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महाकुंभ की यादगार यात्रा
महाकुंभ की यादगार यात्रा: मैं अपने डभौरा वाले घर में था, सुबह के तीन बजे से ही जाग गया था। मोबाइल पर देखा तो डॉ. अम्बेडकर नगर एक्सप्रेस प्रयागराज जाने वाली पौने पांच बजे थी। तब कुहरा नहीं था। मैं साढ़े चार बजे सुबह प्रयागराज जंक्शन के लिए टिकट लेकर प्लेटफार्म नंबर दो पर पहुँच गया था। तभी उद्घोषणा हुई कि “गाड़ी नंबर ०१८०४ वीरांगना लक्ष्मीबाई झांसी से-से चलकर प्रयागराज जंक्शन को जानेवाली कुंभ मेला स्पेशल गाड़ी शीघ्र ही प्लेटफार्म नंबर दो पर आएगी!” अब कुहरा छाने लगा था, मैं कुंभ मेला स्पेशल गाड़ी से जाने के लिए फ़ैसला किया। गाड़ी कुंभ मेला स्पेशल आई मैं उसी में चढ़ गया था। जगह थी एक सीट पर मैं बैठ गया था।
मेरे पीछे एक पुरुष दो महिलाओं, तीन नौजवान लड़कियों के साथ चढ़ा; वह एक-एक करके अलग-अलग सीटों में बैठे जिसमें एक लड़की जो गोल चश्मा पहन रखा था, आकर मेरे बगल में बैठ गई थी। वह बिटिया बहुत खूबसूरत थी उसके बिखरे मुलायम बाल उसकी पीठ पर सजे हुए थे। मुझे वह मेरी अपनी बेटी जैसी लगी थी। वह संकुचित-सी मेरी ओर पीठ करके बैठी थी। मैंने उससे कहा, “ठीक से बैठ जाओ न, तुम मेरी बिटिया रानी जैसी ही हो!” उस लड़की ने मरी ओर देखा, अब वह अच्छी तरह से मेरी बगल में बैठ गई थी। साथ में आया पुरुष खड़ा था। सामने की सीट पर एक आदमी सोया था तीन बैठे थे। उस बिटिया ने उनसे कहा, “सभी लोग बैठ जाइए, यहाँ एक आदमी को बैठा लीजिए!”
वह शुद्ध बुंदेलखंडी में कहने लगे कि “चार जने की सीट है, हम और क्यूं बैठा लें!”
अब मैंने कहा, “देखो इतै सोने की सीट न है, सुकर मनाओ स्पेशल गाड़ी सरकार ने चला दी है वरना खड़े होने के लिए जगह नहीं मिलती; ऐसा करो इज़्ज़त के साथ सभी बैठ जाओ!” उसके समझ में अब बात आ गई थी, ‘संघ में शक्ति है कलयुग में’ वह उठकर बैठ गए थे। उस बिटिया ने एक सीट पीछे खड़े अपने बापू को बुलाया, “पापा इधर आ जाइए, जगह है!” वह भद्र पुरुष आकर मेरे सामने ही, सामने वाली सीट पर बैठ गया। अब मैंने उस पुरुष से पूछा, “आप कहाँ रहते हैं?” उसने बताया, “मेरा गाँव पास में ही है, फिलहाल अब मैं छमुहा रोड डभौरा में निजी घर बनाकर रहता हूँ!” मैंने पूछा, “आप क्या काम करते हैं, मेरा मतलब है नौकरी या कोई धंधा?” उस भद्र पुरुष ने बड़ी शालीनता से बताया कि “मैं शिक्षक हूँ, सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाता हूँ!” उसने मुझसे मेरा परिचय पूछा, मैंने भी बताया। हम धीरे-धीरे घुल-मिल गए थे।
सुबह साढ़े सात बजे हम प्रयागराज जंक्शन पर उतरे, वहाँ से हमने सिबिल लाइन की ओर नहीं जाकर, शहर की तरफ़ से जाने का फ़ैसला लिया था; फ़ैसला हम दोनों पुरुष सहयात्रियों का था। दोनों महिलाओं में से एक तो उन शिक्षक महोदय राजनरायन मिश्र की पत्नी थी, एक औरत का परिचय मैंने नहीं लिया था। वह दोनों महिलाएँ हमारे साथ ही थीं। एक तो बालिका, दूसरी वज़ह चंचलता से भरपूर जवानी! वह तीनों बालिकाएँ स्टेशन के बाहर प्रदर्शित बंदे भारत गाड़ी के पुतले आदि का कोई फोटो लेने लगीं थीं, कोई वीडियो बनाने लगी थी। मैंने उनसे कहा, “अभी कुहरा है, साफ़ छवि नहीं आएगी, बिट्टू हम लौटकर वीडियो बनाएंगे!”
