Table of Contents
ऐ नवजवानों (O young men)
चीर दो अंधकार के बादल!
एक नया सवेरा ले आओ!
वही तुम्हारी भोर होगी!
उठो बढ़ो ! ऐ नवजवानों! (O young men)
दुख के बादल आयेंगे !
भर भयानक स्वर भर्रायेंगे !
देर थोड़ी तुम्हें आजमायेंगे!
देख तुम्हारा रूप विद्रोही !
वापस लौट भी जायेंगे!
दृढ़ सबल विचारागार!
अद्भुत पराक्रम तेरा !
तोड़ तिलस्म विपदा !
आगे बढ़ते जायेंगे !
विजय परचम लहरायेंगे!
आह उठे देश के नाम!
दिल में हो यही पैगाम!
अमर हो जाओ दे बलिदान!
खिल उठे चमनिस्तान!
सजदे हो तुम्हारी शान में!
चीर दो अंधकार के बादल!
एक नया सवेरा ले आओ!
वही तुम्हारी भोर होगी !
उठो बढ़ो! ऐ नवजवानों!
क्षितिज तक दहाड़ करो
मैं ज्वाला हूँ मैं अग्नि हूँ,
मैं माँ बेटी और भगिनी हूँ ।
गंगा की निर्मल धारा हूँ ,
मैं जन्मों का पुन्य सारा हूँ।
मैं ही सिया रूप लक्ष्मी हूँ,
यदि छेड़ोगे मुझे फिर
चंडी रूप में तांडव छायेगा
तुम्हें ना फिर काल भी,
मेरे चुंगल से बचा पाएगा ।
मेरे क्रोध से अरे! उपजेगी ,
एक नई कहानी इतिहास नया ।
मैं नहीं दामिनी निर्भया सुनो!
सुलग उठेगी आत्मा सभी की
चीत्कार बेटी की सुनते
झकझोर देगी मर्दानगी
संहार से ही प्यास बुझेगी
सावधान हे पापियों !
माँ भारती है रक्तरंजित
काली बन दौड़ रही आज
अस्मिता कुचली -कुचली
उफान पर है सिंधु आज,
गरजता -दहाड़ता पुकारता
ना खेलो बेटियों से ना कोख को
मलीन करो तुम जननी की ।
अभी जागी है एक ‘रश्मि’
नित कोसती दुष्टों तुम्हें ,
अभी करोड़ों जागेगी
तो नपुंसकों तुम्हारी,
पौरुषता भागेगी ।
सत्ता जनक्रांति उमड़ रही है,
भारत भू का हाल देखो !
क्यों ना ‘रश्मि ‘आज दहाड़े,
क्यों ना देश के और बेटियों के
द्रोहियो को मिलकर पछाड़े ।
छिपाकर आँसुओं की धार
मत मुस्कुराओ तुम बनो चंड़ी ,
ना शोषिता बन चुप रहो ,
संहार करो, क्षितिज तक दहाड़ करो,
सिया सी सती पावन रहो…
सिया सी सती पावन रहो….
बस यूँ ही गुनती कविता
बस यूँ ही गुनती कविता,
बस यूँ ही गुनती कविता ।
मैं न जानूँ यति गति
मैं न जानूँ छंद विधान,
मैं न जानूँ शब्द विन्यास
मैं न जानूँ संधि समास ।
ना जानूँ नव अलंकार
भावों में बस बहती हूँ,
अपने मन की कहती हूँ
नियमों से आज़ाद हूँ।
बंधन कभी न सहती हूँ
उकेरती हूँ मन:स्थिति,
बुनती हूँ उर उद्गार ‘मैं ‘
समेट कर अनुभव सारे।
संजोकर स्वप्न रंगीले
कभी रिक्त आकृति,
कभी सजीली कृति
कभी स्वच्छ बहती।
कभी हिय भार कहती
कभी कुछ गुमसुम रहती,
कभी लय में गुनगुनाती
कभी पर पीर मिटाती ।
सृजन मेरा लक्ष्य है
सत्य साहस स्याह,
जागृति की ज्योति
अबाध काव्य प्रवाह।
अनवरत सेवा साहित्य
संकल्प धरू सदैव,
सुफल मनोरथ होय
‘रश्मि’ सहाय मम देव ।
बस यूँ ही गुनती कविता,
बस यूँ ही गुनती कविता।।
पिता जीवन आधार
आज फिर अल्हड़ बसंती सी
लहराने को मेरा जी चाहता है
अबोध सी होकर पापा !
गोद में समा जाने को,
मेरा जी चाहता है।
थाम लो अपने
मजबूत कांधों पर,
आज गौरया बन उड़ जाने को
मेरा जी चाहता है।
आसमा के नखत तारे ,
सौरमंडल भू सारे
ताँकते अनिमेष यहाँ जैसे
बिना आपके सब रीता है।
आपकी मजबूत उंगली थामे
बचपन की गलियों में ,
आज फिर खो जाने को
मेरा जी चाहता है।
फरेब मतलब की
जवाबदारी छोड़ “रश्मि “
आज फिरअल्हड़ बसंती
बन उड़ जाने को
मेरा जी चाहता है।
आज फिर अलहड़ बसंती सी
लहराने को ,
मेरा जी चाहता है
अबोध सी होकर पापा !
आपकी गोद में समा जाने को,
मेरा जी चाहता है।।
रश्मि विपिन अग्निहोत्री
केशकाल जिला कोण्डागाँव
यह भी पढ़ें-
२- इंतजार
3 thoughts on “ऐ नवजवानों (O young men)”