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कोरोना काल के मेरे अनुभव (my experiences of corona period)
डॉ. वी.के. शर्मा देश के बेहतरीन साहित्यकारों में से एक हाँ.. आज हम उनके द्वारा लिखे आलेख my experiences of corona period तथा तीन अन्य आलेख लेकर आये हैं… तो आइये पढ़ें शर्मा जी द्वारा लिखे आलेख…
कोरोना काल में हर वर्ग के व्यक्ति ने बहुत कुछ नया देखा है। बहुत से लोगों ने तो यह नाम पहली बार सुना है। एक वरिष्ठ नागरिक जिसने आठ दशक से अधिक का समय देखा है उसके अनुभव एक युवक और सामान्य जन से बहुत भिन्न हो सकते हैं। उनकी इच्छायें, आशायें और आकांक्षायें कुछ भिन्न होती हैं। मैं अपने कुछ व्यक्तित्वगत अनुभव साझा कर रहा हूँ।
आज से कई वर्ष पहले हमारे एक निकट सम्बंधी पुलिस विभाग में काम करते थे और वे अक्सर बताया करते थे कि आज एक व्यक्ति को लाकअप में रखा है। हमें इतना ही पता था कि पुलिस ने उसे किसी अपराध में या उसके शक में पकड़ा है और एक आध दिन में छोड़ देंगे। यदि वास्तव में अपराध किया होगा तो उसे उसका दण्ड दिया जाएगा। अक्सर पुलिस वाले शक में किसी को भी पकड़ कर कुछ रुपए लेकर शाम तक या दूसरे दिन छोड़ देते थे।
२२ मार्च २०२० को जब टी वी पर लाकडाऊन लगने का सुना तो पता चला कि सब कुछ बंद कर दिया जाएगा। सब यातायात के साधन जैसे वायुयान, रेलगाड़ी, बस सेवा, टैक्सी सेवा, निजी वाहन आदि कुछ नहीं चलेगा। केवल रोगी वाहन सेवा और पुलिस के वाहन ही चल सकेंगे। स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय तथा अन्य शिक्षण संस्थान आदि भी नहीं खुलेंगे। दुकानें, बाज़ार, माल, होटल, ढाबे आदि भी बंद रहेंगे। सरकारी और निजी कार्यालय, औद्योगिक संस्थान आदि भी बंद रहेंगे। लगभग सब कुछ बंद और रात को कर्फ्यू लगा रहेगा। मज़दूर भी काम पर नहीं जाएगा। आप अपने घर की चारदीवारी से बाहर नहीं निकलेंगे। दो दिन में बाज़ार से सभी आवश्यक सामान ले लें। अपने घर या सुरक्षित स्थान पर पहुँच सको तो ठीक है अन्यथा जहाँ हो वहीं रुक जाओ। कुछ ही दिनों में दूध, सब्जी, ब्रैड, ग्रोसरी आदि का वितरण सरकार द्वारा कर दिया जाएगा। कोई भी सवेरे या शाम को सैर करने के लिए नहीं जाएगा। ऐसी और भी पाबंदियाँ लग गयीं। पहले २१ दिन का लाकडाऊन लगा था परंतु बाद में इसे १९ दिन के लिए बढ़ाकर ४० दिन के लिए कर दिया गया और अब १८० दिन बाद काफ़ी छूट मिली है। अब पता चला कि लाकअप या ताला ऊपर तो पुलिस वालों के पास चौकी में रात बिताना और लाकडाऊन अर्थात ताला नीचे तो घर में बंद। १८० दिन तक घर का गेट ही लक्ष्मण रेखा बन गई थी, केवल आवश्यक कार्य जैसे अस्पताल जाने की थोड़ी छूट थी और उसमें भी मास्क लगाकर जाना हो सकता था तथा २ गज़ का अंतर आवश्यक रखना होगा।
