Table of Contents
जलियांवाला बाग
जलियांवाला बाग सुनाता: अख्तर अली शाह
अमर शहीदों ने खूं से जो,
लिखदी उसी कहानी को।
जलियांवाला बाग सुनाता,
डायर की मनमानी को॥
ब्रिटिश हुकूमत ने जब हमपर,
रौलट एक्ट लगाया था।
स्वतंत्रता के मतवालों को,
नहीं एक्ट वह भाया था॥
उसका ही विरोध करने को,
सभा एक बुलवाई थी।
जनरल डायर को लेकिन वो,
फूटी आँख न भाई थी॥
महंगा पड़ा मगर उसको भी,
करना इस नादानी को।
जलियांवाला बाग सुनाता,
डायर की मनमानी को॥
शांत सभा पर चली गोलियाँ,
कत्लेआम हजारों का।
भला नहीं यह काम विश्व ने,
माना था हत्यारों का॥
तब चूलें अंग्रेज़ी शासन,
की डोली तमछाया था।
आजादी के सूर्योदय का,
समयनिकट यूँ आयाथा॥
और अंततः हुए स्वतंत्र हम,
हराके दुश्मनजानी को।
जलियांवाला बाग सुनाता,
डायरकी मनमानी को॥
वाहक “अनंत” समरसता का,
था उधमसिंह निर्भीकमना।
तीनों धर्म जोड़ने को ही,
राम, मोहम्मद, सिंह बना॥
उसने ही तब दो गोली से,
‘ओ’ डायर को मारा था।
भारत माता के जायों की,
बना आँख का तारा था॥
भुला न पाएंगे सदियों तक,
हम उसकी कुर्बानी को।
जलियांवाला बाग सुनाता,
डायरकी मनमानी को॥
सुख के नगमे ही गाए हैं
जीवन लक्ष्य रखा आंखों में हमने बस,
इसीलिए सुख के नगमे ही गाए हैं।
वक्त चाल से अपनी ही चलता हरपल,
हमको तो बस अपने फ़र्ज़ निभाने थे।
जैसा आया मौसम भोग लिया हमने,
आलस ने पर ढूँढे कई बहाने थे॥
अपने मन का होतो सुख नाहो तो दुख,
मन पर अंकुश ने ही सुख बरसाए हैं।
जीवन लक्ष्य रखा आंखों में हमने बस,
इसीलिए सुख के नग्में ही गए हैं॥
अलविदा बीस, इक्कीस विदाई देता है,
नहीं शिकायत तुमसे तुम इतिहास बने।
याद करेंगे लोग तुम्हें ना भूलेंगे,
वे सारे तुम जिनके खातिर ख़ास बने॥
कुछ व्यक्ति भगवान बने जीवन देकर,
कुछ ने सेवा कर जीवन उजलाए हैं।
जीवन लक्ष्य रखा आंखों में हमने बस,
इसीलिए सुख के नगमे ही गए हैं॥
घर में रहकर जीने का आनंद लिया,
छोड़ी भागम भाग तो राहत पाई है।
काम “अनंत” दूसरों के आए तब ही,
दूर गई दुखदर्दो की परछाई है॥
जनहित सेजो भटकगए रहबर अपने,
सदमें, ऐसो ने ही बहुत उठाएँ हैं।
जीवन लक्ष्य रखा आंखोंमें हमने बस,
इसलिए सुख के नग्में ही गाए हैं॥
मानव से मानव को जोड़े
नफरत की दीवारें तोड़ें।
मानव से मानव को जोड़ें॥
यकसांखून बनाया सबका,
यकसां जान बनाई है।
स्वीकारें ये इसमें लोगों,
सबकीछिपी भलाई है॥
हमको जन्म मिलायूं प्यारा,
जनजन को दें सदा सहारा।
जितने भी प्राणी हैं जग में,
दर्जा सबसे अलग हमारा॥
कोई भी हम मज़हब माने।
मानवता के सभी खजाने॥
कभीकिसीमें वैरभाव की,
दिखी नहीं परछाई है।
स्वीकारें ये इसमें लोगों,
