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रिश्तों का खून
रिश्तों का खून: सुशीला यादव
रश्मि आज भी रोज़ की तरह सुबह चार बजे उठ गई थी। नित्य कर्म के बाद वह मॉर्निंग वॉक के लिए जैसे ही गेट खोल कर बाहर आई तो साथ वाले गेट के पास उसे कुछ गठरी नुमा चीज पड़ी दिखाई दी। उसने जिज्ञासा वश थोड़ा आगे जाकर देखा तो वह हैरान रह गई। अरे यह तो गुप्ता जी की माता जी हैं। यहाँ इस हाल में कैसे। उस समय आश्चर्यचकित होते हुए सोचा वैसे तो पड़ोस में गुप्ता जी के घर से अक्सर लड़ने झगड़ने और माताजी के रोने की आवाजें आती रहती थी।
मगर नौबत यहाँ तक आ जाएगी उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। रश्मि ने उन्हें झिंझोड़ते हुए माताजी-माताजी कहकर आवाज़ दी तो उस निर्जीव शरीर में कुछ हलचल-सी हुई वह दौड़ कर अंदर से एक शाॅल और गर्म पानी ले आई रश्मि ने उन्हें सहारा देते हुए बिठाया और उन्हें शॉल में लपेटकर गरम पानी के दो घूट पिलाए तब कहीं जाकर माता जी ने आंखें खोली और कुछ बोलने के लिए उनके होंठ थरथर्राये मगर कुछ बोल नहीं पाई उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली रशिम उन्हें सहारा देकर अंदर ले आई और उन्हें सोफे पर बिठा वह जल्दी से किचन मैं जाकर चाय बिस्किट ले आई।
उसने माता जी को बड़ी मुश्किल से चुप कराया और मनूहार करते हुए अपने हाथ से चाय बिस्किट खिलाए तब कहीं जाकर माताजी सामान्य स्थिति में आ पाई। उन्होंने बताया कि देर रात को उनके बेटे बहू ने उन्हें धक्का देकर गेट से बाहर धकेल दिया था। वह लाख गिड़गिड़ाई मगर उनका पत्थर दिल नहीं पसीजा। रश्मि ने एक पल के लिए सोचा और वृद्ध आश्रम फ़ोन करके गाड़ी बुलवा ली और वह माताजी को गाड़ी में बिठाते हुए सोच रही थी कि यही तो है रिश्तो का ख़ून॥
सुशीला यादव
हाउस नंबर २८८
सेक्टर १० गुरुग्राम
(हरियाणा)
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