वह सभी मेरी बातों से खुश हो गईं, हमारे साथ पीछे-पीछे चल पड़ीं थीं। हम सब थोड़ी देर में एक आटो में बैठकर दारागंज आ गए थे।
महाकुंभ का प्रचार प्रसार जिस तरह से हुआ था, उसी तरह से व्यवस्था थी। जितनी जनता उतनी पुलिस भी नज़र आ रही थी। चप्पे-चप्पे पर तैनात पुलिसकर्मियों को अपने कर्तव्य का पालन करते हुए देखा मैंने, उत्तराखंड पुलिस, उत्तर प्रदेश पुलिस तो स्वाभाविक थी। विभिन्न जनपदों से आए थे उत्तर प्रदेश पुलिसकर्मी! ख़ास चौराहों पर सीमा सुरक्षा बल के जवान सतर्कता से अपना कर्तव्य निभा रहे थे। हम लोग तेरह नंबर के पुल से उस पार मेला क्षेत्र में गए थे। फिर गंगा तट पर साफ़-सुथरे बनाए गए नहाने वाले घाट पर हम नहाने के लिए गए थे। जहाँ स्त्रियों के लिए कपड़े बदलने के लिए सुरक्षित ठिकानों को बनाया गया था। व्यवस्था अच्छी थी। मैंने राजनरायन मिश्र से अपने मन की बात कही, “मिश्र जी, आप हैं तो मैं भी शुकून से नहा लूंगा वरना चोर-उचक्कों के डर से ठीक से नहीं नहा पाता!”
मैंने देखा, वह सतर्क थे, होना भी चाहिए! मैं खाली हाथ अकेले, पहली मुलाकात थी, मेरा भी विस्वास वह कैसे करते! मैंने उनपर पूरा भरोसा किया था। मैंने सभी कपड़े उतार दिए थे, उनके सामने गंगाजल भरने के लिए डब्बा लेने के लिए पैसे निकाले थे; उनके पास सबकुछ छोड़कर बिंदास स्नान किया था। उन मिश्र दंपति ने तब तक सामान नहीं छोड़ा था, जब तक उनके साथ की लड़कियाँ, साथ की महिला लौटकर नहीं आईं! मैंने कहा भी था कि “आप दोनों भी स्नान कर आइए!” उन दोनों ने अनसुना कर दिया था। मैं समझ गया था, होना भी चाहिए क्यों करें विस्वास? आजकल तो विस्वास में ही लोग लूट लिए जाते हैं। राजनरायन मिश्र अपनी पत्नी के साथ नहाने चले गए थे; साथ में आई एक और महिला का मेरा परिचय हुआ, मेरा पारिवारिक परिचय उसने लिया था।

वह महिला मेरी दूर की रिश्तेदार निकली थी। मेरी पत्नी की मौत सुनकर दुखी हुई थी। वह भी एक सभ्य महिला थी। साथ में आईं सुंदर बालिकाओं में एक उसकी बालिका थी, एक पड़ोसी की बालिका थी जो उन पर यक़ीन करके पिता ने भेजा था। फ़ोन पर उसके पिता ने कहा था कि ‘मेरी बिटिया को झूला भी झुला दीजियेगा!’ मैंने डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय को मैसेज किया था कि ‘मैं नहा चुका हूँ, आ रहा हूँ!’
