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भूली बिसरी यादें
भूली बिसरी यादें: धर्मपाल सिंह
मैं अपना संक्षिप्त जीवन परिचय देना चाहूँगा। मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जनपद तहसील देवबन्द हाल रामपुर मनिहारान की ग्राम पंचायत जडौदा पाण्डा के गाँव किशनपुर में एक निर्धन वाल्मीकि परिवार में हुआ था। मेरे पिता श्री उस ज़माने के मिडिल कलास तक शिक्षित व्यक्ति थे शिक्षा के प्रेरणास्रोत पिताजी ही रहे। मेरा परिवार वाल्मीकि परिवार था लेकिन हमारे परिवार में सफ़ाई का कार्य नहीं किया जाता था पिताजी खेतीहर मज़दूर थे।
इसके अतिरिक्त पशु पालन गाय भैंसो के पालन का काम होता था। मेरी प्राथमिक शिक्षा गाँव के प्राईमरी सकूल में हुयी पाँचवी कक्षा तक का ही स्कूल गाँव में था। इसके बाद हाई स्कूल के लिये जडौदा पाण्डा गाँव जाना पड़ा स्कूल गाँव से तीन किलोमीटर दूर था। जिस समय मैं नवम कक्षा में पढ़ रहा तो उस समय भी पशुपालन का हमारा काम था मैं जडौदा पाण्डा स्कूल समाप्ति के उपरांत घर आया तो मेरी माता जी ने कहा कि जंगल जाकर पशुओं के लिये घास अर्थात चारा ले आओ।
मैं जंगल गया जंगल में हमारा कोई खेत तो था नहीं हम खेतीहर मज़दूर थे लिहाजा किसान के खेत की मैढ (डौल) से जाकर घास काटने लगा उसी समय खेत का स्वामी आया और प्यार से कहने लगा कि बेटा ये खेत किसका है जिसकी डौल से तुम घास का रहे हो मैने बड़ी सहजता से उत्तर दिया कि बाबा ये खेत तो आपका है उसने फिर प्रश्न दागा कि जब ये खेत हमारा है तो डौल किसकी हुयी। मैंने उत्तर दिया कि डौल भी आप ही की है। तो उसने फिर एक और प्रश्न मुझ से किया कि जब डौल भी हमारी है तो ये घास किसका है मैने बड़ी विनम्रता से कहा ये घास भी आपका ही है मैने कृतघ्नता दिखाते हुये कहा कि बाबा मैं भी तो आपका ही हूँ।
इस पर वह वृद्ध जमीदार वहीँ नहीं रुका और मुझे कहा किबेटा अपनी दराती मुझे दो मैं विवश था दराती कैसे ना देता सो मैंने अपनी दराती उसे दे दी लेकिन एक आशंका ने मेरे अन्दर एक भय उत्पन्न कर दिया कि वह मुझे दराती से मारेगा लेकिन देवयोग से उसने ऐसा नहीं किया और दराती से मेरे काटे हुये घास को तिनका-तिनका बिखेर दिया वह तिनके नहीं मेरे सपनों को बिखेर रहा था मेरे सपने बिखर चुके थे मैं असहाय-सा खाली चादर हाथ में लेकर घर की ओर चल दिया।
यह भी कुछ अच्छा हुआ कि उसने मुझे मारा नहीं मैं आया तो माताजी ने पूछा कि घास ले आये हो मैने कहा नहीं माताजी ने कहा क्या बात हुयी मैने वाकया माताजी को बताया और माताजी को मैने इस घटना से आहत होकर कहा कि माँ किसी मत कहना मैं आपके सामने ये निश्चय कर लिया है जिस दिन इस गाँव से गया मैं वापस लौट कर नहीं आऊँगा। मैं कक्षा नवम में नागरिक शास्त्र पढ़ रहा था मौलिक अधिकार मैंने पढ़े थे समानता और स्वतंत्रता का अधिकार भी मैने पढा था।
लेकिन क्या वास्तव में समानता और स्वतंत्रता का अधिकार इस प्रजातांत्रिक देश में सबको समान है उत्तर है आज भी नहीं हैं यह दुखःद घटना मेरे जीवन में एक परिवर्तन लेकर आयी और मैं गाँव के उस पीड़ा दायी परिवेश से निकल कर आज नगर में रह रहा हूँ तदोपरांत मुझे इन्टरमिडिऐट करने के लिये देवबन्द के पास गाँव से करीब बीस किलोमीटर बाहर जाना पड़ा। वहाँ से इन्टरमीडिएट करने के बाद मेरी शादी उस समय के चलन के अनुसार हो गयी और आर्थिक कारणों से मैं शिक्षा से विरत हो गया। सन १९६७ में इन्टरमीडिएट के बाद मुझे घर पर रह कर किसानों के खेतों में मजदूरी करनी पड़ी शिक्षा से विलग हो गया।