उन दिनों हम भोपाल में बेटी को मिलने के लिये आये हुए था। सबसे बुरा यह लगा कि धन को अपने हाथ से इच्छानुसार व्यय करने का हमारा शौक पूरा नहीं हो सका। बच्चे बाज़ार से सभी सामान लेकर आते हैं या होम डिलीवरी द्वारा मंगवा लेते हैं। हमारे लिए विशेष सामान तो चाहिए नहीं था क्योंकि वे हमारी आदतों और आवश्यकताओं को अच्छी तरह, अपितु हमारे से अच्छी तरह जानते हैं इसलिए वे स्वयं ही सभी वस्तुएँ ले आते जिन्हें हम चाहते हैं । पहले तो पता नहीं वा कहाँ-कहाँ से और कैसे सामान लाते होंगे, यही हमारे लिए सोचना कठिन था। उन्होनें हमें पूर्णतया सामान्य अवस्था में रखने के लिये बहुत और कठिन परिश्रम किया है। उन्हें भला कैसे कह सकते हैं कि आप हमारे से कुछ धन राशि ले लो, हमें भी व्यय करने का अवसर मिलना चाहिए। वे सीधा-सा उत्तर दे सकते या देंगे कि आप ही के सिखाए अनुसार कर रहे हैं। जब ऐसा उत्तर अपेक्षित हो तो चुप ही रहना अच्छा है। यदि किसी अवसर पर थोड़ी हिम्मत भी की तो कहा, अभी तो हम दे आए हैं, आगे जब सब कुछ ठीक हो जाए तो व्यय कर लेना। बार-बार कहना उचित नहीं लगा और चुप ही रहना ठीक है। ऐसे ही करते १० महीने बीत गए।
वायरस ऐसा विनाशकारी जीव है जो कभी भी समाप्त नहीं होता। इस पर गर्मी और ठंड का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वर्षों तक बरफ की तह के नीचे और खौलते जल में रहकर भी समाप्त नहीं होता अपितु इसका स्वरूप परिवर्तन हो जाता है। कोरोना वायरस अभी तक तो थमा नहीं अपितु लगता है कि कुछ समय बाद यह अपनी चरम सीमा पर संक्रमण करेगा। तब और भी सावधान होना पड़ेगा।
तालाबंदी में सबसे अधिक उपयोगी अनुभव जो मुझे हुआ है, शायद औरों को भी हुआ होगा। इस काल में मुझे अपने आप से बात करने का अवसर मिला था क्योंकि अब बहुत समय मिल रहा था। सामान्य अवस्था में जब हम अकेले होते हैं तो चिंता रहती है कि यह काम करना है, उस से बात करनी है, बहुत दिन हो गए बेटी और बेटे का कोई समाचार नहीं आया, बच्चों के लिए कुछ गिफ्ट्स लाने हैं, मीटिंग की तैयारी करनी है, आदि। अब ऐसे प्रश्न आपके सामने नहीं होते, तब आप सोच सकते हैं कि मैं कया हूँ, मैं क्या कर रहा हूँ, मैं क्यों ऐसे सोचता हूँ, मेरी सोच और लोगों की सोच में क्या अंतर है और ऐसा क्यों है। मेरी सोच क्यों अच्छी या ग़लत है, अच्छी है तो क्यों है, अच्छी नहीं है तो ऐसा क्यों है। हम इसी उधेड़बुन में फंसे रहते हैं।
जैसे पृथ्वी के चारों ओर उसका वातावरण है, उसी तरह हमारा भी अपना एक वातावरण है। हमारे मस्तिष्क से विचार उठते हैं और निरंतर उठते रहते हैं और आगे ही आगे बढ़ते जाते हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे पृथ्वी की धरातल से गैसें उठती हैं और वह ऊपर की ओर बढ़ती हैं तथा नीचे की गैस ऊपर वाली गैस का स्थान ले लेती है। इसी तरह यह गैसें ओज़ोन परत तक पहुँचने पर शांत हो जाती हैं, तथा उनका अपना गुण या अवगुण सब समाप्त हो जाता है और वहाँ से आगे बढ़ना बहुत कठिन है। यहाँ से निकलकर बाहर की स्पेस में जाकर ही अंतरिक्ष तक पहुँच सकते हैं। हमारी उड़ान तो ओज़ोन परत से भी नीचे रह जाती है। यही हमें सोचना है कि हमारे विचार क्या परिपक्व हैं, उस राकेट की तरह जिसने अंतरिक्ष में जाना है और सौरमंडल से सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करनी है या चंद्रमा से शांति प्राप्त करनी है।
