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मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand) का रचना संसार
मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand) का रचना संसार
मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand) आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह, महान कथाकार और उपन्यास सम्राट थे। उनकी कहानियों में तत्कालीन इतिहास बोलता है। वह हिन्दी साहित्य के ऐसे कीर्ति स्तंभ हैं जिनपर पूरे भारतवर्ष को गर्व है।
मुंशी प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी के पास लमही गाँव में हुआ था। उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था और उनकी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारसी में हुई थी। जब वे सात वर्ष के थे तो उनकी माता का देहांत हो गया और सोलह वर्ष के होते-होते उनके पिता भी चल बसे इसलिए उनका जीवन काफ़ी संघर्ष में बीता। उनका विवाह पंद्रह वर्ष की आयु में ही हो गया था। अपनें संघर्षमय जीवनकाल में उन्होंने समाज में फैली समस्याओं को काफ़ी करीब से देखा और महसूस किया।
मुंशी प्रेमचंद आरंभ में उर्दू में कहानियाँ लिखते थे, उनकी राष्ट्रप्रेम और शहादत पर लिखी कहानियों का संग्रह ‘सोजे वतन’ इतना लोकप्रिय हुआ कि उस से घबरा कर ब्रिटिश सरकार नें उस पुस्तक की सारी प्रितियाँ जला दीं। बाद में उन्होंने हिन्दी में लिखना आरंभ किया।
वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व होते हुए भी अत्यंत सरल स्वभाव के थे। उनके हृदय में गरीबों और पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था जो कि आगे चलकर उनकी रचनाओं का आधार बनीं। । उन्होंने अपनी कृतियों में न सिर्फ़ जनसाधारण की समस्याओं, परिस्थितियों और भावनाओं का मार्मिक चित्रण किया बल्कि समाज में फैली कुरीतियों जैसे गरीबों का शोषण, बाल विवाह, सती प्रथा, सूदख़ोरी, शोषण और अन्याय का भी पुरज़ोर विरोध और कुठाराघात किया। उनकी रचनाएँ सरल होने के साथ-साथ अत्यंत जीवंत और संवेदनशील होती थी। उन्हें मानवीय रिश्तों और भावनाओं की गहरी परख थी जो उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है।
जहाँ ‘नमक का दरोगा’ और ‘पंच परमेश्वर’ में उनकी कहानियाँ आदर्शों की बात करती हैं वहीं ‘बूढ़ी काकी’ , ‘बड़े घर की बेटी’ और ‘ईदगाह’ में मानवीय भावनाओं, संवेदनाओं और रिश्तों का अभूतपूर्व वर्णन मिलता है। ‘पूस की रात’ और “कफन” जैसी कहानियाँ जहाँ ग़रीबी की समस्या को उजागर करती हैं वहीं ‘दो बैलों की कथा’ मनुष्य और पशुओं के प्रेम और लगाव की मूक भावनाओं को चित्रित करता है। उनके लिखे उपन्यासों में ग़बन, गोदान, निर्मला और कर्मभूमि आदि प्रसिद्ध हैं जो कि समाज के सभी वर्गों का प्रतिबिंब हैं।
अंततः हम ये कह सकते हैं कि मुंशी प्रेमचंद की रचनाएँ सामाजिक सरोकार और मानवीय मूल्यों से भरी होनें के कारण कालजयी हैं। वह सभी रचनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी आज से ७०-८० वर्ष पहले थी। उनकी कहानियाँ उपन्यास और संस्मरण सिर्फ़ रचना मात्र नहीं बल्कि भारतीय हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। आज की नई पीढ़ी और युवाओं को देश प्रेम की भावना जगानें और समाज की कुरीतियों और समस्याओं से अवगत होनें के लिए मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं को पढनें और समझनें की बहुत ज़रूरत है।