सबकीछिपी भलाई है॥
प्यार सिखाते हैं सबमजहब,
नफरतकिसनेसिखलाईकब।
किसने दर्द नहीं समझा है,
पैरोंकार दया के हैं सब॥
पर पीडा को कौन बढ़ाता।
हिंसा से किसका है नाता॥
धरती पर दुख कैसे कम हों,
सबनेअलख जगाईहै।
स्वीकारें ये इसमें लोगों,
सबकी छिपी भलाई है॥
हम मज़हब के लिए नहीं हैं,
कहो नहीं क्या बात सही है।
हमें ज़रूरत मज़हब की तो,
अपने हित के लिए रही है॥
कैसे जीवन अपना तारें।
दीनो दुनिया यहाँ संवारें॥
ठेकेदारों के ग़र मोहरे,
बनें बहुत दुखदायी है।
स्वीकारे ये इसमें लोगों,
सबकीछिपी भलाई है॥
मनके अलग एक माला है,
प्याले अलग एक हाला है।
“अनंत” राहें अलगअलगपर,
मंजिल पर रब रखवाला है॥
जब जैसी थी जहाँ ज़रूरत।
पैगम्बर लाए वह रेहमत॥
रेहबर इंसानों के खातिर,
आए ये सच्चाई है।
स्वीकारें ये इसमें लोगों,
सबकीछिपी भलाई है॥
हम अशक्त क्या इसीलिए हैं
हम अशक्त क्या इसीलिए हैं,
के कर्मों का फल भोगें।
अगर ये सच है बिना देर के,
हम सतपथ पर आ जाएँ॥
परम पिता है पिता हमारा,
दूर नहीं वह रहता है।
सतपथ पर चलने की लोगों,
हरपल हमसे कहता है॥
लंबी आयु है परिपक्वता,
सब पर शासन करती है।
स्वागत करती है मृत्यु का,
हंसते-हंसते वरती है॥
अनायास जब परेशानियाँ,
आकरके विचलित करदें।
वृद्धावस्था भार लगे तो,
तोबा करें सुकूं पाएँ॥
हम अशक्त क्या इसीलिए हैं,
के कर्मों का फल भोगेंं।
अगर ये सच है बिना देर के,
हम सतपथ पर आजाएँ॥
अगर पाप कर ही बैठे हैं,
दंडो से क्या डरना है।
कर्ज लिया यदि कोई हमने,
ब्याज सहित वोभरना है॥
होकर के निष्पाप जाएंगे,
बस ये अपना भाव रहे।
धैर्य रखें न कोसे रब को,
ना कोई दुर्भाव रहे॥
उसकी इच्छा है निर्मल हम,
रहे लगे अच्छा उसको।
सजानहीं ये सबक मानकर,
बस उसकेही गुणगाएँ॥
हम अशक्त क्या इसीलिए हैं,
के कर्मों का फल भोगें।
अगर ये सच है बिना देरके,
हम सतपथ पर आजाएँ॥
शुक्र करें कि उसने हमको,
पाला पोसा बड़ा किया।
ये अमूल्य जीवन देकर के,
जीवनरण में खड़ा किया॥
सत कर्मों की राह दिखाई,
इन हाथों से काम लिया।
बदले में सुख वैभव देकर,
गिरते गिरते थाम लिया॥
अब भी तारणहार हमारा,
“अनंत” वह ही थामेगा।
उसकी राजी में राजी हो,
स्नेहसुधा हम बरसाएँ॥
हम अशक्त क्या इसीलिए हैं,
के कर्मों का फल भोगें।
अगर ये सच है बिना देर के,
हम सतपथ पर आजाएँ॥
किसानों के हमदर्द
कब तक कहोगे कर रहे हैं हम सितम यहाँ।
सबसे बड़े किसानों के हमदर्द हम यहाँ॥
हम जयजवान जयकिसान कहेंगे शान से।
आते हैं हम भी हलधरों के ख़ानदान से॥
प्यारे हैं सभी आप हमें अपनी जान से।
परखेगें मगर अपने ही चश्मे से ज्ञान से॥
कबतक कहोगे कर रहे हैं हम सितम यहाँ।