लिखने और पढ़ने का शौक हमारे घर में सभी को है। कोरोना काल में अपने आप को व्यस्त रखने और ८ दशकों की पुरानी भूली-बिसरी यादों को मूर्त रूप देने के लिये उन्हें ‘अंतर्निनाद’ रूप में लाने के लिए मुझे बेटी डा शुचि शर्मा, उसके पति अनिल शर्मा और उनके सुपुत्र आदित्य शर्मा ने सदैव प्रेरणा दी। किसी भी कार्य के लिए कोई चिंता नहीं करने दी और स्वयं ही सभी साधन अपने आप कष्ट उठाकर उपलब्ध करवाये हैं। पत्नी डा मनोरमा शर्मा ने समय-समय पर यादों को सहेजने और क्रमबद्ध करने में पूरी सहायता की है। इन्हें कृतज्ञता ज्ञापन के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं परन्तु हृदय से इनका आभारी हूँ। भगवान इन्हें सदैव सफलता प्रदान करे।
काश हम भी पेड़ के पत्ते होते
पतझड़ ऋतु आरम्भ हो गई है। अब पर्णपाती पेड़ों के पत्ते धीरे-धीरे गिरने या झड़ने आरम्भ हो रहे हैं। हरे रंग के पत्तों का रंग हरा न रह कर कुछ पीलापन ले रहा है और कुछ दिनों में पूरा पीला और अंत में तांबिया या मटमैला रंग का हो कर पेड़ से पृथक हो जायेगा और धरती पर गिर जायेगा। इन रंगों में थोड़ी-बहुत भिन्नता होना स्वाभाविक है क्योंकि यह रंग पेड़ के वंश के अनुसार ही होता है। अमेरिका और कैनेडा में इस ऋतु में पर्यटक इन पेड़ों और पार्कों को देखने के लिये आते हैं। हमारे यहाँ पर्यटक काश्मीर विशेषतया श्रीनगर में चिनार के पेड़ों से पतझड़ ऋतु में ताम्बिया रंग के पत्तों वाले पेड़ों और आसपास के क्षेत्र को देखने के लिए आते हैं और प्रसन्न होते हैं।
हमारी बगिया में कई पेड़ हैं परंतु पर्णपाती पेड़ केवल एक गुलमोहर का ही है। आजकल उसके पत्ते सूखकर धीरे-धीरे गिर रहे हैं। शीत ऋतु से पूर्व यह पेड़ बिना पत्तों के रहेगा और अच्छा नहीं लगेगा। पेड़ से पत्ते गिरते देख लगा कि सारे पत्ते गिरने पर बसंत ऋतु में नये पत्ते और लाल फूल आयेंगे और पेड़ पुनः लहरायेगा। क्या पेड़ को बुरा नहीं लगेगा? जब यह पेड़ बिना पत्तों के हो जायेगा हमें तो अच्छा नहीं लगेगा। क्या पेड़ निर्जीव है और उसमें संवेदनशीलता नहीं है? नहीं ऐसा नहीं है, उसमें संवेदनशीलता है परंतु पशुओं या हमारी तरह वह प्रकट नहीं कर सकता। उसकी भावनाओं तथा आंसुओ को हम देख नहीं सकते परंतु महसूस कर सकते हैं। पर्णपाती होने से पहले उसके पास अगली ऋतु में नये पत्तों को जन्म देने के लिये पर्याप्त शक्ति (ऊर्जा) होती है। पेड़ भी बिना पत्तों के होने पर उदास तथा बसंत ऋतु में प्रसन्नतापूर्वक लहलहाता है और झुक कर अपने फूल और फल हमें देने को तैयार रहेगा। शीत ऋतु में क्षतिग्रस्त होने पर उसमें सहन करने की क्षमता है। हम पेड़ की भाषा को समझ नहीं पाते परंतु महसूस कर सकते हैं।
