- मेकअप आर्टिस्ट एक दिन के लिए हजारों रुपये लेते हैं
शादी की तैयारी अब “सप्लायर की सूची” बन चुकी है।
🎭 असली भावनाएँ कहाँ खो गईं?
इन सब के बीच सबसे ज़रूरी चीज़ — ईमानदारी और आत्मीयता — कहीं गायब हो गई है। लोग शादी को “इवेंट” की तरह मनाने लगे हैं, लेकिन “रिश्ते” की तरह निभाने में कमी आ रही है। शादी में “थीम”, “ड्रेस कोड” और “डेकोरेशन” तो हैं, लेकिन “सादगी” और “सच्चाई” अब दुर्लभ हो गई है।
खर्च का बढ़ता बोझ – शादी अब सपना नहीं, बोझ बनती जा रही है
एक समय था जब शादी को जीवन का सबसे सुंदर और पवित्र अवसर माना जाता था, पर आज यह बहुत से परिवारों के लिए सबसे बड़ा आर्थिक दबाव बन चुका है।
💸 शादी = खर्च का पर्याय
किसी मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार में शादी का मतलब होता है —
- हॉल बुकिंग
- कैटरिंग
- कपड़े
- गहने
- डेकोरेशन
- फोटोग्राफी
- बैंड-बाजा
- और समाज की “अपेक्षाएँ”
इन सब पर लाखों रुपये खर्च हो जाते हैं। कई बार तो लोग कर्ज़ लेकर शादी करते हैं — सिर्फ इसलिए कि “समाज क्या कहेगा?”
📊 एक आर्थिक सच्चाई
भारत में 2024 के आँकड़ों के अनुसार, औसतन एक मध्यमवर्गीय शादी का खर्च 12 से 25 लाख रुपये तक पहुँच गया है। कुछ बड़े शहरों में यह आंकड़ा 50 लाख या उससे भी अधिक है। यानी — एक परिवार अपने पूरे जीवन की बचत सिर्फ तीन दिन के समारोह में खर्च कर देता है। यह सवाल उठता है कि — क्या यह “खुशी” का खर्च है या “दिखावे” का?
🧾 शादी का दबाव और सामाजिक तुलना
हर परिवार अपने रिश्तेदारों और पड़ोसियों की शादियों से तुलना करता है। अगर किसी ने बड़ी शादी की, तो दूसरे सोचते हैं — “हम उससे पीछे कैसे रहें?” यह मानसिकता धीरे-धीरे समाजिक प्रतिस्पर्धा में बदल गई है। लोग शादी में खर्च को प्रतिष्ठा से जोड़ने लगे हैं। पर हकीकत यह है — विवाह का खर्च जितना बढ़ता जा रहा है, उतनी ही आर्थिक असमानता और मानसिक थकान भी बढ़ रही है।
😔 एक पिता की दुविधा
कई बार बेटियों के पिता अपनी ज़मीन या जमा पूँजी बेचकर शादी करते हैं। वे सोचते हैं — “लोग क्या कहेंगे अगर शादी सादी हुई?” लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि उस पिता ने अपनी पूरी जमा-पूंजी खो दी। यही कारण है कि भारत के कई हिस्सों में बाल विवाह, कर्ज़ के बोझ और आर्थिक संकट जैसी समस्याएँ जुड़ी हैं — और इनका मूल कारण है दिखावे की संस्कृति।
💬 समाज की चुप्पी
हम समाज में एक ऐसे दौर में पहुँच गए हैं जहाँ “सादगी से शादी” करने वाला व्यक्ति गरीब माना जाता है, और जो लाखों खर्च करे, वह सम्मानित कहलाता है। पर सवाल यह नहीं कि किसने कितना खर्च किया — सवाल यह है कि क्या इस दिखावे में असली रिश्तों की सादगी बची है?
