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अरमानों की उड़ान
अरमानों की उड़ान: जे. एस. चौहान
काली अंधेरी रात में करीब सवा एक बजे के आसपास का समय था। आकाश में तारे टिमटिमाते हुए एकाग्रचित्त होकर जैसे रागिनी की ओर करुण भाव से देख रहे हैं। रागिनी एक नवयुवती आयु २१ वर्ष। रंग गेहूंआ, लम्बी और सर्वगुण सम्पन्न हैं।
जवान चंचल चित्त और उस पर यह शीतल रात और रह-रह कर मन की इच्छाएँ रागिनी को आ घेरती है। उसकी नींद भी जैसे रूठकर कहीं चली गई हैं और वह अंधेरी रात में छज्जे पर पड़ी खटिया पर बैचेन होकर तारों की पंक्तियों के बीच अमन को खोजते हुए सुखद क्षणों की स्मृतियों में खो जाती हैं।
“१८ वर्ष की होते ही भँवरलाल जी ने पास के गांँव में ही परमानंद जी के बेटे अमन जो कि सैना में आरक्षक है, से तय कर दी। धुमधड़ाके से बारात का आगमन हूआ और रागिनी ने एक नई दहलीज़ पर क़दम रखा। ससूराल आते ही रागिनी ने घर का सारा कामकाज संभाल लिया। सास ससूर के रूप में वह अपने ही मांँ बाप को देखती थी। बाबूजी जब भी बाज़ार जाते रागिनी के मनपसंद की वस्तुएँ ज़रूर लाते और सासू मांँ जानकी देवी भी अपना सारा लाड़ उस पर लुटा देती थी और अमन का क्या कहना, पति रूप में जैसे देवता हो।
उसे खुश रखने के लिए अमन नये-नये उपाय करके उसे हँसाता रहता था पर जब अमन का अवकाश समाप्त होने को आया तब घर में जैसे मातम—सा छा गया। बाबूजी को पता चला तो वे अपने आंँसू पोंछते हुए खेतों की ओर निकल गए। माँ भी पड़ोस में चली गई। अब अमन ने रागिनी को दिलासा देते हुए कहा, कि तीन महिनों की तो बात है, मैं बस यूँ गया और यूँ आया, देश सेवा का मौका आया है, कोई हाथ से कैसे जाने दे।”
सुबह के आज आठ बज गए थे, वह अभी भी सो रही थी। सूरज भी रागिनी का दुःख समझता था। इसलिए वह भी बादलों की ओट में लुकाछिपी कर रहा था। किन्तु नीचे से सासू मांँ की आवाज़ आती हैं-रागिनी रागिनी आठ बज गए हैं। बेटा बाबूजी को खेत पर जाना है। खाना कब तैयार करेगी। सहसा रागिनी का निद्रा भंग होता है और वह नीचे चली जाती हैं। दोपहर का वक़्त रागिनी का मन हिलोरें मार रहा है, अभी विवाह को हुए तीन ही वर्ष तो हुए थे। उस पर यह यौवन, मन को तो समझा लिया था पर यह अतृप्त इच्छाएँ रागिनी को एक पल भी चैन से रहने नहीं देती। उसने अपने मन को समझाने के लिए पड़ोस में नई ब्याहता कामिनी के पास जाना उचित समझा।
कामिनी ही थी जो उसकी टीस समझती थी। कामिनी से दो चार सुख दुःख की बात की तब जाकर उसे थोड़ी शीतलता महसूस हुई। किन्तु यह सुकुन भी रागिनी के लिए अधिक समय तक नहीं टिक सका। अचानक रागिनी को देखकर कामिनी की सास की भौंहे तन गई। रागिनी के जाते-जाते कामिनी की सास के कटु शब्द रागिनी के कानों में पड़ गए। अरी! इस कुलटा के संग क्या बतिया रही है, अभागन कुलनाशिनी ब्याह के साल भर होते ही अमन को खा गई। रागिनी घर में जाते ही धड़ाम से पलंग पर गिर गई और तकिए को कलेजे से लगातार लगाकर रोती रही। हाय! मेरा भाग्य, अमन तुम क्यों ऐसे चले गए।