ऐसे ही एक दिन इन गिर रहे पत्तों को देखकर एक अजीब-सा विचार मन में आया। क्या हम भी पेड़ पर इन पत्तों की तरह लटक रहे हैं। क्या उन्हें यह पता है कि गिरना सब पत्तों ने है और इस प्रतीक्षा में हैं कि पता नहीं कब किस पत्ते की बारी आयेगी। कीट और व्याधि से ग्रसित पत्ते पहले टूट कर गिर जायेंगे। कुछ काल बाद दुर्बल की बारी आयेगी और धीरे-धीरे सभी पेड़ से पृथक हो जायेंगे। गहन सोच के बाद ऐसा महसूस हो रहा है कि उनकी स्थिति भी लगभग ऐसी ही है, अंतर केवल इतना है कि पेड़ मनुष्य की तरह जीवित तो है परंतु उसमें सोचने और महसूस करने की शक्ति नहीं है। मनुष्य में सोचने और महसूस करने की शक्ति बहुत प्रबल है और उसे भविष्य की चिंता अधिक होती है और कुछ तो जैसे-जैसे बड़े होते हैं उनमें भविष्य की चिंता बढ़ती ही जाती है।
बहुत मनुष्यों को मृत्यु की इतनी चिंता नहीं होती अपितु यह चिंता रहती है कि कहीं दीर्घकालीन रोग, अपंगता आदि से मृत्यु कष्टदायक होगी और वह औरों पर निर्भर रहेगा। घर वाले या निकट सम्बंधी भी तंग होंगे और फिर अपाहिज होना या दूसरों पर आश्रित रहना आदि की चिंता रहती है। भविष्य में संसार से उनकी किस प्रकार विदाई होगी और विदाई के बाद घर वालों का क्या होगा और उसके बारे में लोगों की क्या प्रतिक्रिया होगी, आदि। यद्यपि इन्हें परिवर्तन करने में वह अक्षम है फिर भी इसी के भय से वह चिंताग्रस्त रहता है। कुछ व्यक्ति इससे उबरने में सक्षम हो जाते हैं क्योंकि उन्होंने अपने आपको मानसिक स्तर पर तैयार कर रखा है और धैर्य से जीवन बिता रहे हैं। होना तो वही है जो भाग्य में है। एक-एक कर सभी पत्तों की तरह चले जायेंगे और नये पत्ते आते रहेंगे। जीवनचक्र चलता ही रहेगा।
अलविदा २०२१
२०२१ वर्ष ने हमें अनुशासित कर कई प्रकार के अनुभव, नसीहतें और अविस्मरणीय दृश्य दिखाये हैं। यह इस शताब्दी का बड़ा विकट वर्ष रहा है। हर व्यक्ति ने इसे झेला है और अपनी तरह ज़िया है और जब तक वह जीवित है शायद ही वह भूल सके।
इस वर्ष हमने कोरोना के संक्रमण से बचाव के लिए देश में ही वेक्सीन बनाकर भारत देश का नाम अग्रणी देशों में सम्मिलित करा दिया। इतना ही नहीं विदेशों को भी भेजा। अपने देश में टीकाकरण कार्यक्रम को युद्ध स्तर पर सम्पन्न किया जा रहा है। बहुत लोगों ने पहले इस टीके का विरोध किया परंतु लाभ देखकर लगवा लिया जिसके परिणामस्वरूप आधी से अधिक जनसंख्या को टीके की दोनों खुराक लग चुकी हैं।
औषधियों की निरन्तरता बनाये रखना और अस्पताल में आई-सी यू और अन्य सुविधायों को बढ़ाने के लिए सेना से लेकर सामान्य व्यक्ति ने पूरा योगदान दिया। सरकार ने निर्धन परिवारों को निशुल्क और कम दाम पर अन्न बांटा और इस अवधि में कोई भी व्यक्ति भूख से नहीं मरने दिया। जनता ने भी सरकार की सहायता के लिये प्रधानमंत्री केयर फंड में दिल खोल कर आर्थिक अंशदान दिया। धार्मिक और स्वयंसेवी संगठनों ने भी हर संभव सहायता की है परिणामस्वरूप हमने कोरोना महामारी की पहली और दूसरी लहर पर सफलतापूर्वक नियंत्रण रखा। अब तीसरी लहर को रोकने की क्षमता रखते हैं। इसमें सरकार और जनता का सराहनीय योगदान रहा है।
सभी कुछ ठहरा दिया
