
हसीन शहर
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यार तू मेरा बन जा
यार तू मेरा बन जा ऐ मौला
क्यूं अकेला मुझे तूने छोड़ रखा हैं
सहारा मेरा कोई नहीं है दुनिया में
बड़ा कष्ट पा रहा हूँ तूने यह देख रखा है
तस्वीर मेरी जो तूने बनाई है
क्यूं उसे तू बिगड़ने दे रहा है
कूची तेरी क्यूं नुगरी हो गई है
जो तू मेरे सर से हाथ अपना खेंच रहा है
दाग तू मुझपे क्यूं लगाने पर तुला है
क्यूं तूने मुझसे मूंह अपना मोड रखा है
यार तू मेरा बन जा ऐ मौला
क्यूं अकेला मुझको छोड़ रखा है
तेरे गुणों को मैं अभी भूला नहीं हूँ
तेरा ही नित उठ गुणगान कर रहा हूँ
पर बेरुखी तेरी मुझसे सही न जा रही है
जिसकी तकलीफ़ आज मैं भुगत रहा हूँ
आशिक हुं मैं तेरा जन्म जन्मों से
क्यूं तूने मुझको अपने से दूर कर रखा है
यार तू मेरा बन जा ऐ मौला
क्यू अकेला मुझको तूने छोड़ रखा है

कैसा इश्क
आज वह मेरे सपने में आए
फिर से मिलने का वादा कर गए
इंतजार उन्हीं का कर रहा हूँ मैं
इसी में कई साल मेरे गुजर गए
वो न आए न संदेशा आया उनका
क्या करता रहूँ इंतज़ार मैं उम्र भर
शायद वह आयेंगे लौट के नही
शक मेरा टिका है इसी भरम पर
खत अगर उनका आएगा मुझ तक
मैं जानता हूँ वह क्या लिखेंगें मुझे
खत आने से पहले ही उन्हें लिख दू मैं
क्यू दिलासा सपने में दे गए थे मुझे
अगर जवाब मुझे लिख भेजेंगे वो
कि उन्हें मुझसे मिलने की फुर्सत नहीं है
या लिखेंगें मुंह मेरा नहीं चाहते है वो
या लिखेंगें मिलने की मुझसे ज़रूरत नहीं है
कैसा इश्क़ पनपा है मेरे मन की ज़मीं पे
मेरी ज़िन्दगी के दिन रोते ही गुजरते गए
आज वह मेरे सपने में आए
फिर से मिलने का वादा भी कर गए
मेरी गली में
मेरी गली में जब तुम्हारे क़दम पड़ेगें
खुशबू भरे फूल मैं तुमपे बरसाऊंगा
बहुत दिन दूर रह लिये हम और तुम
आ जाओ नज़दीक तुम्हें मैं गले लगाऊंगा
भूला नहीं हूँ मैं तुम्हें ज़िन्दगी में
सारे जहान में तुम्हें खोजता रहा हूँ
मिल गई है वह जगह तुम्हारी मुझे
मिलोगे, तुम मुझे यह मैं सोचता रहा हूँ
बहुत खैचली मैने यादों की लकीरें
दिन ब दिन उन्हें मैं गिनता रहा हूँ
जो यादें तुम्हारी मुझे सताती रही हैं
उनसे मैं प्यार के मोती बीनता रहा हूँ
आओ नैन से नैन मिलाले अपने
मैं अपने को खुश क़िस्मत कहलाऊंगा
मेरी गली में जब तुम्हारे पड़ेंगे
खुशबू वाले फूल मैं तुमपे बरसाऊंगा
गम
गमों को समेट लिया है मैने
बंडल बहुत बना लिए है
दिल मेरा ऐसा बन गया है
जिसमे अनगिनत गट्ठर समा गए है
अब जगह नहीं रही है वहाँ
इर्दगिर्द सैलाब ग़म का फैला हैं
सोचता हूँ मैं गमों को मिटाने की
जो धुने कपास की तरह फैला है
छुप गया हूँ मैं ग़म के बादलों में
