एक ‘दिवास्वप्न’ ऐसा जो साकार हो उठा
प्रिय मित्र,
आशा है तुम स्वस्थ और प्रसन्नचित्त होगे और विद्यालय को आनंदघर बनाने के हमारे साझे सपने को साकार करने के प्रयासों को गति दे रहे होगे। सच में कितना आनंद आता है अपने प्यारे छात्रों को अपनी आँखों के सामने धीरे-धीरे बेहतर होते हुए देखना और उनकी मुस्कान से स्वयं की खुशियों को जोड़ पाना। मुझे याद है कि तुम कहा करते थे कि विद्यालय बच्चों के लिए बंधन नहीं बल्कि एक विशाल आकाश की तरह होना चाहिए जिसमें वह अपने सपनों को उड़ान दे सकें। विद्यालय एक ऐसा स्थान हो जिससे उन्हें बस प्रेम हो जाए।
कुछ दिन पहले एक शिक्षाविद् के सुझाव पर मैंने एक किताब ‘दिवास्वप्न’ पढ़ना शुरू किया। सच बोलूँ तो पहली कुछ पंक्तियों में ही मैं लेखक की ईमानदारी और समर्पण भाव का कायल हो गया। अक्सर शिक्षा-साहित्य के लेख लिखते समय लेखक अपनी कल्पना शक्ति का प्रयोग करके निष्कर्ष निकालने लगते हैं परंतु विरले ही ऐसे लेखक होते हैं जो पहले स्वयं को उस स्थिति में रखकर अनुभव इकट्ठा करते हैं और उसके बाद अपनी क़लम से वास्तविकता का दर्शन कराता लेख लिख शिक्षा जगत् की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करते हैं। ऐसे ही एक लेखक थे गिजुभाई बधेका। मैं उनकी कृति ‘दिवास्वप्न’ पढ़कर स्वयं को अचंभित होने से रोक नहीं पा रहा कि प्रकाशन के लगभग एक सदी बीतने के बाद भी कैसे यह पुस्तक आज भी उतनी ही प्रभावशाली, नवीन और प्रेरणादायक लग रही है। समय के साथ इसकी प्रासंगिकता और गहराई में कहीं कोई कमी नहीं आई है। गिजुभाई द्वारा उस समय किए गए प्रयोगों में कहीं-कहीं मैं आज स्वयं को देख पा रहा हूँ। सच बोलूँ मित्र तो आज भी पूरी तरह से उनके विचारों को गहराई से समझने और धरातल पर उतार पाने का पथ कांटों भरा लगता है। मैं जब-जब गिजुभाई की कल्पना करता हूँ तब-तब मुझे चेहरे पर एक प्यारी मुस्कान तथा बच्चों से घिरी हुई उनकी छवि ही नज़र आती है, मानो बच्चे और वे एक प्राण हों। मैं सच में दिल से चाहता हूंँ कि तुम एक बार इस पुस्तक ‘दिवास्वप्न’ को पढ़कर इसे महसूस करो। मुझे पूरा विश्वास है कि यह पुस्तक तुम्हारे जीवन में नई सकारात्मकता और प्रेरणा का संचार करेगी। गिजुभाई ने बच्चों की उत्सुकता, रुचि और जिज्ञासा को अपना शस्त्र बनाकर कब हँसी-खेल और आनंद के सागर में गोता लगवाते-लगवाते बच्चों से पढ़ने का काम भी करा डाला, यह पता ही नहीं चला। उन्होंने अपनी इस अमर कृति में पढ़ाई को रोचक बनाने के उपदेश नहीं दिए हैं बल्कि प्राथमिक विद्यालय में अपने पढ़ाने के प्रयोगों तथा अनुभवों को साझा किया है और कथा शैली का प्रयोग करके इसे और भी अधिक रोचक बनाया है। जब तुम इसका अध्ययन करना प्रारंभ करोगे तो शायद तुम्हें भी अपने विद्यालय में नियुक्ति के शुरुआती दिन याद आ जाएँगे। मैं चाहता हूंँ कि वे पल भी तुम मुझे साझा करो।
गिजुभाई का सर्वप्रथम बच्चों को रोचक कहानियों के माध्यम से सहज करना सच में एक आनंददायक तरीक़ा था। उनमें किताब पढ़ने की आदत का निर्माण करना एक जीवन बदलने वाला कार्य। जिन बच्चों को पढ़ाई नीरस लगती थी अब वे बच्चे किताब पढ़ने के लिए होड़ कर रहे थे। उन्होंने बच्चों की उत्सुकता और रुचि को दबाया नहीं बल्कि उसका उपयोग बच्चों में ध्यान, व्यवस्था और कक्षा के प्रति लगाव को बढ़ाने के लिए किया। बच्चे कब कहानी, गीत और खेल के माध्यम से धीरे-धीरे सीखने लगे, यह बच्चों तक को समझ न आया। पर वे बच्चे भी सच में धन्य थे जिन्हें विद्यालय में उनके मनोभाव को समझने और आदर करने वाला एक माता तुल्य शिक्षक मिला था। सच कहता हूँ मित्र, शायद वे बच्चों के जादूगर ही थे, जिन्हें बच्चों की छोटी-छोटी भावनाओं की कद्र थी। उनकी कहानी सुनाने की शैली ही कुछ ऐसी थी कि बच्चे कल्पना की दुनिया में खो जाते थे। “एक था राजा, उनकी थीं सात रानियाँ, हर रानी के