यातायात के साधन यथा रेल, हवाई जहाज़, बस, टैकसी, निजी वाहन, जलपोत आदि जो पहले बिल्कुल ही बंद थे, बड़े कठोर प्रतिबंधों के साथ पुनः चालू होने से थोड़ी राहत हुई। कारखाने, निर्माण कार्य, औद्योगिक उतपादन पुनः प्रतिबंधित धाराओं के अंतर्गत आरम्भ तो हुआ परंतु कच्चा सामान और लघु उद्योगों से सहायता न मिलने के कारण उत्पादन मंद गति से हुआ। श्रमिकों की उपलब्धता सबसे प्रमुख रही। रेहड़ी, ठेला और खोखा चलाने वाला वर्ग समाप्त हो गया। चाट, पानी पूरी, आइसक्रीम, बेकरी, मोची, सड़क किनारे सब्जी और फल बेचने वाला, फेरी वाला आदि का भी काम बंद हो गया। बैंक से उधार लेकर बस, ट्रक, टैक्सी, रिक्शा आदि लेने वालों को किश्त चुकाना समस्या हो गई। ऐसे लोगों को काम न मिलने के कारण वाहन औने-पौने मूल्य पर देने पड़े। पेट के लिए किसी और प्रकार का काम करना पड़ गया।
सबसे पहले सरकारी और निजी स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षण संस्थान सब बंद कर दिए गए थे। विद्यार्थी और अध्यापक सब घर पर ही रहे। कुछ ढील मिलने पर बड़े बच्चों, कालेज आदि संस्थानों के छात्रों को आनलाइन शिक्षा का प्रबंध किया। सभी स्थानों पर ऐसा नहीं हो सका इसलिए आफलाइन के लिए आधे छात्रों की कक्षा एक दिन और शेष आधों की दूसरे दिन कर दिया और अब यथावत किया तो फिर ओमीक्रोन वेरिएंट ने दस्तक दे दी और फिर से कुछ प्रतिबंध लगा दिए गऐ हैं। परीक्षायें स्थगित और कुछ निरस्त ही कर दीं गईं। बहुत छात्र तो अगली कक्षा में चले गये और कुछ वर्गों का तो एक वर्ष समाप्त हो गया। छोटे बच्चों के विद्यालय तो अभी तक बंद ही हैं। बच्चों में अनुशासन, स्पर्धा और साझेदारी भावना का अभाव हो गया और वे घर में ही रह कर खेल नहीं सके। हर समय बड़ों के पास और उनके साथ रहने से विचित्र प्रकृति और स्वभाव के हो गये। घर वाले भी थोड़े असहज हो गये।
सरकारी और प्राइवेट कार्यालय पहले जो पूर्णतया बंद थे, वहाँ चरणबद्ध नीति से कर्मचारी काम पर आने लगे और अंत में सभी कार्य सामान्य करने की छूट तो मिल गई परन्तु काम करने की धीमी गति से बचे हुए काम अभी तक भी पूरे नहीं हुए।
इसके साथ ही रेल, बस तथा टैक्सी सेवा पर कुप्रभाव पड़ा। इस वर्ष यातायात के सभी साधन सीमित अथवा नियमित धाराओं के अंतर्गत चलने आरम्भ हुए तो किराया बढ़ा दिया। संक्रमित होने के भय से बहुत लोगों ने अपने ही वाहनों में आना-जाना शुरू किया। पैट्रोल और डीजल महंगा होने के कारण यात्रायें कम हो गईं। पर्यटन और होटल उद्योग तो लगभग समाप्त ही हो गया था परंतु बाद में ढील मिलने पर कुछ संभल गया।
शारीरिक यातना