दो देशों की लड़ाई में शहीदों की पत्नियों को भी कितना पीसना पड़ता है। काश! ये मुल्कों के झगड़े ना होते तो मुझ जैसी औरतें भरी जवानी में विधवाएँ ना होती। सुरज भी छिपने लगा तब बाबूजी खेतों से आए और रागिनी ऊपर के मन से उठी, उठते ही दो लोटे पानी घटर-घटर पी गई। सोच रही थी अब यह दिन तो ओरौं के ताने सुन-सुनकर कट गया अब रात में अतृप्त इच्छाएँ आ घेरेगी। यही सोचते-सोचते वह घर के काम काज में लग गई।
आतंकवादियों से मुठभेड़ में अमन के शहीद होने के बाद रागिनी ने ऐसे ही पल-पल बड़े ही कष्ट झेलते हुए दो साल निकाले। किन्तु अब उसका ज़ख़्म धीरे-धीरे भर रहा था। ओर भरी जवानी में विधवा होने पर आगे की यह लम्बी ज़िन्दगी काटना उसे पल-पल मरने के समान लग रहा था। अमन का मित्र उदय कभी-कभी घर आता जाता रहता था। पास के ही गाँव की पंचायत में वह मंत्री है। वह एक नौजवान युवा उम्र २५ के करीब और अविवाहित है। वह जब भी आता रागिनी सास-ससुर से ज़रूर रागिनी के बारे में बात करता। कहता-मुझसे रागिनी का दुःख नहीं देखा जाता। अभी तो उसे बहुत लम्बी उम्र काटनी है।
रागिनी अपने दुःख को हल्का करती यदि कोई उसकी बात करता। वह मन ही मन उसे पसंद करने लगी थी। वह पिंजरे में बंद पंछी की तरह तड़प रही थी, आजाद होकर खुले आसमान में अरमानों के पंख लगा उड़ना चाहती थी, किन्तु फिर वही परम्पराओं का लबादा, लोग क्या कहेंगे और यह सब सोचकर अपनी भावनाओं को ह्रदय में ही दफना दिया करती थी। एक दिन बाबूजी ने उदय से कहा देखो बेटा तुम यों बार-बार यहांँ मत आया करो, अमन होता तब तो कोई बात नहीं थीं। गाँव में लोग तरह-तरह की बातें करते है। भाई बुढ़ापे में कहीं कोई दाग लग गया। तो सारी उम्र की कमाई इज़्ज़त एक पल में मिट्टी में मिल जाएगी। यही वज़ह थी कि दोनों अपने रिश्ते को आगे बढ़ा नहीं पाए।
परन्तु रागिनी अब बीते हुए कल को पीछे छोड़ अपने आगे पड़ी इस वीरान ज़िन्दगी में फिर से अरमानों की सेज सजाना चाहती थी और अब उसने अपने मन को भी समझा लिया था। एक दिन वह अपने घर के बरामदे में बैठी उदास पत्थर बनी हुई थी कि अचानक बाबूजी खेतों से आए और उसे इस तरह उदास देख बहुत दुःख हुआ। दो तीन बार आवाज़ देने पर ही वह वर्तमान में लौटी। बाबूजी को रागिनी की विरहा का दुःख समझ आ रहा था। वे मन ही मन अपने ऊपर झल्ला रहै थे, कि हम लोग अपनी सामाजिक परम्पराओं के पालन में कितनी ही नारियों के अरमानों की बलि चढ़ा देते हैं।
आज उन्हैं एहसास हुआ कि जो परम्पराएँ, प्रथाएँ किसी का जीवन नरकीय बना दे। उनका त्याग करने में कोई बुराई नहीं है। सच है परम्पराओं, रूढ़ियों का काम रोते हुए को हँसाना होना चाहिए। आज भंवरलाल जी की आंखों से भ्रम का चश्मा उतर गया था, उन्होंने जानकी देवी को भी मना लिया और उदय के पास बुलावा भेजा। किन्तु उन्हैं डर था, तो लोकलाज का और उन रसुखदारों का जो रूढ़ियों, परम्पराओं को पकड़े बैठे थे, खैर जो भी हो उन्होंने तो बहू के जीवन को सँवारने की ठान ली थी। यह बात धीरे-धीरे गाँव भर में फैल गई।
और एक दिन गांँव के रसूखदार कुछ लोगों के साथ हाथों में लठ लेकर भंँवरलालजी की चौखट पर आ धमके। भौंहे तानकर कहा—भंँवरलालजी यह हम क्या सुन रहे हैं, समाज, रीति-रिवाज, परमपराएँ भी तो कुछ होती हैं। एक स्त्री अपनी मर्यादा में रहे तो ठीक है। आज तक हमारे समाज में ऐसा नहीं हुआ और आप रागिनी का फिर से विवाह करना चाहते हैं एक विधवा का धर्म भूल गए। आप सूरज को रोशनी दिखा रहै हैं। ऐसा अनैतिक कार्य हम नहीं होने देंगे, देखते हैं कौन इसे ब्याहने आता है। बाबूजी पसीने से तरबतर हो रहे थे घबराहट उनके चेहरे पर साफ़ नज़र आ रही थी।