सात-सात महल और हर महल में सात-सात मोतियों के पेड़।” ऐसे रोचक कहानीकार को छोड़कर भला कोई घर क्यों ही जाना चाहेगा। उन्होंने बच्चों को वह सब दिया जो उन्हें पसंद था जैसे गीत, कहानी, खेल, नाटक और इन्हीं का सहारा लेकर बीच-बीच में बच्चों के पाठ्यक्रम को भी छू लिया। तुम विश्वास नहीं करोगे मित्र कि कैसे इतिहास जैसे नीरस विषय को एक बेहद चटपटी और रोचक कहानी का निर्माण किया। इतिहास के पाठ को कहानी रूप में लिखकर उसमें तथ्यों और छूटे हुए बिंदुओं को सम्मिलित करके उन्हें पढ़ने को दिया जाता। सब कुछ जैसे दादा-दादी की कहानी जैसा लगने लगा था और इतिहास की पढ़ाई एक नवीन तरीके से हो ही रही थी। वर्तमान समय में तुम्हें उनके इन सब कार्यों का प्रभाव शायद थोड़ा कम लग रहा हो पर सौ साल पीछे जाकर ज़रा इसकी कल्पना भर करके देखो। एक ऐसा समाज, जहाँ पढ़ाई का मतलब बस सिर हिला-हिलाकर याद करना, बच्चों की पिटाई और केवल पाठ्यक्रम तक सीमित रहना हो, वहाँ ऐसा नवाचार रखने वाला व्यक्ति कितना बड़ा मनोवैज्ञानिक और दूरदर्शी रहा होगा। उनके पाठ्यक्रम को शुरू करने से पूर्व वह शांति का खेल, साफ-सफाई, गीत-गायन, कहानी, नाटक आदि… क्या तुम्हें उस समय से कुछ भिन्न नहीं दिखता? कक्षा में उनके श्रुतलेख के तरीके को मैंने भी अपनी कक्षा में लागू किया। क्या सुखद वातावरण का निर्माण हुआ था! एक रोचक कहानी की एक पंक्ति बच्चों को बोली जाती और उन्हें इसकी कल्पना करके समझ के साथ लिखने के निर्देश दिए जाते। बच्चे पहले केवल उसे सुनें और कल्पना करें तब ही लिखें। सबके चेहरे मानो कल्पना के रस से भरे हुए थे। गलतियाॅं निकालना या नंबर देकर किसी को नीचा तो किसी को ऊँचा दिखाना उनके विचार में नहीं था।
भूगोल पढ़ाने के उनके तरीके का तो मैं हर बार प्रशंसक हो जाता हूँ। “तो चलें क्या भावनगर की यात्रा पर और जानें कि वहाँ कौन-कौन से स्थान देखने योग्य हैं, कहाँ-कहाँ से नदियाँ बहती हैं और क्या-क्या खरीदने लायक वस्तुएँ हैं…” इन लाइनों से तुम्हें शायद उनके पढ़ाने के तरीके की कुछ झलकियाँ मिली होंगी। किताबों से ही भूगोल नहीं बल्कि कल्पना के माध्यम से भी एक स्थान की पूरी सैर की जा सकती थी उनकी कक्षा में। बच्चे सचमुच हर चीज का अंदाजा लगाते थे और सब कुछ जानने की कोशिश करते थे और सब कुछ जानने के बाद एक बच्चा सारी कक्षा को उस स्थान की काल्पनिक सैर पर ले जाता था। कभी रेलगाड़ी से, तो कभी बस से, तो कभी हम घोड़ा गाड़ी पर चलते थे। व्याकरण पढ़ाते समय उन्होंने जिन गतिविधियों का प्रयोग सौ वर्ष पूर्व किया था, उन गतिविधियों को सिखाने के लिए आज शिक्षकों के प्रशिक्षण कराए जाते हैं और बच्चों के जिन शिक्षण सामग्री संग्रहों को तब निर्मित कराया था उसकी आज प्रतियोगिताएँ होती हैं।
इस पुस्तक में दिखाई गई बच्चों की दुनिया कितनी प्यारी, सरस-सरल और मासूम प्रतीत होती है। इस पुस्तक ने जैसे बच्चों के प्रति मेरे दृष्टिकोण को तय पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया है। अब मुझे बस उन पर प्रेम आता है, डाँटने का जैसे दिल ही नहीं करता है। बस दिल करता है उन्हें ढंग से पढ़ाने का जिससे उन्हें कुछ भी बोझ न लगे और वह समय लेकर आनंद के साथ मेरी सिखाई गई चीजों को लंबे समय तक अपने मन में सहेज कर रख सकें। सच में एक ऐसी कक्षा का निर्माण हो जिसमें मेरा और बच्चों का हृदय आनंदित हो सके। गिजुभाई का यह ‘दिवास्वप्न’ केवल हमें स्वप्न देखने की सीख नहीं देता बल्कि अपने विद्यालय को आनंदघर बनाने के स्वप्न को वास्तविकता में बदलने की प्रेरणा भी देता है। मेरी इच्छा है कि तुम गिजुभाई की इस अमर कृति को पढ़ो और अपने विचार मुझसे साझा करो। तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा में…
तुम्हारा मित्र
प्रतीक गुप्ता
शिक्षक, बहराइच (उ.प्र.)
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