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एक सकारात्मक परिवर्तन
एक सकारात्मक परिवर्तन: श्रीमती इंद्रा
अभी कुछ समय पूर्व मेरी माताजी के धर्म-भाई का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण निधन हो गया था। उनके परिवार को कुछ समय के लिए कोरोना के अंदेशे के तहत क्वारेंटिन किया गया था। इस कारण लगभग एक माह पश्चात शनिवार, १७-१०-२०२० को मेरा उनके परिवार से मिलना हुआ। मैं अपनी माताजी के साथ मेरे मामाजी के यहाँ शोक रूपी भावना के साथ मिलने के लिए गई।
हम जाति से मेघवाल समाज के है और माताजी के धर्म-भाई माली समाज से है। मैं वहाँ पर गई ज़रूर शोक रूपी भाव के साथ, लेकिन वहा से वापस एक नई परिवर्तन रूपी ख़ुशी के साथ लौटी। हुआ यू कि जब मैं अपनी मामीसा के पास गई तो मुझे लगा कि शायद ये मेरे मामीसा नहीं है, क्योंकि घर में किसी आदमी की मृत्यु का पता अधिकांशतया औरत की वेशभूषा या पहनावा देखकर लगाया जाता है।
मैने अपने परिवार में अपने पिताजी व अपने ससुराल में मेरे काकी-श्वसुर जी की मृत्यु के पश्चात जो घर का माहौल और जो व्यवहार स्वर्गवासी व्यक्ति की पत्नी के साथ होता है, उसको प्रत्यक्ष व गहराई से अनुभव किया। किसी भी पुरुष जो कि शादीशुदा हो, यदि उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसकी जीवित पत्नी के साथ जो व्यवहार होता है वह किसी नरक की दर्दपुर्ण यातना से कम नहीं होता। पुरुष की मृत्यु के पश्चात उसके बारहवें के दिन जीवित पत्नी की कोर लगी चुंदड़ी, रंग-बिरंगी चूड़ियाँ, बिंदिया, फीणी, बिछुड़िया सारी चीजे छीन ली जाती है। बल्कि यदि वह खराब होते नाखून पर नेल पेंट या खराब होते होठों पर हल्की लिपिस्टिक भी लगा ले तो उस पर क्या-क्या बातें बनाई जाती है, ये सुनकर भी कानों को दर्द—सा होने लगता है।
लेकिन जब मैने अपनी मामीसा को देखा तो एक बार उन्हें पहचान ही नहीं पाई, क्योंकि उनके तो पहले की तरह ही कोर लगी लाल चुंदड़ी ओढ़ी हुई थी, बिंदिया लगी हुई थी, फीणी व बिछुडिया भी यथावत पहनी हुई थी। नाखूनों पर भी नेल-पालिश थी। एक बार तो देखकर ज़रूर अजीब लगा, किन्तु फिर जो मन व हृदय को आत्मिक आनंद मिला शायद ही उसकी तुलना मैं किसी से कर सकू। उस औरत की व्यथा, जिसके पति की मृत्यु हो जाती है, उसके दर्द को जो वह एक पुरूष और समाज को दिखाना चाहती है, उसको मैने इन शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है-
” माता छोड़ी, पिता को छोड़ा
भाई-बहन, घर को छोड़ा।
आंगन छोड़ा, द्वार छोड़ा
मन की हर ख्वाहिश, उपहार को छोड़ा।
चाहता है ये समाज अब भी मुझसे
तू भले ही चाहे रूठे मुझसे,
मै न रूठूं कभी तुझसे।
जाए जब तू मुझे छोड़कर
जीऊँ मैं गले की माला तोड़कर।
रख दूं एक तरफ़ बिंदी-चूड़ी
तज दूं हिना और धानी चूनर को…॥”
एक लड़की जब वह पीहर में होती है और उसकी शादी या सगाई होने से पूर्व भी वह बिंदिया, मेहंदी या नाक की फीणी व नेल पेंट आदि कुछ चीजें अपने लिए काम में लेती है। शादी के बाद बस वह मंगलसूत्र और मांग में सिंदूर, इन दो नई बातों को अपने जीवन में ढालती है। लेकिन शादी के बाद यदि किसी औरत के पति की मृत्यु हो जाती है, तो उसके परिवार व समाज के गणमान्य लोगों के द्वारा उस औरत पर सब चीजों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया जाता है तो उसका हृदय कितना आहत होता है, उसकी कल्पना मात्र से ही एक पीड़ा का आभास होता है। मुझे अपनी मामीसा को देखकर उनके परिवार द्वारा जो एक छोटा किन्तु सही दिशा में किया गया प्रयास एवम् परिवर्तन बहुत ही सकारात्मक व सजीव लगा। जब तक ऐसे परिवर्तन एक ठोस परिणाम न दे, तब तक हम सभी को मिलकर इसके बारे में सोचने व कार्य करने की आवश्यकता है।
वर्तमान समय में अधिकतर पढ़े-लिखे लोग और विद्वानजन समाज में स्त्री-पुरुष समानता की बात करते है किन्तु जब तक एक महिला स्वयं को पुरुष तथा एक पुरुष स्वयं को महिला की जगह पर रखकर उसका दर्द और उसकी तकलीफ को महसूस नहीं करेंगे, तब तक समानता रूपी शब्द एक बहस ही परिलक्षित होगा।
मैने एक सकारात्मक परिवर्तन की चाह में ये छोटा—सा लेख लिखकर अपनी बात को आप तक पहुँचाने का प्रयास किया है। यदि आप शिक्षित है और एक मनुष्य रूपी शरीर में इन्सान का हृदय रखते है तो आप चाहे किसी भी जाति या समुदाय से क्यों न हो, आप इस परिवर्तन रूपी पहल में ज़रूर साथ देंगे। इसी आशा के साथ…
श्रीमती इंद्रा (अध्यापिका)
श्रीमती राधा रा. उ. प्रा. वि.
बिंजवाड़िया, तिंवरी, जोधपुर
(राज.)
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