गम की दीवारों से घिर गया हूँ
कली से फूल बन गया था मैं
अब अपनी टहनी से खिर गया हूँ
धकेलना है मुझे इन दीवारों को
सारे गमों को मुझे सौंखना होगा
आराम दर्द तो आते जाते रहते
इस सच को मुझे समझना होगा
दोस्ती गमों से कर लूंगा मैं
मैंने ऐसे चित्र बना लिए है
गमों की तहो को मिटा दूंगा मैं
आनंद के गुल मैने सजा। लिए है
वक्त की नजाकत
जनाजा मेरा निकलने को है
एक बार आ के मिल तो ले
फिर वक़्त मिले या न मिले
आज तू मेरा दिल तो रखले
दुस्वारियाँ न पैदा कर मेरी रह में
मुझे आराम से रूखसत ले लेने दे
अभी तो वक़्त है तेरा मुझसे मिलने का
वक्त जाया न कर मिल तो ले
शिकवे शिकायते धरी रह जायेगी
इस बोझ को अब उतार तो ले
वजन से तेरा हाल बेहाल होगा
वक्त की नज़ाकत को ज़रा निहार तो ले
तस्वीर तो जड़ेगी मेरी चौखाने में
इसे निहारने का मन बना तो ले
फिर देखने का न मिलेगा यह नजारा
मेरी ख़्वाहिश को तू अपना तो ले
दुनिया है हमारी रंग रंगीली
दुनिया है हमारी रंग रंगीली
इसको बदरंग ना होने देना
दाग ना लगे कभी कहीं पर
जग में किसी को ना रोने देना
रंगों से सजी है तस्वीर उसकी
इसे सजा के तुम रखना
धूमिल न हो पाए यह कभी
हर वक़्त इसकी संभार रखना
जन जीवन है यहाँ चटक रंगों का
कालिख उसमें न पड़ने देना
संस्कृति में है मानवता रची बसी
इस स्वरुप को ना बिगड़ने देना
मानवता मौज करे हर दम
इसमें कमी न होने देना
दुनिया है हमारी रंग रंगीली
इसको बदरंग ना होने देना
वृक्ष ही तेरा जीवन है
क्यूँ छीन रहा है तू वृक्षों का जीना
ये वृक्ष ही तो तेरा जीवन है
इनके अंग-अंग तेरे काम ही आते
इनकी बूटी-बूटी संजीवन है
कितना इसने तेरा ध्यान रखा है
पग पग पर तेरा साथ दिया है
तुझको सुख यह देता आया है
फिर क्यूँ तूने इसे सन्ताप दिया है
जो जन्मा है दरखत जमी पर
वो तेरे जीवन का ही धन है
तू छीन रहा जीवन वृक्षों का
ये वृक्ष ही तो तेरा जीवन है
जब जब तू रुग्ण हुआ है
ये तेरी दवा बन के आया है
बचपन में इसके संग खेला था तू
हर बार तेरा साथ निभाते आया है
हरियाली इसकी तुझको सुख देती
फिर इससे क्यूँ तेरी अनबन है
क्यूँ छीन रहा तू वृक्षों का जीना
ये वृक्ष ही तो तेरा जीवन है
मुलाकात
काश मिल जाये मुझको कहीं
तेरी जुल्फों से लिपटी खुशबू
झोंका हवा का जो छू के बह रहा
उससे होना चाहता हूँ मैं रूबरू
बातें करुँ में तुझसे मुलाकात करके
ऐसा हसीन मौका मिल जाये मुझको
कहूँगा मैं तुझको मेरे लिए हो तुम
मैं तुम्हारा हूँ ऐसा कहो तुम भी मुझको
जो रस तेरे लबों से रिस रहा है
उससे मेरे रुख पर लिपाई हो जाये
विरह में, रुदन मेरा अभी साथी है
उनसे मेरे दिल की रिहाई हो जाये
एक रंग का हो जाये रंग हमारा
साँसें हमारी करे प्यार की गुफ़्तगू