कोरोना से पीड़ित व्यक्तियों का निदान करने में सम्बंधित डाक्टर तथा उनके सहयोगियों को सब कुछ नया ही करना पड़ा था। रोगी के परिचारकों को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक कष्ट सहने को वाध्य होना पड़ा और उस पर कुछ निरोगी नहीं हो सके। अपने सगे सम्बंधी और परिचितों का खोना कितना दुखदाई होता है, यह केवल वही जान सकता है जिसने अपने किसी को अपने सामने जाते देखा हो। बहुत हृदय विदारक स्थिति थी। कुछ को तो मृतक का चेहरा भी देखना नसीब नहीं हुआ। बहुत बच्चे अनाथ हो गये और बहुत लोगों के पार्थिव शरीर को लेने कोई नहीं आया। दिवंगतों के अंत्येष्टि संस्कार के लिए स्थान का अभाव रहा और बहुत शरीरों का सामूहिक संस्कार ही हुआ। आश्रित परिवार के सदस्य निराश्रित हो गये। स्वयंसेवी और धार्मिक संगठनों ने बहुत सहायता की। ऐसे परिवारों का पता नहीं कि कब अपने को संभाल सकेंगे।
मानसिक यातना
कुछ व्यक्तियों को कोरोना के संक्रमित होने की शंका के कारण आइसोलेशन में रहना पड़ा। उनकी ऐसी स्थिति हो गई थी कि वे अपने ही घर में अपनों से दूर, जहाँ बात केवल फ़ोन पर ही संभव थी। आप तो अलग होना ही था परंतु खाने का बर्तन भी अलग हो गया। ऐसे हालात में कम से कम ७ दिन रहना आवश्यक था। ऐसे व्यक्ति की मानसिक स्थिति का अनुमान लगाना कठिन है। यह एक प्रकार की यातना ही थी।
कोरोना से संक्रमित होने के भय से बहुत रोगियों ने अपने घर पर ही डाक्टर, वैद्य तथा अन्य अनुभवी सेवानिवृत्त नर्स आदि की सहायता और परामर्श पर अपना उपचार बनाये रखा। केवल संकटकाल में ही अस्पताल गये। भगवान की दया से निर्धन और झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वालों को कम ही अस्पताल आते-जाते देखा। शायद संपन्न लोगों को ही कोरोना का अधिक संक्रमण हुआ।
मास्क लगाकर, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए और साबुन से बार-बार हाथ धोते हुए फिर भी कोरोना से संक्रमित होने के भय से बहुत लोगों की मानसिकता ही प्रभावित हो गई। हर समय डरे या सहमे और दूर से बात करते या फ़ोन पर ही बात करते थे।
कोरोना से पीड़ित व्यक्ति के लिए महंगी दवाइयाँ तथा स्वास्थ्य सेवाओं के कारण उसके घरवाले आर्थिक तथा मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित हुए। परिणामस्वरूप मानसिक रूप से स्वस्थ, सचेत और जागरुक व्यक्ति भी संक्रमण का शिकार हो गया। ऐसा व्यक्ति प्रायः तनाव से ग्रस्त होकर इसी सोच में डूबा रहता है कि यदि उसकी रिपोर्ट पौज़ेटिव आई तो क्या होगा। ऐसे में तनावजन्य अन्य कई रोग अपने पैर पसारते हैं। तनाव के कारण व्यक्ति मानसिक रूप से अशक्त हो जाता है। उसे अवसाद, बेचैनी, उदासीनता, थकान, चिड़चिड़ापन आदि व्याधियाँ घेर लेती हैं। उच्च और निम्न रक्तचाप, जोड़ों का दर्द आदि भी इसी से सम्बन्धित रोग हैं। टेंशन, स्ट्रैस आदि जैसे लक्षण सामान्य हैं।
किसान आंदोलन वर्ष भर सफलतापूर्वक चला। किसानों ने अपनी मांगें मनवाने के लिए सभी हथकंडे अपनाये। सामान्य जनता को भी कष्ट उठाना पड़ा। देहली को तो बहुत समय के लिए बंधक ही बना रखा था। रेल और रोड पर धरना दिया और अन्न, फल और सभी प्रकार का सामान कम हो गया और उनके रेट बढ़ गये। किसानों की खेती सिमट गई और उत्पाद कम हुआ। इस से जनता और सरकर दुखी हो गए। आगे चुनाव आगये। सरकार को अपनी गलती माननी पड़ी और आंदोलन समाप्त हो गया। कहने को समाप्त है परन्तु पुनः आरम्भ करने की धमकी भी है।
