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शहर का सावन
शहर का सावन
रवीना आज अपने गाँव प्रकृति आई। शहर में रहते वह बीमार रहने लगी परंतु करती भी क्या पति की नौकरी, सास ससुर अकेले न रह जाए। इसीलिए वह शहर में रहती है। रवीना के घर के पास सुनीता का घर है। वो शहर में ही पली बढ़ी है। रवीना को याद आया कि उसकी सहेली सुनीता सावन के आंनद को भी नहीं जानती वह केवल मॉल, पार्क, मन्दिर, सिनेमा में समझती है। सुनीता को देख शहरी जीवन चुभने लगा।
आज माँ के पास आकर रवीना को सुकून मिला। गाँव के खेत, पेड़ पोधे, सब सावन की चरम सीमा हैं। सुनीता को कॉल किया तुम भी कुछ दिन मेरे गाँव आओ सुनीता मान गई। शाम की बस से सुनीता भी प्रकृति गाँव पहुँचते ही उछल पड़ी बोली सच में स्वर्ग आ गई। रवीना और सुनीता बाते करते-करते घर में आ गई। तभी घन घनघोर अँधेरा छा गया। बिजली कड़कती हुई। सुनीता देखने लगी कि बारिश होने लगी, पहाड़ों से झरने बहने लगे। ये क्या पास के खेत में बड़े बुजुर्ग, महिलाओं, युवतियों के समहू ने गाना बजाना शुरू किया।
गाँव की महिलाओ ने रवीना और सुनीता को भी बुलाया। गाँव के मन्दिर के पास झूले झूलती युवतियों का समहू नवविवाहितों को छेड़ रही थी। क्या बात है चंद्रा तुम आजकल ज़्यादा चमक रही हो क्या बात है। मुस्कान का सवाल सुन सभी चंद्रा की और देखने लगे। चंद्रा बोली तुम भी चलो मेरे साथ तुम्हे भी चमका दूंगी। सुनीता ने देखा चारो तरफ़ हरियाली छाई हुई है। कोई भी उदास नहीं दिख रहा था। सुनीता को लगा कि उसके कान में धीमे-धीमे गीत बज रहा है। सुनीता गाँव की हरियाली, झरनों से उत्पन्न ध्वनि सुनीता को खुलकर नाचने के लिए प्रेरित कर रही थी। पहली दफा सुनीता घर से बाहर गाँव में आई।
क्या कहूँ तेरी मुस्कान का
आज अचरज से भर गई में
सुध बुध खोकर हुई बावली
आज अनुपम प्रकृति निहारी
सावन मास हृदय में झूले
कोयल, पपैया, मोर नाचे
झरना, पेड़ पते हवाओं संग ताल मिलावे
सुनीता आज मन-मन हर्षसावे॥
पांच दिन की यादों ने सुनीता का मनमोह लिया। वह इस गाँव को अपना मानने लगी और यहाँ के लोग इसे अपने प्रतीत होने लगे। सुनीता धीमे-धीमे शहर की प्रस्थान करने लगी।
रक्षाबन्धन
बचपन में माँ का आंचल। बहिन के साथ तकरार होना। सब अच्छा लगता हैं, समय की महत्ता ने समझदार बनाया कभी उसने मुंह न खोला॥
आज अशोक यही सोच रहा था। माँ हमेशा कहती थी, बेटा बेटियाँ घर संवारती हैं। लेकिन मुझे बचपन में दीदी से हमेशा चिड़ थी। कभी भी दिव्या जवाब नहीं देती। एक बार में दोस्तो के साथ फ़िल्म देखने गया, देर रात जब लौटा तो पापा ने मुझे बहुत डांटा। बार-बार पापा की डांट मुझे दुख पहुँचाती। दिव्या उस रात मेरे लिए खाना लाई। बोली माँ कि तबीयत खराब हो गई। मेरी शादी करवाने के लिए जल्दबाजी कर रही है। तुम समझाओ कि में पढ़ना चाहती हूँ, परन्तु पापा को कहने की हिम्मत नहीं। आपकी बात कोई नहीं टालेंगे।
अशोक आज खुश था। उसकी मुसीबत की शादी हो जायेगी। उसे कहने वाला कोई नहीं। दिव्या देखती रही उसकी शादी पापा के दोस्त के लड़के अनिल से हो गई। आवारा क़िस्म का लड़का था। दिव्या चुपचाप शादी के बाद ससुराल में रहने लगी। अनिल शराब पीकर रोज़ मारपीट करता। दिव्या ने तंग आकर तलाक लिया। मायके वाले किनारा कर गए। आज दिव्या शहर की विधायक हैं। अशोक माँ बाबा के बाद अकेला हो गया। अपनी युवावस्था की भूले श्रापित जीवन-सी लगने लगी। दीदी का कहना नहीं माना।
अशोक बाज़ार से जा रहा था, देखा तो एक छोटी लड़की अपने भाई को राखी बाँध रही थी। बोली भैया कभी मुझे मत भूलना। यह बातें अशोक को चुभ रही थी। दिव्या हमेशा अपने बचत बैंक से पैसे निकाल अशोक को ज़रूरत होने पर देती थी। आज अशोक की आंखे भर आई। दौड़ता-दौड़ता हुआ बहिन के घर गया। गेट पर चौकीदार बोला कहा जा रहे हो। अशोक बोला बहिन से मिलने जा रहा हूँ। किसकी बहिन ये शहर की विधायक हैं। वैसे भी विधायक जी रक्षाबन्धन के दिन किसी से नहीं मिलती। अशोक रूहांसा होकर बोला। एक बार विधायक जी कहो कि अशोक नाम का कोई व्यक्ति मिलने आया है। जब दिव्या ने सुना कि उसका भाई आया है वह दौड़कर घर से बाहर आती हैं। भाई को देख बोली कितनी देर लगा दी। अपनी बहिन से मिलने के लिए।
अशोक दिव्या के पैरो में गिरकर बोला दीदी माफ़ कर दो। आपकी राखी का मोल कभी चुका नहीं पाया। संकटों के समय मुंह मोड़ा। दिव्या बोली बीता समय वापस नहीं आयेगा। मेरा भाई फिर से राख की शक्ति से प्राप्त कर जाएगा। दिव्या, अशोक का स्नेह देख चौकीदार बोला मुझे भी राखी बाँध दो। दिव्या ने चौकीदार के आरती उतार कर, मुंह मीठा कर, राखी बाँध वचन लिया की। ईमानदारी से अपनी ड्यूटी और बहिन का सम्मान बनाएँ रखूंगा।
चंद्रवीर गर्ग
बाड़मेर (राजस्थान)
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