उल्लास
आज सुबह से ही उसके चेहरे की ख़ुशी देखते बन रही थी। जल्दी-जल्दी घर का काम निबटाकर वह चाय बनाकर मेरे पास आ बैठी और कहने लगी…भाभी आज हमलोग नया साल मनाएँगे आप भी देखने ज़रूर आइयेगा। वो मेरे आउटहाउस में रहती है और घर के काम में मेरी मदद किया करती है, एकदम फुर्ती से फटाफट वह साफ़ सफ़ाई और रसोईघर के काम निबटा मेरे पास बैठकर अक्सर ढेर सारी बातें किया करती है। आज भी कहने लगी कि कैसे उन सबने थोड़े-थोड़े पैसे चंदा करके नए साल की पार्टी के लिए केक और मिठाई मंगवाया है। पार्टी भी घर के पिछवाड़े की गली में होगा जिसे उंसके बेटे नें दोस्तों के साथ मिलकर बलून और छोटी-छोटी लाइट से सजा दिया है। कई दिन से जमा की हुई सूखी लकड़ियों को एक जगह इक्कट्ठा करके आग जलाने का इंतज़ाम किया गया है। पता नहीं क्यो उंसके उत्साह और ख़ुशी देखकर मेरा मन भी ख़ुशी से भर गया और मैंने भी कुछ रुपये निकालकर उसे दे दिये।
और फिर मुझे रात बारह बजे तक जागे रहने की हिदायत दे वह फिर सारी तैयारी में लग गई। घर पर ही फटाफट पूड़ी और छोले बना कर और केक और समोसे के साथ पार्टी शुरू हुई तो वह थोड़ा-सा केक और मिठाई लेकर मुझे बुलाने आ गई। मैं भी अपनी उत्सुकता न रोक पाई और रात के १२ बजे पीछे गली में हो रहे नए साल के अनोखे जश्न को देखने आ खड़ी हुई। सबकुछ कितना सहज और सुन्दर था वहाँ… न ब्रांडेड कपड़े न महंगा होटल और उसका खाना और न ही कोई तामझाम…उस कड़कती ठंड में खुले आसमान के नीचे वह लोग जिस उत्साह से नाच गाने और ख़ुशी मनाने में लगे थे वह देखकर मेरा मन भर आया। थोड़ी देर के लिए मानों वह लोग अपनी ग़रीबी और सारी तकलीफ़ें भूलकर जी भरकर नए साल का जश्न मना रहे थे। इतनें कम पैसे और संसाधनों में वह लोग जितना खुश थे वह ख़ुशी शायद पैसों से कभी खरीदी नहीं जा सकती।
आज चारो ओर जहाँ नए साल की तैयारी और जश्न जोरों का है… बड़े-बड़े मॉल, क्लब और होटलों की सजावट देखते ही बनती है…जितनी बड़ी जगह उतनी ज़्यादा तड़क भड़क। लेकिन इस तड़क भड़क और शोर शराबे से परे कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कम पैसों में भी ज़िन्दगी के हर पल को भरपूर जीना जानते हैं… इस उम्मीद के साथ कि आप सभी का नया साल भी ऐसे ही हँसी ख़ुशी में बीते…इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ विदा लेती हूँ…सबको प्यार और आभार सहित नववर्ष की अनंत शुभकामनाएँ…
मौसम ने करवट ली
मौसम नें करवट ली है और देखते-देखते मौसम सर्द होने लगा है… मुझे सर्दियों का मौसम बहुत अच्छा लगता है खासकर जाड़े की नर्म-नर्म धूप में बैठना। मुझे याद है बचपन में जाड़े की उस गुनगुनी-सी धूप में बैठकर जाने कितने सारे काम निबटा लिए जाते थे। दादा दादी की बैठकी सुबह से ही धूप में जम जाती और फिर सुबह की चाय और नाश्ता सब वहीं होता। माँ बार-बार रसोईघर से बाहर और बाहर से रसोईघर करती थक जाती पर कभी उन्हें इस बात से परेशान होते नहीं देखा।
