सुशील कुमार नवीन
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अब्बा डब्बा जब्बा नहीं, अब अप्पू टप्पू पप्पू…
चुनावी रंगमंच: वर्ष १९९७ में एक फ़िल्म रिलीज हुई थी। फ़िल्म का नाम था ‘जुदाई’ । मुख्य रोल में थे सुपरस्टार अनिल कपूर और लेडी सुपर स्टार श्रीदेवी। दोनों सुपरस्टारों के साथ जबरदस्त भूमिका में थी रंगीला गर्ल उर्मिला मातोंडकर। जो लोग ४० से बड़ी उम्र के है, अधिकांश फ़िल्मप्रेमियों ने ये फ़िल्म टीवी या सिनेमा में अवश्य देखी होगी। फ़िल्म की कहानी तो उस समय की सुपरहिट थी ही, सो उसकी चर्चा करने की ज़रूरत ही नहीं है। ज़रूरत है फ़िल्म के एक सुपरहिट डायलॉग ‘अब्बा डब्बा जब्बा’ पर चर्चा करने की। मूक बधिर महिला के निभाए गए आइकॉनिक रोल में इस डायलॉग ने उपासना सिंह को रातों रात सुर्खियों में ला दिया था। वैसे आज के समय में उपासना सिंह किसी परिचय की मोहताज नहीं है।
आप भी सोच रहे होंगे कि इस डायलॉग की आज २८ वर्ष बाद अचानक कैसे याद हो आई। तो सुनिए बिहार में गुरुवार ६ नवंबर और ११ नवंबर को चुनाव होना है। बिहार की कुल २४३ सीट पर दो चरण में चुनाव हो रहे हैं। लगभग ७.४३ करोड़ मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। देश की राजनीति में बिहार की बड़ी भूमिका रहती है। इसलिए भाजपा गठबंधन और कांग्रेस गठबंधन जीत के लिए अपना पूरा ज़ोर लगाए हुए है। १२१ सीटों के लिए प्रचार थम चुका है। शेष १२२ सीटों के लिए ९ नवंबर तक आरोप प्रत्यारोपों का दौर जारी रहेगा। ११ नवंबर को द्वितीय चरण के मतदान के बाद परिणाम १४ नवंबर को आयेगा।
अब सीधे मुद्दे पर आते हैं। चुनाव कोई भी हो चटखारे लेने में कोई कर कसर नहीं छोड़ता। मोदी विरोधी हर मंच से जुमलेबाज, वोट चोर तो कहते ही है। साथ में दो चार तंज और भी छोड़ देते हैं। इसी क्रम में कसर मोदी भी नहीं छोड़ते। जहाँ मौका लगता है, वहीं तरकश से तीर छोड़ देते है। इस बार मोदी से ज़्यादा तो यूपी वाले बाबा जी (योगी आदित्यनाथ) चुनावी मैदान में छक्के पर छक्का मारे जा रहे हैं। नया डायलॉग है पप्पू, अप्पू और टप्पू।
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बिहार की धरती से न केवल पटना की राजनीति को नहीं साध रहे, बल्कि दिल्ली तक की विपक्ष की राजनीति को निशाने पर ले रहे हैं॥ हाल ही में उन्होंने बातों-बातों में विपक्ष के तीन बड़े चेहरों पर पप्पू, अप्पू और टप्पू का ऐसा डायलॉग मारा है जो लगातार चर्चा में है। उन्होंने बिना नाम लिए इन तीन चेहरों में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी, सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव और बिहार में विपक्ष के सीएम फेस राजद नेता तेजस्वी यादव को गांधी जी के तीन बंदरों से इनका उदाहरण दिया। उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि आज गांधी जी के तीन बंदरों की तरह बिहार के महागठबंधन में भी तीन बंदर हैं। पप्पू, अप्पू और टप्पू। पप्पू सच बोल नहीं सकता, अप्पू सच सुन नहीं सकता और टप्पू सच देख नहीं सकता। उन्होंने बिना नाम लिए राहुल गांधी, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव पर टिप्पणी करते हुए कहा कि वह तीनों (पप्पू, टप्पू और अप्पू) बंदर न सच देखते हैं, न सुनते हैं, न बोलते हैं। कुछ भी हो डायलॉग जबरदस्त ट्रेंड में है।
खैर जो कहा सो कह दिया। लोकतंत्र में सबको बोलने की आज़ादी है। इन्होंने छक्का मारा है तो मौका लगेगा तो वह भी पीछे नहीं रहेंगे। अथर्ववेद में लिखा गया यह सूक्त आज के समय प्रासंगिक जान पड़ता है।
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥
इसका अर्थ है कि भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर-सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।
पुराने समय की बात करें तो राजनीति में भाषा कभी जन-जागरण का माध्यम होती थी। नेता जो बोलते थे वह मर्यादित बोलते थे। आज ट्रेंडिंग का ज़माना है। ऐसा बोलो कि समाचार पत्रों और टीवी चैनलों की सुर्खियाँ तो बने ही साथ में पब्लिक भी इसे ख़ूब सर्कुलेट करे। यदि ये कहे कि राजनेता आज विचार सर्कुलेट नहीं करते अपितु चुनावी रंगमंच में डायलॉग डिलिवरी करते हैं। किसी नेता के सम्बोधन की जान ‘पप्पू’ है, किसी के लिए ‘चोर’ । थोड़ा आगे बढ़े तो कोई फ्री की रेवड़ी बोल अपना वक्तव्य पूरा कर लेता है तो कोई ठगबंधन। फ्लैश बैक में जाएँ तो किसी समय अटल बिहारी वाजपेयी का ‘हार नहीं मानूंगा’ समर्थकों में जोश से भर देता था। अब जोश भाषण से वही कटाक्षों से भरे जाने लगे हैं। ये बात सही है कि सुर्खियों के लिए डायलॉग ज़रूरी हैं, लेकिन जब मुद्दे छोड़ डायलॉग ही एजेंडे बन जाएँ तो जनता वही महसूस करेगी जो उपासना सिंह ने ‘जुदाई’ में कहा था-‘अब्बा डब्बा जब्बा’ अर्थात् बहुत कुछ कहोगे पर कुछ समझ में नहीं आएगा। भगवतगीता का प्रसिद्ध श्लोक इसे और सारगर्भित कर देगा। गीता में कहा गया है-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।
भाव है को श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करते हैं, दूसरे मनुष्य (आम इंसान) भी वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। वह (श्रेष्ठ पुरुष) जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करता है, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।
जाग रहा है जन गण मन, निश्चित होगा परिवर्तन…
समझ से परे कर्नाटक पर संघ गतिविधियों पर रोक
सन २००० में अभिषेक बच्चन और करीना कपूर स्टारर रिफ्यूजी फ़िल्म आई थी। फ़िल्म के एक गीत की पंक्तियाँ जब-जब भी सुनाई पड़ती है तो एक अलग ही अनुभव होता है। गीत है-पंछी, नदिया, पवन के झोंके, सरहद न कोई इन्हें रोके। यह गीत केवल प्रकृति की आज़ादी की नहीं, बल्कि विचारों की स्वतंत्रता की भी बात करता है। गीत से इतर अब सीधे मुद्दे पर आते हैं।
