
सुशील कुमार नवीन
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वोट की चोरी: दर्द में क्या बंदा रोए भी नहीं!
वोट की चोरी: हरियाणवीं में एक प्रसिद्ध कहावत है ‘ जिसकै लागै, वोह-ए जाणै…अर्थ है कि चोट का वास्तविक दर्द उसी को होता है, जिसे चोट लगी हो। दूसरों के पास तो सांत्वना के मलहम के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है। उपदेशक बन दूसरों को दर्द सहन करने की हिम्मत बंधाना बड़ा सहज है और वही चोट का दर्द ख़ुद पर बन आए तो सांत्वना का मलहम दर्द को और बढ़ा जाता है। इसलिए दर्द का भाव जितना निकले, उसे निकलने देना चाहिए। दर्द को नासूर नहीं बनने देना चाहिए।
कांग्रेस के युवराज भी लगभग आजकल दर्द की ऐसी ही स्थिति से गुजर रहे हैं। बंदे ने मेहनत करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी हुई है। पर परिणाम वही ढाक के तीन पात। मई २०१४ से शुरू हुआ वनवास लगातार ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा। हर रात के बाद नई सुबह वाला मुहावरा भी रोजाना इस रात की सुबह नहीं कहकर और चिढ़ाकर निकल जाता है। फिर भी राजनीति की हांडी कब शिखर चढ़ जाए, उम्मीद तो बनाकर रखनी ही पड़ेगी। इसी संकल्प को शिरोधार्य कर बंदा सिर पर अमृत का लेप लगाकर सत्ता की चौखट को उखाड़ने का प्रयास जारी रखे हुए है। छह माह की कड़ी मशक्कत के बाद बंदे ने वोट की चोरी नामक नये जिन्न का अवतरण किया। कुछ चर्चा-परिचर्चा, राजनीतिक गहमागहमी बनती। महीने-दो महीने राजनीतिक गलियारे में हंसी-ठठ्ठे चलते। देश की जनता का बातों का चटखारा लगाने का अवसर मिलता, इससे पहले ही चुनाव आयोग बाबा लट्ठ उठाकर फिर बैठ गया। कह दिया या तो शपथ पत्र दो, या फिर देश की जनता से माफ़ी मांगो। ये अच्छी बात नहीं है। इसकी कड़े शब्दों में निंदा ज़रूरी है। निंदा क्या? चुनाव आयोग का बायकॉट कर देने का सार्वभौमिक फ़ैसला अब तक हो जाना चाहिए था। क्या सुप्त शक्तियों के कुंभकर्णी निद्रा जागरण का समय नहीं हो पाया है?
मेरा तो यही मानना है कि चुनाव आयोग को ऐसा नहीं करना चाहिए। इतनी शीघ्रता से तो कतई नहीं। ये हिंदुस्तान है। यहाँ हर किसी को भावों को प्रकट करने की आज़ादी है। आप इसे स्वीकारो चाहे न स्वीकारो। आप बंदे की मेहनत देखिए। काग़ज़ की एक फाइल को सर्च करने में दिमाग़ झन्ना जाता है और बंदे ने न जाने कितनी फाइलें चैक की होंगी। ख़ुद उनके अनुसार कागजों की बड़ी फाइल थी। एक फोटो को लाखों फोटो के सामने कंपेयर किया है। हर एक नाम को चैक किया है। एक सीट की सच्चाई निकालने के लिए छह महीने लगे। ग्राउंड लेवल की मेहनत को इस तरह नकारा नहीं जा सकता।
संज्ञा से सर्वनाम तक, उपमेय से उपमान तक, मान से अपमान तक, अर्श से फ़र्श तक, सुलभ से दुर्लभ तक, आह्वान से विसर्जन तक, भूगोल से खगोल तक सबको इस बात का पूरा दर्द है। दर्द हो भी क्यों न हो २०१४ के बाद क्या आयोग बाबा ने बंदे को ऐसा कोई मौका दिया है कि जिससे वह खुलकर हंस सके, जश्न मना सके। क्या बंदे का मन नहीं करता कि वह भी अपने घर के बाहर लड़ी वाले पटाखे छोड़े, गुलाल उड़ाए, जलेबी बंटवाए। दूर तलक तक महक बिखेरता सौ किलो के हार में सौ लोगों के साथ फोटो खिंचवाए।

और सुनें! सत्ता का दर्द और सभी दर्द से भारी होता है। अभाव में नौजवान को बुज़ुर्ग बनते देर नहीं लगती। कई तो इसी दर्द को लिए समय से पहले सटक जाते हैं। जिनका भाग्योदय हो जाता है वह बुज़ुर्ग नौजवान हो जाते हैं। बुढ़ापा सीधे पच्चीस-तीस साल आगे सरक जाता है और आप चाहते हैं कि बंदा दर्द में भी चुपचाप बैठा रहे, न रोए न चिल्लाए। ऐसा कदापि नहीं हो सकता। इसलिए भावों को लगातार बहने दें और यदि आपको डर है कि भावों की गंगा आपको लपेटे में न लेले तो मंत्र का जाप करें कि …है तो मुमकिन है। इस मंत्र के सुबह शाम जाप करने से कोई भी विपरीत शक्ति प्रभाव नहीं दिखा आएगी। सुभाषितावलि का यह श्लोक और भी संभल देगा-
उदेति सविता ताम्रः, ताम्र एवास्तमेति च।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च, महतामेकरूपता॥
(सूर्य लाल वर्ण का ही उदित होता है और लाल वर्ण का ही अस्त होता है। सम्पत्ति और विपत्ति इन दोनों परिस्थितियों में महान् पुरुष एक जैसे रहते हैं।)
लेखक:
सुशील कुमार ‘नवीन’ , हिसार
hisarsushil@gmail.com
लेखक वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार और शिक्षाविद है। दो बार अकादमी सम्मान से सम्मानित है।
९६७१७ २६२३७
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