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अनुताप गांधारी का
मैं गांधारी,
अंतस में समेटे दाह अपार
होती रही विगलित
प्रतिपल, प्रतिछिन।
अनुत्तरित प्रश्न अनेक
उठते हैं मन में अनेक
अस्तित्वशेष हो कर भी
क्या पाया मैंने?
क्या है कुछ एेसा
उपलब्धि मान जिसे
मैं अपनी अन्तर-ज्वाला
शीतल कर लूँ?
मरूस्थल की मरीचिका-सी स्मृतियाँ
रह-रह कर चमक उठती हैं मन में।
ओर-छोर के बंधन से मुक्त
व्यथा-कथा बढ़ती ही जाती है।
आज भी सजीव है दृश्य वह
जब मैं, गांधार-राजकन्या,
यौवन-भार से मदमाती,
सौंदर्य को सुंदर बनाती
अपना कंदर्प ढूँढती फिर रही थी
कल्पना उपवन में।
मैं रूप गर्विता, आत्ममुग्धा गांधारी।
मुझे क्या था ज्ञात
कि निष्ठुर अज्ञात
दबे पाँव क्रूर अहेरी सा
बढ़ आया था
मुझे अपने कुटिल पाश में जकड़ने
भीष्म के रूप में।
हाँ, भीष्म आए थे।
हस्तिनापुर के गौरव के मापदंड,
उसके संरक्षक, उसके लिए
अपने मन की समस्त कोमलता को,
कठोरता से कुचल देने वाले
भीषण देव व्रत, पितामह।
आए थे अपने दृष्टिहीन पौत्र
के जीवनांधकार को मेरे
रूप के आलोक से जगमगाने
विनम्रता से उन्होंने
प्रयोजन प्रकटाया था।
लेकिन विनय के आवरण में
सायास छिपा शक्ति दर्प भी
स्पष्ट उभर आया था।
और गांधारनरेश,
विवश जनक मेरे
अपमान गरल यह
चुपचाप पी गए थे।
मेरे सपने, मेरा कंदर्प,
मेरा रूप गर्व सब
तिमिर में खो गए थे
और मैं गांधार-राजकन्या
गांधारी,
अंतस में समेटे अपार दाह
कौरव-वधू हो गई थी।
आक्रोश मेरा मुझे ही डस बैठा,
दृष्टिहीन पति का मुख तक न देखूंगी
संकल्प यह
मुझे भी दृष्टिहीन कर बैठा
मूंद लिए नेत्र विवेक ने भी मेरे
रूप रस भरा संसार।
पल में ओझल हो गया
अहंकार मेरा हाहाकार बन
पछाड़ें खाने लगा
निशब्द रूदन मेरा
मुझे ही डरपाने लगा।
कितना विद्रूप था
परिहास यह नियति का
अंधपति का साथ निभाने को
स्वेच्छया दृष्टिवंचिता पति व्रता को
सब धन्य-धन्य कह उठे
मैं देवी कहलाने लगी।
पूजी जाने लगी।
पाहन-पूजन की रीति यह
कितनी निठुर है।
पाषाण-मध्य बहती
व्यथा अंत: सलिला को
कोई न जान पाया।
और आज चिर अंतराल बाद
कुरूक्षेत्र के श्मशान में
बिलखती, मुझ अभागिनी माँ के
मन को कृष्ण ने टटोला है
दिया है स्नेहभरा आदेश
दृष्टि खोलो माँ, देखो तो
नहीं जानता क्या कृष्ण
अब बचा क्या है देखने को?
अपनी संतान को लहुलुहान,
निष्प्राण देखने का साहस
नहीं है मुझमें।
साहस?
क्या आज ही नहीं है?
कभी भी नहीं था शायद
तभी तो मैंने एक ही पराजय में
जीवन हार दिया
अपने दायित्व से विमुख
पराजय को जय मान लिया।
मुख तक नहीं देखा
अपनी संतानों का
झरना ममता का
सूख गया था क्या?
कैसी आत्म प्रवंचना थी यह?
मुझ आत्म प्रवंचिता को
किसी ने भी तो नहीं कहा
दृष्टि खोलो गांधारी
तुम्हारी स्नेहिल दृष्टि की
आकांक्षी है तुम्हारी संतति
तुम्हारा आलंबन चाहिए इन्हें
चाहिए मार्गदर्शन
जो केवल और केवल
तुम दे सकती हो इन्हें।
तब तुम कहाँ थे कृष्ण?
क्यों नहीं बोले?
