Table of Contents
कुछ समकालीन कविताएँ (some contemporary poems)
प्रथम हस्ताक्षर
contemporary poems: वो मेरे ही – – – –
पदचिह्नों के निशान थे
जिस पर कदम धर
तुम सफलता की
अनेक सीढ़ियों में
चढ़ते गए
वो मेरे ही – –
हाथों की जादूगरी थी
जिसने
फसलों को
लहलहाना सिखाया
वो मेरे ही – –
कर्मों का निष्पादन था
जिसने
समय की गति को
चलायमान रखा
वो मेरी ही – – – –
सोच की
गहरी अनुभूति थी
जिसने
धरा के स्वरुप को
स्वर्णमय बनाया
और आज भी – –
अपने रक्त के
बिन्दु-बिन्दु से
गंगा,नर्मदा,
सतलज,सिन्धु से
कहीं पोखर,झरने,
नाले,कूप से
तो कहीं – – – –
मुसलाधार वर्षा ऋतु से
आशाओं का जल
एकत्रित कर
मैं तुम्हारी – –
बंजरता को दूर
कर ही तो रहा हूँ
अदम्य साहस के साथ
किसी महामानव! के वेश में
तुम्हारे साथ
चल ही तो रहा हूँ
और – – – –
यह भी तो सच है
कि धरती चाहे
मिट भी जाये
आकाश चाहे
छुप भी जाये
पाताल चाहे
भस्म हो जाये
यह हाड़-मांस चाहे
ढह भी जाये
लेकिन! – –
मैं तुम्हारा
सच्चा सहचर बन
तुम्हारे साथ ही तो हूँ
तुम्हारे साथ ही तो था
तुम्हारे साथ ही तो रहूँगा
क्यों कि? – –
मैं! – – – –
भूमिपुत्र!
एक किसान हूँ
इस संसार का
मुखौटा
अगणित तरह के
छद्मावरण लिए
पहन के बाना
फ़कीरों का
छल के इस
तुच्छ संसार में
मैं दिव्य-दृष्टा हूँ
तक़दीरों का
काली मिट्टी के
काले खदान में
व्यापारी हूँ
हीरों का
सबसे बड़ा मैं
दंभी ढोंगी
साधु-सन्तों की
ज़ागीरों का
लोगों का मस्तक देख
भविष्यवाणी करता हूँ
हस्तरेखा का ले सहारा
उन्हें भाँति-भाँति से ठगता हूँ
बदलेगा तेरा भाग्य एक दिन
सबसे यही कहता हूँ
पल में मासा पल में सोना
बस यही काम किया करता हूँ
और ….
जब से जाना
कि दुनिया
लुटाती कम
लुटती ज़्यादा है
हँसाती कम
रुलाती ज़्यादा है
बुझाती कम
जलाती ज़्यादा है
मरहम कम
नमक छिड़कती ज़्यादा है
सुलाती कम
जगाती ज़्यादा है
ठहराती कम
भगाती ज़्यादा है
जिलाती कम
मारती ज़्यादा है
सच्चाई कम
झूठ फ़ैलाती ज़्यादा है
तब से
मैंने भी ….
अपने चेहरे पर
लगा लिया है
‘मुखौटा’ ….
किसी और का ।।
ठहराव
निर्धनता के साँचे में ढला
गुमनामी के साये में पला
जाने कहाँ से चला?
कौन पूछता है भला?
कभी यायावर का भेष
कभी फ़कीरी का चोला
वह निःशब्द बियाबाँ
अब तक नहीं बदला
क्या ज़िन्दगानी
ऐसे ही – – –
पथरीले रास्तों से
गुज़रती रहेगी?
क्या चित्त का बटोही
मुझे यूँ ही – – –
तमाम उम्र
छलता रहेगा?
क्या कोई तारा
मेरे भी – – –
प्रतिक्षातुर अभागे
आँगन में उतरेगा?