हम बच्चा पार्टी भी चटाई बिछाकर किताबें खोल वहीं धूप में जम जाते… लेकिन पढ़ाई कम और मस्ती ज़्यादा होती। कभी किताबें छोड़ साइकिल चलाने की याद आ जाती तो कभी किसी को लट्टू नाचनें की। कभी पेड़ पर चढ़ अमरूद तोड़ खाते तो कभी किताबें खुली छोड़ हमलोग का क्रिकेट जम जाता और फिर डाँट खाकर वापस पढ़ने बैठते। जल्दी जल्दी सुबह का काम निबटा माँ भी हमलोग के साथ आकर बैठ जाया करती। नारियल तेल को पिघलाने के लिए डिब्बा धूप में रख दिया जाता और माँ हम सबके बालों में चुपड़-चुपड़ कर तेल लगाती। हम बच्चे जैसे ही माँ को नारियल या सरसों तेल लेकर आते देखते तो वहाँ से खिसकने की सोचते…बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था तेल लगाना।
कभी माँ मिर्ची या नींबू का अचार लगा रही होती तो कभी माली को बागवानी या सब्जियों के खेत का काम समझा रही होती। हमारा क्वाटर के चारों ओर काफ़ी ज़मीन हुआ करती थी जिसमे के सारे मौसमी सब्जियाँ उगाई जाती थी। आलू, गोभी, मूली, गाजर, पालक, मेथी, धनिया इन सबकी अलग-अलग क्यारियाँ होती थी। उस अपने घर में उगाए सब्जियों का स्वाद आज ढूँढने से भी नहीं मिलता है। दोपहर के खाने के बाद आस पड़ोस और कॉलोनी की सभी महिलाएँ जमा हो जातीं और सबके हाथों में रहती स्वेटर बुननें की सलाइयाँ और रंग बिरंगे ऊन के गोले। ढेर सारी गपशप, हँसी मज़ाक के साथ-साथ स्वेटर कब बुनकर तैयार हो जाता पता ही नहीं चलता।
जैसे जैसे धूप और गर्म होती जाती हमारी चटाई छाँव की ओर सरकती जाती और कभी-कभी हम वहीं धूप में दोपहरी की नींद की एक झपकी भी ले लेते। देखते-देखते धूप नरम हो जाती और हम सारे ताम झाम समेट वापस घर के अंदर आ जाते। सर्दियों की धूप तो अब भी वही है पर अब पहले वाली चहलपहल और रौनक नहीं होती फिर भी मुझे सर्दियों की धूप बड़ी भली लगती है…किसी अपने के प्यार जैसी नर्म और गर्माहट से भरी हुई… इन्हीं बातों के साथ विदा लेती हूँ …फिर मिलूँगी कुछ और बातों के साथ…सबको स्नेह और आभार…
जन मन की भाषा-हिंदी
हमारा देश भारत विविधताओं का देश है। यहाँ हर जाति धर्म और भाषा बोलनें वाले लोग मिलजुल कर रहते हैं। हर राज्य की अपनी विशेषता और अपनी अलग भाषा है। ऐसे में ऐसा क्या है जो हमें एक सूत्र में बाँधता है? वह है हिन्दी भाषा, जो हमें अनेकता में एकता के सूत्र में बाँधती है। भारत के बारे में कहते है “यहाँ कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी”। जहाँ हर चार कोस पर भाषा बदल जाती हो वहाँ इतनी भिन्न-भिन्न भाषाओं के बीच हिन्दी ही वह कड़ी है जिससे सभी राज्य आपस में जुड़ जाते हैं।
हिन्दी ये नाम सुनते ही मन में भारतीय होने का भाव प्रकट हो जाता है। हिन्दी हमारी मातृ भाषा ही नहीं बल्कि जन मन की भाषा है। अपनें-अपनें राज्यो या प्रदेशों में हम चाहे जो भी भाषा बोलें लेकिन हम जब भी एक साथ होते हैं तो हिन्दी ही हमारी पहचान बनती है। देश ही नहीं विदेशों में भी हिन्दी हम भारतीयों को एक साथ जोड़े रखती है। हिन्दी भाषा में भारत की मिट्टी की सुगंध रची बसी है जिससे कोई भी अछूता नहीं रह सकता। हम देश विदेश कहीं भी चले जाएँ अगर हमें कोई हिन्दी भाषी मिल जाता है तो मन के तार स्वतः जुड़ जाते हैं और लगता है हमें अपना देश मिल गया।
