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आवाहन
“आवाहन”
नारी की लाज है खतरे में,
ऐ कृष्ण! इसे बचा लो तुम,
पुकार रही एक और द्रौपदी,
फिर से चीर बढ़ाओ तुम।
लगा दुशासन है इठलाने,
वो लगा हर्ष से मुस्काने,
अब कृष्ण कहां से लाओगे?
कैसे नारी की लाज बचाओगे?
ऐ नारी! तुमको उठना होगा,
खुद कृष्ण तुम्हें बनना होगा,
स्वयं की रक्षा के खातिर,
अब हुंकार तुम्हें भरना होगा।
ऐ नारी! इज्जत पर जब तेरे,
कोई दुर्योधन घात करे,
बन काल उन्हें संहारों तुम,
एक बार शस्त्र उठा लो तुम।
अब कोई कृष्ण नहीं धरा पर,
जो तेरा चीर बढ़ाएगा,
ऐ नारी! अब कृष्ण नहीं आयेगा,
तुमको ही अपना प्रहरी बनना होगा।।
पीड़ा के स्वर
ऐ कविश्रेष्ठ! अब लिखो,
उन स्त्रियों को अपने काव्य में,
जिन्हें झोंका जाता हैं,
हिंसा, विरोध, दंगा और दहेज की आग में,
उन अबोध बालिकाओं की कोख भी लिखना,
जो हवस का शिकार हो जाती हैं,
अगर लिख सके कलम; तो लिखना,
उन वस्त्रहीन स्त्रियों का अभागा भाग्य,
जिनको घुमाया गया सड़कों पर नुमाइश की तरह।
ऐ कविज्येष्ठ!
लिखना उन निर्दोष स्त्रियों की किस्मत,
जो नहीं जानती उनकी मृत्यु का कारण,
अब प्रेम और श्रृंगार को कहीं दूर छोड़कर,
लिखना अपनी कलम से,
उन स्त्रियों की पीड़ा के स्वर,
जो नहीं भेद पाते संसद की मजबूत दीवारों को,
अब लिखना अभागी स्त्रियों के हिस्से में,
एक नई क्रांति का पैगाम,
जो दिलाए उनको इस बेरहम समाज से इंसाफ।।
अस्तित्त्व
भरत वंश के इस भारत में,
अपने अस्तित्व को खोज रही,
मैं हिन्द देश की हिन्दी हूं,
और अपनों से मैं हार रही।
हिन्द क्षितिज पर हुई पराजित,
जहां का कण कण मेरा है,
जहां सात सुरों का संगम लगता,
वहां अंग्रेजी रैप का बोल बाला है।
रज-कण पर ऐसे बिखर गई,
जैसे वसुधा में मेरा डेरा हो,
अंग्रेजो से तो मिली आजादी,
पर अंग्रेजी से मैं हारी क्यों।
क्या विस्तृत भारत का कोई कोना,
होगा कभी मेरा अपना?
एक प्रश्न खड़ा अंतस मेरे,
क्या सच में पूरा होगा सपना?
नहीं चाहती हिम शिखरों में चढ़ के मैं इतराऊं,
नहीं चाहती सारे जग में अपना आधिपत्य जमाऊं,
बस एक ख्वाइश हृदय बसी मेरे,
मैं हिन्दी हूं और हिन्द देश में बोली जाऊं।
गुरु–कृपा
ज्ञान रश्मियों की ये धारा,
गुरु मां मिली है तुमसे ही,
तुमने किए उपकार बहुत हैं,
“गुरु–कृपा” मिली है तुमसे ही।
तुमने ही मेरे भटके मन में,
लक्ष्य दीप जलाया,
तुम्हीं बनी हो द्रोणाचार्य,
और तुम्हीं ने कृष्ण का फर्ज निभाया।
जब–जब दु:खित हुआ हूं मैं,
तब–तब तुमने धीर बधाया,
संकट की हर बेला में,
मैंने तुमको ही तो पाया।
तुमसे ही सीखा है मैंने,
ज्ञान दीप जलाना,
तुमसे ही पाया है मैंने,
श्रृद्धा का अनमोल रत्न मां।
तुमसे मिला जो ज्ञान का सागर,
उसका करूं सदा गुणगान,
शरणागत हूं चरणों में “गुरु मां”,
मुझ अबोध पर रखना ध्यान।
नर–नारी
हम भारत के नर–नारी हैं,
मुझमें नहीं रहा मतभेद कभी,
यहां शिव–शक्ति में सिय में राम और,
राधा में श्याम झलकते हैं
ऐसी है मेरी भारत भूमि,
जहां प्रेम से प्राणों तक का पावन परिणय,
सात जन्म तक चलते हैं।
यहां नर – नारी ने युद्ध लड़े और विजय पताका फहराई,
गौतम बुद्ध की इसी भूमि में रानी लक्ष्मीबाई ने हुंकार भरी,
मातृ–शक्ति की रक्षा में अर्जुन ने भी गाण्डीव उठाया था,
ऐसा है मेरा प्यारा भारत जहां एक दूजे की रक्षा हेतु दोनों ने कदम बढ़ाया था।
ना जाने कितने अक्षर चीख रहें हैं,
यहां इतिहास के पन्नो पर जो जय करते हैं,
भारत के नर – नारी में सादृश्य भाव की,
जय करते हैं ऐसे परिणिति परिणय की,
जो केवल इसी धारा पर बंधते हैं,
भारत में ही है मां भारती हम दोनों की जय करते हैं,
फिर कैसे मतभेद हुआ आज,
भारत कि इस पावन भूमि पर।
शिवम गुप्ता
(चित्रकार & लेखक)
31, सराय बकेवर, फतेहपुर, उत्तर प्रदेश–212657
अणुणांक: shivamgupta20194@gmail.com
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