आंखे खोलो माँ।
काश एक बार तो कहा होता
मेरे स्नेहिल निषेध
धंसने न देते
मेरे पुत्रों को
स्वार्थ-अहंकार की दलदल में
शोणित के पारावार में॥
मैं जो आज दृष्टि फाड़े
खोज रही हूँ चारों ओर।
लाशों के अंबार में
पहचानना चाह रही हूँ
अपने सुयोधन को, दु: शासन को,
अपनी दु: श्शला के पति को
और उस भीष्म को भी
जिसने भर दिया था
अनजाने ही
विनाश का पारावार
मेरे और समस्त हस्तिनापुर के
भविष्य में।
मैं ढूँढ रही हूँ
अपने अभिमन्यु को
जिस निहत्थे अकेले का
वध किया था मेरे महारथी पुत्रों ने।
बस, अब नहीं
दृष्टि धुंधला रही है।
अंतस का सारा ताप
बरसने लगा है मूसलाधार
कुरूक्षेत्र की कलंकित धरा को
उजला करने को
जिसमें फिर जन्मेगा
इतिहास नया।
उत्तरा के गर्भ में
पलता अंकुर
शायद मेरी पीड़ा को
सार्थक कर दे।
क्षमाप्रार्थिनी हूँ मैं
मैं वंचिता, मैं गांधारी।
शर-शय्या
हो चुका था
आज का युद्ध विराम।
प्रचंड पराक्रम, अद्भुत रणकौशल का,
अप्रतिम प्रर्दशन कर,
भीष्म पितामह
शायित थे
वीरोचित शर-शय्या पर।
जीवन भर की असंतुष्टि,
समस्त वेदना उनकी
आज आश्वस्त हो पाई थी।
उनकी विशद चेतना
निर्मल बुद्धि, पा निर्बन्ध
मुक्ति मार्ग,
आज सचमुच मुस्कराई थी।
शर-शय्या यह
उन्हें आज पुष्प सम कोमल,
गंगा जल-सी शीतल लग रही थी।
आज उनकी चिरव्यथा,
उनकी क्रूर नियति,
उनसे सदा-सर्वदा के लिए
किनारा कर रही थी।
शांत, धीर, गंभीर मना
पितामह सोच रहे थे,
इस युद्ध के विषय में।
जिसकी क्षति पूर्ति
असंभव थी युगों-युगों तक।
और आज का युद्ध तो
कितना भयावह था।
दुर्योधन के व्यंग्य बाणों से
आहत भीष्म, आज
साक्षात महाकाल बन आए थे।
रण क्षेत्र में मचा था तांडव,
त्राहि-त्राहि के स्वर
धरती से अंबर तक छाए थे।
देख यह विकरालता, विभीषिका,
स्वयं श्रीकृष्ण भूल प्रण अपना,
सारथ्य छोड़ अर्जुन का,
कुपित नेत्र लिए, चक्र उठा,
रणक्षेत्र में धाए थे।
पितामह की आक्रामकता का
निदान ढूँढते, धर्मनिष्ठ पांडव,
अधर्म पर उतर आए थे।
नपुंसक शिखंडी को बना ढाल,
पितामह को निरस्त्र कर पाए थे।
और फिर निहत्थे भीष्म पर।
शिखंडी समेत सभी
पांडव महारथियों ने
अनगिन बाण बरसाए थे।
बिंध गया था बाणों से
भीष्म का जर्जर तन।
विनाश देख कुरूवंश का
भर आया था मन।
और कुरूक्षेत्र के आसमान में,
अस्ताचलगामी सूर्य के साथ ही,
अवसान पर था हस्तिनापुर का
यह देदीप्यमान सूर्य।
पूजनीय तेजस्वी पितामह।
शर-शय्या ही अब उनकी नियति थी।
इच्छा मृत्यु का वरदान पाए,
सूर्योदय की बाट जोहते,
पितामह की अब
यही एकमात्र गति थी।
हस्तिनापुर के प्रति
उनकी निष्ठा का,
उनके सर्वस्व त्याग का,
उनके कर्त्तव्य-निर्वाह का
कितना निठुर, व्यंग्य भरा
उपहार थी यह शर-शय्या,
जो दिया था उनके ही
लाड़ले आत्मजों ने उन्हें।
आहत तन, शिथिल मन,
पितामह के समक्ष
तिल रहीं थीं स्मृतियाँ
अतीत की, सजीव सी।
हाँ, यह शर-शय्या ही तो
उनके अभिशप्त जीवन की,
कटु सच्चाई थी।
उनके बचपन, कैशौर्य,
यौवन और वार्धक्य का
हर पल इसी पर तो बीता था।