ये सही है कि आजकल हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा को भी जानना उतना ही ज़रूरी है लेकिन हमें अपनी मातृभाषा को कभी-कभी नहीं भूलना चाहिए। पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करने के कारण आज हिन्दी अपनें ही देश में अवहेलित-सी नज़र आती है। अक्सर हिन्दी भाषी लोगों को नीची नज़रों से देखा जाता है और उन्हें कम पढ़ा लिखा माना जाता है। यह एक ग़लत धारणा है। हमारे देश में बड़े से बड़े कवि और साहित्यकार हुए हैं जो काफ़ी पढ़े लिखे थे और जिन्होंने एक से बढ़कर एक साहित्य और काव्य लिखे हैं। वह सारे काव्यग्रंथ और साहित्य जो हिन्दी के स्वर्णिम इतिहास के गवाह है, आज उपेक्षित से नज़र आते हैं। हम में से कितनें लोग हैं जिन्होनें उन साहित्यों को पढ़ा है या जो उन साहित्यों को पढनें में रुचि रखते हैं। हमें अपनें साहित्य और हिन्दी भाषा की धरोहर इन साहित्य और काव्यग्रंथ को सहेजनें की ज़रूरत है ताकि आनें वाली पीढ़ी इन रचनाओं को पढ़ें, इसके बारे में जानें और अपनाएँ।
हिन्दी आज विश्व की सबसे पौराणिक और समृद्ध भाषाओं में एक है, साथ ही साथ ये सबसे वैज्ञानिक भाषा भी है। आज ज़रूरत है कि हम अपनी मातृभाषा हिन्दी न सिर्फ़ बोलें बल्कि इसका मान सम्मान करें और अपनाएँ। कभी भी हिन्दी बोलनें या लिखने में संकोच न करें क्योकि ” हिन्दी हैं हम वतन है, हिन्दोस्तां हमारा…
आज का भारत
पुरातन और वैदिक काल से ही भारतवर्ष का अत्यंत गौरवशाली और स्वर्णिम इतिहास रहा है। भारत नें विश्व के पटल पर अपनी उत्तम और आधुनिक विचारधारा और वैज्ञानिक सिद्धांतों के कारण एक अमिट छाप छोड़ी है। आधुनिक भारत आज जो कुछ भी है वह प्राचीन भारत की संस्कृति और नैतिक मूल्यों के कारण है। अपनी वसुधैव कुटुम्बकम की नीति के कारण भारत की अपनी एक अलग पहचान है जो कि अन्य किसी देश की नहीं है।
भारत की वैदिक सभ्यता विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है। यहाँ विभिन्न जाति और धर्मो के लोग आदिकाल से एक साथ मिलजुलकर रहते आये है जो कि अनेकता में एकता का सुन्दर उदाहरण है। भारतवर्ष की मिट्टी बड़ी अनोखी है, प्राचीन काल से न जानें कितनी बार बाहरी शक्तियों नें हमारे देश पर आक्रमण किया है पर इस मिट्टी के निडर सपूतों ने उनका डटकर मुकाबला किया है। सम्राट अशोक, सम्राट पोरस, वीर मराठा शिवाजी, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, वीर कुंवर सिंह आदि महान सेनानियों में देश की आन बान और शान के लिए अपना सबकुछ न्योछावर किया है। जहाँ महात्मा गाँधी ने पूरे विश्व को सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाया है वहीं शदीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुखदेव और सुभाष चंद्र बोस महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी भी हुए हैं।
हमारी सभ्यता, संस्कृति और संस्कार हर काल खंड में पूरे विश्व के मार्गदर्शन करते रहे हैं। शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भी हम अग्रणी रहे हैं। हमनें शून्य की खोज की है। यहाँ आर्यभट्ट, चरक, सुकरात और चाणक्य जैसे विद्वान हुए हैं। भारत महान कवि और सहित्यकारों जैसे कालीदास, तुलसीदास, मीराबाई, कबीर, रहीम आदि की जन्मभूमि रही है। यहाँ स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस जैसे विद्वान हुए हैं तो राजा राम मोहन राय जैसे समाज सुधारक भी हुए हैं। श्री रवींद्रनाथ टैगोर ने हमें हमारे राष्ट्र गान दिया है और उनकी पुस्तक को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है और सत्यजीत रे को कौन भूल सकता है जिनकी बनाई फ़िल्मों ने ऑस्कर अवार्ड जीता है। कला और साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रकवि दिनकर, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, सुमित्रानंदन पंत और नीरज जैसे महान कवि हुए हैं।
