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बिकती नहीं क़लम (The pen) अब…
बिकती नहीं क़लम (The pen) अब…: शीर्षक पढ़कर थोड़ा उलझन में ज़रूर पड़ सकते हैं आप! परन्तु मैं जिस बारे में बात करने जा रहा हूँ वह एकदम सत्य है। कुछ समय पहले साहित्यिक पुस्तकों को खरीद कर पढ़ना रहीसी, शान, सभ्यता और पढ़े-लिखे होने का प्रतीक माना जाता था। पुस्तकें एक दूसरे को भेंट की जाती थी। ज्यादातर खाली समय का सदुपयोग पुस्तकों को पढ़कर ही किया जाता था। परन्तु अब परिस्थितियाँ विपरीत हैं।
पुस्तक खरीदना आज कल लोगों को फिजूलखर्ची लगने लगा है और तो और जिन रचनाकारों की रचनाएँ जिस पुस्तक में शामिल हैं, उसे खरीदना उन्हें महंगा लगता है। जब कलमकार ही अपनी पुस्तक खरीदने में सौ बार सोचता है, तो पाठकों से क्या उम्मीद की जा सकती है!
एक समय वह था जब रचनाकार को अपनी रचना अथवा पुस्तक प्रकाशित कराने हेतु काफ़ी मशक्कत करनी पड़ती थी। रचनाओं या पुस्तकों की पांडुलिपि प्रकाशक को भेजकर इंतज़ार करना पड़ता था कि उनकी रचनाएँ या पुस्तक प्रकाशन योग्य समझी जाएगी अथवा अस्वीकृत कर दी जाएगी। परन्तु आज अनेक स्वयं प्रकाशन योजनायें फल-फूल रही हैं। प्रकाशक को उचित धनराशि देकर आप अपनी पुस्तक आसानी से पकाशित करा सकते हैं। अब आपको इंतज़ार करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, न ही पांडुलिपि के अस्वीकृत होने का डर रहता है। क्या यह सिलसिला सही है? कुछ मायनों में तो नहीं।
कोई भी प्रकाशक स्वयं ख़र्च उठाकर किसी भी पुस्तक को प्रकाशित नहीं करना चाहता क्योंकि वह जानता है कि पुस्तक की प्रतियों की पर्याप्त बिक्री न होने पर उसे नुक़सान उठाना पड़ेगा। ऐसे में स्वयं प्रकाशन योजनाओं के माध्यम से पुस्तक प्रकाशन ही उसे उचित लगता है। कम से कम उसे तो नुक़सान नहीं उठाना पड़ता। हालाँकि ऐसा सबके साथ नहीं होता… जो प्रतिष्ठित कलमकार हैं उनकी पुस्तकें आज भी खरीद ली जाती हैं। परन्तु जिन्होंने अभी-अभी लेखनी चलानी शुरू की है, उनका क्या?
मैं तो मानता हूँ कि जब आप स्वयं अपनी पुस्तक खरीदना नहीं चाहते, तो पाठक उसे क्योंकर खरीदेगा? आपको अपनी लिखी पुस्तक प्रिय नहीं है, तो किसी और को क्यों होगी? पहले पाठक बनिए… फिर आत्मविश्वास के साथ क़लम चलाइए। कोई भी रातों-रात आसमान नहीं छू लेता… यह सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ने की प्रक्रिया है। ऐसे बहुत से कलमकार हैं जिनकी लेखनी वास्तव में कमाल की चलती है… परन्तु उचित पाठक न मिल पाने के कारण वे उस प्रसिद्धि को हासिल नहीं कर पाते, जिसके कि वे हक़दार हैं।
तो चलिए… आज से हम शपथ लेते हैं कि हम न केवल अपनी, बल्कि दूसरों की लिखी पुस्तकों को भी खरीदेंगे। साथ ही अपने मित्रो व रिश्तेदारों को भी पुस्तकें खरीदने के लिए प्रेरित करेंगे, एक दूसरे को पुस्तकें भेंट करेंगे। आख़िर ये जिम्मेदारी हम कलमकारों को ही उठानी है। क्योंकि हम ही तो हैं, जो पूर्णतः साहित्य को समर्पित हैं। है न…!
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