गुरुवार को कर्नाटक मंत्रिमंडल ने सरकारी स्कूलों और कॉलेज परिसरों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों पर रोके लगाने के उद्देश्य को लेकर नियम लाने का फ़ैसला किया है। कैबिनेट द्वारा आरएसएस पर रोक लगाने की इस कार्यवाही ने देशभर में बहस छेड़ दी है। शाखा या संघ की अन्य गतिविधि संचलन आदि में ऐसा क्या होता है, जिसके लिए कर्नाटक सरकार को इतना बड़ा क़दम उठाना पड़ा। इस पर भी विचार करना ज़रूरी है।
संघ स्वयंसेवकों की मानें तो आरएसएस की शाखा और संचलन अनुशासन और सेवा के विद्यालय हैं। आमतौर पर लगने वाली एक घंटे की नियमित शाखाओं के लिए किसी को निमंत्रण नहीं दिया जाता। न ही कोई दबाव डाला जाता है। राष्ट्र हित की सोच रखने वाले स्वयंसेवक शाखा में समय पर उपस्थित होते हैं और प्रार्थना, योग, खेल और राष्ट्रवंदना के साथ दिन की शुरुआत करते हैं। शाखा में जो प्रार्थना गाई जाती है कि उसकी प्रथम पंक्ति ही सार स्वरूप राष्ट्र के प्रति स्वंयसेवकों की भावना को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है।
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे, त्वया हिन्दुभूमे सुखवं वर्धितोऽहम्,
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे, पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते।
इसका अर्थ है कि हे प्यार करने वाली मातृभूमि! मैं तुझे सदा (सदैव) नमस्कार करता हूँ। तूने मेरा सुख से पालन-पोषण किया है। हे महामंगलमयी पुण्यभूमि! तेरे ही कार्य में मेरा यह शरीर अर्पण हो। मैं तुझे बारम्बार नमस्कार करता हूँ। विरोध का सुर रखने वाले इसमें कोई मीन मेंख निकालकर तो देखें। शाखा का दूसरा नियमित कार्यक्रम सुभाषित तो राष्ट्र समभाव को और भी स्पष्ट कर देता है। यह सभी के अंदर एकत्व की भावना को मजबूती देने का कार्य करता है।
हिन्दव: सोदरा: सर्वे, न हिन्दू: पतितो भवेत्,
मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र: समानता।
इसका अर्थ है कि सभी हिंदू एक दूसरे के भाई-बहन (सहोदर) हैं, कोई भी हिंदू पतित नहीं हो सकता। हिन्दू धर्म की रक्षा मेरा धर्म है और समानता मेरा मंत्र है।
सामूहिक गीतों की बात हो तो सामाजिक सद्भाव, सामाजिक समरसता, सामाजिक एकता से ये ओतप्रोत होते हैं। सुनने मात्र से राष्ट्र के प्रति नतमस्तक होने को सब मजबूर हो जाते हैं।
हम करें राष्ट्र आराधना, तन से, मन से, धन से, तन-मन-धन जीवन से, हम करें राष्ट्र आराधना।
संघ की आम बैठकों या विशेष कार्यक्रम में गाते जाने वाले एकल गीत भी इससे इत्तर नहीं है।