आज आधुनिक भारत नें भी कई क्षेत्रों में अपना परचम लहराया है। चाहे वह विज्ञान व तकनीक या प्रद्योगिकी का क्षेत्र हो या मानव संसाधनों के विकास का… शिक्षा या साहित्य का क्षेत्र हो या खेल कूद का, हमनें विकास की ओर क़दम बढ़ाया है। भारत के राजनीतिक और कूटनीतिक दृष्टिकोण का लोहा आज विश्व मानता है क्योंकि हम सदैव विश्व शांति के पक्षधर रहें हैं। हमनें सभी छोटे बड़े राष्ट्रों की ओर मैत्री का हाँथ बढ़ाया है और अपनें सम्बंधों को बेहतर बनानें की कोशिश की है। भारत के पास परमाणु शक्ति भी है फिर भी हम युद्ध और विध्वंस का विरोध करते हैं। हमनें शांतिपूर्ण ढंग से अपनी सीमाएँ सुदृढ और सुरक्षित की हैं।
इतनी प्रगति के बाद भी आज भारत की कई आंतरिक समस्याएँ भी हैं। एक लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होनें के बावजूद हमारे समाज में सम्प्रदायिकता और धर्म को लेकर विचारों में मतभेद है। कई असाम्प्रदायिक ताकतें समाज में वैमनस्यता फैलातें हैं जिस से दंगे होते हैं और जान माल और राष्ट्रीय व व्यक्तिगत संपत्ति की भी हानि होती है। आतंकवाद भी आज एक ज्वंलत मुद्दा है। कई बाहरी ताकतें हमारी आपसी मतभेद का फायदा उठा कर युवाओं को गुमराह कर आतंकवाद फैलातें हैं।
आज भारत के युवाओं में बेरोजगारी की भी समस्या है। दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली और आरक्षण के कारण आज के पढ़े लिखे युवा रोजगार से वंचित हैं। ये बेरोजगारी उन्हें ग़लत राह पर ले जाता है। नारी सुरक्षा आज के भारत की सबसे बड़ी समस्याओं में एक है, आये दिन घटनें वाली बलात्कार और एसिड अटैक की घटनाएँ इसका प्रमाण है। हमारी बेटियाँ आज एक ओर हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं लेकिन दूसरी ओर वह हमारे समाज में सुरक्षित नहीं हैं। कन्या भ्रूण हत्या और बेटे बेटियों में भेदभाव, उन्हें समान अवसर का न मिलना, ये समस्याएँ भी आज भारत के हर राज्य और प्रान्त में है।
इसके अलावा आज भारत में भरष्टाचार, गरीबी, महँगाई और अशिक्षा की समस्या है। हमारे किसान गरीब हैं, उन्हें अपने अनाज का उचित मूल्य नहीं मिलता जिसके कारण वह कर्ज़ में डूबे रहते हैं। महँगाई नें गरीब तबके के लोगों की कमर तोड़ रक्खी है। अनाज, फल सब्जियों, पेट्रोल और ज़रूरत के सामानों के दाम आसमान छू रहे है। महँगाई और ग़रीबी ही भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण है। गाँव-गाँव में शिक्षा का भी आभाव है।
आज के भारत की छवि एक ऐसे राष्ट्र की है जहाँ प्राकृतिक और मानव संसाधनों की कमी न होते हुए भी कई क्षेत्रों में विकास करनें की ज़रूरत है। आज भारत एक विकाशशील देश है और हम भारतवासियों को आपसी सहयोग, भाईचारे और सूझबूझ से इसे और आगे लाना है। हमें भारत की एकता और अखंडता को अक्षुण रखते हुए उन्नति के मार्ग पर अग्रसर रहना है। जय हिंद जय भारत….
