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दर्द के फूल
दर्द के फूल हमें और इनायत करने
कुछ लम्हें रोज़ ही आते हैं शरारत करने
याद आते हैं वह मेहराब के जलते दीपक
अश्क़ आते हैं मिरे दिल की इमामत करने
बूढ़े पेड़ों को जो आंगन में लगा रखा है
बुलबुलें आती हैं घर मेरे ज़ियारत करने
रोज़ साइल की मिरे घर पर सदा आती है
माल तक़सीम में मुन्सिफ़ की शिक़ायत करने
रोज़ सुर्ख़ी मिरे बच्चों की डरा देती है
रोज़ आता हूँ हुक़ूमत से बग़ावत करने
मैं कहीं यार जफा़दार न कह दूं उसको
ख़ुद तबीयत मिरी आती है हिमायत करने
शाह ज़ाहिद है के ईमान को दौलत कहकर
घर को आ जाता है जन्नत की सियासत करने
बिन पंखों के
बिन पंखों के सुबह सवेरे मैं उड़ने लग जाऊँ
मन करता है बच्चा बनकर मैं पढ़ने लग जाऊँ
छुप जाऊँ माँ के आंचल में अपनी आंखें मींचे
मां पुचकारे मुझे दुलारे मैं डरने लग जाऊँ
मन के आंसू माथे की ड्योरी और पलकें कुछ भारी
मां बाबू के दुखड़े सारे मैं हरने लग जाऊँ
दुआ मिली है अन गिन तोहफ़े और तक़दीर सलामत
कोई ग़ैबी शय थामे जब मैं गिरने लग जाऊँ
उछलूं कूदूं शोर मचाऊँ बिन बात हंसू मैं गाऊँ
मन करता है बच्चा बनकर मैं उड़ने लग जाऊँ
ख़ुद की यादों में
ख़ुद की यादों में बसे घर की तरह रहते हैं
ख़ाली पिंजरे में तसव्वुर की तरह रहते हैं
अपने रंगों से ही बे रंग हुनर की मानिंन्द
जाने तस्वीर मुसव्विर की तरह रहते हैं
हम न अपने हैं न उनके हैं न तेरे मेरे
अपने घर में ही मुहाजिर की तरह रहते हैं
खु़द के ख़्वाबों को तराशा है मिटाया ख़ुद ही
दौरे मिन्हा जिये आज़र की तरह रहते हैं
हक़ के तशना भी हैं सीधे हैं के सच्चे भी हैं
हम नज़र में किसी क़ाफर की तरह रहते हैं
शहाब उद्दीन शाह क़न्नौजी
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