श्रद्धामय विश्वास बढ़ाकर, सामाजिक सद्भाव जगायें। अपने प्रेम परिश्रम के बल, भारत में नव सूर्य उगायें।
बात खेलकूद व्यायाम की हो तो उसमें में भी कोई ऐसी बात दिखाई नहीं देती जिस पर उंगली उठाई जा सके। एक घंटे की शाखा में पांच मिनट सूक्ष्म व्यायाम जिसे हम वार्मअप भी कह सकते हैं। इसके बाद व्यायाम योग, सूर्य नमस्कार शरीर को बलिष्ठ ही बनाने का कार्य करते हैं। मनोरंजन के लिए करवाये जाने वाले बौद्धिक और शारीरिक खेल भी इसे और आगे बढ़ाते है। अंत में दिन विशेष के किसी महापुरुष या घटना पर चर्चा के बाद प्रार्थना के बाद शाखा का समापन। इसी तरह अन्य गतिविधियों में संचलन या अन्य कोई सभा आदि। स्वयंसेवकों के अनुसार कहीं पर भी ऐसी कोई गतिविधि होती ही नहीं, जिस पर आपत्ति हो सके। एक बार किसी कार्यक्रम में शामिल होकर देखें, अब स्पष्ट हो जायेगा। संघ के कार्यक्रम लोगों को जोड़ने का काम करते हैं तोड़ने का नहीं। राजनीति इसमें ठीक नहीं है।
आलोचकों के अनुसार इस एक घंटे के कार्यक्रम में शाखाओं के माध्यम से एक विशेष वैचारिक दिशा दी जाती है, जो हिंदू राष्ट्रवाद की अवधारणा से जुड़ी है। उन्हें इस बात की भी ज़्यादा चिंता रहती है कि विद्यालयों या सार्वजनिक परिसरों में शाखा चलाने से धर्मनिरपेक्षता प्रभावित हो सकती है।
यहाँ यह भी ग़ौर करना बहुत ज़रूरी है कि लोकतंत्र की खूबसूरती विविध विचारों के सह-अस्तित्व में है। विचार से असहमति, प्रतिबंध का औचित्य नहीं बन सकती। शाखाओं पर रोक लगाने से विचारों का प्रसार नहीं रुकता, बल्कि संवाद और संतुलन की संस्कृति कमजोर होती है। यदि शाखा कानून तोड़ती है तो कार्यवाही उचित है, पर यदि शाखा केवल विचार का प्रसार कर रही है, तो इस तरह की रोक की भावना लोकतंत्र की आत्मा पर आघात से कमतर नहीं है। कर्नाटक सरकार की ये कार्यवाही समझ से परे है। आरएसएस की शाखा कोई राजनीतिक मंच नहीं, बल्कि अनुशासन और चरित्र निर्माण का स्थान है, समय तय करेगा कि कर्नाटक में आरएसएस की शाखाओं या अन्य गतिविधियों पर रोक लगाने की कारवाई क्या किसी सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन की गतिविधियों पर प्रशासनिक हस्तक्षेप लोकतंत्र के अनुरूप है। संघ गीत की ये पंक्तियाँ इसे और भी सम्बल प्रदान करने का कार्य करेंगी।
विश्व मंच पर भारत माँ के, यश की हो अनुगूंज सघन
निश्चित होगा परिवर्तन, जाग रहा है जन गण मन।
चक्रव्यूह ज्यों उलझता जा रहा सुसाइड प्रकरण
मैनेजमेंट का एक सीधा और सपाट फार्मूला है कि यदि छोटे नुक़सान को भुगतने से बड़ा नुक़सान टलता हो तो वह जोखिम उठा लेना चाहिए। समय की महता को ध्यान में रखकर लिया गया इस प्रकार का रणनीतिक निर्णय कई बार भविष्य के बड़े नुक़सान से बचा जाता है। आप भी सोच रहे होंगे कि व्यंग्य की कक्षा के विद्यार्थी के श्रीमुख से आज नफा-नुकसान की चर्चा कैसे?
