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तुलसी उत्पत्ति (tulsi ki utpatti)
tulsi ki utpatti: श्री श्रापित हुई गंगा से,
अवतरण हुई धरती पर
लेकर दो रूप अवतार
नारायण भक्त बृंदा और
दुजी नदी स्वरूप॥
जलांधर नामक राक्षस से,
विवाह हुआ था उनका
जिसका देवताओं से था बैर,
जीत रहा था युद्ध में देवो से,
सती वृंदा के थे पुण्य प्रताप॥
बैठी वृंदा, हरी की पूजा पर
मांग रही थी आपने आराध्य से
दे दो हे हरी मुझे यह वरदान,
युद्ध विजय कर प्रभु लोटे मेरे नाथ,
हर पल मांगू तुमसे जीवित रहे सुहाग॥
इधर देवताओं ने किया आग्रह,
हे नारायण! करो देव कल्याण
चिर निद्रा से उठो देव अब
देवताओं को करो सुरक्षित
बृंदा को ना देना आप वरदान॥
नारायण बोले देवो से वाणी
कैसे भगत को करू मैं निराश
राक्षस कुल के जलांधर के
कैसे छोड़ दू मैं प्राण
देवो के रक्षा हेतु विकल्प नहीं है आज॥
तब हरि ने रखा जालंधर का रूप,
पहुँच गए वृंदा के पास
जालंधर को देख वृंदा ने
स्पर्श किए जब हरि चरण
गई युद्ध में जलांधर की जान॥
सती व्रत को भंग किया जब,
द्रवित हो उठी सती बृंदा मां
कहा हे हरी नारायण तुमने
छला है अपने भक्त का मान
मार दिया जीते जी हरकर मेरे नाथ के प्राण॥
बोली वृंदा रूदन स्वर में
देती हूँ तुम्हें मैं श्राप
बन जाओ पाषाण स्वरूप
पत्थर दिल हे मेरे भगवान
और सती ने दे दी अपनी जान॥
तब लछमी जी भागी-भागी आई
पकड़ लिए चरण वृदा के,
हे वृंदा तुम नहीं कोई पराई नार,
वृंदा रूप मैं हो तुम मेरा ही अवतार,
जालंधर भी नारायण का अंश अवतार॥
प्रकट हुए फिर हरी स्वयं वहा,
किया देवी वृंदा को प्रणाम,
तुम मेरी प्रिय लक्ष्मी अवतार
प्रसन्न हूँ हे निश्छल वृंदा मैं
तुम्हारी इस अपार भक्ति से॥
मैं देता हूँ तुम्हें यह वरदान
तुम तुलसी का पौधा बन जाना
मैं पाषाण रूप में शालिग्राम कहलाऊंगा
सर माथे रहोगी तुम मेरे हे सती वृंदा,
युगो युगो तक तुलसी संग ब्याह रचाऊंगा॥
प्रसव की पीड़ा
कमसिन, कोमलांगिनी को मैंने
मन से बेहत मज़बूत होते देखा
नाजुक, कोमल, कमल समान
प्रसव की पीड़ा से लड़ते देखा
हाँ एक स्त्री को माँ बनते देखा॥
प्रसव की इस पीड़ा से भी मैंने
एक अपनेपन का लगाव देखा
पीड़ा की इस पराकाष्ठा में भी
एक स्त्री को इससे लड़ते देखा॥
हाँ एक स्त्री को माँ बनते देखा॥
एक जननी जो अपने शिशु को
प्रसव की पीड़ा से लड़कर भी
सुरक्षित इस दुनिया मैं लाती हैं,
पूरे नो माह तक गर्वस्थ देखा॥
हाँ एक स्त्री को माँ बनते देखा…
कहा कभी एक माँ भी,
कोमल कमसिन कहलाती है।
शिशु के भार को सहती स्त्री
प्रसव की पीड़ा सहन करते देखा॥
हाँ एक स्त्री को माँ बनते देखा…
शिशु की अटखेलियों के चिह्न,
मां के पेट पर उभर आते हैं
सुढोल शरीर को धीरे-धीरे से
अपना अस्तित्व खोते देखा॥
हाँ एक स्त्री को माँ बनते देखा…
प्रसव की पीड़ा सहन कर ही
स्त्री के उर में शक्ति समाती हैं,
नवजात शिशु के जन्म से ही
कोमल को मज़बूत होते देखा॥
हाँ एक स्त्री को माँ बनते देखा…
संतुलन बनाए रखिए
यह धरा भी घर है तुम्हारा
इस घर को सजाएँ रखिए!