नारी शक्ति-टोकियो ओलम्पिक २०२०
कहतें हैं अगर आप में प्रतिभा और लगन है तो आपको कोई रोक नहीं सकता और इसी बात को साबित कर दिखाया है उन सभी महिला खिलाड़ियों नें जिन्होंने भारत के लिए न सिर्फ़ पदक अर्जित किया बल्कि देश का नाम विश्व पटल पर स्वर्णिम अक्षरों में अंकित कर दिया।
इस बार का ओलम्पिक अभी तक बेटियों के नाम रहा है। एक समय था जब ये कहा जाता था कि लड़कियाँ खेलकूद के लिए नहीं बनी है। बहुत से ऐसे स्पोर्ट्स थे जिन्हें सिर्फ़ लड़कों के लिए उपयुक्त माना जाता था। बॉक्सिंग, रेसलिंग और वेट लिफ्टिंग उनमें से एक है। लेकिन आज भारत की बेटियों नें इस धारणा को तोड़ दिया और वह कर दिखाया जो पहले कभी नहीं हुआ। सबसे पहले पदक तालिका में भारत का नाम बेटियों की वज़ह से आया। ये एक अलग-सी अनुभूति है और हमारे लिए अत्यंत गर्व की बात है।
भारत की मीराबाई चानू, लोवलीना और पी वी सिंधु इन सभी नें अपनी मेहनत और लगन से अपनें-अपनें क्षेत्र में सफलता अर्जित की। भारत की महिला हॉकी टीम भी प्रतिस्पर्धा में काफ़ी आगे तक आयी और बस एक क़दम दूर थी वह पदक से, ये अपनें आप में बहुत बड़ी बात है। पर देखा जाए तो भारत के छोटे-छोटे शहरों में अब भी खेलकूद के लिए बुनियादी सुविधाओं का आभाव है जिसके कारण कई प्रतिभाएँ आगे नहीं आ पाती, बहुत-सी प्रतिभाएँ तो ग़रीबी और अशिक्षा के कारण दम तोड़ देती हैं। लिंग भेद भी हमारे समाज में एक ऐसी समस्या है जो बेटियों को आगे आने के मार्ग में एक बड़ी रुकावट बनती है।
मीराबाई चानू और मैरी कॉम जैसी खिलाड़ी जब एक छोटे जगह से आकर अपने राज्य और क़स्बे का नाम रौशन करती हैं तो हमें ये सोचनें पर मजबूर होना पड़ता है कि क्या हम छोटे शहरों से आने वाली प्रतिभाओं को पर्याप्त संसाधन और सुविधाएँ दे पा रहे हैं? क्या उन्हें आगे आने का सही अवसर मिल पा रहा है? क्या उन खिलाड़ियों को सही और पर्याप्त प्रशिक्षण मिल पाता है जिससे उनके खेल में तकनीकी सुधार और निखार आ सके? तो ज़रूरत है इन प्रतिभाषाली खिलाड़ियों को पहचाननें और उन्हें आगे लानें की। उन्हें वित्तिय सहायता और सुविधाएँ देने की। हमें छोटे शहरों में भी इन खेलों के लिए प्रशिक्षण केंद्र बनाने होंगे की जहाँ वह खेल की बारीकियाँ सीख सकें।
टोकियो ओलिम्पिक २०२० में हमारी बेटियों की सफलता इस बात का सबूत है कि धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है, हमारा समाज लड़कियों को भी खेल कूद में आगे आनें के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। यह एक बहुत बड़ी बात है। हमसब भी अपनी बेटियों को उनके सपनों को जीनें दे…उन्हें ये विश्वास दिलाएँ की लड़कियाँ क्या नहीं कर सकती…
इन्हीं बातों के साथ विदा लेती हूँ, फिर मिलूँगी कुछ और बातों के साथ…सबको प्यार और आभार…
गुरु की सीख
गुरु पूर्णिमा दिन है उन सभी गुरुओं को याद और नमन करनें का जिनसे हमनें कुछ भी सीखा है। जीवन का आरंभ होता है और हम सीखना शुरू कर देतें हैं, सबसे पहले एक शिशु अपने चारों ओर के वातावरण को महसूस करके प्रतिक्रिया देना सीखता है…चाहे वह रोकर हो या हँसकर लेकिन अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर देता है।
धीरे धीरे जब थोड़ा बड़ा होता है तो बोलना और चलना सीखता है। इस समय उसकी पहली गुरु होती है उसकी माँ जो क़दम दर क़दम उसकी नन्हीं उँगलियों को थामें जीवन के प्रथम सोपान पर ले जाती है। उसे प्यार और अच्छे संस्कार देती है। लेकिन सिर्फ़ माँ ही नहीं परिवार के अन्य लोग भी इसमें अहम भूमिका निभाते हैं। आस पास के माहौल और घटनें वाली घटनाएँ बाल मन पर गहरा असर छोड़ जाती है।