सबसे बड़े किसानों के हमदर्द हम यहाँ॥
कीचड़ से निकालेंगे करो मत उधम, सुनो।
खेती परंपरा की नहीं रखती दम, सुनो॥
मतरोको रास्तों को नहीं हमभी कम सुनो।
कानून को हाथों में न लो बन अधम सुनो॥
कबतक कहोगे कर रहेहैं हम सितम यहाँ।
सबसे बड़े किसानों के हमदर्द हम यहाँ॥
तुम टूट चुके क्या करोगे और बिखर कर।
रोते रहे कम कीमतों को ले इधर-उधर॥
खेती नहीं है लाभ का धंधा चलो शहर।
पक्के मकान देंगे तुम्हें चैन उम्र भर॥
कबतक कहोगे कर रहेहैं हम सितम यहाँ।
सबसे बड़े किसानों के हमदर्द हम यहाँ॥
धनवान देंगे अब तुम्हें आराम सोच लो।
शहरों में कोई अपने लिए काम सोच लो॥
पढ़लिखके कियाकरते बच्चे नाम सोचलो।
हमको न करो बेवजह बदनाम सोच लो॥
कबतक कहोगे कर रहेहैं हम सितम यहाँ।
सबसे बड़े किसानों के हमदर्द हम यहाँ॥
फसलोंकी सहीकीमतें कब पास के बोलो।
क्यों बंद जुबां हो गई है तनिक तो खोलो॥
अच्छा नहींहै साथ किसी केभी तुम होलो।
मौका मिला तो हाथ आज गंगा में धो लो॥
कबतक कहोगे कर रहेहैं हम सितम यहाँ।
सबसे बड़े किसानों के हमदर्द हम यहाँ॥
कानून बन गया है तो सम्मान करो तुम।
बन राष्ट्रभक्त रहबरों का मान करो तुम॥
आदोलनों का मार्ग तजो ध्यान करो तुम।
तरकश में रखो तीर न संधान करो तुम॥
कबतक कहोगे कररहे हैं हम सितमयहाँ।
सबसे बड़े किसानों के हमदर्द हम यहाँ॥
खाद्यान्न की जगह पर कैश क्रॉप लाएंगे।
पैसा बढ़ेगा बच्चे मिठाईयाँ खाएंगे॥
होगा जो अन्न कम अधिक मूल्य पाएंगे।
आराम से सहन में हुक्के गुड़ गुड़ाएंगे॥
कबतक कहोगे कररहे हैं हम सितमयहाँ।
सबसे बड़े किसानों के हमदर्द हम यहाँ॥
संग्रह के लिए सीमा नहीं ख़ूब भरो माल।
पैसा कमा-कमा के करो ज़िन्दगी निहाल॥
परमिट पर नहीं होगा किसी मंडीमें सवाल।
अब रखनेवाला दम ही दिखाएगा कमाल॥
कबतक कहोगे कर रहे हैं हम सितम यहाँ।
सबसे बड़े किसानों के हमदर्द हम यहाँ॥
कानून ले लो हाथ में किसने दिया है हक।
कब तक यूंही चलेगी निराधार ये बकबक॥
“अनंत” समझ जाएँ ये हद होती है हदतक।
सागर में रह के बैर मगरमच्छ से घातक॥
कब तक कहोगे कररहे हैं हम सितम यहाँ।
सबसे बड़े किसानों के हमदर्द हम यहाँ॥
बिन बदले किरदार
रोज उठालें क़सम भले हम,
क्या शरीफ़ कहलाएंगे।
बिनबदले किरदार सुफलक्या,
बोलो खाने पाएंगे॥
ऊपर का जो गंदा जल है,
नीचे तक तो आना है।
लोभ और लालच के तल मे,
करता सदा ठिकाना है॥
ऊपर से नीचे आने में,
कौन साधना करता है।
राजा की देखा देखी कर,
मंत्री भी घर भरता है॥
वो ‘सरकारीमुगल’ बने जब,
सुविधाशुल्क चखें हमभी।
परंपरागत जीवन शैली,
से क्या बाहर आएंगे॥
रोज उठालें क़सम भले हम,
क्या शरीफ़ कहलाएंगे।
बिनबदले किरदार सुफलक्या,