दिखावे की संस्कृति – सोशल मीडिया और समाज का दबाव
🌐 डिजिटल युग की शादी
अब शादियाँ सिर्फ मंडप में नहीं होतीं — वे सोशल मीडिया पर भी होती हैं। हर रस्म, हर फोटो, हर वीडियो — सब “अपलोड” होती है। इंस्टाग्राम रील्स, यूट्यूब व्लॉग्स, और फेसबुक पोस्ट्स ने शादी को व्यक्तिगत समारोह से निकालकर सार्वजनिक प्रदर्शन बना दिया है।
📸 “परफेक्ट शॉट” का जुनून
अब शादी में खुशी से ज़्यादा “फ्रेम” की चिंता होती है। दूल्हा-दुल्हन के चेहरों पर मुस्कान कम, कैमरे की पोज़ ज़्यादा होती है। “कैंडिड फोटोग्राफी”, “प्री-वेडिंग शूट”, “ड्रोन वीडियोग्राफी” — ये सब आधुनिक विवाह के अनिवार्य हिस्से बन चुके हैं। जो फोटो ट्रेंडिंग नहीं हुई, वह शादी मानो अधूरी रह गई।
🧠 समाज की मानसिकता
लोग शादी में खर्च इसलिए नहीं करते कि उन्हें खुशी चाहिए, बल्कि इसलिए कि दूसरे उन्हें सफल समझें। यह एक गहरी मानसिक बीमारी बन चुकी है — जहाँ खुशी की जगह प्रतिष्ठा का प्रदर्शन आ गया है।
💬 “लोग क्या कहेंगे?” – यह सबसे बड़ा डर
हमारे समाज में यह वाक्य सबसे शक्तिशाली हथियार बन गया है। “लोग क्या कहेंगे अगर हमारी शादी में डीजे नहीं हुआ?” “लोग क्या सोचेंगे अगर होटल छोटा हुआ?”
“लोग क्या कहेंगे अगर दूल्हा साधारण सूट पहने?” यही सोच हमें सादगी से दूर और दिखावे के जाल में फँसाती है।
🌈 मीडिया और फिल्मों का प्रभाव
बॉलीवुड ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई है। फिल्मों में दिखाया गया “बिग फैट इंडियन वेडिंग” अब सपना नहीं, मानक बन चुका है। “हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया”, “ये जवानी है दीवानी”, “बैंड बाजा बारात” — इन फिल्मों ने यह धारणा बनाई कि “महँगी शादी ही परफेक्ट शादी होती है।” लेकिन क्या सच में परफेक्ट वही है जो महँगा हो? शायद नहीं।
क्योंकि खुशी की कीमत कभी पैसों में नहीं होती।
ग्रामीण बनाम शहरी विवाह – दो दुनियाओं की तुलना
भारत में शादी का चेहरा शहर और गाँव दोनों में अलग है, पर अब यह फर्क भी धीरे-धीरे मिटने लगा है।
🏡 गाँव की शादियाँ – सादगी और सामूहिकता
गाँवों में अब भी शादियाँ लोगों की भागीदारी से होती हैं। कोई हलवाई, कोई डीजे, कोई कैटरिंग नहीं — बस रिश्ते, गीत, और सामूहिक आनंद। लोग मिलकर खाना बनाते हैं,
गाँव के बच्चे फूल सजाते हैं, महिलाएँ लोकगीत गाती हैं। यह शादी खर्च से नहीं, भावना से चलती है। पर अब धीरे-धीरे वहाँ भी “शहर की नकल” शुरू हो गई है। लाइटिंग, डीजे, केटरिंग, डेकोरेशन — गाँवों में भी दिखावे की हवा पहुँच गई है।
🏙️ शहर की शादियाँ – आयोजन या विज्ञापन?
शहरों में शादियाँ अब इवेंट मैनेजमेंट का रूप ले चुकी हैं। हर चीज़ प्लान्ड और पेड होती है। माँ-बाप अब “सहयोगी” नहीं, बल्कि “क्लाइंट” बन गए हैं। हर जगह पैसा और “पोज़” का दबाव है। यहाँ शादी परिवार का नहीं, फाइनेंशियल प्रोजेक्ट का हिस्सा बन चुकी है।
⚖️ दोनों में फर्क
पहलू | ग्रामीण विवाह | शहरी विवाह |
---|---|---|
खर्च | सीमित, सहयोगी | अधिक, भव्य |
भागीदारी | सामूहिक | पेशेवर |
भोजन | घर का बना | कैटरिंग सेवा |
संगीत | लोकगीत | डीजे और बैंड |
उद्देश्य | संस्कार और मिलन | प्रतिष्ठा और प्रदर्शन |
यह तुलना बताती है कि गाँव अब भी भावनाओं से जुड़े हैं, जबकि शहरों में परंपरा बाज़ार में बदल गई है।
परिवार और रिश्तों पर प्रभाव – प्यार से प्रदर्शन तक
💔 रिश्तों की आत्मा कमजोर होती जा रही है
जब शादी का केंद्र खर्च और दिखावा बन जाए, तो रिश्तों की गहराई अपने आप कम हो जाती है। अब शादी का मतलब है “इवेंट”, न कि “बंधन”। माता-पिता पूरे जीवन की जमा पूँजी खर्च करते हैं, और बच्चे कहते हैं — “शादी को ग्रैंड बनाना है।” कई बार इस सोच में पीढ़ियों का टकराव पैदा हो जाता है।
🫱 रिश्ते अब साझेदारी नहीं, सौदे बन रहे हैं
पहले शादी “दो परिवारों का संगम” थी, अब यह “दो ब्रांड्स का गठबंधन” बन चुकी है। जहाँ प्रेम और समझदारी की जगह स्टेटस मैचिंग ने ले ली है। अब रिश्तों का आधार विचार नहीं, बल्कि वित्तीय क्षमता और सोशल वैल्यू बन गए हैं।
🧠 मानसिक और भावनात्मक प्रभाव
दिखावे के कारण तनाव, चिंता और असुरक्षा बढ़ गई है। कई बार दूल्हा-दुल्हन शादी के दिन “थकान” और “तनाव” से गुजरते हैं। फोटोग्राफर की पोज़ और गेस्ट की अपेक्षाएँ उन्हें अपनी खुशी भूलने पर मजबूर कर देती हैं।
❤️ असली खुशी क्या है?