उन्होंने मैसेज में ही कहा था कि ‘हाँ, आइए, पधारिए!’ मुझे पुल नंबर सोलह से तुलसी, भारद्वाज मार्ग चौराहे पर जाना था। जो पता डॉ. उपाध्याय जी ने पहले से ही दे रखा था। मैंने शिक्षक राजनरायन मिश्र से कहा, “मुझे एक आदमी से मिलने जाना है, मोबाइल फ़ोन से संपर्क बना रहेगा, मैं उनसे मिलकर आपको मिल लूंगा; यहाँ से स्टेशन तक में ज़रूर मिलेंगे!” मैं चप्पे-चप्पे में तैनात पुलिसकर्मियों से पूछते हुए देवरहा बाबा सेवाश्रम पहुँच गया था। जहाँ डाक्टर उपाध्याय कल्पवास कर रहे थे।
अंदर शिविर में गया कि सामने ही सौम्यता, सादगी के प्रतिमूर्ति अपनी सफेद, कुछ यदा-कदा काली ऐसी जैसी खिचड़ी में चावल ज्यादा, मूंग की दाल कम हो ऐसी दाढ़ी के साथ घूम रहे थे। भला बताओ मैं उनको कैसे न पहचानता वही तो मेरे साहित्यिक गुरु जो थे। पास जाकर मिलन प्रणाम आदि औपचारिकताएँ पूरी की गईं थीं। फिर कुर्सी पर बैठ गए थे। इसके बाद डॉ. भगवान प्रसाद उपाध्याय जी ने बढ़िया चटाई बिछा दिया था; जिसमें हम दोनों सुखासन आसीन हुए थे ऐसे, जैसे भारद्वाज आश्रम में जागबलिक आसीन हुए थे। पानी पीने के लिए पेड़ा-बर्फी खाकर पानी पिया। वहाँ किसी ने कोई आयोजन की तैयारी भी कर रखी थी।
कुछ देर तक उनसे सुखद बातें करने के बाद मैंने बिदा मांगी थी, डॉ. भगवान ने खाना खाने के लिए कहा था, मैंने मना कर दिया था। अब मैं उनके पास से चल पड़ा था, वह कुछ दूर तक मेरे साथ भी आए थे। जगह जगह चौराहे बनाए गए थे, चौराहों पर दुकानें सजी हुई थीं। सज-धज कर जुलूस निकल रहे थे। सभी एक तरफ़ से पांडाल सजाए गए थे। एक पांडाल के सामने हरमोनियम आदि वाद्य यंत्रों से विदेशी एवं भारतीय स्त्री-पुरुष हरे रामा, हरे कृष्णा, कृष्णा-कृष्णा हरे-हरे का कीर्तन खड़े-खड़े कर रहे थे, हरमोनियम एक अंग्रेज खड़े-खड़े ही बजाते हुए यही हरे रामा, हरे कृष्णा, कृष्णा-कृष्णा हरे हरे का उच्चारण कर रहा था शायद, वह और हिन्दी में उच्चारण नहीं कर सकता था। लम्बी लाइन लगी थी, खाना बंट रहा था। मैंने वहाँ खड़े एक चौकीदार से पूछा, “यह लोग कहाँ से हैं?”
उस चौकीदार ने बताया कि “यह अडाड़ी के मंदिर से जुड़े भारत के विभिन्न प्रांतों से हैं, बिदेसी भी हैं, इंग्लैंड, सिंगापुर आदि जगहों से!” उसने मंदिर का नाम बताया था जो मुझे भूल गया है। मैं अगर लाइन में लगता तो दो बज ही जाते इसलिए सिर्फ़ यह देखकर कि क्या-क्या है? अपनी क़लम की भूख मिटाने की कोशिश किया था। राजमा चावल, सब्जी भी थी, स्वाद पूछने पर लोगों ने बताया था कि ‘बहुत बढ़िया है!’
एस जगह चावल सब्जी प्रसाद के रूप में काग़ज़ के दोने में मैंने भी लिया था। वैसे देवरहा बाबा सेवाश्रम के प्रवेशद्वार पर ही बढ़िया चना मसालेदार मिल रहा था। भीड़ देखकर मैं सिर्फ़ ललचाकर निकल लिया था।
एक पांडाल के सामने दाल-रोटी, सब्जी चावल बढ़िया भरपेट भोजन बंट रहा था, लोग खा रहे थे। खाना लेने के लिए लम्बी लाइन लगी हुई थी। ऐसा लगता था जैसे, सारे भुखमंगे यहीं महाकुंभ मेला में भागीदारी करने आ गए हैं। कुछ सज्जन बिल्कुल नहीं ले रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि “आप लोग क्यों नहीं ले रहे हैं, भीड़ को डर रहे हैं क्या?” उसमें से एक अधेड़ ने कहा था कि “यह धर्म क्षेत्र है, सैकड़ों सालों में यह पर्व आया है। यहाँ दान करना चाहिए! गरीब, निरीह, बेघर वालों को खिलाना चाहिए, बेसहारा को सहारा देना चाहिए, हम दान कर नहीं सकते, किसी को खिला नहीं सकते हैं तो, हमें दान लेने, खाने का अधिकार नहीं है!” मैंने कहा, “प्रसाद नहीं लेना भी तो पाप होता है, देखिए न कितने लोग लाइन में खड़े हैं, कितने खा रहे हैं!”