बोलो खाने पाएंगे॥
भ्रष्टाचारी दानव ने घर,
बनालिया है घरघर में।
चाहे हो सचिवालय में या,
थानों में या दफ्तर में॥
सबके सिर पर ये सवार है,
करता अपनी मनमानी।
लोगों की मजबूरी में हो,
जाती इसको आसानी॥
नींव चरित्र की पहले पड़ती,
और बेख़बर इससे हम।
सदाचार के दीपक आँधी,
से कैसे टकराएंगे॥
रोज उठालें क़सम भले हम,
क्या शरीफ़ कहलाएंगे।
बिनबदले किरदार सुफलक्या,
बोलो खाने पाएंगे॥
भ्रष्टाचार “अनंत” आज तो,
कहलाता है शिष्टाचार।
नंगा सम्मानित शहरी बन,
करता है देखो व्यवहार॥
बिन मेहनत घर भरने वाला,
समझदार कहलाता है।
धुंध विवेक पर छाई हो तो,
नजर कहाँ कुछ आता है॥
अपनी कमजोरी गैरों के,
सिर थोपें क्या अच्छा है।
‘वक्तऐसा है’ कहकर कबतक,
खुद को हम बहलाएंगे॥
रोज उठालें क़सम भले हम,
क्या शरीफ़ कहलाएंगे।
बिनबदले किरदार सुफलक्या,
बोलो खाने पाएंगे॥
किसको दर्पण दिखा रहा हूँ
कहता हूँ नाचीज स्वयं को,
रुतबा कितना जता रहा हूँ।
किस पर करता हूँ घमंड मैं,
किसको दर्पण दिखा रहा हूँ॥
मैं किस खेतकी मूली हूँ जो,
अपना भाव बढ़ाया मैंने।
कोल्हू का हूँ बैल फ़क़त मैं,
पका पकाया खाया मैंने॥
क्यों हज़ार का नोट बना मैं,
भार बदन का बढ़ा रहा हूँ।
किस पर करता हूँ घमंड मैं,
किसको दर्पण दिखा रहा हूँ॥
अपनी मर्जी से ना जन्मा,
नहीं मरण हाथों में मेरे।
क्यों अंगारे उगल रहा हूँ,
हैं अंधियारे मुझको घेरे॥
क्यों घमंड है इतना मुझको,
क्या सूरज का सगा रहा हूँ।
किस पर करता हूँ घमंड मैं,
किसको दर्पण दिखारहा हूँ॥
खुद अपनीतारीफ करूं क्यों,
क्या चरने को अकल गई है।
गंदे कतरे से यह जीवन,
है लोगों क्या बात नई है॥
क्यो आकाश उठाके सिर पे
सबको उल्लू बना रहा हूँ।
किस पर करता हूँ घमंड मैं,
किसको दर्पण दिखा रहा हूँ॥
उंगली पकड़ेबिना चला कब,
कंधों पर ले जाए कोई।
भूख पेट को जबजब लगती,
खाना मुझे खिलाए कोई॥
नाम लिखा दाने-दाने पर,
मैं क्यों दानी कहा रहा हूँ।
किस पर करता हूँ घमंड मै,
किसको दर्पण दिखा रहा हूँ॥
क्यों अभिमान मुझे डसता है,
क्यों “अनंत” छलती है माया।
मैं खाकी हूँ, नाशवान हूँ,
क्योंये अबतक समझनपाया॥
मैं हूँ फ़क़त भीड़ का रेला,
रब की ढपली बजा रहा हूँ।
किस पर करता हूँ घमंड मैं,
किसको दर्पण दिखा रहा हूँ॥
घर-घर दीप जलाएँ हम
ज्योतिर्मय जग कर दें तो सुख पाएँ हम।
आओ मिलकर घर-घर दीप जलाएँ हम॥
दीप जलाएँ मेटें मिलकर अंधियारे,
रोशन कर दें अवनी अम्बर हम सारे।
ये त्यौहार नहीं है सिर्फ़ अकेले का,
याद उन्हें भी रक्खें जो हैं दुखियारे॥
उनको भी खुशियों में भागीदार करें,
पल खुशियों के आए भूल न जाएँ हम।
ज्योतिर्मय जग कर दें तो सुख पाएँ हम,
