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मेरा शहर
मेरा शहर
वो आए मेरे शहर ना जाने क्या सोचकर।
पुराने शिकवों से दोबारा नाता जोड़कर।
मिले थे जब उनसे, काफ़ी बातें हुई थी।
कहते थे वो, नहीं जाऊंगा तुम्हें छोड़कर।
उनको मेरे शहर में मेरी यादें खींच लायी।
खुशनसीबी है, जो उन्हें दोस्ती याद आयी।
जानता हूँ ये सब तो, संयोग की बातें हैं।
वर्ना वह चले गए थे, मुझसे रिश्ता तोड़कर।
उनसे बोलचाल, घुलना-मिलना था मेरा।
उनसे कोई अंजाना-सा वास्ता था मेरा।
वो आए हैं मेरे एहसास-बंधन में बँधकर।
बाकी सब पुरानी बातों को भूलकर।
फिर से शिकायतों का मौका ना देंगे।
कोशिश से उनकी हर आरज़ू पूरी करेंगे।
मेरा खुदा मुझपर मेहरबान है “उड़ता”
मैं ख़ुश हूँ उन्हें अपने शहर में देखकर।
जब तेरा नाम आया…
जब भी बातों में तेरा नाम आया।
हवाओं संग कोई पयाम^ आया। (सन्देश)
उठ गया जो तेरा ज़िक्र लबों पर।
याद करने भर का काम आया।
तोड़कर दिल मेरा मुस्कुरा दिए.
ये कैसा, उनका एहतराम ^आया। (सम्मान, आदर)
हुआ ज़ख़्म तो रक्त रिसने लगा।
फिर कब जाकर निदान^ आया। (कारण)
देखते हैं लोग तड़पना गरीब का।
ख़बर बनी, उठकर अवाम^आया। (जनता)
हसरतें^ कर रही बेचैन इस कदर। (इच्छाएँ)
देखी तस्वीर तेरी, तो अराम आया।
रूठकर चली गई कायनात^ “उड़ता” , (सृष्टि)
खोलके देखी खिड़की, सलाम आया।
तू मेरा हुआ है
जब से तू यादों में शुमार^ हुआ है। (शामिल)
मुझ पर कोई जैसे खुमार^ हुआ है। (नशा)
रहने लगे हो तुम ख्वाबों में मेरे।
तुमसे मुझे प्रेम बेशुमार^ हुआ है। (बेहिसाब)
तुमने ही तराशा है दिल को मेरे।
तू मेरे सुकून का कुम्हार हुआ है।
कितने दिन हुए सकुचाते^-लजाते। (शरमाते)
तेरे आने से जज़्बाती उभार हुआ है
बेतरतीब था जीने का ढंग मेरा।
तेरी कोशिश से जीवन सुधार हुआ है
धरा-समाया गर्दिशे^-गुबार^ हुआ है (संकट, धूल)
“उड़ता” तू यादों में शुमार हुआ है।
आज अँधेरा था
आज तेरी गली में अँधेरा था
बाकी दिनों से घनेरा था
वैसे तो कोई नई बात नहीं
घोर कालिमा का बसेरा था
पूरा दृश्य बेरंग लग रहा था
कोई बेढंगा-सा कसेरा^ था। (बर्तन बनाने वाला)
ना रौशनी हुई ना बदलाव,
इससे बेहतर तो लखेरा^था।
(लाख की चमकती चूड़ियाँ बनाने वाले)
कितनी सदियाँ बितायी हमने
हमारा ये इंतज़ार बहुतेरा था
जैसी भी गुजरी निशा^ “उड़ता” । (रात्रि)
हर रात के बाद सवेरा था।
सवाल ना कर
तू मुझसे इतने सवाल ना कर।
बिना बात ऐसे बवाल ना कर।
ख़ता हो गयी तो भुला दे उसे।
बार-बार ज़िक्रे-मशाल ना कर।
जानता हूँ कितने पानी में हो।
हद से ज़्यादा कमाल ना कर।
कुछ बूँदें तो बाक़ी रहने दो।
धरा^ को यूं अज़ाल^ ना कर। (धरती, बिना जल)
कुछ मोती गुमशुदा तो होंगे।
हर एक सीपी-शैवाल^ ना कर। (काई)
जानने वालों को तज़ाल^ना कर। (अजनबी)
“उड़ता” मुझसे इतने सवाल ना कर।
जब पिता चले गए
दुनियादारी देखी जब पिता चले गए.