मातृ-स्नेह से वंचित बचपन,
पिता की कामेच्छा पूर्ति हेतु,
स्वेच्छया बलि चढ़ा यौवन,
जीवन-सौंदर्य को बिसार,
प्रणय-याचना का कर तिरस्कार,
विरूपताओं से समझौता कर,
अंगारों पर लोटते, अंर्तद्वन्दों से जूझते,
विवेकी भीष्म, कितने एकाकी,
कितने संतप्त, अतृप्त थे।
विवशता के वृश्चिक,
हर पल दे रहे थे दंश।
मौन होना पड़ा
उन पलों में उन्हें
जब मुखर होना चाहिए था
उन्हें निशंक।
जब धधक रहा था
ज्वालामुखी अंतर में उनके,
सागर हाहाकार का
खा रहा था पछाड़ें अपार।
बैठे रहे पितामह, मूक,
बने वेदना साकार।
आंखें मींच लीं थीं उस समय,
जब धूर्त शकुनि ढकेल रहा था।
हस्तिनापुर के वर्तमान
और आगत को
पतन के गर्त में।
नहीं कर पाए वे वर्जना
अंधे सम्राट के अंधे पुत्र मोह की।
नहीं कर पाए ताड़ना,
धार्तराष्ट्रों के मदांध दंभ की।
नहीं दे पाए सांत्वना,
पतिहीना कुंती को।
अबोध पितृविहीन
पांडुपुत्रों को।
विदुर की नीति के प्रशंसक,
श्रीकृष्ण के संधि वचन के समर्थक
हस्तिनापुर के सर्वेसर्वा भीष्म,
लाचार हो देखते रहे,
पिशाची अट्टहास करती
अनीतियों को।
लाक्षागृह दाह को,
द्यूतक्रीडा़ के षड़यंत्र को,
दुःशासन और कर्ण की
वाचालता को।
दुर्योधन की निर्लज्जता को।
पांडवों के परास्त,
लुटे वीरत्व को।
सुनते रहे बधिर सम,
पौत्रवधू द्रुपदसुता की
आर्त कातर पुकार।
सहते रहे
उसके पैने प्रश्नों की
तीखी बौछार।
श्राप बन फूटती,
कुरूवंश की धिक्कार।
ढोते रहे
निस्सार जीवन का दुर्वह भार।
वेदना व्यथा अपार।
द्रोण और कृपाचार्य सम,
परिचारक नहीं थे भीष्म।
वे थे हस्तिनापुर के गौरव,
कंपित था आर्यावर्त
जिनके समक्ष।
फिर क्यों थे भीष्म लाचार?
कटु यथार्थ तो यही था,
कि खाए बैठे थे
मनस्वी पितामह,
अपने ही मन से हार।
लेकिन आज जो
शर-शय्या पाई है
पितामह ने,
वह करेगी उनका उद्धार
भविष्य का करेगी
दिशानिर्देश,
कहेगी सबसे पुकार,
अन्याय को सहना,
वक्त पर चुप रहना
पलायन है, कायरता है।
कर्त्तव्य है उस समय
करना प्रतिकार।
निरंकुश दंभ का,
जिससे न हो पोषित
कोई अहंकार, अतिचार।
कोई अध्याय न जुड़े
रक्तरंजित इस महाभारत का
मानवता के इतिहास में।
गीता निर्दिष्ट पथ पर
गतिमय हो संसार।
विनाश से ही मिलता है
नव सर्जन उपहार।
अधिकार
अवसर माँगने से नहीं मिलते
छीने जाते हैं।
अवसर उपहार नहीं कोई,
जो मुस्कराते हुए,
शुभकामनाओं सहित
जिंदगी तुम्हें थमा देगी।
अवसर तो अधिकार है तुम्हारा
इसके लिए लड़ो-मरो
चाहे जो करो,
और छीन लो स्वत्व अपना।
क्या देखा है किसी नदी को,
पथ माँगते पर्वतों से।
या कभी सूरज गिड़गिड़ाया हो
अंधकार के सामने
रोशनी बिखेरने को।
पांख उगते ही विहग-शावक
अकुलाता है उड़ान भरने को।
चुग्गा बीन लाने को।
आकाश की निस्सीमता,
निर्ममता को अवहेलित करता।
ऊष्मा की मार से आहत,
धरती पर अंकुर,
बदली के बरसते ही
खुद ही फूट आता है।
पल्लवित होता है।
कलियाँ चटखती हैं।
वसंत आता है।
थिरकती, मचलती है हवा
संगीतभरी, सुवास भरी।
घनी अमराइयों से।
कूकना कोयल को अरे!