आओ मिलकर घर-घर दीप जलाएँ हम॥
सुख बांटो तो कई गुना बढ़ जाता है,
रगरग से ये स्नेहसुधा बरसाता है।
इंसानों की एक अलग पहचान रही,
मिलजुल करके खाना इनको आता है॥
हम दानव के वंशज नहीं न दानव हैं,
इंसां हैं, ये इसां को समझाएँ हम।
ज्योतिर्मय जग कर दें तो सुख पाएँ हम,
आओ मिलकर घरघर दीप जलाएँ हम॥
धन प्रकाश का सुन्दरता का वर ले लें,
लक्ष्मी माता से अपने ज़ेवर ले लें।
विजय न्याय की होती है विश्वास करें,
अन्यायी का उठें उतारें सर ले लें॥
सहने से भी मदद हुई है ज़ालिम की,
इस जज्बे को फिर परवान चढ़ाएँ हम।
ज्योतिर्मय जग कर दें तो सुख पाएँ हम,
आओ मिलकर घर-घर दीप जलाएँ हम॥
“अनन्त” साधन हीनों को साधन दें हम ।
रोजगार देकर आनन्दित मन दें हम।
परेशान जो सर्दी गर्मी बारिश में,
पोषण कर पाएँ इतना तो धन दें हम॥
खूब उड़ाएँ पैसा अपनी मौजों पर,
उनके जख्मों को भी तो सहलाएँ हम।
ज्योतिर्मय जग कर दें तो सुख पाएँ हम,
आओ मिलकर घर-घर दीप जलाएँ हम॥
विश्वयुद्ध पानी की खातिर
दिन दिन पानी घटता जाता,
कहाँ कहाँ से लाओगे।
विश्वयुद्ध पानी की खातिर,
हुआ अगर पछताओगे॥
तरस रहा हर घर पानी को,
बरबादी ये लाएगा।
मीलों दूर से पानी लाना,
कितने दिन चल पाएगा॥
जलबिन मछली-सा जीवन तुम,
क्या बोलो जी पाओगे।
विश्वयुद्ध पानी के खातिर,
हुआ अगर पछताओगे॥
भू जल नीचे सतत जा रहा,
रोको कुछ उपचार करो।
अरे मतलबी लोगों समझो,
मत पैरों पर वार करो॥
पानी को पाताल भेजकर,
कब तक ख़ुशी मनाओगे।
विश्वयुद्ध पानी की खातिर,
हुआ अगर पछताओगे॥
पानी खेतों में रोको तुम,
गांव गाँव तालाब बनें।
पेड़ लगाओ घर-घर में सब,
जंगल करदो ख़ूब घनें॥
जब बादल बरसात करेंगे,
तब धरती हरियाओगे।
विश्वयुद्ध पानी के खातिर,
हुआ अगर पछताओगे॥
मौसम का दिनरात बदलना,
है सबको ललकार रहा।
जल जंगल का दोहन भारी,
देखो कोप उतार रहा॥
इस गुस्से को शांत करोगे,
तो खुशियाँ घर लाओगे।
विश्वयुद्ध पानी के खातिर,
हुआ अगर पछताओगे॥
जितनी लगे ज़रूरत उतना,
पानी लोगों ख़र्च करो।
नहीं निकालो हद से ज्यादा,
भूजल करते पाप डरो॥
अगर नहीं पापी कहलाए,
तो चेहरे उजलाओगे।
विश्वयुद्ध पानी के खातिर,
हुआ अगर पछताओगे॥
असंतुलित विकास की आंधी,
तुमको कहीं ना छोडेगी।
दौलत से घर भर देगी पर,
तन से लहू निचोडेगी॥
जल जीवन के बिना जिंदगी,
एक दिन नर्क बनाओगे।
विश्व युद्ध पानी के खातिर,
अगर हुआ पछताओगे॥
बूंद बूंद पानी का संचय,
करो ये पानी जीवन है।
बचत करो इससे अच्छा तो,
नहीं कहीं कोई धन है॥
इस धन की तुम कद्र करोगे,
तो “अनंत” तर जाओगे।
विश्वयुद्ध पानी के खातिर,
हुआ अगर पछताओगे॥
बेबस पंछी ना कट जाएँ
