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मरघट
ताल पाल की ओट में था मरघट
दुखी हो के वह सिसक रहा था
आए दिन अपने वक्ष स्थल पे
तीव्र ताप को वह सह रहा था
एक दिन था वह विश्राम क्षणों में
देखा मैने उसे बड़ा अनमना
कह रहा था वह दबी ज़बान से
मैं सह नहीं सकता यह ताप घना
कितने ही स्थूल आए मेरे यहाँ
वे शून्य बन कर चले गए
भस्मी ही बची रह गई उनकी
उनके परिजन भी उनको भूल गए
पर वह नहीं भूला उन पलों को
जब वह ताप के मारे तड़फ उठा था
कभी न आए कोई उसकी गोद में
उसका दिल भी यह कह उठा था
मेरे यहाँ स्वान सूंघते है आते
थोड़ा रूदन भी वह कर जाते थे
मूषक भी कहाँ थे पीछे रहने वाले
बिलों से आ कूद फांद कर जाते थे
निशब्द हो के वह यह देखता रहता
स्याह राते अनगिनत उसने देखी
निर्जनता में उलुक आवाज़ करके
निस्तबधता की उन्होंने की अनदेखी
सिसकना उसका रुका नहीं था
दिल उसका संताप में विलीन था
नही चाहता था वह बार-बार तपना
अस्तित्व उसका आज बड़ा मलिन था
न कोई उस ओर देखना चाहता
मूंह फेर के राही चैन ले लेते है
जब जल रहा होता है वह मरघट
राहगीर राह अपनी बदल लेते है
तिरस्कार उसका हर कोई करता
वही आता यहाँ जो कोई मरता है
फिर कभी यहाँ से वह न वापस जाता
साक्ष्य के क्षणों को वह धारण करता है
ऐसा अनादर वह सहता ही रहता
जो वह अंतिम विश्राम स्थली बना
कैसे रह पाए वह खुश अपने में
कब ले पाएगा वह सुख का सपना
ऑंखें
ऑंखें कोई अश्क बहाती है
कोई अश्कों को पीती है
ऑंखें ऐसी भी हुआ करती है
जो सतत दर्द संभाले जीती है
दर्द एक-सा है इन आंखों का
पर इल्म है इनका अलहदा
क्या बिगाड़ा है इन आंखों ने
भाग्य में क्या इनके यही बदा
दर्द दिए जाता है कोई किसी को
दर्द सहता वह चला जाता है
रोने नहीं दिया जाता उसको
वो आंसू भी बहा नहीं पाता है
जिनको होती तन की पीड़ा
या फिर हो मन की पीड़ा
दर्द बड़ा होता है उनको
जैसे काट रहा उन्हे कोई कीड़ा
विरह वेदना में ये ऑंखें
रह रह के रोए जाती है
अश्कों का दरिया बह उठता
छवि आनन की खोए जाती है
गम का आब लेकर ऑंखें
वो अपने अश्को को पीती है
गम भुलाए न भूला जाता
ये ऑंखें सपनो से भी रीती है
आंसुओं का बहना रुकता नही
जब दुःख वहाँ हाज़िर होता है
अश्क अपनी जगह छोड़ के
बहने को आतुर होता है
जब पति कमाने दूर है जाता
या सीमा की रक्षा में तैनाती है
इनकी इंतजारी में भार्यायों की
ऑंखें भी भर-भर आती है
रोना मन का, रोना तन का
रोना तो रोना ही होता है
ऑंखें तो बस साधन बनती
अश्कों का अस्तित्व हो आता है
अश्कों का संसार सजा के
ये ऑंखें जगत में जीती है
ऑंखें कोई अश्क बहाया करती
कोई अश्कों को पी लेती है
दिल मेरा संभल जाए
बड़ी कोशिश में रहता हूँ मैं
कि दिल मेरा संभल जाए
तड़फन को धकेलता रहता हूँ मैं
कि कहीं दिल मेरा धड़क न जाए
प्यास लगी है मुझे तेरे इश्क़ की
तू मुझको अपना प्यारा बनाले
तेरा प्यार जब तक मिलेगा नही
पड़े होंगे मेरे जीवन के लाले
पहचान हो जाये दिली तेरी
मेरा वजूद तुझमे ढल जाए
कोशिश यही मैं कर रहा हूँ
कि दिल मेरा संभल जाए
भूख सह लूंगा मैं तुझे चाह के
पर तेरी प्यास को मैं कैसे बुझाऊँ
जब तक दीदार तेरा मुझको न हो
मेरी आंखों को मैं कैसे समझाऊँ
एक बार रहम करदे तू मुझपे
कि तेरा मेरा एकाकार हो जाए
बड़ी कोशिश में रहता हूँ मैं
कि दिल मेरा संभल जाए
बहुत कोशिश की थी मैंने
बहुत कोशिश की थी मैने
तेरी तस्वीर उकेरने की
कुची ही चुक गई वक़्त न रहा