जब बच्चें विद्यालय जाना शुरू करते हैं तो उनके आदर्श बनते हैं शिक्षक। उस वक़्त शिक्षकों की सिखाई और कही बातें किसी भी बच्चे के लिए सर्वोपरि होती हैं। उनकी कही बातें जीवन की आधारशिला बनती है जिसपर भविष्य में जीवन की इमारत खड़ी होती है। इन सबके साथ ही साथ सहपाठियों का भी बच्चों पर काफ़ी असर पड़ता है और उनसे भी बच्चे काफ़ी कुछ सीखतें हैं…ये अच्छा या बुरा कुछ भी हो सकता है।
इस प्रकार जीवन आगे बढ़ता जाता है। कभी वक़्त और हालात भी हमारे गुरु बनते हैं। वह सारी बातें जो हम किताबों में पढ़कर न सीख पाए वह वक़्त और हालात हमें चुटकियों में सीखा जाते हैं। हमारे गुरु बनते हैं हमारे कटु और अच्छे अनुभव जो जीवन की विडंबनाओं से हमारा परिचय कराते हैं और जीवन के अमूल्य सिद्धान्तों का पाठ पढ़ा जाते है। अब ये हम पर है कि हम अच्छा सीखते हैं या बुरा। दअरसल ज़िन्दगी अपनें आप में सबसे अच्छी गुरु है, जीवन के सारे खट्टे मीठे अनुभव कोई न कोई सीख दे कर ही जाते हैं। अक्सर देखा जाता है कि बिना पढ़े लिखे लोग भी अपनें अनुभवों के कारण व्यवहारिक ज्ञान की अथाह थाती सहेजे रहते हैं जो कि अन्य कहीं पाना संभव नहीं है।
हमारा अंतःकरण भी इन सभी गुरुओं के जैसा ही है। हम चाहे जो भी करें हमारा अंतःकरण एक बार हमें ज़रूर बताता है कि क्या सही है और क्या गलत… अब ये हमारे संस्कारों पर निर्भर करता है कि हम सही या ग़लत क्या चुनते हैं। तो आज हमें बहुत ज़रूरत है उस सहज व्यवहारिक ज्ञान की जो हम किताबों के अलावा भी और कई चीजों से अर्जित कर सकते हैं। वह ज्ञान जो हर क़दम पर हमारे सामनें बिखरा है, बस ज़रूरत है उसे समेटनें की… इन्हीं बातों के साथ विदा लेती हूँ… फिर मिलूँगी कुछ और बातों के साथ, सबको प्यार और आभार…
स्वप्न झरे फूल से
स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे…
गोपालदास नीरज
और सचमुच साहित्य का सबसे सुंदर सबसे विशाल कारवाँ १९ जुलाई १२०१८ को गुज़र गया। लेकिन कवि कभी मरते नहीं हैं और कवि अगर महाकवि गोपालदास नीरज जैसा हो तो कभी नहीं। सदियों-सदियों तक उनकी कविताएँ, उनकी गज़लें और उनके लिखे गीत धरती से आकाश तक गूँजते रहेंगे। जब कोई लिखनें के लिए क़लम उठाएगा तो महाकवि नीरज की यादों में शीश ज़रूर नवायेगा।
कहते हैं जबतक दर्द न हो लेखनी में वह बात नहीं आती। इसी बात को चरितार्थ करती थी गोपालदास नीरज की जीवन यात्रा। गरीब किसान के परिवार में ४ जनवरी १९२५ को जन्में नीरज का बचपन काफ़ी ग़रीबी में बीता फिर भी उन्होनें मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की।
घर की आर्थिक समस्याओं के कारण उन्होंने इटावा के न्यायलय में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया। उसके बाद सिनेमा घर में भी लम्बे समय तक काम किया। जिसके बाद उन्होंने दिल्ली के सफ़ाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी की। इस दौरान उन्होंने प्राइवेट परीक्षा दी और वर्ष १९४९ में अपना इन्टरमीडिएट की उत्तीर्ण की। उन्होंने मेरठ कॉलेज में कुछ दिन प्राध्यापक का भी कार्य किया, इसके बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हुए। इस दौरान उन्होंने कई कविताएँ और गीत लिखे।