फेल रहा जो प्रदूषण आज
प्लास्टिक परमाणु से यहाँ
है गंभीर समस्या यह भारी
इसे समाप्त करने के लिए,
एक कारण बनाए रखिए!
” यह धरा भी घर है तुम्हारा
संतुलन बनाए रखिए॥”
भारत में रहे स्वच्छता हमारे,
यह अभिलाषा जन-जन की हो!
रहे समर्पित मातृभूमि के लिए
स्वच्छता का ख़्याल भी जन-जन में हो!
तब भारत की समृद्धि दिखेगी समक्ष ही,
वृद्धि होगी आत्मविश्वास की भी
जब स्वच्छता की डोर वतन की
हमारे नई पीढ़ी के हाथों में हो!
” यह धारा भी घर है तुम्हारा
संतुलन बनाए रखिए॥”
अपने व्यस्थ जीवन में भी
प्रकृति को हिस्सा बनाएँ
नव निर्माण करे बेहतर
जीवन काल समाप्त होने से
पहिले एक वृक्ष अवश्य लगाएँ
सींच कर जल से पुण्य कमाओं
शुद्ध वायु का प्रभाव बना रहेगा
धरा पर आपके जाने के बाद
यह धरा भी घर है तुम्हारा!
संतुलन बनाए रखिए॥
ज़िन्दगी
ज़िद है जीने की
तो नज़र आती है
जिंदगी रुकती कहा
गुफ्तगू के लिए कभी
रेत की तरह हाथों से
आहिस्ता फिसल जाती है॥
न्यून रही जीवन की
जो हर चाहत हमारी।
कहा किसी को कोई,
सरलता नज़र आती हैं!
न मैं रुका न समय कभी
उम्र की छाप नज़र आती हैं॥
दर्द रहा नहीं अब कोई भी
दुख की क्या तारीफ करूं
इनके साए में सीख मिली हैं,
उम्मीद का दीप जलाए रखना
अंधेरे मैं रोशनी नज़र आती हैं॥
गीत गाता ये मन मेरा,
विरह, प्रेम, और पीड़ा के
वेदना से आहत होकर ही
सुर सरगम को पहिचाना
गजल गीत-सी ये जिन्दगी॥
“ज़िन्दगी” की क्या बात करूं
जिंदादिली का नाम ज़िन्दगी है,
जी भर जियो अंदाज़ से अपने
मौजूद रहे तुझे ही ये जिंदगानी
फिर न मिलेगी कहानी-सी ज़िंदगी॥
दिल तो बच्चा हैं जी…
सुनता कहाँ किसी की कभी
करता रहता ये मनमानियाँ…
दिलकश अदाएँ इसकी बड़ी
चुपचाप रहता संग खामोशियाँ
किसी को बताता बिल्कुल नहीं
मनमौजी बहुत करता नादानियाँ
गुमसुम नहीं ये, यह मालूम है
मुझे है पता दिल तो मशगूल
अपनी ही धुन मैं रहता है ये,
छुटपन-सी करता है शैतानियाँ
फिर भी संभालू मैं तो इसे
डर लगता भटक न जाए कहीं …
इसे ज़िन्दगी का अनुभव नहीं
हाँ ये दिल तो बच्चा है जी …
हाँ हाँ थोड़ा कच्चा है जी …
दिल तो बच्चा है जी…
पत्थर
उकेरते जाते हैं अक्स,
तो सितम ढाती हैं छैनी
यहाँ दर्द की परिभाषा
मेरी, जाने भला कौन
हूँ मोन ही बस मोन॥
बिखरी पड़ी है इमारतों पर
कई सालो से भाषाओं की,
उकेरी गई हर प्रतिलिपि यहाँ
मेरी दर्द की तस्वीर की तरह॥
में तराशा गया, तुम्हारे लिए
कभी गुम्मद हुआ मकबरे का
कभी सजाया गया मंदिरों में,
कभी दीवार तो कभी मीनार
और कभी नीव का पत्थर बना॥
ज़रूरतें तुम्हारी ही रही सदैव
और काटकर लाया गया मुझे
दास्तान तो तुम्हारी ही रही हैं
तराशा गया हमेशा ही मुझे॥
मेरे दर्द से तुझे न मतलब रहा
इंसान तू बहुत खुदगर्ज रहा
तू टुकड़े करता रहा लाख मेरे
पर मैं भी मज़बूत हूँ दिल से॥
अपनी ज़रूरत के लिए पूजा,
मैं दिल से सालेग्राम हो गया