खेँची लकीरों में रंग भरने की
कूची थमाई थी तूने मेरे हाथो में
रंग भी तूने मुझे सौंप दिए थे
अहसान भी न चुका पाया मैं तेरा
सोचे सारे सपने भी टूट गए थे
इंतजार में ही बस लगा रहा मैं
अपने को पल-पल में मरने की
बदरंगो की बस्ती में चला गया था मैं
सोच ही गुम हो गई, मेरे निखरने की
ढहने को आया है अब मेरा घर
खंडर तो वह पहले ही हो चुका है
चाहना थी ज़रूर तेरे दीदार करने की
पर आत्मानंद ही मुझसे दुर हो चुका है
हालत अब तन की कतई न रही
तेरे चरणों में शीश अपना धरने की
बहुत कोशिश की थी मैंने
तेरी तस्वीर उकेरने की
आदमी की आवाज़
आदमी को आज यह क्या हो गया
आदमियत को ही वह भूल गया
जो दर्द से जब दुखी हो रहा था
उसको सान्त्वना देना भी भूल गया
आदमी ही आदमी को दबाने लगा
उसका हक़ भी आज वह छीनने लगा
थोड़ी बहुत साँसें जो बची रह गयी थी
आज आदमी उसे भी छीनने लगा
आदमी की आवाज़ उसे अच्छी न लगती
वो ख़ुद खूंखार हुए जा रहा है
कोई जगह भी ऐसी छोड़ न रहा वह
हर जगह पर खून की नदी बहा रहा है
अपने अस्तित्व का भी उसे ख़्याल न रहा
अपने सारे कर्तव्यों को भी भूल गया
आदमी को आज यह क्या हो गया
आदमियत को ही वह भूल गया
अपना समझे आदमी, आदमी को
ईश्वर ने दी जो ज़मीं आदमी को
रखवाली उसकी करनी है आदमी को
मालिक नहीं है आदमी, ज़मीं का
इस सच को मानना पड़ेगा आदमी को
बहुत सारा द्रव्य दिया है ईश्वर ने
उसका सदुपयोग करना है आदमी को
संग्रह नहीं करना है कभी इनका
खुद संग पूरी करनी है दूजों की कमी को
साधन सुविधाएँ जो मिली है ईश्वर से
अकेले ही उपभोग न करना है आदमी को
ईश्वर ने दी है जो यह अनुपम भेंट उसको
उपभोग सब संग करना है आदमी को
परस्पर आदमी अपने को पराया न समझे
अपना ही समझे आदमी, आदमी को
बिगड़ भी गया है अगर कोई आदमी
सुधारना है उसे जमी के ही आदमी को
ईश्वर की संताने है सभी ज़मीं के आदमी
समान समझे हर सब हिस्से की ज़मीं को
मालिक नहीं है आदमी ज़मीं का
इस सच को मानना पड़ेगा आदमी को
रानी बिटिया
चिंजी तुम चिंरजीवी रहो
कोई कोख में तुमको न मारे
तुम आयी हो घर की खुशियाँ लेके
आज खुश है तुम्हारे परिजन सारे
जिस आँगन में जन्म लिया है
वो आँगन तुमसे आनन्दित है
तुम खुशियाँ लायी हो जन्म लेकर
परिवार में आज सभी मुदित है
तू मात पिता की है रानी बिटिया
जैसे है तेरे और भाई दुलारे
चिंजी तुम चिंरजीवी रहो
कोई कोख में तुमको न मारे
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
तुम भी सुनो चिंजी ये नारे
पढ़ लिख के तुम योग्य बनो
और हौसले तुम्हारे कभी न हारे
बालक से बढ़ कर है ललना
छू सकती है वह चाँद सीतारे
चिंजी तुम चिंरजीवी रहो
कोई कोख में तुमको न मारे
मुश्किल से मिलता है
मुश्किल से मिलता है आदमी का तन
इससे बड़ी मुश्किल है बनने में आदमी
सारे बुरे कामों से मुँह मोड़ना होगा
प्रपंचों से भी दूर भागना होता है लाजिमी
चोला भले पहना उसने आदमी का
चेहरे से भी लगना चाहिए आदमी
दिल दरिया हो उसका आदमियत के लिए
सही मायने में तभी दिखेगा वह आदमी
फूट पड़े अंग-अंग में प्रेम उसके
प्राणियों से प्रेम की न रहे उसमे कमी
आदमी रहेगा जब बनकर के आदमी
कभी बोझिल न रहेगी उससे ज़मीं
जो न दे किसी को कभी तकलीफ
बांटता रहे ख़ुशी वही तो है आदमी
मुश्किल से मिलता है आदमी का तन
पर बड़ी मुशिकलात है बनने में आदमी
रमेश चंद्र पटोदिया ‘नबाव’
प्रतापनगर सांगानेर जयपुर
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