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विश्व कपास दिवस : जीवन के ताने-बाने में रचा-बसा है कपास
विश्व कपास दिवस: कपास जीवन की नवलता एवं दृष्टि की धवलता का प्रतीक है। कपास शुचिता, संस्कार एवं स्नेह सातत्य का अविरल स्रोत है। कपास समृद्धि-वृद्धि का द्वार है, सहकार का सेतु है। रेशे-रेशे से अवगुंफित कपास सामूहिकता का भाव बोध है, शक्ति का समुच्चय है। चुनौतियों, बाधाओं और विपरीत परिस्थितियों पर विजय का शंखनाद है कपास। कपास पारिवारिक जीवन में मधुरता एवं आत्मीयता का प्रीति रस बनाये रखने का संकेतक है, अपने नेह-बीजों का चतुर्दिक कोमल तंतुओं से ढकने वाला संरक्षक है। कपास के रेशे जीवन में लोक से रस एवं ऊर्जा ग्रहण कर स्वयं को आलोकित बनाये रखने के सन्देश वाहक हैं, यह आलोक परिवेश को ज्योतित कर लोक को पथ की पहचान कराता है। कपास देश-समाज की आर्थिकी का आधार है और भय एवं भूख से जूझने-लड़ने की ताकत भी। कपास जिजीविषा का प्रतिबिम्ब है, आगे बढ़ने की प्रेरणा है, सबल अवलम्ब है। कपास लज्जा से मुक्ति का वस्त्रावरण है, मानव एवं पशु का भोजन है, सौंदर्य का सखा है, स्वास्थ्य का प्रहरी है। निर्विवाद रूप से, कपास विविध रूपों में हमारे दैनंदिन जीवन में समाया हुआ है। कह सकते हैं कि जीवन के ताने-बाने में रचा-बसा है कपास। कपास श्वेतात्मा है, श्वेताभ लोकसाधक है।
वर्ष १९८१ में मैंने कक्षा पांचवीं उत्तीर्ण कर अतर्रा कस्बे के ब्रह्म विज्ञान इंटर कालेज में प्रवेश लिया था। वहाँ आठवीं तक, तीन साल रहा। वहाँ एक बिलकुल नये किंतु रोचक विषय से परिचय हुआ, वह था कताई-बुनाई। पहले दिन ही शिक्षक ने कताई-बुनाई के महत्त्व, लाभ और उपयोगिता पर कुछ बातें साझा कर प्रत्येक बच्चे को तकली और पूनी (छह इंच लम्बी रुई की हवादार खोखली बाती) खरीदने को बोला था। अगले दिन हम सभी बच्चे तकली-पूनी लेकर गये और उस पीरियड में जीवन में पहली बार रुई से सूत बनाने का प्रयास किया। बायें हाथ से ताली घुमाना होता था और दायें हाथ से पूनी को पकड़ उसका एक सिर तकली के तार की नोक पर फंसाकर सूत बनाना होता था। हम तकली घुमा दाहिना हाथ ऊपर की ओर आहिस्ते-आहिस्ते खींचते तो एक धागा-सा बन जाता जिसे तकली की चकती के ऊपर लपेट लिया जाता। बहुत मजेदार गतिविधि थी, कभी तकली घुमाते तो पूनी वाला हाथ ऊपर करना भूल जाते, हाथ पर ध्यान देते तो तकली लुढ़क जाती। दोनों कुछ सधते तो सूत टूट जाता या कहीं मोटा और कहीं पर बिलकुल पतला सूत निकलता। लेकिन अभ्यास से १०-१५ दिन में तकली से सूत कातना लगभग सभी बच्चों ने सीख लिया था। वह कपास से सूत बनाने का पहला परिचय था। हालांकि कपास से परिचय तो स्कूल जाने के पहले ही हो गया था पर उसका दायरा बहुत सीमित था। तब हमारे गाँव में लगभग हर घर में कपास के दो-चार पौधे उगाये जाते थे। दीपावली आते-आते कपास के पौधों में लगे फलों से रुई बाहर झांकने लगती थी, मानो कोई शिशु प्रकृति का सौंदर्य देखने को अपनी आंखें खोल रहा हो। फल फट जाते थे और डालों पर लटके उनकी उजली रुई के गोलों पर चिड़ियाँ चोंच मारतीं जैसे मीठे मक्खन का स्वाद ले रही हों और कोई भगाता तो थोड़ी-सी रुई चोंच में दबा फुर्र हो जातीं जैसे कोई बच्चा आईसक्रीम के गोले से एक टुकड़ा लेकर भाग गया हो। उन दिनों हम बच्चे कपास के फलों को तोड़कर रुई निकालते थे। रुई से लिपटे बड़े और कठोर बीज अलग रखते जाते। निकली रुई से दीपावली के दीपों हेतु अम्मा और दादी मिलकर बातियाँ बनातीं। तब गांवों में बाज़ार से रुई नहीं खरीदी जाती थी। तुलसीचौरा में संझवाती घर के कपास की रुई-बाती और गाय के घी से होती थी। तो इस तरह कपास लोकजीवन का अभिन्न अंग बना हुआ था। कपास खरीफ की एक नकदी फ़सल है, यह तो बहुत बाद में जान-समझ पाया।