उस वर्ष मैंने गाँव रह कर मजदूरी करके स्नातक तक शिक्षा के लिये धन की व्यवस्था की और एक वर्ष बाद फिर सहारनपुर ज़िला मुख्यालय पर बी ए में प्रवेश पा लिया। बी ए करने के बाद मैने स्नाकोत्तर कक्षा में राजनीति शास्त्र में एम ए में प्रवेश पा लिया। मैं एम ए कर ही रहा था कि मेरा सलेक्शन जनपद न्यायालय में न्याय विभाग में लिपिक पद पर हो गया। और मैंने न्यायालय में मुन्सिफ कोर्ट रुड़की में ज्वाईन कर लिया।
फिर एक वर्ष बाद मेरा स्थानांतरण मुख्यालय पर हो गया। मैने मुख्यालय पर रह कर एल-एल बी में शांयकालीन कक्षा में प्रवेश पा लिया और नौकरी भी करता रहा। वहाँ मैंने कार्य में दक्षता हासिल की और मेरी गिनती अच्छे वर्कस में होने लगी। मैने विभागीय यूनियन का चुनाव लड़ा और मैं उत्तर प्रदेश दीवानी न्यायालय कर्मचारी संघ शाखा सहारनपुर का अध्यक्ष चयनित हुआ और मैं विशेष न्यायालय अपर ज़िला एवं सत्र न्यायालय से रीड़र एवं अध्यक्ष पद से दिनाँक ३१-०५-२००९ को सेवा निवृत्त हुआ।
साहित्यिक रुचि के कारण मेरी काव्य में रुचि थी। मैं सेवा काल से ही लिखता रहा हूँ। आल इन्डिया रेडियो के निमंत्रण पर मुझे आकाशवाणी नजीबाबाद केन्द्र पर काव्य पाठ का अवसर मिला। उपर्युक्त घटना से आहत होकर मैने एक कविता लिखी जो इस प्रकार है:
मेरे गाँव की छाँव
उस गाँव की छाँव को जाने
क्यूँ मैं समझ रहा था अपना
रज में जिसकी लौट-लौट कर
ये तन मन सँवरा था अपना
उस गाँव की छाँव को जाने
उस गाँव का वह परिवेश
अब तक जिसकी यादें है शेष
था रैय्यत में मेरा निवास
न था अपना कोई लिबास
धन धरती ना छतरा अपना
उस गाँव की छाँव को जाने
लेकर किताब मैं स्कूल गया
और ऊँच नीच सब भूल गया
समान सबके अधिकार नही
दिया इस बात को तूल गया
दलित आग में पड़ा मुझे तपना
उस गा्ँव की छाँव को जाने
नागरिक शास्त्र मैं पढ़ने लगा
मन अधिकारो हित लड़ने लगा
नही था पता किताब ये झूठी है
जाने दलितों से क्यूँ ये रूठी है
इस तपन तपिश में पड़ा तपना
उस गाँव की छाँव को जाने
अब भी याद मुझे है वह दहका
उस गाँव की खेत की वह डौल
उस डौल पर उगी उस दूब का
मुझे चुकाना पड़ा था मोल
बुजुर्गो को पडा मरना खपना
उस गाँव की छाँव को जाने
मुझे यह भी नहीं था कुछ पता
मोल घास का चुकाना पडे़गा
वो गाँव छोड़ कहीं जाना पड़ेगा
फीते के हरेक के पड़ेगा नपना
उस गाँव की छाँव को जाने
गाँव जंगल उनका खेत उनका
डौल पर उगा घास भी उनका
फिर मेरा क्या था उस गाँव में
मेरे हिस्से का उगा नही एक तिनका
मेरी आँखों ने देखा टूटता सपना
उस गाँव की छाँव को जाने
जिस गाँव में कोई भी हक़ ना हो
मैं क्या करूँ ऐसे उस गाँव का
विपदा घृणा तिरस्कार जहाँ हो
क्या करूँ ऐसे मातृभूमि के भाव का
जहाँ मिला हो कभी कोई हक़ ना
उस गाँव की छाँव को जाने
मैं उस गाँव में एक मजदूर था
खाली था उदर मैं भी मजबूर था
उज़रत ना मिले मज़ाक ये क्रूर था
उसको जमीदार होने का गुरूर था
सीखा उसने इंसानियत का सबक ना
उस गाँव की छाँव को जाने
मै क्यूँ समझ रहा था अपना
धर्मपाल सिंह वाल्मीकि
सहारनपुर
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