या कि कोई दीपक
मेरी भी – – –
एकान्त तिमिरमय
कुटिया में जलेगा?
ले-दे-के इस बीहड़ में
दिखाई देता है
एक ही तो दरख़्त!
और – –
अब तो उसके साये में
बस जरूरत है
एक ‘ठहराव’ की ।।
एक वृक्ष लगा दो
हरी दुब पर हरा पौध देख
गाँव-शहर हर्षाया
हरीतिमा की खुशहाली से
हरा रंग है छाया
पुलकित मन तरंगित तन
है किसने मुझको भाया?
प्रकृति के पद्चाप सुन
आज मुरलीधर ने सरसाया
फिर मुझे उस शीतल छाँह में सुला दो,
एक वृक्ष लगा दो बस एक वृक्ष लगा दो ।।
चन्दन की है खुश्बू भीनी
नानी की नीम निराली
अमराई में अब भी गाती
वह कोयल है मतवाली
पीपल-बरगद के पेड़ यहाँ पर
पीले अमरूदों की गुलाबी-लाली
भाँति-भाँति के पुष्पों से सुसज्जित
आज महके डाली-डाली
फिर मुझे उस महान स्वप्न में डुबा दो,
एक वृक्ष लगा दो बस एक वृक्ष लगा दो ।।
साल,सागौन,देवदार,पलाश
चीड़,कल्प के किस्से खास
रात-रानी हरसिंगार बनी
है महुए की भी मादक मिठास
बेर,जामुन हैं पास-पास
शिरीष,गुलमोहर की मुझको आस
करंज,कटहल औ कहवा,कपास
देखो अशोक का सुभग हास
फिर मुझे उस अमलतास का पता दो,
एक वृक्ष लगा दो बस एक वृक्ष लगा दो ।।
पेड़-पेड़ बन्दर नाचें गाएँ
चिड़िया-चुरगुन घोसला बनाएँ
दल के दल गज,मृग देखो
कान्तर के भीतर उतरते जाएँ
पत्ता-पत्ता चलो महकाएँ
पल्लव-पल्लव हों शाखाएँ
औषध युक्त ये जंगल-जंगल
आओ मिलकर हम इन्हें बचाएँ
फिर मुझे उस सावन के झूले में झुला दो,
एक वृक्ष लगा दो बस एक वृक्ष लगा दो ।।
गंतव्य
जहाँ – – – –
समष्टि की
सारी संचेतना
एकरूपता के आच्छादन को
आत्मसात कर लेगी
जहाँ – –
तम की कालिमा को भेद
फूटेगा तिकोना प्रकाश
जहाँ – – – –
अब्रभेदी रथ का मसीहा
फिर से तोड़ने आएगा
साम्राज्यों के दम्भ
और जहाँ – –
मुर्दा हृदयों में भी
फूँक दी जाएगी
अनादिकाल तक
जीवित रहने की
अथाह प्राणशक्ति
तब? – – – –
समग्र प्रश्न
श्वेताम्बर हो जाएँगे
ठीक उसी क्षण
अवस्था में उसी – –
तुम्हारे ही पदचिह्नों के
अनुकरणीय पथ पर
मैं भी तो निकल पड़ूँगा
उस पवित्र!
‘गंतव्य’ की ओर।
दूर चला जाऊँगा
एक रोज – – – –
तुम्हारी दुनिया से
मैं दूर चला जाऊँगा
इतना दूर? – –
कि मेरी सदाएँ भी
फिर कभी – – –
लौटकर आ न सकें
मेरे कदमों के
धुँधले निशान
यहाँ कभी – – –
दिखाई न दें
मेरी एक भी स्मृति
फिर जीवित न रहे
और – – – –
मेरे अन्तर्घट की
मौन व्यथा भी
जागृत न रहे
क्यूँ कि – – – – ?
