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क्योंकि तुम मेरे गुरुवर हो…
क्योंकि तुम मेरे गुरुवर हो…
ज्ञान की गंगा
विचार प्रवाह
जिज्ञासापूरक
उत्साहवर्धक।
अप्राप्य के प्राप्य
जीवन प्रकाश स्तम्भ
अज्ञान संहारक
सत्य-असत्य शोधक।
अद्भुत प्रकाशपुंज
अज्ञान तमनाशक
विधि ज्ञानदाता
सर्वग्राही
सर्वज्ञ।
हे जगतश्रेष्ठ
तुम वंदनीय हो
पूजनीय हो
आराध्य हो
क्योंकि तुम मेरे
गुरुवर हो।
सौ फीसदी परिणाम की कैसे ख़ुशी मनाऊँ
रामभरोसे थी ये गाड़ी, वक़्त का ग़ज़ब लगा ये धक्का
देख परीक्षा परिणाम, हर कोई रह गया हक्का-बक्का।
अनहोनी हो गई होनी, खुला बन्द अक्ल का ताला,
बिन मांगे मिल गए मोती, मन प्रफुल्लित कर डाला।
पितृ चरणपादुका से स्वागत की, घड़ी न बनने पाई,
विधि के रचे नए विधान ने, अबकै इज़्ज़त ख़ूब बचाई।
चित भी अपनी, पट भी अपनी, मन मयूर नाचता फिरे,
मेहनत आपदा की हुई सफल, व्यर्थ किसका नाम धरे।
इस सौ फीसदी परिणाम की ‘नवीन’ कैसे ख़ुशी मनाऊँ,
सिर के बल हो जाऊँ खड़ा या धरती से लिपट जाऊँ।
जीत नहीं तो क्या हुआ, जीत से बढ़कर ये हार है…
हारीं तुम नहीं चन्द्रिके,
हारा वह हर शख्श है,
जिसने सदा तुम्हें टोका
बढ़ते कदमों को पीछे मोड़ा,
प्रगति पथ पर बन कर रोड़ा।
जमाना औरों के लिए सुखदायी था,
पर तुम्हारे लिए ये सदा खराब रहा,
हल्की-सी हंसी भी, तीर ज्यों चुभी
सांस भी सोच समझकर लिया, क्योंकि,
भले घर का मेडल, तुम्हारे ही नाम रहा।
वक्त न कभी बुरा था, न कभी होगा,
वक्त को पार, सदा वक़्त ने ही किया है,
कमी तुम में न थी, न कभी होगी
कमी सोच में थी, जो पहचान गए,
तभी तो आज दिल से सलाम किया है।
आसान नहीं, गिरि शिखर को पाना,
सहज नही, समुंद्र को पार जाना,
ये देश तुम्हारे आंसुओं से स्तब्ध है,
सौ दरवाजे पार कर, मिला ‘नवीन’ ये उपहार है,
जीत नहीं तो क्या हुआ, जीत से बढ़कर ये हार है।
एक और नई सुबह
एक और नई सुबह
सुरभित गर्वित
स्वतंत्र स्वछंद।
उन्मुक्त गगन
मन आतुर अधीर
आसमान छूने को
भरने नई उड़ान।
जाना किधर
किञ्चित विचलित,
दिखेगी जो राह
सरपट दौड़ेंगे कदम
बिना सोचे विचारे।
लक्ष्य अडिग
पुष्पित पल्लवित
पथ नहीं पाथेय नहीं
अनजान सुनसान राह
दूर करके सभी अवरोध
मिलेगी ‘नवीन’ मंजुल मंजिल।
स्वागतम् हिन्द का गौरव बढ़ाने वालों…
स्वागतम् सुस्वागतम्
हिन्द का गौरव बढ़ाने वालों
गगनभेदी उद्घोषों में
विजयी पताका चहुंओर फहराकर
राष्ट्रगान का मान बढ़ाने वालों।
स्वर्ण, रजत, कांस्य में कोई फ़र्क़ नहीं,
सब मातृभूमि के चरणों में हैं अर्पण।
दृढ़ संकल्पित स्वर्ण लक्षित
लबरेज उन्माद, विजयी प्रमाद
हताशा निराशा से करो दूर
अब अपना मन मस्तिष्क।
जो गए थे सबके सब हैं
मातृभूमि का मान बढ़ाने वाले।
कुछ ने इस बार फहराई पताका
शेष अगली बार छू लेंगे शिखर।
देख लेना अपने दम से
सीना फिर कर देंगे गर्वित।
और… अतीत कर देंगे विस्मृत।
विश्व सरोवर में और प्रस्फुटित होंगे
जलजात सरसिज नीरज पंकज।
रोशन करने और उदित होंगे
भास्कर दिनकर रवि प्रभाकर।
और अधिक क्या बखान करूँ
नग रत्न मणि अचल नगीना
कष्ट हरेंगे ‘नवीन’ बन संकटमोचक
बजरंग सिंधु मीरा और लवलीना।
तुम पूछते हो मैं कौन हूँ
मैं अर्पण हूँ, समर्पण हूँ,
श्रद्धा हूँ, विश्वास हूँ।
जीवन का आधार,
प्रीत का पारावार,
प्रेम की पराकाष्ठा,
वात्सल्य की बहार हूँ।
तुम पूछते हो मैं कौन हूँ?
मैं ही मंदिर, देवप्रतिमा।
मैं ही अरुण, अरुणिमा।
मैं ही रक्त, रक्तिमा।
मैं ही गर्व, गरिमा।
मैं ही सरस्वती, ज्ञानवती
मैं ही बलवती, भगवती
मैं ही गौरी, मैं ही काली
मैं ही उपवन, मैं ही माली।
मैं ही उदय, मैं ही अस्त,
मैं ही अवनि, मैं ही अम्बर।
मैं अन्नपूर्णा, सर्वजन अभिलाषा
करुणा, धैर्य, शौर्य की परिभाषा।
मैं ही मान, मैं ही अभिमान
मैं ही उपमेय, मैं ही उपमान।
मैं ही संक्षेप, मैं ही विस्तार
मैं ही जीवन, जीवन का सार।
मैं भूत, भविष्य, वर्तमान हूँ,
हर तीज-त्यौहार की आन हूँ
सुनी कलाई का अभिमान हूँ।
और…तुम पूछते हो मैं कौन हूं” ?
तो सुनो, अब ध्यान लगाकर…
मैं पापा की परी, माँ की गुड़िया,
दादा की लाडो, दादी की मुनिया।
काका की गुड्डो, काकी की लाली,
भैया की छुटकी, दीदी की आली।
मैं ही रौनक, मैं ही सबकी शान हूँ।
मैं ही दानी, मैं ही सबसे बड़ा दान हूँ।
मैं ही सबसे बड़ा दान हूं………।।
अब तो समझ गए कि मैं कौन हूं?
सुशील कुमार ‘नवीन’
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