समझदारी सीखी जब पिता चले गए.
कलतक ज़िया था उन्मुक्त^भंवरा सा। (आज़ाद)
आलमगारी^सोची जब पिता चले गए.
(दुनियाँ को जीतने वाली खूबी / कला)
वक़्त के पहलू से था, अंजान-सा मैं।
तरनतारी^ सीखी जब पिता चले गए.
(भवसागर से पार उतरने का हुनर)
भविष्य की अपने कोई चिंता नहीं थी,
रेज़गारी^ छोड़ी जब पिता चले गए.
(छोटे सिक्के / काम)
अपने बलबूते कुछ भी ना किया था।
अंसारी^ तजी^ जब पिता चले गए.
(सहायता, छोड़ना)
माना की आरामी^ ज़िन्दगी थी अपनी।
(आराम से सरोबार)
कर्मकारी^ शुरू की जब पिता चले गए.
(मेहनत, मजदूरी)
अहलेदारी^ शुरू की जब पिता चले गए.
(दया-सहानुभूति भाव रखना)
दुनियादारी देखी “उड़ता” जब पिता चले गए.
कुछ पंक्तियाँ…
ख़ुशी-ग़म का समर^ बन गयी (रण)
ज़िन्दगी पल-दो-पहर बन गयी
वक़्त बदला और मौसम बदले
उजली शामो-सहर^ बन गयी (सुबह)
जितनी भी कटी बेहतर कटी
ख़ुश लम्हों का असर बन गयी
माँ का आँचल सर पर रहा
तमाम उम्र शज़र^ बन गयी (वृक्ष-छाया)
एक दौर में पिता-साथ छूटा
“उड़ता” -कहानी कसर^बन गयी। (कमी)
चंद पंक्तियाँ…
बड़ी मुश्किल से मिले हैं
अभी तक लब सिले हैं
दिल का चमन है यहाँ
फूल मुश्किल से खिले हैं
कुछ है जो जोड़ता है
ये तो पुराने सिलसिले है
बागों में बहार आयी है
गुल नीले हैं व पीले हैं
प्यार तो होना बनता था
उनके रूप बड़े सजीले हैं
साहित्य बड़ा समंदर है
“उड़ता” नज़्में झीलें हैं
तारों भरी रात अच्छी नहीं लगती
किसी की दी जगात^ अच्छी नहीं लगती। (भीख)
किसी से मिली खैरात^अच्छी नहीं लगती। (दान)
कम होने लगे हैं इस शहर से जंगलात^।
(बहुत वन)
अब मुझे सावनी बरसात अच्छी नहीं लगती।
ये तारों भरी रात मुझे अच्छी नहीं लगती।
चलती हवायें ये बेबात अच्छी नहीं लगती
आती हुई फ़िज़ाएं-वात^अच्छी नहीं लगती।
(खुले मैदान में चलने वाली सुबह की हवा)
मेरा इश्क़ जैसे मसले से भरोसा उठ गया है
मुझे कोई प्रेम-कहानी सच्ची नहीं लगती।
ये तारों भरी रात मुझे अच्छी नहीं लगती।
किसी से मिलना बड़ा अजीब लगता है
उभारती है मेरे जज़्बात अच्छी नहीं लगती।
क्यों आकर उलझते हैं रकीबवाले^ मुझसे। (प्रेम-प्रतिद्वंदी)
उनकी अदनी^औकात अच्छी नहीं लगती। (छोटी)
ये तारों भरी रात अच्छी नहीं लगती।
इतने वक़्त भी उसने आदतें नहीं बदली।
जख्म देनेवाली बरछी^अच्छी नहीं लगती। (भाला)
इक पल में तोड़ दिया दिल मेरा उसने।