अब एक नज़र हरियाणा में चल रहे एक मामले पर डालते हैं। हरियाणा के एक वरिष्ठ आईपीएस वाई पूरन कुमार ने मंगलवार को कनपटी पर गोली मारकर खुदकुशी कर ली। चंडीगढ़ के सेक्टर-११ स्थित कोठी के साउंडप्रूफ कमरे में इस घटना को अंजाम दिया। पुलिस को मौके से ८ पेज का सुसाइड नोट और १ पेज की वसीयत मिली है। सुसाइड नोट में कुछ वरिष्ठ आईपीएस, आईएएस अधिकारियों व रिटायर्ड अधिकारियों के नाम हैं। इन पर मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के आरोप लगाए गए हैं। पूरन कुमार का २९ सितंबर को रोहतक स्थित सुनारिया पुलिस ट्रेनिंग सेंटर में आईजी पद पर तबादला हुआ था। इससे पहले वे रोहतक रेंज के आईजी थे। पूरन कुमार ने २ अक्टूबर को २ दिन की छुट्टी ली थी। बुधवार को उन्हें ड्यूटी पर जाना था। इससे पहले उन्होंने आत्महत्या कर ली।
सामान्य व्यक्ति द्वारा की गई ये आत्महत्या होती तो मामला कुछ घंटों या एक-दो दिन में निपट जाता, पर इस आत्महत्या ने तो केंद्र तक को हिलाकर रखा हुआ है। यहाँ तक प्रदेश की ब्यूरोक्रेसी भी दो धड़ों में बंट नई परेशानी खड़ी किए हुए है। बड़े-बड़े अधिकारी मामले में अग्रणी हैं। मामले की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मृत एडीजीपी का परिवार डीजीपी शत्रुजीत कपूर और एसपी नरेंद्र बिजारणियाँ की गिरफ्तारी न होने तक पोस्टमार्टम न करवाने पर अड़ा है। सरकार के बड़े अफसरान से लेकर मंत्री समूह लगातार वार्ता पर वार्ता किए जा रहा है। परिणाम अभी भी जीरो है। इसी बीच जातिगत संगठनों और विपक्ष ने अलग से मोर्चा खोल दिया है। अब इस चक्रव्यूह से निपटा कैसे जाए, इसी के लिए नायब सरकार के अधिकारी दिन-रात लगे हुए हैं। चंडीगढ़ पुलिस ने ८ पेज के सुसाइड नोट के आधार पर एफआईआर तो दर्ज कर ली है। पर इससे अभी एडीजीपी का परिवार संतुष्ट नहीं है। मृतक की पत्नी और वरिष्ठ आईएएस अमनीत पी.कुमार के अनुसार एफआईआर अधूरी है।
अब होना क्या चाहिए था। इस पर भी चर्चा होनी ज़रूरी है। मामला बड़ा तो शुरू से ही था। मृतक वरिष्ठ आईपीएस, आरोपी भी वरिष्ठ आईपीएस और आईएएस। कहना आसान है कि सरकार यदि इस मामले में शुरुआत में ही गंभीरता दिखाती तो मामला इतना आगे नहीं बढ़ पाता। सरकार द्वारा एक साथ इतने बड़े प्रशासनिक अमले पर कार्यवाही के आदेश में देरी मामले को और बढ़ा गई। अब मामला धीरे-धीरे जातीय और राजनीतिक रंग ले जाता जा रहा है। ऐसे में परिवार की प्रमुख मांग आरोपी अधिकारियों की गिरफ्तारी होनी ज़रूरी बन रही है। इससे पीड़ित परिवार को एक बार सम्बल प्राप्त होगा। जांच होती रहेगी। संवेदनशील मामलों पर प्रशासन और सरकार सबसे पहले यही काम तो करते हैं। अब नाम बड़े अधिकारियों के हैं तो बात थोड़ी गंभीर है। पर जितना ज़्यादा समय बढ़ रहा है। परेशानी उतनी ही और ज़्यादा बढ़ रही है। चाणक्य नीति में साफ़ कहा गया है कि-
नात्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्।
छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः॥
अर्थ है कि मनुष्य को अपने व्यवहार में बहुत ही भोलापन या सीधापन नहीं दिखाना चाहिए। ध्यान रहे वन में जो सीधे पेड़ पहले काटे जाते हैं और जो पेड़ टेढ़े हैं वह खड़े रहते हैं। सरकार को चाहिए कि इस मामले में पुलिस प्रशासन को फ्री हैंड करें। जो तुरंत हो सकता है वह करें। शेष एसआईटी पर छोड़ दें। सारा मामला अपने आप सामने आ जायेगा।
रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियाँ मामले को और भी सम्बल देने का कार्य करेंगी-
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।
लेखक:
सुशील कुमार ‘नवीन’, हिसार
hisarsushil@gmail.com
लेखक वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार और शिक्षाविद है। दो बार अकादमी सम्मान से सम्मानित है।
९६७१७२६२३७
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