असली खुशी तब होती है जब दो दिल एक-दूसरे को अपनाते हैं, न कि जब समाज ताली बजाता है। सादगी में जो सच्चाई है, वह किसी आलीशान रिसॉर्ट में नहीं मिलती।
सरकार, समाज और नई सोच – सादगी की पहल
जब शादी का खर्च समाज के लिए बोझ बनने लगे, तो यह केवल एक परिवार की नहीं, बल्कि राष्ट्र की समस्या बन जाती है। भारत जैसे देश में जहाँ गरीबी, बेरोजगारी और महँगाई पहले से मौजूद हैं, वहाँ फिजूलखर्ची एक गंभीर सामाजिक रोग है। लेकिन कुछ लोग और संस्थाएँ इस स्थिति को बदलने के लिए आगे आए हैं।
🏛️ सरकारी पहल
सरकार ने कई बार “सादगीपूर्ण विवाह” को बढ़ावा देने के प्रयास किए हैं। कुछ राज्यों में सामूहिक विवाह योजनाएँ चलाई गई हैं, जैसे —
- मध्य प्रदेश सरकार की “मुख्यमंत्री कन्यादान योजना”
जिसमें गरीब परिवारों की बेटियों की शादी सादगी से कराई जाती है। - राजस्थान की सामूहिक विवाह योजना
जिसमें एक ही मंच पर सैकड़ों जोड़े विवाह करते हैं, और समाज इसका खर्च साझा करता है। - उत्तर प्रदेश की “मुख्यमंत्री सामूहिक विवाह योजना”
जहाँ सरकार प्रति जोड़ा आर्थिक सहायता भी देती है।
इन योजनाओं का उद्देश्य है —
👉 गरीब परिवारों पर आर्थिक दबाव कम करना
👉 दिखावे की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना
👉 समाज में समानता की भावना बढ़ाना
🫱 सामाजिक संगठनों की भूमिका
कई गैर-सरकारी संस्थाएँ (NGOs) और सामाजिक समूह भी आगे आए हैं। वे लोगों को समझा रहे हैं कि शादी का अर्थ खर्च नहीं, संस्कार है। “सादा जीवन, उच्च विचार” का सिद्धांत फिर से लौट रहा है। कई जगहों पर नो-गिफ्ट मैरिज, प्लास्टिक-फ्री वेडिंग, और डोनेशन बेस्ड वेडिंग जैसी पहलें हो रही हैं। उदाहरण के लिए —
कई युवा दंपति अपनी शादी में गिफ्ट की जगह “गरीब बच्चों की शिक्षा” या “पर्यावरण संरक्षण” में दान करवाते हैं। यह नई सोच आने वाली पीढ़ी को नई दिशा दे रही है।
💬 मीडिया और शिक्षा की भूमिका
टीवी चैनल, सोशल मीडिया, और शिक्षा संस्थानों को अब इस विषय पर सकारात्मक संदेश फैलाने की ज़रूरत है। यदि वही फिल्में और विज्ञापन जो दिखावे को बढ़ावा देते हैं,
अब सादगी को “स्टाइल” बनाकर दिखाएँ — तो सोच बदल सकती है। विद्यालयों और कॉलेजों में भी नैतिक शिक्षा और सामाजिक जिम्मेदारी पर चर्चा होना ज़रूरी है।
क्योंकि बदलाव केवल नीति से नहीं, मानसिकता से आता है।
भविष्य की दिशा – संतुलित, सादगीपूर्ण और सार्थक विवाह परंपराएँ
भारत की शादी परंपरा हजारों वर्षों से चलती आ रही है। इसने समय के साथ कई रूप बदले हैं — पर अब समय है संतुलन लाने का।
⚖️ परंपरा और आधुनिकता का संगम
शादी का उद्देश्य केवल रीति-रिवाज निभाना नहीं, बल्कि दो आत्माओं का मिलन है। हम परंपरा को पूरी तरह छोड़ नहीं सकते, और आधुनिकता को भी पूरी तरह नकार नहीं सकते।
इसलिए सबसे सही रास्ता है — “संतुलित विवाह संस्कृति।”
👉 जहाँ रस्में हों, पर उनका खर्च संयमित हो।
👉 जहाँ सजावट हो, पर सादगी भी बनी रहे।
👉 जहाँ फोटो खिंचवाए जाएँ, पर रिश्तों की गरिमा भी बनी रहे।