तूने अपनाया जब भी मुझे
में तेरा मकान की दीवार हो गया॥
मेरे विचार से “व्हाट्सप”
आज मैं व्हाट्सएप की,
गलियों में घूम आया।
फिर सोचा मैंने,
वहाँ क्यों समय गवाया॥
मैसज देखकर जब अपने अंदाज़ से,
मोबाइल फ़ोन पर मेरे,
कुछ समूहों को मैंने फुलफिल
हरा भरा-सा पाया॥
कुछ समूह का आनंद लिया,
मैंने बहा बाते करके ही,
कुछ में जाकर टांग अड़ाया,
उत्तर दे प्रश्नों के सुलझाया॥
कुछ जन परिचित मिले,
वहाँ रोज़ के मेरे साथ के,
कहीं बिना पहचान के लोग
देखकर ही में तो लौट आया॥
इतने समूह में मैंने आख़िर,
क्या कोई एक दोस्त बना पाया।
यह पूछा मेरे दिल ने मुझसे,
मुझे मेरे दिमाग़ ने टटोला॥
फिर मैंने व्हाट्सएप के सभी,
सदस्यों पर एक नज़र घुमाया।
कुछ जाने पहचाने परिचित मिले,
कुछ राम-राम करते हुए पुराने मिले॥
कुछ नए अजनबी दोस्त बने
जिन्हें दोस्ती की तलाश थी।
और कुछ ऐसे भी थे जिन्हें
मुझसे काम की ही आस थी॥
हाथों में मोबाइल लिए,
बैठा रहा घंटों में,
पूरा पर एक दिन बीत गया
आंखें थक गई हो गई भारी॥
फिर सोचा मैंने,
इस दुनिया में सच!
क्या मैं किसी का हो पाया
क्या कोई सच्चा मित्र बनाया॥
दोस्ती यारी जिससे भी निभानी,
वह साक्षात, पास हो तो बेहतर है।
व्हाट्सएप की दुनिया है यारों!
मोबाइल अपडेट की है कहानी॥
अजनवी नमस्कार भी,
यहाँ सुंदर प्रतीत होती हैं,
इसीलिए देखकर, सोचा कि मैंने
व्यर्थ यहाँ इतना समय क्यूं गवाया॥
मेरा अनुभव मेरे विचार से, …
एक किरदार ऐसा भी …
किनारा कर गए आज,
रिश्ते, नाते, दोस्त सारे
उनके एहसान चुकाना
कहाँ आसान था॥
किस्तों में देते रहे
हम कतरा कतरा
मूल से भी ज्यादा,
उनका व्याज था॥
गैरों ने संभाला,
उसका जनाजा आखिर,
कमबख्त उसे उम्र भर
रिश्तो पर नाज़ था॥
ताउम्र करता रहा मदद
खुला रखा अपना आशियाँ
सबके लिए जिसने रखी भावना
उसके लिए न बची ज़मीन न आसमां॥
सबकी ज़ुबान पर उसका चर्चा
सबकी ज़ुबान पर उसका नाम था
हमदर्द, मददगार और किसी के लिए
वो सिर्फ़ एक किरदार था। ।
जो भ्रम टूट गया
अच्छा हुआ दोस्त,
जो भ्रम टूट गया
साथ होने का तेरा वादा,
जो अब छूट गया॥
तुझे बादशाही मुबारक
तेरे शहर की,
मुझे मेरे गाँव का
मुसाफिर ही रहने दे॥
अच्छा हुआ चलन नहीं रहा
अब किसी के विश्वास का
खुद के खुदा को आखिर
किसी की कोई तलाश कहा॥
दोस्ती के लिए तेरा अक्सर,
मेरे घर आना, जाना, हम प्याला
वक्त के साथ-साथ अच्छा हुआ
किताबी बातों की तरह छूट गया॥
आज ठोकर खाई है
तब जाकर कहीं आज
मतलबी दुनिया की ये,
दोस्ती समझ आई॥
हमने तो कोशिश की थी
रंग ज़माने की यारी में,
तेरे विचारों की भी कहीं
बहुत गहरी खाई थी शायद॥
दोस्ती के लिए, कहाँ रहा गया
वह दोस्ताना माहौल पहिले जैसा
मैं तो मुसाफिर हूँ मेरे गाँव का ही,
मैंने तेरे शहर आना अब छोड़ दिया॥
आशी प्रतिभा दुबे (स्वतंत्र लेखिका)
ग्वालियर
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