चीनी मांझे हत्यारे हैं,
उन्हें कदापि ना अपनाएँ।
याद रखें चीनी मांझों से,
बेबस पंछी ना कट जाएँ॥
आज मकर संक्रांति है तो,
तिल गुड़ के हम लड्डूखाएँ।
गुल्ली दंडा खेलें या फिर,
मनचाही हम पतंग उड़ाएँ॥
ध्यान रखें पर दाना लाने,
पंछी जो आकाश में जाएँ।
उनके जीवन की हम रक्षा,
करें अपाहिज नहीं बनाएँ॥
जो मांझे विपदा बरसाते,
घर बच्चे भूखे मर जाते।
क्योंगुणगान करें उनकाहम,
क्यों खरीद के हम ले आएँ॥
चीनी मांझे हत्यारे हैं,
उन्हें कदापि ना अपनाएँ।
याद रखें चीनी मांझों से,
बेबस पंछी ना कट जाएँ॥
पौष मास में मकर राशि में,
जब सूरज आ जाता लोगों।
फसलों का त्यौहार पर्व ये,
घर-घर रंग दिखाता लोगों॥
खिचड़ी पोंगल येकहलाता,
लोहड़ी नाम सुहाता लोगों।
पूजा की जाती प्रकाश की,
जीवन गीत सुनाता लोगों॥
देसी मांझे अपने मांझे,
उनपे ही विश्वास जताकर।
रंग बिरंगी उड़ा पतंगें,
हम नभ में बेशक इठलाएँ॥
चीनी मांझे हत्यारे हैं,
उन्हें कदापि ना अपनाएँ।
याद रखें चीनी मांझों से,
बेबस पंछी ना कट जाएँ॥
दानपर्व ये दान करें हम,
ये मन में उत्साह जगाता।
भांति भांति के नामों से ये,
दुनिया में पहचाना जाता॥
हम उसके आभारी लोगों,
जोहै “अनंत” सुख का दाता।
परमपिता की अनुकंपा से,
इसकारहा निकट कानाता॥
उसकेआशीषो काशुभदिन,
आया है अपने द्वारे तो।
धरतीसे नभतक खुशियोंके,
इसदिनजब परचमफहराएँ।
चीनी मांझे हत्यारे हैं,
उन्हें कदापि ना अपनाएँ।
याद रखें चीनी मांझों से,
बेबस पंछी ना कट जाएँ॥
क्यों कोरोना के डर से मैं
कोई व्याधि अगर नहीं है,
मुझे जिस्म में मेरे भाई।
क्यों कोरोना के डर से मैं,
टीका लगवाऊँ दुख पाऊँ॥
सिर्फ कल्पना में क्यों घूमूँ,
क्यों वायु में लट्ठ घुमाऊँ।
कल कुछ हो जाएगा ऐसा,
सोचसोच करक्यों मरजाऊँ॥
दूर मूर्त से रहकर के मैं,
क्यों अमूर्तपर करूँ भरोसा।
सिर्फहकीकत की धरती ने,
सद्भावों को पाला पोसा॥
परमपिता सर्वोच्च शक्ति है,
किसकोकिससेबड़ाबताऊँ।
क्यों कोरोना के डर से मैं,
टीका लगवाऊँ दुख पाऊँ॥
मुझे आज में ही जीना है,
कलकीफिक्रभलाक्योंपालूँ।
कलहो नाहो आज उसीकी,
उहापोह में जीवन डालूँ॥
चलते रास्ते वहम करूँक्यों,
सफर करूँ अपना दुखदाई।
अगर बुरा कुछ हो जाए तो,
किस के जिम्मे है भरपाई॥
आ रे बैल मार ले मुझको,
कहकरकेक्योंसम्मुखजाऊँ।
क्यों कोरोना के डर से मैं,
टीका लगवाऊँ दुख पाऊँ॥
वर्षा होना तो निश्चित है,
इसीलिए हम बाँध बनाते।
सर्दी गर्मी से बचने को,
सिर ढकनेको छप्परछाते॥
हार एककी जीत एककी,
होगी यूँ उपहार सजाते।
जहाँ नहीं है गुरु कोईभी,
शिष्यकहाँ उस दरपेजाते॥
“अनंत” अफवाहोंकेचलते,
क्योंकरमैंहथियार उठाऊँ।