किसने सिखाया है।
माना ज़िन्दगी शातिर खिलाड़ी है
पर तुमने भी तो इसे,
खूब छकाया है।
जीत और हारकर,
मर और मारकर,
जीवन को जानकर,
कला इसे बनाया है।
अवसर को पहचाना है,
पकड़ा है कसकर,
सोचा जो कर दिखाया है
विजय गान मानव का,
तुम्हीं ने तो रचा है,
तुम्हीं ने तो गाया है
अवसर पर किए हैं,
अधिकार भरे हस्ताक्षर जिसने,
जीवन को उसने समझा है,
सार्थक बनाया है।
भगवान् न मिला
मंदिर में जब गया तो,
मुझे भगवान न मिला।
वो डटा सरहद पर,
चला रहा खेत में हल,
खा रहा शबरी के बेर,
सुदामा को लगा रहा गले,
पाहन में प्राण फूँकता,
उसका बखान मिला।
सब जानते हैं अपना,
अच्छा बुरा बखूब।
जो चाहिए तुझको,
वही मुझे भी चाहिए।
सभ्यता के शहर में,
चल रहा जंगली कानून।
दानवी अट्टहास करता,
शैतान यहाँ मिला।
दरकी धरती, नंगे पर्वत,
मैली-सूखी नदियाँ यहाँ।
रुप, रस औ’ गंध का,
भीषण अकाल है पडा़।
कैसे हवा ताली बजाए,
पंछी कैसे सरगम गाए,
हरियाली ले इठलाता,
कोई खलिहान न मिला।
अंतरिक्ष को छूती प्रगति,
पाताल भी भेद आई,
वक्ष मथ सागर का डाला,
विपुल रत्न ढूँढ लाई।
चाँद पर बसेगी बस्ती,
मुँह जोहता विज्ञान है।
क्यों फिर प्राण बिलख रहे,
दुख को अवसान न मिला।
भाषा, मज़हब, जाति, गुट
के पैने खंज़र चल रहे।
परंपरा की ओट में,
जहरीले नाग पल रहे।
झूठ का नक्कार खाना
ढोंग की तूती बजी।
जान कर सच्चाई सब,
अनजान हर कोई मिला।
तेज सूरज का बता तो,
बादल ढाँपेगा कब तक?
जड़ता का पसारा बता तो,
रहेगा यहाँ पर कब तक?
मन की सच्ची बात सुन,
जन्नत बना ले यह जहाँ।
समस्या नहीं कोई भी ऐसी,
जिसे समाधान न मिला।
प्रार्थना
तेरी अपार करुणा को प्रभु
मैं समझ न पाता हूँ।
जब-जब भी मन आकुल होता,
जीवन में व्यथा-घन छाता है।
मान स्वयं को विवश, एकाकी,
धीरज खो जाता हूँ।
तेरी अपार करुणा को प्रभु
मैं समझ न पाता हूँ।
निराशा-सागर में डूबा,
सम्बल रहित भटकता फिरता।
तेरा दया-भाव बिसरा कर
अकृतज्ञता प्रकटाता हूँ।
अपार तेरी करुणा को प्रभु
मैं समझ न पाता हूँ।
व्यथा-भार जब लघु हो जाता,
निशा-अंधियारी छंटती है।
तेरे प्रति आस्था मेरी,
शनैःशनै: फिर जगती है।
मधुर आश्वासन पाता हूँ।
तेरी अपार करुणा को प्रभु,
मैं समझ न पाता हूँ।
रहे अडिग आस्था मेरी,
चाहे सुख हो, चाहे दुःख हो।
तेरी पावन छवि मनोहर,
हरपल मेरे सम्मुख हो।
शक्ति तुझी से पाता हूँ।
तेरी अपार करुणा को प्रभु,
मैं समझ न पाता हूँ।
धीरज और विवेक प्रभु तुम,
मेरे अंतर में भर दो।
हो स्वीकार तेरी हर इच्छा,
ऐसी चेतनता का वर दो।
चिर अनन्यता चाहता हूँ।
तेरी अपार करुणा को प्रभु
मैं समझ न पाता हूँ।
लगन
लगे सब नया-नया-सा क्यों,
मन को न जाने, क्या हो गया।
आँसू, उदासी, गम के पल-छिन,
न जाने सब, कहाँ खो गया।
मन में मधुर आस जागी,
जब लगन तुझ से लागी।
तपन मिट गई सारी,
मैं मगन हो गया।
तेरा दरस पा,
तेरा परस पा,
गंगा-सा पावन,
ये जन्म हो गया।
झुका तव चरण में,
अशरण शरण में,
अहम और भरम से,
मैं उऋण हो गया।
जहाँ भी मैं देखूँ,
वहीं तुझे पाऊँ।
अपना-पराया मैं,
सब कुछ भुलाऊँ।
ऐसा तेरा मुझ पर
करम हो गया।
लगे सब नया-नया-सा क्यों,
न जाने आज मन को,
यह क्या हो गया?