काश मिल जाये मुझ को कहीं पर
तेरी जुल्फों से लिपटी हुई खुशबू
धारणा गाँधी जी की
धारणा गाँधी जी की थी यही
कि धन संग्रह प्रगति में बाधक है
प्रगति समाज की है तभी संभव
जन जन जब अपरिग्रह का साधक है
विश्व आर्थिकाधार ऐसा बने
कोई न अन्न वस्त्र से वंचित हो
हर व्यक्ति को इतना काम मिले
उसकी न्यूनतम ज़रूरत पूरी हो
मुलभूत भौतिक ज़रूरी सामानों का
उत्पादन जनता के हाथों में हो
ये वस्तुएँ सुलभ होती रहे ऐसे
जैसे प्रकृति प्रदत हवा रौशनी पानी हो
न हो कहीं एकाधिकार संसाधनों का
समाज में शोषण की न व्यवस्था हो
अवहेलना न हो इन सब बातों की
समाज के मिटने की स्थिति न पैदा हो
बिखराव न हो कहीं न हो अलगाव
सहयोग भाव के सभी उपासक हो
सब सबको लेकर साथ चले
न कोई किसी की प्रगति में बाधक हो
दर्द से दुश्मनी
दर्द का दीदार मुझको हुआ है
उससे दुश्मनी मेने कर ली है
दर्द का न हो किसी से सामना
उसकी रूह को मैंने क़ैद कर ली है
मिले दर्द से में तड़फा ज़रूर हूँ
मगर दर्द अब ख़ुद तडफने लगा है
दर्द मिटने लगा है जहान से
दर्द गर्त में अब समाने लगा है
सारा दर्द हट जाये जहान से
दर्द देने वाला भी मिट जाये
नेस्तनाबूद हो वह ज़माने से
उसका हर कतरा जग से हट जाये
दर्द दायक दुश्मन ना रहे कहीं
अमन अवाम में छा जाये
हर तरफ़ अवाम खुशहाल हो
दीदार दर्द का फिर ना हो पाए
दर्द के कीट को जलाना है
उसे जलाने को मशाल मैंने ले ली है
दर्द का न हो किसी से सामना
उसकी रूह को मैंने क़ैद कर ली है
आसमाँ से उतर के आ तू
आसमाँ से उतर के आ तू
आज धरती से तेरी ज़रूरत है
न देर कर, जल्द आ तू
यह तुझे मेरी पुकार का ख़त है
तू जग के जीवों को पालता
पालन हार की तू मूरत है
रक्षा करनी है तुझको जीवों की
मैं ना जानूँ तेरी कैसी सूरत है
सुन तू धरा के आर्तनाद को
तू किस दुविधा में आज रत है
आसमाँ से उतर के आ तू
आज धरती से तेरी ज़रूरत है
यहाँ जीव, जीव का लागू है
एक दूजे को सताने की उसे लत है
फसादों में संलिप्त है आज मानव
जुगुप्सा करने में वह रत है
तुम बिन सहारा नहीं है जहाँ में
हम तेरे सामने नतमस्तक है
आसमाँ से उतर के आ तू
आज धरती से तेरी ज़रूरत है
तन से रहो दूर-दूर सभी
तन से रहो दूर-दूर सभी
पर मन से न रहो दूर कोई कभी
कोरोना करीब न आ पायेगा
सुरक्षित होंगे इससे हम सभी
मास्क भी लगाना है चेहरे पर
सुरक्षा के लिए इसे न हटाओ कभी
मात दे पाएंगे हम कोरोना को
पालना इसकी करो सभी
तन की शक्ति को बनाये रखना
रोग प्रतिरोधक औषधि लेवें सभी
तन से रहो दूर-दूर सभी
पर मन से न रहो कोई दूर कभी
रमेश चन्द्र पाटोदिया “नवाब”
प्रताप नगर सांगानेर जयपुर
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