क्यों कोरोना के डर से मैं,
टीका लगवाऊँ दुख पाऊँ॥
संघर्षो के नाम किया है
हाथ उठाने वालों की तुम,
लाइन में हमको मत रखना।
हमने जीवन का ये गुलशन,
संघर्षों के नाम किया है॥
ऊपर वाले ने जो हमको,
सोच समझ की दौलत दी है।
अच्छा और बुरा समझें हम,
बुद्धि दी है ताकत दी है॥
हमने कब अपना माना ये,
उसका जीवन उसका माना।
इसीलिए तो सारा जीवन,
संघर्षों के नाम किया है॥
हमने जीवन का ये गुलशन,
संघर्षों के नाम किया है॥
अपमानों के लड्डू पेड़ों,
से इज़्ज़त की रोटी प्यारी।
हमने मेहनत की ख़ुशबू से,
अपनी क़िस्मत सदा संवारी॥
हाथ पसारे नहीं रहे हम,
नहीं मांगकर हमने खाया।
लम्हा लम्हा हर परिवर्तन,
संघर्षों के नाम किया है॥
हमने जीवनका ये गुलशन,
संघर्षों के नाम किया है॥
आग लगाने वालों ने तो,
हरदम आग लगाई बढ़कर।
झुलसाकर अपनेमधुबनको,
हम ने आग बुझाई बढ़कर॥
नहीं देखती आग राह के,
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों को।
हमने सत्य न्यायका आंगन,
संघर्षों के नाम किया है॥
हमने जीवन का ये गुलशन,
संघर्षों के नाम किया है॥
जब जब आलस के जेलर ने,
पांवो में बेड़ी डाली है।
जब-जब इंसानी गरिमा को,
बढ़कर दी उसने गाली है॥
चेतनता की किरणों से तम,
दूर भगाया है पगपग का।
हमने बचपन और युवा मन,
संघर्षों के नाम किया है॥
हमने जीवन का ये गुलशन,
संघर्षों के नाम किया है॥
सारे जग को अपना माना,
दर्द सभी का उर में लाकर।
दिल को कड़ा किया है हमने,
अपमानो के पत्थर खाकर॥
दीप बना कोने-कोने में,
खुदकोसदाजलायातिलतिल।
“अनंत” अपनोंका अपनापन,
संघर्षों के नाम किया है॥
हमने जीवन का ये गुलशन,
संघर्षों के नाम किया है॥
पायल छनक गई
बहुत संभाले रखा मगर अवसर क्या पाया,
चंचल मना वह बावली पायल छनक गई॥
मैं नहीं चाहती मन के, पट धड़कन खोले,
मैं नहीं चाहती पायल, की रुनझुन बोले।
मैं नहीं चाहती सोचो, में हो खलल कोई,
मैं नहीं चाहती प्रीतम, का तन मन डोले॥
पर क्या करती पग फिसला,
बेबस हुए कदम,
सागर लहराया अखियाँ,
मेरी छलक गई।
बहुत संभाले रखा मगर अवसर क्या पाया,
चंचल मना वह बावली पायल छनक गई॥
वो मेरी ही यादों में शायद खोए थे,
मनहर वह ख़्वाब मिलनके कई संजोए थे।
मैं खुशियों की सौगातें लेकर आई थी,
सावन प्यासे अधरों पर साजन बोए थे॥
तड़पी थी मैं आलिंगन,
में उस पल उनके,
दिल बहका मेरा मेरी,
सांसें महक गई।
बहुत संभाले रखा मगर अवसर क्या पाया,
चंचल मना वह बावली पायल छनक गई॥
यूं दर्ज समय के पृष्ठों पर पल हुए विकल,
मन में थी मीठी दोनों तरफ़ बहुत हलचल।
बातें होती थी आंखों की तब आंखों से,
धड़कनें रुकी थी रहती जो अविरल चंचल॥
“अनंत” बदन मरमरी जो,