क्या करें
साहिल से बतियाने आती,
फेनिल पसर-पसर फिर जातीं,
कुछ कहने को आतुर लहरों के,
इन अवसानों का क्या करें?
मन में अनगिन सपन सँजोए,
धुन में जिनकी हम न सोए
उलझ-सुलझ अनबुने रहे जो
उन अरमानों का क्या करें?
हुकूमतें निरंकुश रहीं सदा से
नियम बनाने में माहिर हैं।
जनता को गूँगा जो कर दें,
उन फ़रमानों का क्या करें?
संवेदन कितने ही परोसो
लाख जतन से पालो-पोसो
मुँह फेर जो पल में चल दें
उन एहसानों का क्या करें?
लगन लगी, पाकर ही रहेंगे
पथ से तनिक न डगमग होंगे
धुन के पक्के, मन के सच्चे
इन दीवानों का क्या करें?
अहं और तृष्णा को धारे
खुद से परे न नज़र पसारें
मानवता को करें कलंकित
इन इंसानों का क्या करें?
भगवान यह तेरा, खुदा यह मेरा,
अलग-अलग है इनका डेरा।
मजहबी नफ़रत जो फैलाएँ,
इसां को इसां से लड्वाएँ।
उन शैतानों का क्या करें?
उजड़े-सहमे पर्वत और वन,
शहर बने सीमेंट के जंगल।
आधी आबादी नंगी-भूखी,
हाहाकार हर ओर प्रबल।
जब व्यंग्य बने उत्थान,
इन उत्थानों का क्या करें?
देवी कह-कह जिसको पूजा
माँ कहकर जिसका गुण गाया
कभी कोख में, कभी सोच में,
जिसको पग-पग पर ठुकराया
सीता को दिया निर्वासन,
द्रौपदी को दाँव पर लगाया।
झूठे जो सम्मान हैं सारे,
उन सम्मानों का क्या करें?
सुंदरता को जो सुंदर कर दें
अभिव्यक्ति में प्राण जो भर दें
भूले-बिसरे, पड़े उपेक्षित
उन उपमानों का क्या करें।
साहिल से बतियाने आतीं,
फेनिल बिखर-बिखर फिर जातीं
कुछ क़हने को आतुर लहरों के
इन अवसानों का क्या करें?
सही वक्त
मेरे अंतर का कवि,
समय-असमय,
आकुल हो जाता है,
अभिव्यक्ति के लिए।
छटपटाहट उसकी,
बयाँ नहीं होती।
मन बार-बार,
पंक्तियाँ बनाता है,
क़ाफ़िया मिलाता है।
हाथ लेखनी थामने को,
मचल-मचल उठते हैं।
जबरन रोकना पड़ता है,
इस आतुर कवि को,
क्योंकि मैं जानता हूँ
सही वक़्त नहीं है यह,
अच्छा होगा
मैं सही वक़्त की
बाबत सोचूं।
तब कोई कैफ़ियत
नहीं मांगेगा
ग़लत समय पर
गाने के लिए,
सब सहज लगेगा सबको,
पर मैं इस असहज
होते कवि का
क्या करूँ?
हर कोई क्या,
इस बैचैनी को जीता है?
जबरन चुप हो जाना,
मूल्यों से गिरना ही तो है
स्वार्थ परार्थ से
अलग है क्या?
समझौता मरण है
कवि के लिए,
लेकिन,
वक्त सही होता कब है?