मेरी विश्वास-राह इतनी कच्ची नहीं लगती।
ये तारों भरी रात अच्छी नहीं लगती।
हर दिन बदलती है हाथों की लकीरें।
जब ना हो नसीब साथ अच्छी नहीं लगती।
लगा इस बार मगरमच्छ से पाला पड़ा है।
ये पुराने तालाबात की मच्छी नहीं लगती।
ये तारों भरी रात अच्छी नहीं लगती।
मुझे उजली-चाँदनी रात अच्छी नहीं लगती।
“उड़ता” ये तारों भरी रात अच्छी नहीं लगती।
अहाना बंद हो रहा है
तेरे लिए दर-ए-अहाना^ बंद हो रहा है।
(भीतरी दरवाज़ा)
तेरी यादों में आना-जाना बंद हो रहा है
बहुत अश्क़ बहाए हैं मोहब्बत में तेरी,
मेरी रूह का प्याराना बंद हो रहा है
हर कोई क़ैद हुआ ख़ुद की गिरफ्त में
लगता है ये ज़माना बंद हो रहा है
इतना बरसा सावन कि पानी रुक गया
लगा जल ज़मीं में समाना बंद हो रहा है
सारा शहर तमाशा देखने को बेताब है
किसी जुर्म में एक दीवाना बंद हो रहा है
दुकान बढ़ाई, रोज़ी का मसला हो गया
“उड़ता” उधारी से कमाना बंद हो रहा है
तेरे लिए दर-ए-अहाना बंद हो रहा है
तेरी यादों में आना-जाना बंद हो रहा है।
दिलजला
दिल्लगी तो की थी दिलजला नहीं हूँ
तूफान कोई अंदर है जलजला नहीं हूँ
नहीं आता मुझे फब्तियाँ कसना सरेराह
आशिक़ तो हूँ मगर मनचला नहीं हूँ
मैंने भी ठोस होने की कोशिश की थी
कोई नदी-सा बहता कलकला^ नहीं हूँ।
(कलकल सरिता प्रवाह)
एक बार धोखा मिला, चलो जीवन है
अनवरत चलने वाला सिलसिला नहीं हूँ
मेहनत करते-करते रंगत घिस गयी
सख़्त हो चुका हूँ मलमला^ नहीं हूँ
(अत्यंत नाज़ुक)
कितने कमल सहेजे मगर दलदला नहीं हूँ
“उड़ता” दिल्लगी तो की दिलजला नहीं हूँ।
पति-पत्नी मनुहार
मैं जब आऊँ, थोड़ा मुस्कुरा दिया करो।
थकान उतर जाती है, ज़रा हँसा दिया करो।
तुमसे तो हर वजय मुझे सम्बल^मिलता है, (सहारा)
हो सके तो मुझसे तकरार ना किया करो।
अपने बीच-रिश्तों में खामोशियाँ ग़लत हैं,
जब भी दिल करे फ़ोन मिला लिया करो।
अकेले मेरे बोलने से वार्ता मुकम्मल^नहीं। (संपूर्ण)
तुम भी बोला करो, न अल्फाज़^सिंया करो। (शब्द)
तेरे लिए कुछ भी मुझे करना मंजूर है,
किसी बच्चे की मानिंद^ थोड़ा हिया^करो।
(की तरह, दिल से लगाना)
“उड़ता” वशीभूत^ हो प्रेम-घूंट पिया करो। (अधीन)
कहीं गुजर ना जाए ये जीवन निया^ करो।
(उज्ज्वल, अच्छा उद्देश्य) ।
ताराज क्या है
बदलता मौसम, मिज़ाज़ क्या है।
यहाँ तेरे शहर का रिवाज़ क्या है।
वक़्त कैसे सरपट दौड़ रहा है।
मेरा कल था क्या, आज क्या है।