पिघला शौलों में,
चूड़ियाँ कांच की कर में,
बरबस खनक गई।
बहुत संभाले रखा मगर अवसर क्या पाया,
चंचल मना वह बावली पायल छनक गई॥
क्यों इतना अभिमान करे
क्या दुनिया बिल्कुल अंधी है,
अंधों का सम्मान करे।
कोल्हू का तू बैल फ़क़त है,
क्यों इतना अभिमान करे॥
खाक छानता फिरता है पर,
जमींदार कहलाता है।
ऊँट के मुंह में जीरा जितनी,
दौलत पर इठलाता है॥
शायद चरने अक्ल गई है,
तेरी कब ये मानेगा।
मिट्टी का पुतला है तू तो,
कब क़ीमत पहचानेगा॥
नाशवान दौलत जेबों में,
कैसे अमर बनाएगी।
मर जाने पर तेरी दौलत,
साथ तेरे क्या जाएगी॥
नेक अमल होने पर दुनिया,
युगो युगो तक ध्यान करे।
कोल्हू का तू बैल फ़क़त है,
क्यों इतना अभिमान करे॥
ईट से ईट बजाने वाले,
कब अपना मन बदलेगा।
रंग बदलता गिरगिट है तू,
क्या राहत कोई देगा॥
घात में रहना कब तजकर तू,
लाभ हानि को छोड़ेगा।
कब परहित की राहों से तू,
अपनी राहें जोड़ेगा॥
छप्पर फाड के रब देता है,
पर सुपात्र आवश्यक है।
फख्र करें वह सद्भावो का,
इस दुनिया में वाहक है॥
जो इंसां को इंसां माने,
जग उसका गुणगान करे।
कोल्हू का तू बैल फ़क़त है,
क्यों इतना अभिमान करे॥
जब “अनंत” आँखों का तारा,
तू प्यारे बन जाएगा।
बना नाक का बाल अगर तो,
घर घर इज़्ज़त पाएगा॥
तेरी नेकियों के वर्णन से,
पाक जुबां हो जाएगी।
तेरी रोशनी सूरज बनकर,
सबको राह दिखाएगी॥
कंठ हार बन जाएगा तो,
सिर पर सभी उठाएंगे।
तुझको अपने मन मंदिर में,
लोग सहर्ष बिठाएंगे॥
अमृत को जो बाँटा करता,
देखा है विषपान करे।
कोल्हू का तू बैल फ़क़त है,
क्यों इतना अभिमान करे॥
पत्रकारिता कांधा देती
पत्रकारिता कांधा देती,
कांधों पर अच्छे दिन हैं।
सभी जानते कौन मरा है,
किसकेघर अच्छेदिन हैं॥
कांधों पर लाशें चलती है,
सच ये कौन नहीं जानें।
पर इस सच की सच्चाई को,
अंधे भक्त कहाँ मानें॥
कांधों पर भी हम जीवित हैं,
सत्ताधीश यही कहते।
आ जाएंगे कल वह नीचे,
छप्पर पर अच्छेदिन हैं।
सभी जानते कौन मरा है,
किसकेघर अच्छेदिन हैं॥
सच को सच साबित करने में,
अरे मशक्कत क्यों करना।
नहीं किया अपराध अगर तो,
कहो किसी से क्यों डरना॥
आपस में बंदर लड़वा दो,
बिल्ली बनकर मौज करो।
नगर नगर नफ़रत बरसा दो,
डगर डगर अच्छेदिन हैं।
सभी जानते कौन मरा है,
किसके घर अच्छेदिन हैं॥
सुधरेंगे समझेंगे एक दिन,
धर्म समझ में आएगा।
अंकुश हाथी पर रखने से,
क्याहाथी मर जाएगा॥
सचकोसच कहनेकी हिम्मत,
देश प्रेम है समझें ये।
“अनंत” सारा जग मानेगा,
कहीं अगर अच्छेदिन हैं।
सभी जानते कौन मरा है,
किसके घर अच्छेदिन हैं॥
अख्तर अली शाह ‘अनंत’
नीमच
यह भी पढ़ें-
2 thoughts on “जलियांवाला बाग”