उतना ही दूर जाकर
मैं जान पाऊँगा
इस अंतहीन – – –
विस्तार का रहस्य
अकथनीय – – –
साँवले सपनों का संसार
सुदूर तलक फैले हुए – – –
क्षितिज का छोर
और – – – –
शायद! – – – –
देख पाऊँगा
तुम्हारी सोच के
उस पार का यथार्थ
आज – – – –
मैं तुमसे दूर तो नहीं
लेकिन सचमुच! – – – –
मैं तुम्हारी दुनिया से
किसी दिन? – –
बहुत ‘दूर चला जाऊँगा’।।
संभावनाएँ
देखते ही देखते
वह कितना बदल गया?
उम्र का एक पड़ाव
फिर से गुज़र गया
आँखों के आँसू मोती बने
मील के पत्थर बने अंगारे
गुज़र गये वो मधुमास के दिन
वो पतझड़ साँझ-सकारे
गुज़र गयीं वो पछुआ हवाएँ
गुफ़्तगु जिनसे किया था
गुज़र गए वो बीते लम्हें
जिनकी सरगोशी ने छुआ था
जाने कितनी बहारें गुज़रीं?
अमराई के मौरों की
सदियाँ छुटीं घड़ियाँ बीतीं
सावन के बौछारों की
और ….
लगा कुछ यूँ
जैसे ….
सब कुछ तो
आज गुज़र गया
मगर! ….
नहीं गुज़री है
तो वो रात!
कि जिस रात के बाद
खिलेगी फिर से नई सुबह
चहकेगी गौरैया
हमारे आँगन में
हम भी तो बढ़ेंगे
मुख्य धारा की ओर
महकेगी फुलवारी भी
हमारे गुलशन में
साथ ही साथ
होगी जीत ….
उन उम्मीदों की
जिसे बरसों पहले
हमारी निगाहों ने देखा था
दशकों तक ….
हमारी धड़कनों ने जिया था ।।
क्रान्ति की राह पर
हमारे ज़िस्म को
बोटी-बोटी काट कर
हमारी ज़िन्दा रूह की
चीखों को निकालकर
हमारे ख़ौलते खून को
और ज़रा उबालकर
हमारे भीतर के
इंसान को भी मारकर
तुम बाँट देना
हाँ-हाँ! – – – –
तुम बाँट देना
शिक्षा के मठाधीशों
क्रूरता के तानाशाहों
पाखंड के ठेकेदारों
और – – – –
दमनकारी नौकरशाहों के पास
ताकि – –
वे नोंच लें हमारी बोटियाँ
चबा लें हमारी हड्डियाँ
निगल लें हमारी अस्थियाँ
दफ़्न कर दें हमारी समाधियाँ
छीन लें हमारी रोटियाँ
देख लें हमारी बर्बादियाँ
गिन लें हमारी मुंडियाँ
और – – – –
तबाह कर दें हमारी बस्तियाँ
हो जाए – –
उनके झूठे
वहम की जीत
फिर कैसा ये न्याय
कैसी ज़माने की रीत
धारा के विरूद्ध
कोई धारा है विपरीत
इस कठिन राह पर भी
हम रहें न भयभीत
लगा लें – – – –
वे अहंकारों का
पुरजोर नारा
भर दें – – – –
लोगों के कानों में
मृषा और अंगारा
करोड़ों मुसीबतें आएं
फिर भी
न करें हम अपने
अधिकारों से किनारा
देखो-देखो – –
ओ जगत के चारागर देखो!
