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बेटी ने क्या उपहार दे दिया?
बेटी ने क्या उपहार दे दिया?
आज से करीब २०-२५ साल पहले चाहे शहर हो या गाँव इसमें पोस्ट मेन की क्या क़ीमत होती थी ये बात हमें अपने बुजुर्गो से पता चलता है। परन्तु समय के इस परिवर्तन के बावजूत भी आज हमारे गाँवो में डाकिया की बहुत ही वैल्यू होती है। कभी-कभी हमारे जीवन में कुछ इस तरह की घटनाएँ घट जाती है जिन्हे हम पूरे जीवन नहीं भूल पाते है। आत्मीयता और मानवता की मिसाल पर आधारित ये एक छोटी-सी कहानी है। जिसने एक करीब ५० साल के डाकिया को वह तोफा दिया जो हम साथ में रहने वाले उन्हें कभी भी नहीं दे सके। बेटी का ये उपहार उन्हें क्या-क्या सोचने पर मजबूर कर देता है?
मोहन काका डाक विभाग के कर्मचारी थे। बरसों से वे लखनपुरा और आस पास के गाँव में चिट्ठियाँ बांटने का काम करते थे। एक दिन उन्हें एक चिट्ठी मिली, पता लखनपुरा के करीब का ही था लेकिन आज से पहले उन्होंने उस पते पर कोई चिट्ठी नहीं पहुँचाई थी। रोज़ की तरह आज भी उन्होंने अपना थैला उठाया और चिट्ठियाँ बांटने निकला पड़े। सारी चिट्ठियाँ बांटने के बाद वे उस नए पते की ओर बढ़ने लगे। दरवाजे पर पहुँच कर उन्होंने आवाज़ दी, “पोस्टमैन!” अन्दर से किसी लड़की की आवाज़ आई, “काका, वहीं दरवाजे के नीचे से चिट्ठी डाल दीजिये।”
“अजीब लड़की है मैं इतनी दूर से चिट्ठी लेकर आ सकता हूँ और ये महारानी दरवाजे तक भी नहीं निकल सकतीं!” , काका ने मन ही मन सोचा। “बहार आइये! रजिस्ट्री आई है, हस्ताक्षर करने पर ही मिलेगी!” , काका खीजते हुए बोले। “अभी आई।” , अन्दर से आवाज़ आई। काका इंतज़ार करने लगे, पर जब २ मिनट बाद भी कोई नहीं आयी तो उनके सब्र का बाँध टूटने लगा। “यही काम नहीं है मेरे पास, जल्दी करिए और भी चिट्ठियाँ पहुँचानी है” और ऐसा कहकर काका दरवाज़ा पीटने लगे। कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला। सामने का दृश्य देख कर काका चौंक गए। एक १२-१३ साल की लड़की थी जिसके दोनों पैर कटे हुए थे। उन्हें अपनी अधीरता पर शर्मिंदगी हो रही थी। लड़की बोली, “क्षमा कीजियेगा मैंने आने में देर लगा दी, बताइए हस्ताक्षर कहाँ करने हैं?” काका ने हस्ताक्षर कराये और वहाँ से चले गए।
परन्तु उनके मन में बहुत सारे प्रश्न उठने लगे की में इस गाँव में करीब १५-१७ सालो से आ रहा हूँ और मैंने इस घर पर कभी भी कोई चिट्ठी नहीं दी, आखिरकार ये किस की बेटी है और कौन-कौन इसके घर में साथ रहते है? गाँव में पता किया फिर कुछ ख़ास पता नहीं चला।
इस घटना के आठ-दस दिन बाद काका को फिर उसी पते की चिट्ठी मिली। इस बार भी सब जगह चिट्ठियाँ पहुँचाने के बाद वे उस घर के सामने पहुँचे! “चिट्ठी आई है, हस्ताक्षर की भी ज़रूरत नहीं है…नीचे से डाल दूँ।” , काका बोले। “नहीं-नहीं, रुकिए मैं अभी आई।” , लड़की भीतर से चिल्लाई। कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला। लड़की के हाथ में गिफ्ट पैकिंग किया हुआ एक डिब्बा था। “काका लाइए मेरी चिट्ठी और लीजिये अपना तोहफ़ा।” , लड़की मुस्कुराते हुए बोली। “इसकी क्या ज़रूरत है बेटा” , काका संकोचवश उपहार लेते हुए बोले। लड़की बोली, “बस ऐसे ही काका…आप इसे ले जाइए और घर जा कर ही खोलियेगा!” काका डिब्बा लेकर घर की और बढ़ चले, उन्हें समझ नहीं आर रहा था कि डिब्बे में क्या होगा! घर पहुँचते ही उन्होंने डिब्बा खोला और तोहफ़ा देखते ही उनकी आँखों से आंसू टपकने लगे। डिब्बे में एक जोड़ी चप्पलें थीं। काका बरसों से नंगे पाँव ही चिट्ठियाँ बांटा करते थे लेकिन आज तक किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया था। ये उनके जीवन का सबसे कीमती तोहफ़ा था…काका चप्पलें कलेजे से लगा कर रोने लगे। उनके मन में बार-बार एक ही विचार आ रहा था-बच्ची ने उन्हें चप्पलें तो दे दीं पर वे उसे पैर कहाँ से लाकर देंगे?