कपास की जन्मभूमि भारत है, अब पाकिस्तान को भी इसमें जोड़ सकते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता में सूती कपड़ों का उपयोग किया जाता था। खुदाई में सूती कपड़ों के टुकड़े मिले हैं, जो कपास की प्राचीनता प्रमाणित करते हैं। बलूचिस्तान में कपास के पांच हज़ार पुराने बीज प्राप्त हुए हैं। यह सिद्ध करता है कि तत्कालीन समाज में कपास की खेती, सूत बनाकर कपड़े बुनने की कला और तकनीक विकसित थी। आज ८० से अधिक देशों में कपास की खेती होती है। कपास का वैज्ञानिक नाम गॉसपियम है। दुनिया के ३ प्रतिशत भूमि पर कपास की खेती होती है जो २७ प्रतिशत जनसंख्या के लिए वस्त्र, तेल एवं अन्य ज़रूरतें पूरी करती है। चीन सर्वाधिक कपास उत्पादन करता है। भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राज़ील, पाकिस्तान मुख्य कपास उत्पादक देश है। भारत में कपास के कुल उत्पादन का ६५ प्रतिशत हिस्सा केवल महाराष्ट्र, गुजरात और तेलंगाना का है। भारत कपास एवं सूत आधारित वस्तुओं का विश्व का दूसरा बड़ा निर्यातक है। भारत में पहली सफल कपास मिल मुम्बई में वर्ष १८५४ में स्थापित की गयी थी। कपास से निर्मित सूती वस्त्र आरामदायक, हवादार, शीतल और टिकाऊ होते हैं। पहनने में सुख की अनुभूति कराते हैं। ग्रीष्म ऋतु में तो सूती वस्त्र एवं अंगौछा बहुत उपयोगी हैं, लू एवं तेज धूप से रक्षा करते हैं। कपास उत्पादन एवं प्रसंस्करण से आज पांच महाद्वीपों में ३ करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है, १० करोड़ परिवार लाभान्वित हैं। एक टन कपास उत्पादन में ५ व्यक्तियों को पूरे वर्ष का रोजगार मिलता है।
कपास उत्पाद जैव अपघटनीय होने से पर्यावरण अनुकूल हैं। प्रकृति और पशु-पक्षियों के संरक्षण में भी कपास की अपनी भूमिका है। कपास से रुई के अलावा बीजों से तेल एवं खली प्राप्त होती है जिसका उपयोग भोजन बनाने, पशुओं को खिलाने और सौंदर्य उत्पादों में किया जाता है। कपास के अंतरराष्ट्रीय व्यापार, सतत विकास एवं आर्थिकी में योगदान, नये रोजगार सर्जन तथा उसके महत्त्व एवं बहुआयामी लाभों से आमजन को परिचित कराने तथा जागरूकता के प्रसार हेतु कॉटन-४ अफ्रीकी देशों बेनिन, बुर्किना फासो, चाड़ और माली ने विश्व व्यापार संगठन के समक्ष वर्ष २०१९ में ७ अक्टूबर को विश्व कपास दिवस मनाने का प्रस्ताव कर पहला आयोजन किया। कपास उत्पादन की बहुआयामी उपयोगिता को समझ संयुक्त राष्ट्रसंघ ने वर्ष २०२१ में ७ अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कपास दिवस के रूप में मनाने हेतु घोषणा किया था। तब से प्रत्येक वर्ष एक विशेष थीम पर वैश्विक आयोजन कर कपास केंद्रित कार्यक्रम किये जाते हैं। कपास हमारे जीवन में सुख, शांति, शीतलता, स्थिरता एवं समृद्धि प्रदान करे, ऐसी शुभेच्छा है।
विश्व शिक्षक दिवस : शिक्षा-सुगंध बिखेरते शिक्षकों के सम्मान का दिन