उसे सही करना पड़ता है।
सब अनसुना कर,
करने होते हैं हस्ताक्षर
वर्तमान के दस्तावेज पर,
निडर।
ताकि भविष्य,
सही निर्देश पा सके
कवि निष्ठा से,
पुरोधा बन,
मशाल उठा सके।
अब,
मेरा कवि था आश्वस्त,
पथ पुनीत था प्रशस्त,
भाव थे आकार ले रहे,
शब्द अबाध बह रहे
उल्लसित था अंतर,
मौन हुआ मुखर।
मजबूर न करो
मैं जननी हूँ,
सहचरी हूँ।
भगिनी हूँ,
आत्मजा हूँ तेरी।
पाल-पोस रही हूँ
भविष्य को तेरे
अंचल में अपने दुलार से।
कर रही हूँ,
अनेक समझौते अवांछित।
केवल इसलिए
कि वंशज तेरे रह पाएँ सुरक्षित,
पुंसत्व न हो तेरा आहत।
नदी-सी बह रही हूँ
पथरीले रास्तों पर,
सिर टकराती,
लहुलुहान होती।
केवल इसलिए कि
जीवन तेरा समतल बने।
खुद प्यासी रह कर भी
तुझे सदा अमृत छकाया।
ताकि तू लहलहा सके।
पर बता तो, बदले में इसके
मैंने क्या पाया?
रोज नए झूठ परोसे हैं,
तुमने समक्ष मेरे।
पन्ने प्रवंचना के जोड़े,
रोज जीवन में मेरे।
कभी देवी कह,
रौंद देते हो भावनाएँ मेरी।
कभी सहचरी बताते हो।
पर साथ चलने से कतराते हो।
कभी प्राण कहते हो,
मगर अस्तित्व मेरा झुठलाते हो।
मुझे माया, छलना, तृष्णा के
दाग़दार तमगे पहनाते हो।
बड़ी लकीर को मिटा कर
छोटी लकीर को
उसकी तक़दीर बनाते हो।
अपनी असंतुष्टि, अपनी कुंठाओं,
अतृप्त लालसाओं,
हर कुकर्म का ढीकरा
मुझ पर ही फोड़ते हो।
हर बंदूक
मेरे कंधे पर रखकर
चलाते हो।
खुद महान बन जाते हो।
सच्चाइयों से अपनी
वाकिफ़ हो बखूबी।
इसीलिए तो
आईना देखने से कतराते हो।
युगों-युगों से सहती आई
अन्याय, अतिचार यह।
सतयुग में शैव्या के रूप में
मेरी बोली लगाई।
हरिश्चंद्र कहाते तनिक न
लाज आई।
त्रेता में छला इंद्र बनकर
और गौतम से मुझे ही
पाषाण बनवाते हो।
अग्निपरीक्षा लेते हो।
वनवास भी दिलाते हो।
द्वापर तो
पराकाष्ठा है शोषण की।
जुए में ख़ुद को हारे पति से
मुझे दांव पर लगवाते हो।
कब रखी ‘पत’ , पत्नी की तुमने।
किस मुंह से ‘पति’ कहाते हो।
कलियुग की तो कथा अनंत है।
नारी की व्यथा बेअंत है।
पूजा करते देवी माँ की
शक्ति के आराधक कहाते हो।
लेकिन इन्हीं के साथ
करते हो दरिंदगी, दरिंदे बन,
बहशियत को भी शर्माते हो।
मेरी हर उपलब्धि
तुम्हें चुनौती लगती है।
तुम्हारे पौरुष को
देती है करारी चोट।
तुम्हारे कहानी, किस्से
ग़ज़ल और कविता सब झूठ हैं।
तुम मेरी खिल्ली उड़ाते हो।
घड़ियाली आंसू बहा
संवेदना बटोरते हो।
मुझे लूटते हो।
खुद को प्रताड़ित बताते हो।
बहुत हुआ, बस अब और नहीं
बाज आ अब तू,
अपनी करतूतों से
मुझे मजबूर न करो।
कि मैं नारी
हर लक्ष्मण रेखा लांघ,
निकल आऊँ बाहर।
और ग़र ऐसा हुआ तो,
जान ले इस बार
मेरा अपहरण नहीं,
रावण का मरण होगा।
शिव को छोड़
शक्ति चलेगी जब
तो शिव शव होगा।
रणचंडी तांडव करेगी
खुलेगा तीसरा नेत्र
भस्म तेरा अहम होगा।
घड़ा भर गया पापों का तेरे।
अब कोई समझौता नहीं,
अब प्रचंड यह रण होगा
लुंठित होगा काली के चरणों में तू,
अब महिषासुर मर्दन होगा।
अब मरण और केवल मरण होगा।
वीणा गुप्त
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