लेकिन अगले ही पल उदय अपने संग थानेदार मैडम को लेकर आ गया था उसने पूरा हाल थानेदार मैडम को बता दिया था। थानेदार मैडम ने आते ही गाँव के लोगों को समझाया और बताया कि अगर किसी का घर फिर से बसता है तो ऐसे रीति-रिवाजों को बदलना बहुत ज़रूरी है क्योंकि जो मूल्य और रीति रिवाज़ पुराने थे उनका समय के अनुसार महत्त्व कम हो जाता है। इसलिए उन्हें त्यागने में ही सबका भला है। रागिनी के सामने एक पूरी ज़िन्दगी पड़ी है, अब आप ही सोचो कैसे घुट-घुट कर वह अपने दिन काट रही है आजकल तो कानून में भी विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित हो चुका है।
किसी भी विधवा को पुनर्विवाह से वंचित रखना यातना के बराबर है जो कि एक अपराध की श्रेणी में आता है। महिलाओं को भी समाज में एक अच्छा स्थान मिले इसके लिए सरकार नई-नई योजनाएँ लाती है। देखो मैं भी तो एक औरत हूँ, मैंने भी अपने अधिकारों को समझा और घर और देश सेवा दोनों एक साथ कर रही हूँ। फिर भी अगर आप लोग रागिनी को प्रताड़ित करेंगे तो मजबूरन हमें बल प्रयोग करना पड़ेगा।
इस तरह थानेदार मैडम ने बहुत देर तक ग्रामीण जनों को समझाया तब कहीं जाकर उन्हें समझ आया किंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि यदि गरिमा शादी के लिए हाँ करती है तो हम विरोध नहीं करेंगे और आगे भी आने वाले समय ऐसी समस्याओं का निराकरण हम मिलजुल कर करेंगे। रागिनी से पूछा गया तो रागिनी शर्म से कुछ बोल नहीं पाई। विवाह की तिथि निर्धारित हो गई और वह दिन भी आ गया। हर कोई सोच रहा था देखो कुदरत ने क्या खेल रचा जिस घर ब्याह कर आई थी आज उसी घर से ब्याह कर विदा हो रही है। ससूराल है या मायका, सास-ससुर है या माता-पिता। क्योंकि वह आज अपनी बहु का बेटी की तरह कन्यादान कर रहे थे। दोनों की आँखे अश्रुपूरित थी। लेकिन यह अश्रु ख़ुशी के थे या ग़म के, आज हर कोई इस नजारे से अचंभित था।
लेकिन रागिनी को अब कहाँ रूकना था। वह पिंजरे से आजादी की ख़ुशी मना रही थी। वह तो अपने अभागे सफेद पंखों को नवजीवन से रंग रही थी। उन सफेद वस्त्रों को जिन पर विधवा की छाप लगी थी, उन्हैं रंगीन बेल बूटों से भरना था। उसे तो उड़ना था, खुले आसमान तले फिर भूलाकर सारे दुःख दर्द, एक नव जीवन में क़दम रखना था। वह तो नहीं रूकी, फैला दिए पंख और एक नया संसार फिर बसाने, किसी की बगिया को फिर महकाने वह तो उड़ चली, वह तो उड़ चली।
सच है नारी का सम्पूर्ण जीवन फूलों जैसा है जो बगिया की तरह घर-संसार को खुशियों से महका देता है। उसे भी खेलने दें, हँसने दें, ख़ुशी के गीत गाने दें। वह तो उस दीपक की तरह है जो स्वयं जलकर दूसरों को रोशनी देता है। आओ हम सब संकल्प करें कि उन परम्पराओं और प्रथाओं का त्याग करें जो किसी का जीवन नर्क बनाती है।
जे. एस. चौहान ‘जय’
गोकुलपूर, देपालपूर, इन्दौर (मप्र)
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