उस आदमी ने कहा, “प्रसाद जो भगवान के भोग से, कथा के अंत में मिले जो मुंह में डालो सिर्फ़ गले तक जाकर चुक जाए वह प्रसाद, उतना थोड़ा-सा प्रसाद लेना चाहिए! यहाँ तो बहुत से लोग पैसा कमाने आते हैं, चार-चार जगह खाते हैं, दक्षिणा लेते हैं! दाढ़ी बढ़ा लेते हैं; मेला समाप्त होने पर घर जाकर फिर दाढ़ी बनाने लगते हैं!” कल्पवासी नहाकर दान करते हैं, कोई भोजन करा रहे हैं, कोई सेज दान कर रहे हैं। कल्पवासियों के रिश्तेदार आते जाते हैं, पहचान के मित्र भी आते जाते रहते हैं। दो दो, चार-चार दिन लोग रुककर घूम-घूमकर मेला में कहीं रासलीला, राम-लीला, कहीं भागवत, कहीं पर कोई पुराण सुनते, देखते हैं। साधु-संत प्रवचन करते हैं, लोग ध्यान से सुनते हैं। सभी धर्ममय नज़र आते हैं। आस्था के इस महाकुंभ के पावन पर्व में अनेक देवी-देवताओं की झांकियाँ सजाई गई हैं। नागा साधु, किन्नर साधु, देशी साधु एवं विदेशी साधुओं के दर्शन मिलते हैं; ऐसा लगता है यहीं रुक जाएँ घर नहीं जाएँ! काश, ऐसा संभव होता!
तीन-चार घंटे घूमने के बावजूद न मैं थका न मन थका फिर भी कई किलोमीटर दूर पैदल चलकर वाहन, आटो सेवा मिली थी। जहाँ अच्छे-बुरे सभी तरह के पुलिसकर्मी भी थे; एक पुलिस वाले ने डंडे से आटो में प्रहार करके कहा, “ज्यादा पैसा ले रहा है!” उसने कहा, “नहीं सर, इन लोगों से पूछ लीजिए!” सभी सवारी आटो वाले के साथ थी, चिल्ला रही थी फिर भी उसने नहीं माना! आख़िर आटो चालक उतरकर एक तरफ़ गया फिर सही किराया करके आया तब कहीं चला! मैंने कहा, “यार तुम लोग इतना जुर्म सहते क्यों हो? ऊपर के अधिकारी घूम रहे हैं कहो न उनसे!” वह शुद्ध बघेली में कहा, “हम पैसा कमाने आए हैं, रोज़ चलना है, मेला तक रहेंगे, काहे इनसे पंगा लेई!”
पहले तीस-तीस किराया कहा था, “अब पचास रुपए में चलूंगा चलना है तो ठीक वरना, उतर सकते हैं!” उसने पचास कहा था, सौ भी कहता तो लोग उसे देते बाहरी थे, रास्ता भी पता नहीं था, भीड़ भी जमकर थी। मेला क्षेत्र में थकी नहीं लगती है, शहर में थकी भी बहुत लगती है; ऊपर से गाड़ी छूट गई तो फिर दुगुना खर्च, परेशानी ऊपर से! वह दो सौ दिया था, यात्रियों से दुगुना वसूल लिया था। कुल मिलाकर प्रशासन की व्यवस्था बहुत अच्छी थी। बहुत ही अच्छा लगता था। बार-बार मन करता है गंगा, यमुना, अदृश्य सरस्वती संगम में डुबकी लगाने को, उस मेला क्षेत्र में रहने को!
मौका मिला तो एक बार फिर आऊंगा तीर्थराज प्रयाग में इसी महाकुंभ मेला में, यही सोच रहा था कि राजनरायन मिश्र का फ़ोन आ गया था। राजनरायन मिश्र ने कहा था कि “हम चुनगी आकर आटो के इंतज़ार में हैं!” मैंने उनसे कहा, “एक गाड़ी जाने वाली है जगह भी मिली है, आप कहें तो मैं चलूं, आप कहें तो मैं रुक जाता हूँ!” उधर से आवाज़ आई, “अपना चले जाई, हम आ जाब, अपना चले जाई!” मैं घर आकर लिख रहा हूँ, रात काफ़ी हो गई है। राजनरायन मिश्र ने फ़ोन किया है, कह रहे थे, “एक दिन आकर चाय हमारे यहाँ ज़रूर पीना है आपना का!”
मैंने इस महाकुंभ मेला की यात्रा को यादगार बनाने के लिए, यह दोस्ती का रिश्ता बरकरार रखने के लिए उनके आग्रह को स्वीकार किया है, इसे मज़बूत करने का दृढ़ निश्चय किया है। अब शायद ही ऐसा महाकुंभ मेला मेरे जीवन में आएगा, इसीलिए इसे मैंने सदा के लिए सहेज लिया है।
डॉ. सतीश “बब्बा”
पता- डॉ. सतीश चन्द्र मिश्र, ग्राम + पोस्टाफिस= कोबरा, ज़िला- चित्रकूट, उत्तर-प्रदेश, पिनकोड- २१०२०८,
मोबाइल-९४५१०४८५०८, ९३६९२५५०५१.
ई मेल- babbasateesh@gmail.com
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