जीवित रहेंगी
हमारी विचारधाराएँ
हमारे मरण
हमारी आह पर
कि मुट्ठी भर लोग
फिर से मिटने जा रहे हैं
‘क्रान्ति की राह पर’ ।।
घरौंदा
मेरे विद्रोह के
कविताई पन्नों में
इन दिनों – – – –
उग आए हैं
नागद्रुम के
रक्तरंजित – –
सहस्त्रों विटप
शवों से भरी वैतरणी एक
बहती है बिल्कुल क़रीब
तारापथ ने उगला है
नाखूनों,बालों,छालों
और कंकालों का सत्य
कि हवा में सिहरन है
घुटे हुए – – – –
विचारों के अकुलाहट की
तब! – – – –
इस विषाक्त समुदाय के
प्रतिवचन में
विवेकहीन ब्रह्मराक्षसों की
गिरगिटिया परिपाटी से
मीलों दूर! – –
हमनें भी
बना लिया है ‘घरौंदा’
खंडहरों में – – – –
अबाबीलों की तरह।
छत पर मकान
आसमान की
छत पर मैंने
न जाने ….
कितने मकान बनाये?
बुनियाद मगर
खोखली ही रही
उन इमारतों की सदा
छटपटाते हुए …
परों की तरह
उजड़ते हुए …
घोसलों की तरह
कराहते हुए …
परिवारों की तरह
और ….
खण्डित होते …
मृदुल स्वप्नों की तरह
उन मकानों को
बारी-बारी
ढहते देखा
किसी थके हुए पथिक का
कोई डेरा
किसी घायल चिड़िया का
कहीं बसेरा
किसी अनाथ-बेघर का
एक सहारा
या ….
स्वर्णिम किरणों का
नया सवेरा
किसी किसान का
कोई हल
किसी मजदूर का
आत्म-बल
जीवन का
मीठा फल
या ….
प्रेम कोई
निश्छल
बन गया होता
काश! ….
कि मैंने
मकान की जगह
एक छोटा सा घर
बना लिया होता ।।
हमारी अनसुनी आवाज़ें
यातनाओं के
यतीमी तहख़ानों में गिरफ़्त
असंख्य छटपटाहटें
अनदेखी दरारें
असहनीय वेदनाएँ
और – – – –
चाबुकीय चीखें
सवालों के घेरे में
मुझे साथ लिए
टटोलती हैं
इस अनश्वर आत्मा की
शिराओं के – –
अंतिम छोर तक जाने का मार्ग
हमारी आज़ाद आवाज़ों को
ज़मींदोज़ करने की
चाह रखने वाले
तमाम भागीदार सुनो
सुनो! – – – –
कि ये आवाज़ें
फिर से उठेंगी
फिर से पुकारेंगी
फिर से दहाड़ेंगी
न दबी हैं न दबेंगी
बलिपथ पर जागेंगी
फिर से हमें थामेंगी
उम्मीदों के अंकुर बोएँगी
फिर से स्वछंद उड़ेंगी
उन – – – –
लौह संगीनों को
चीरती हुई
पाषाणी दीवारों को
तोड़ती हुई
प्रयाणगीतों को
गुनगुनाती हुई
दमनकारी विचारों को
भेदती हुई
झंडाबरदारों को
खदेड़ती हुई
मौकापरस्तों को
धिक्कारती हुई
चापलूसबाजों को
खंखारती हुई
और ….
साम्राज्यवादियों को
नकारती हुई
कभी न कभी
कहीं न कहीं से
लौटकर वापस
जरूर आएँगी – – – –
‘हमारी अनसुनी आवाज़ें’ ।।
प्रकाश गुप्ता “हमसफ़र”
भारतीय साहित्याकाश केसजग प्रहरी और अमरसाहित्यकार -गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ एवं पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ जी के आशीर्वाद से ‘सर्वहारा साहित्य’ तथा ‘नई कविता’ की ओर एक और कदम – – – –
प्रकाश गुप्ता ‘हमसफ़र’
रायगढ़ (छत्तीसगढ़) के युवा कवि एवं साहित्यकार ‘शिक्षक’ (छत्तीसगढ़ शासन) सह शैक्षिक सलाहकार
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Heart touching and beautiful poems
thank you so much …….. 🇮🇳🇮🇳🇮🇳
बहुत ही सुन्दर कविता 👌🏻👌🏻👌🏻
thank you so much …….. 🇮🇳🇮🇳🇮🇳