कोरोना काल में बहुत कारखानों और-और औद्योगिक संस्थानों में पहले तो काम ही नहीं हुआ और फिर श्रमिकों का अभाव रहा तथा प्रतिबंधों ने काम की उचित गति नहीं पकड़ी और आर्थिक उन्नति पिछड़ गई। इसके साथ बहुत से अन्य आश्रित व्यवसायिक ईकाईयों पर भी बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।
गत वर्ष हमने बहुत शारीरिक और मानसिक कष्ट, दुख और पीड़ा सही है तथा इससे बहुत कुछ नया सीखा और अनुभव किया है। पूरे वर्ष अनुशासित रहे हैं। बीत गया सो बीत गया। २०२२ वर्ष तो आयेगा ही, उसे कोई नहीं रोक सकता। यह विधान है। यह वर्ष, ३१ दिसम्बर २०२१ को रात ११ बजकर ५९ मिनट के बाद ००.०० पर नया वर्ष, २०२२ आरम्भ हो जायेगा। हम इसके अच्छे होने की कामना और प्रार्थना कर सकते हैं और चाहें तो अपने अनुकूल बना सकते हैं। इसके लिए या तो हम उसके अनुसार चलें या उसे अपने अनुकूल बना लें।
आओ सब मिलकर मुस्कराहट के साथ २०२२ का स्वागत करें। आशा करते हैं कि यह वर्ष भी बहुत उपलब्धियों वाला होगा। निराशा में आशा छुपी है जिसने इसे पहचान लिया वह निराशावान नहीं है। वर्ष ३६५ दिन का ही तो है और यह भी बीत जाएगा। हमारे जीवन में एक और अध्याय जुड़ जायेगा। सब अच्छा ही होगा, हम अपने लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होंगे।
पंजाब में होली का निराला रुप, होला मोहल्ला
फाल्गुन माह में फाग और फिर चारों ओर उल्लास का वातावरण होना अनिवार्य-सा लगता है। इस अवसर पर निहंग अपने उल्लास और आनंद का प्रदर्शन अपनी युद्ध कला का कौशल तथा उससे सम्बंधित कलाओं के माध्यम से व्यक्त करते हैं। वे फाल्गुन मास में होली के उत्सव की प्रतीक्षा करते हैं ताकि वे भी अपने उल्लास का प्रदर्शन कर सकें और अपनी पूरी तैयारी के साथ आनंदपुर साहिब आने को आतुर रहते हैं। शब्दों में वर्णन करना कठिन है इसे स्वयं देख कर ही आनन्द की अनुभूति होती है।
पंजाब तथा अन्य प्रांतों में सिख समुदाय होली के अगले दिन होला मोहल्ला का उत्सव विशेष परम्परा से मनाता है। गुरुद्वारों में अखंड पाठ और कीर्तन होता है और लंगर (सामूहिक भोज) का आयोजन होता है। सभी को एक जैसा सादा और शाकाहारी भोजन दिया जाता है। अन्य प्रांतों की तरह इस दिन रंग का कोई खेल नहीं होता। पंजाब के आनन्द पुर साहिब नामक नगर में यह उत्सव बड़े विशाल और भव्य स्तर पर निराले ढंग से मनाया जाता है। निहंग सम्प्रदाय के लोग अपनी परम्परागत वेशभूषा में अधिक से अधिक संख्या में आनन्द पुर साहिब में एकत्रित होते हैं और युद्ध से जुड़ी और जोखिम भरी गतिविधियों का प्रदर्शन करते हैं। आनंद पुर साहिब में प्राचीन गुरूद्वारा है जिसका प्रांगण बड़ा विस्तृत है। बहुत वर्ष पहले प्रांगण में ही यह उत्सव मनाया जाता था परन्तु अब बाहर खुले मैदान में निहंगों की कला और कौशल के प्रदर्शन की व्यवस्था की जाती है। निहंग सिख समुदाय से ही हैं परन्तु इनकी वेशभूषा सैनिकों जैसी होती है। यह लोग घोड़े पर या पैदल ही पूरी वेशभूषा में होते हैं। पैदल चलते समय हाथ में बरछा अवश्य होता है।