शिक्षक अपने काल का साक्षी होता है। वह-वह विद्या का उपासक और साधक है तथा अप्रतिम कलाकार भी। वह अपनी मेधा, कल्पना, साधना, आत्मीयता, संवाद, सहानुभूति एवं समानुभूति से प्रेरित हो मानव जीवन को गढ़ता-रचता है। वह बच्चों का मीत है, सखा है। वह बच्चों की प्रतिभा की उड़ान के लिए अनंत आकाश देता है तो नवल सर्जना हेतु वसुधा का विस्तृत फलक भी। वह बच्चों को मौलिक चिंतन-मनन करने, तर्क करने, सीखने, कल्पना एवं अनुमान करने एवं उनके स्वयं के ज्ञान निर्माण हेतु अनन्त अविराम अवसर और जगह उपलब्ध कराता है, फिर चाहे वह कक्षा-कक्ष हो या कक्षा के बाहर का जीवन। सीखने-सिखाने की रचनात्मक यात्रा में शिक्षक सदैव साथ होता है, पर केवल सहायक की भूमिका में। वह बच्चों के चेहरों पर खुशियों का गुलाल मल देता है। आंखों में रचनात्मकता की उजास और मस्तिष्क में कल्पना के इंद्रधनुषी रंग भरता है। कोमल करों में विश्वास के साथ लेखनी और तूलिका दे सर्जना-पथ पर कुछ नया रचने-बुनने को प्रेरित कर अग्रसर करता है। उसके पास आने वाले बच्चे कोरे काग़ज़ या कोरी सिलेट नहीं होते जिस पर वह अपने विचार, अपनी इबारत अंकित करता हो। बच्चे खाली घड़ा भी नहीं होते जिन्हें वह अपने ज्ञान से लबालब भर दे और बच्चे नहीं होते हैं कच्ची मिट्टी के लोंदे जिन्हें वह मनचाहा आकार देता हो या उनके मन की नम उर्वर ज़मीन पर अपने सिद्धांतों की पौध रोप देता हो। वह जानता है कि दुनिया के सभी बच्चे अनंत संभावनाओं से भरे हुए बीज हैं जिनके हृदय में शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, संगीत, कृषि, वानिकी, वाणिज्य, ललित एवं वास्तुकला, सामाजिक संस्कार एवं मानवीय मूल्य समाहित होते हैं। शिक्षक उनके अन्तर्मन में समाहित गुणों को उद्घाटित और प्रकाशित करने में सहायता करता है। बीज से विशाल वृक्ष बनने हेतु आवश्यक अनुकूल परिवेश, परिस्थितियाँ एवं पोषण प्रदान करता है। बच्चों की जन्मजात प्रतिभाओं को शिक्षण-प्रशिक्षण के द्वारा परिमार्जित कर लोक हितैषी और मानवीय मूल्यों में विश्वास से परिपूर्ण एक व्यक्तित्व के रूप में समाज के हाथों में सौंपता है जिसके हृदय में करुणा, समता, न्याय, विश्वास, सहानुभूति, कुटुम्ब भाव, समानता, सहकारिता, लोकतांत्रिकता एवं सामूहिकता और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की भावना हिलोरें लेती है। यह सत्कर्म केवल एक शिक्षक ही करता है, कर सकता है। वह पीढ़ियों का निर्माता है। वह समाज का सिरजनहार है। विश्व शिक्षक दिवस उन उम्मीद जगाते एवं शिक्षा-सुगंध बिखेरते शिक्षकों के मान-सम्मान का दिन है जो लोकैषणा से परे ध्येय-पथ पर निरन्तर गतिशील हैं, जो प्रसिद्धिपरांगमुख हो शैक्षिक फलक पर सर्जना के मोहक रंग बिखेर रहे हैं, आकर्षक सितारे टांक रहे हैं। शिक्षकों की तपश्चर्या ही भारत के उपवन में, मानव मन में सुवास बनकर फैली है।
श्रेष्ठ शिक्षक केवल पाठ्यक्रम को ही नहीं पढ़ते-पढ़ाते बल्कि वे बच्चों के मन को पढ़ उनके हृदय में गहरे उतरते हैं। उनकी प्रकृति एवं स्वभाव को समझते हैं। कोमल सुवासित सुमनों को प्रेम, सद्भाव और आत्मीयता के शीतल जल से सिंचन करते हैं। ध्यातव्य है, बच्चे को मिली डांट-फटकार उसे विद्रोही, बागी और कुंठित बना देती है या हीन भावना से ग्रस्त एक मनोरोगी। श्रेष्ठ शिक्षक बच्चों के स्वभाव एवं प्रकृति से न केवल परिचित होते हैं बल्कि विपरीत आचरण करने पर कारणों की तह तक जाकर उपयुक्त उपचार तलाशते हैं। यहाँ पर मैं एक प्रसंग साझा करता हू। एक बार एक सज्जन गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से भेंट करने शान्ति निकेतन गये। उन्होंने एक वृ़क्ष के नीचे गुरुदेव को चिन्तामग्न बैठे और लगभग १५-२० बच्चों को खेलते-दौड़ते, पेड़ पर चढ़ते-उतरते, रोते-हंसते-खिलखिलाते और उछल-कूद करते देखा। पर एक बच्चा पेड़ के नीचे चुपचाप गुमसुम बैठा था। उस सज्जन ने जाते ही गुरुदेव से कहा कि निश्चितरूप से आप पेड़ पर चढ़े बच्चों से परेशान एवं चिन्तित हैं। गुरुदेव रवीन्द्र ने उत्तर दिया कि मैं पेड़ पर चढ़े बच्चों से नहीं बल्कि पेड़ के नीचे बैठे निष्क्रिय उदास बच्चे को लेकर चिन्तित हूँ, क्योंकि पेड़ पर चढ़ना, उछल-कूद करना बच्चों की स्वाभाविक प्रकृति है। बच्चों के व्यवहार में गतिशीलता, प्रवाह, ऊर्जा आवश्यक है। मैं यहाँ लिखते हुए हर्षित हूँ कि आज ऐसे रचनाधर्मी, संवेदनशील एवं बालहितैषी शिक्षकों की एक लम्बी श्रंखला विद्यमान हैं जो बच्चों की प्रकृति और मनोभावों को समझते और उनके बचपन को बचाये रखते हुए उनमें साहस, शील, शौर्य, निर्भयता, संवेदना, सह-अस्तित्व, प्रेम, करुणा आदि मानवीय सद् प्रवृत्तियों को जाग्रत किये हुए हैं। जिनमें अपने परिवेश की कठिनाइयों से जूझने एवं उलझनों को सुलझाने, निर्णय लेने, कल्पना एवं तर्क शक्ति की क्षमता का विकास होता है और उनके परिवार और परिवेश में घट रही घटनाओं, प्राकृतिक बदलावों, सामाजिक ताना-बाना, तीज-त्योहारों को समझने-सहेजने, अवलोकन करने और कुछ नया खोजबीन करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। जिनकी सांसों में अपनी माटी की महक बसी है और आंखों में श्रम से उपजा सौन्दर्यबोध। उनमें लोकजीवन के रसमय रचना संसार की अनुभूति है और लोकसाहित्य के लयात्मक राग के प्रति संवेदना और अनुराग भी।
युनेस्को और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने वर्ष १९६६ में एक संयुक्त बैठक कर दुनिया के शिक्षकों के कामकाजी परिस्थितियों, भर्ती एवं प्रशिक्षण तथा सतत शिक्षा एवं सुधार हेतु मानकों की रूपरेखा तैयार कर हस्ताक्षर किये थे। उसके क्रियान्वयन हेतु संयुक्त राष्ट्रसंघ की पहल पर वर्ष १९९४ से ५ अक्टूबर को विश्व शिक्षक दिवस के रूप में मनाना प्रारंभ हुआ है और विश्व में १०० से अधिक देश प्रत्येक वर्ष एक थीम आधारित आयोजनों का हिस्सा बनते हैं। यह दिवस विद्यार्थियों एवं समुदाय के विकास में शिक्षकों के योगदान एवं भूमिका की पहचान कर उन्हें सम्मानित करने का अवसर एवं मंच प्रदान करता है। विश्व शिक्षक दिवस के अवसर पर हम विश्वास करें कि बच्चों के अंदर ऐसे नैतिक, सांस्कृतिक, लोकतांत्रिक एवं सामाजिक मूल्य विकसित होंगे जो उन्हें एक भला इंसान रचते हुए विश्व नागरिक के रूप में विकसित करें। तब हम एक बेहतर दुनिया रच पाने में समर्थ-सफल होंगे जहाँ लिंग, जाति, रंग, नस्ल, भाषा, पंथ-मजहब एवं देश के भेद नहीं होंगे। होगा केवल परस्पर विश्वास, बंधुत्व एवं न्याय तथा समता, समरसता, प्रेम, करुणा, अहिंसा और सह-अस्तित्व का उदात्त भाव। हर हाथ में हुनर, आंखों में चमक, मन में आत्मविश्वास और चेहरे पर खिलखिलाती हंसी और यह सम्भव हो सकेगा श्रेष्ठ शिक्षकों की सतत शैक्षिक साधना से जो अविराम अनथक बद्धपरिकर साधनारत हैं।
प्रमोद दीक्षित मलय
लेखक शैक्षिक संवाद मंच के संस्थापक हैं। बांदा, उ.प्र.
मोबा: ९४५२०-८५२३४
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