🌱 टिकाऊ (Sustainable) विवाह की सोच
अब युवाओं में “सस्टेनेबल वेडिंग” का विचार लोकप्रिय हो रहा है। इसमें शादी को पर्यावरण के अनुकूल, कम खर्चीली, और भावनात्मक रूप से सार्थक बनाने पर ज़ोर दिया जाता है। इसमें ध्यान दिया जाता है —
- स्थानीय फूलों और सामग्री से सजावट
- डिजिटल निमंत्रण
- प्लास्टिक-फ्री कैटरिंग
- स्थानीय कलाकारों को रोजगार
- सामाजिक कार्यों को जोड़ना
यह शादी को सिर्फ एक “इवेंट” नहीं, बल्कि सकारात्मक परिवर्तन का माध्यम बना देता है।
💞 भावनाओं की वापसी
समय आ गया है कि हम शादी को फिर से “दिल से” जीएँ, न कि “लेंस से।” जब परिवार, दोस्त और समाज एक साथ खुशी बाँटें, तो वही असली उत्सव है। दिखावे की चमक चाहे जितनी तेज हो, पर भावनाओं की रौशनी उससे कहीं अधिक सुंदर होती है।
निष्कर्ष – असली खुशी दिखावे में नहीं, भावनाओं में है
शादी का अर्थ कभी भी प्रतिष्ठा का प्रदर्शन नहीं था। वह तो दो आत्माओं और दो परिवारों का पवित्र मिलन था। लेकिन आज की दुनिया में जब हर चीज़ “दिखावे” के चश्मे से देखी जा रही है, तो रिश्तों की सच्चाई कहीं खोती जा रही है।
💬 समय की पुकार
अब हमें खुद से पूछना होगा —
- क्या हमारी शादी सच्ची खुशी का प्रतीक है या समाज को खुश करने का माध्यम?
- क्या हमें महंगे कपड़े चाहिए या यादगार पल?
- क्या हम दूसरों के लिए शादी कर रहे हैं या अपने लिए?
जब हम इन प्रश्नों का उत्तर ईमानदारी से देंगे, तभी हम उस सादगी और सच्चाई की परंपरा को फिर से जीवित कर पाएँगे जिसने भारतीय समाज को अनोखा बनाया था।
🌸 एक नई सोच की ओर
सादगी कभी कमजोरी नहीं होती — वह तो आत्मविश्वास की निशानी है। जिस व्यक्ति को अपनी खुशी दिखाने के लिए खर्च की ज़रूरत नहीं, वह वास्तव में सबसे अमीर है। यदि भारत के लोग फिर से भावना, संस्कार और सादगी को अपनाएँ, तो “शादी” फिर से वही बन सकती है जो वह पहले थी — प्यार, विश्वास और संस्कार का पवित्र संगम।
🙋♀️ अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
क्या सादगीपूर्ण शादी में परंपरा टूटती है?
➡️ बिल्कुल नहीं। शादी का असली अर्थ भावनाओं से है, खर्च से नहीं। सादगी में भी परंपरा पूरी तरह निभाई जा सकती है।
क्या सोशल मीडिया ने शादी के दिखावे को बढ़ाया है?
➡️ हाँ, आज शादी का हर पल “पोस्ट” होता है। इसने निजी पलों को सार्वजनिक बना दिया है और दिखावे की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है।
क्या सरकार सादगीपूर्ण विवाह को प्रोत्साहित करती है?
➡️ हाँ, कई राज्य सरकारें सामूहिक विवाह योजनाओं के ज़रिए सादगी को बढ़ावा दे रही हैं।
क्या खर्च कम करने से समाज की नज़र में प्रतिष्ठा घटती है?
➡️ नहीं। जो लोग सादगी को अपनाते हैं, वे समाज में नई सोच का उदाहरण बनते हैं।
युवाओं की क्या भूमिका हो सकती है?
➡️ नई पीढ़ी को आगे बढ़कर यह दिखाना होगा कि “प्यार महँगा नहीं होता।”
वे ही इस परिवर्तन के सच्चे दूत बन सकते हैं।
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