धार्मिक मान्यता के अनुसार वैसे तो हर सिख (खालसा) , पुरुष और स्त्री के लिये पांच कक्के अर्थात् क व्यंजन से आरम्भ होने वाली वस्तुओं को प्रत्येक समय धारण करना आवश्यक है परन्तु निहंग के लिये तो बहुत आवश्यक हैं। यह कक्के हैं-कृपाण (तलवार) , केश (सिर के बाल) , कड़ा, कछ (विशेष प्रकार का जांघिया) और कंघा। इनके सिर पर विशेष प्रकार से बंधी हुई पगड़ी जो ऊपर से नोकीली और लोहे के तेज धार वाले गोल चक्र के साथ होती है। कुर्ता या कमीज़ बिलकुल सीधी-सा और नीचे कछ। कमर पर चादर और उसके ऊपर रस्सी जैसा डोरा बंधा या कसा होता है। सारी वेशभूषा गहरे नीले रंग की होती है। ऐसे ही यह सो जाते हैं। वास्तव में सिख धर्म के १०वें गुरु श्री गोबिंद सिंह ने ऐसे व्यक्तियों को सैनिकों की भांति प्रशिक्षण दिया था जो तुरंत युद्ध कर सके। उस समय युद्ध प्रायः लुके और छुपे होते थे। एक दूसरे पर अचानक आक्रमण कर दिया जाता था। सैनिकों का आमना सामना कम ही होता था। इस लिये ऐसी युद्ध कला में निपुण सैनिक निहंग ही थे। यह आज के कमांडो की तरह के होते हैं। इनका रहन-सहन डेरे (अस्थाई आश्रय) में होता था जो अन्य लोगों से बहुत दूर होता था। सभी इनसे भयभीत रहते थे। अब इनके डेरे अलग हैं। डेरों में ही इन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है। युवावस्था से पूर्व ही इनका प्रशिक्षण आरम्भ कर दिया जाता है।
निहंग समुदाय के प्रशिक्षित कलाकार उस दिन अपनी वीरता, शौर्य और पराक्रम का प्रदर्शन करते हैं। एकल, जोड़ा और सामूहिक स्तर पर ये युद्ध में योद्धा के रूप में पराक्रम प्रदर्शित करते हैं। एक हाथ में तलवार घुमाते हुये वृत में चारों ओर घूमते हैं। सीधी और उल्टी तरफ़ से तलवार को घुमाते हैं और बिना ढाल के अपने आप को सुरक्षित रखते हैं। इसी तरह दोनों हाथों में एक-एक तलवार सभी तरफ़ घुमाते हैं। अकेला एक ही निहंग तीन और चार योद्धाओं से अपने आप को सुरक्षित रखने के लिए शौर्य का प्रदर्शन करता है।
तलवार के स्थान पर कटार का प्रयोग भी किया जाता है। कटार तलवार की तरह का शस्त्र है परन्तु यह दो धार वाला, अधिक लम्बा और भारी होता है। कुछ निहंग दो कटारों को एक साथ भी घुमाते हैं। बरछा अथवा नेज़ा से आक्रमण करना और उससे अपने आप को सुरक्षित रखने का प्रदर्शन भी होता है। इनको घुड़सवारी के साथ शस्त्रों का प्रदर्शन करते हुये देख बड़ा आश्चर्य होता है। घोड़े और शस्त्रों पर कितना कमाल का नियंत्रण है। थोड़ी-सी भी चूक हो जाये तो जान जा सकती है। घुड़सवारी में कभी-कभी दो घोड़ों पर एक साथ चलते हैं। ऐसे कौशल का प्रदर्शन देखना अत्यंत डरावना और रोचक परन्तु ज्ञानवर्धक होता है। इनके घोड़े भी प्रशिक्षित होते हैं। अरब के देशों से लाकर प्रशिक्षण दिया जाता है। आजकल ऐसे घोड़े का मूल्य रुपये ५०, ६० लाख से ऊपर ही होता है। गत वर्ष तो एक घोड़े का अधिकतम मूल्य डेढ़ करोड रुपये था।
डॉ. वी. के. शर्मा
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