दोस्तों, संवेदनशीलता या sensitivity एक बहुत बड़ा मानवीय गुण है। दूसरों के दुखों को महसूस करना और उसे कम करने का प्रयास करना एक महान काम है। जिस बच्ची के ख़ुद के पैर न हों उसकी दूसरों के पैरों के प्रति संवेदनशीलता हमें एक बहुत बड़ा सन्देश देती है। आइये हम भी अपने समाज, अपने आस-पड़ोस, अपने यार-मित्रों-अजनबियों सभी के प्रति संवेदनशील बनें…आइये हम भी किसी के नंगे पाँव की चप्पलें बनें और दुःख से भरी इस दुनिया में कुछ खुशियाँ फैलाएँ। यदि हम सभी लोगों के मन में ये भाव जगाने लगे तो समझ लीजिए की सम्पूर्ण विश्व में भारत की एक अलग ही पहचान होगी और हमारे देश की एकता और अखंता को विश्व का कोई भी देश हिला नहीं सकता है। बस हमें अपनी आत्मा की आवाज़ को एक बार जगना है। देश में न जाने कितनी बेटियाँ और बेटे इस तरह की भावनाएँ व्यक्त करे आ रहे है। परन्तु ये सन्देश अभी तक पूरे देश में नहीं फैला है। अब हम और आपका फ़र्ज़ बनता है कि इसे देश के प्रत्येक नागरिकों तक पहुँचाया जाए और लोगों के मन में पुन: आत्मीयता को वापिस लेकर आये। जय हिन्द, जय भारत।
माँ बाप के प्रति सोच ये है तो…
वैसे तो इस कलयुग में किसी से भी सत युग जैसे व्यवहार कि उम्मीद करना बहुत ही बड़ी बेईमानी होगी। परन्तु फिर भी हम सोच सकते है कि हमने अपने बच्चों को तो बहुत ही अच्छे सँस्कार दिये हैं, तो हम ये उम्मीद कर सकते है कि वह शायद एक दम से हम लोगों कि उपेक्षा न करे। परन्तु इस कलयुग कि महाभारत को देखकर डर तो लगता ही है।
एक बात और अक्सर हमारे समाने हमेशा ही आती है कि जैसे हमने कर्म किये है या जैसा हमने अपने माता पिता के साथ बर्ताव किया है, वैसा ही तो हमें फल नहीं मिल सकता है। हमने तो सदा ही अपने माँ बाप के प्रति अपने दायित्व का निर्भय पूरी निष्ठां और लगन के साथ निभाया है। जो शायद इस कलयुग में किसी भी बच्चों को करना बहुत ही कठिन और जटिल कार्य है या हो सकता है। फिर भी मैं लिख रहा हूँ कि शायद कोई इस कलयुग में श्रवण कुमार हो या बन सकता है, यदि वह ये सब कार्य करने की कोशिश करे तो:-
माता पिता के चरणों
में ही चारों धाम हैं।
जो इस बात को माने,
वो ही सच्ची संतान है।
बिना मातापिता की सेवा के,
निष्फल यात्रा चारोंधाम की।
क्योंकि माता पिता के
चरणों में ही चारों धाम है।
जो इस बात को समझे,
वो ही सच्ची संतान है॥
जो बच्चे दिन की शुरुआत,
कुछ ऐसे करते है।
सबसे पहले उठकर मातापिता के,
चरणों को स्पर्श करते है।
चारों धाम के तीर्थ का सुख
घर बैठे स्वयं मिला जाता है।
क्योंकि माता पिता के
चरणों में ही चारोंधाम है।
जो इस बात को माने,
वो ही सच्ची संतान है॥
सुखद रहेगा उनका जीवन,
जो माता पिता को पूजते है।
हर सफलता उनके कदमो
को सदा ही चूमती है।
क्योंकि माता पिता का आशीर्वाद
अपने आप में ही बड़ी जान है।
माता पिता के चरणों
में ही चारों धाम है।
जो इस बात को माने,
वो ही सच्ची संतान है॥
नहीं हो रहा विश्वास तो,
करके देख लो एक बार।
स्वंय ही मान जाओगें,
और मातापिता की भक्ति का
ये बहुमूल्य उपहार तुम पाओगें।
कैसे काया पलटती है
बस देखते ही रह जाओंगे।
और सुख, शांति, समध्दि का ये
अनोखा उपहार बिन मांगे पाओगें।
क्योंकि माता पिता के
चरणों में ही चारों धाम हैं।
जो इस बात को माने,
वो ही सच्ची संतान है॥
पुन: सभी महानुभावों से मैं अनुरोध और विनती करता हूँ, की मत करो उपेक्षा अपने जन्म देने वाले माता पिता की, मत छोड़ो उन्हें किसी भी आश्रमों में, आप बहुत ही भाग्यशाली और भाग्यवान हो जिनको ये अवसर मिल रहा है, की कम से कम आपको ये सौभाग्य मिला हैं, की आप अपने जन्म देने वालो की सेवा कर सके। ये अवसर आपको बिना ख़र्च किये ही घर बैठे आपको मिल रहा है। आप अपने जीवन को सही मायने में जीये और दूसरो को भी जीने दे।
यदि आपने माता पिता की सेवा पूरी सच्ची लगन से की है तो निश्चित ही आप अपने हर कार्य में सफल अवश्य ही होंगे। क्योंकि आपके माता पिता का आशीर्वाद सदा ही आपके साथ और सिर पर रहेगा और कहते है कि माँ बाप की दुआओं से बढ़ाकर और कुछ भी नहीं है। इसलिए पहले माँ बाप को आप पूजे उसके बाद ही … तभी आप सच्चे और अच्छे इंसान बन सकते हो।
जय जिनेंद्र देव
संजय जैन “बीना”
मुंबई
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