तहज़ीब^की बंदिशों में क़ैद हूँ मैं, (सभ्यता)
मुझे रोकने वाला समाज क्या है।
चूर होकर रेत-सा गिर रहा हूँ,
मेरा हाल इतना, नासाज़^क्या है। (कमजोरी, सुस्ती)
साँझ ढले घर जाने में डर लगे है,
तंग गलियों में ऐसा ताराज^क्या है। (लूटपाट)
ध्वनि निकले “उड़ता” साज़^क्या है। (बाज़ा)
संगीत-सा सुन रहा, आवाज़ क्या है।
ईश्वर की बेटी
कोमल सुकुमार-सी खेती है
बड़े नाजों^ से हेती^ है। (चाव से, पालना)
तुमको पाकर धन्य हुआ मैं
तू तो ईश्वर की बेटी है।
तुमसे पहले कुछ भी न था
जीवन मुश्किल लगने लगा था
आयी तू, ज्यों लक्ष्मी की पेटी है
तू तो ईश्वर की बेटी है।
मुझे तुमपर गर्व होता है
तू लाखों में एक सुता^ है। (बेटी)
तुम्हें देख आँखें चेती^ है। (जागना)
तू तो ईश्वर की बेटी है।
समाज ने मुझको रोका था
अदनी^ सोच ने टोका था। (छोटी)
मैंने ना माना ये नेति^ है। (यह अर्थपूर्ण नहीं)
तू तो ईश्वर की बेटी है
तेरी चाह ब्रह्माण्ड अधूरा करती है
तू मेरा परिवार पूरा करती है
तू मेरे हक़ की बात कहती है
“उड़ता” वह ईश्वर की बेटी है।
मोहताज़ हुआ हूँ
चंद सांसों का मोहताज़ हुआ हूँ।
ख़ामोशी में अल्फाज़ हुआ हूँ।
मीलों तक उड़ना चाहता हूँ।
पंख कटा कोई बाज़ हुआ हूँ।
शिकन^ नहीं कोई हालात से। (शिकायत)
अपने हुनर का जांबाज़ हुआ हूँ।
अपनी ही शर्तों पर ज़िया हूँ,
ज़माने में बड़ा सरफ़राज़^हुआ हूँ। (सम्मानित)
किसी इंतज़ार में कटी ज़िन्दगी,
बीता कल क्या आज हुआ हूँ।
“उड़ता” खुला नहीं वह राज़ हुआ हूँ
अपनी तन्हाई की आवाज़ हुआ हूँ।
बेटी… जब तुम
मैं कितना ख़ुश हुआ
जब तुम
आयी थी इस दुनिया में
तुम्हार नन्हे-कोमल हाथ
मुझे आनंदित कर रहे थे
जैसे तुम मुझे शुक्रिया कह रहीं।
तुम्हारे आने के बाद
मुझे ज़रूरत ना रही
किसी दूसरे खिलोने की।
मेरा परिवार तुमसे पूरा हो गया
मैंने भी जीने का सलीक़ा सीखा
कदम-कदम पर तुम मेरा बेटा बनी
और मुझे गर्व का
एहसास कराया तुमने।
डरता हूँ उस पल को सोचकर
जब तुम्हारी रुख़सती होगी
कोई गैर ले जाएगा तुम्हें
डोली में बैठाकर।
शायद मैं रुक ना सकूंगा…
लेकिन यही हमारी संस्कृति है।
बस मैं तुमसे इतना मांगता हूँ
“उड़ता” अगले जन्म भी तुम
मेरी बेटी ही बनना।
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल “उड़ता”
७१३ / १६, झज्जर (हरियाणा)
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