अपनी कविताओं और गीतों की लोकप्रियता के कारण उन्हें बॉम्बे आकर फ़िल्मों में गानें लिखनें का निमंत्रण मिला। अपनी पहली ही फ़िल्म ‘नई उमर की नई फसल’ के गीत “कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे” से उन्हें काफ़ी ख्याति मिली और फिर फ़िल्मों में गीत लिखनें का सिलसिला चल पड़ा। “प्रेम पुजारी” का गीत “फूलों के रंग से” और “रंगीला रे” , … “शर्मीली” का गीत “मेघा छाए आधी रात” और “मेरा नाम जोकर” का गीत “ए भी ज़रा देख के चलो” आज भी लोगों के ज़ुबान पर हैं। उनके लिखे गीत दिल को छू जाते थे। कई प्रसिद्ध गानें उनके नाम हैं जो आज भी सुननें वालों को मदहोश कर जाते हैं।
लेकिन कुछ साल बॉम्बे में रहनें के बाद वह वापस अलीगढ़ लौट आये और वही रहकर अपना काव्य सफ़र जारी रख्खा। उनकी रचनाओं में संघर्ष, विभावरी, अंतर्ध्वनि, प्राणगीत, दर्द दिया है इत्यादि प्रमुख हैं। उन्होंने कई सम्मान भी अर्जित किये, उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उन्हें फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत रचना के लिए लगातार तीन बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार भी मिला।
गोपालदास नीरज एक विलक्षण प्रतिभा के धनी साहित्यकार, कवि और गीतकार थे। । उन्होंने उस दौर में शुद्ध हिन्दी में गीत रचे जब ज्यादार गानों में उर्दू के शब्दों का प्रयोग होता था। उन्होंने इस धारणा को तोड़ दिया कि हिन्दी के गीतों में वह नज़ाकत नहीं आती जो उर्दू की शायरी या गीतों में आती है।
उनकी रचनाओं को पढ़कर आज भी पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ मार्गदर्शित होती रहेंगी। उनके गीतों के शब्द इतनें सुन्दर होते थे कि उन्हें भूलना नामुमकिन है। हिन्दी साहित्य का ये अनमोल रत्न एक सुंदर सितारे की तरह है जो युगों-युगों तक चमकता रहेगा और जिसकी छवि कभी धूमिल नहीं होगी।
नमन और श्रद्धांजलि
आत्महत्या-कारण और निदान
मानव जीवन बहुत सुंदर और कई संभावनाओं से भरा है, फिर भी कई लोग अपनें जीवन का अंत करनें का रास्ता अपनाते हैं, आत्महत्या का रास्ता चुनते हैं। आत्महत्या एक जीव की हत्या है जो कि किसी भी तरह से उचित नहीं है। परंतु सवाल ये नहीं की ये सही है या ग़लत है, सवाल है कि क्यूँ ऐसा हो जाता है कि लोग अपनें अमूल्य जीवन को अपनें हाँथों से अंत करनें का फ़ैसला करते हैं।
इसके कई कारण हो सकते हैं, अत्यधिक महत्त्वाकांक्षा, समाज में दिखावा और बनावटी जीवनशैली, एकल परिवार के कारण फैला अकेलापन और किसी भी क्षेत्र में मिली असफलता से निराश होना। युवाओं और बच्चों में भी आजकल आत्महत्या की प्रवित्ति बहुत देखी जा रही है। इसका कारण दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली, परीक्षा में अच्छे अंक लाने का दबाव और बुरी आदतों जैसे नशीले पदार्थों का सेवन करना आदि प्रमुख है।
आत्महत्या का क्या कारण है इस बात का जवाब ढूढ़नें के लिए हमें आत्महत्या का प्रयास करनें वालों की मानसिक अवस्था को भी समझना होगा। ऐसे लोग ज्यादातर अवसाद और निराशा से भरे होते हैं। ये लोग अपनें जीवन की कठिनाइयों से अकेले जूझते रहते हैं और अपनी कठिन परिस्थितियों से इतने ज़्यादा परेशान हो जाते हैं कि उन्हें अपनें जीवन का अंत करना ज़्यादा सरल लगता है। उनके पास अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए या तो कोई नहीं होता या होता भी है तो वह अपनी बात को किसी के साथ साझा नहीं कर पाते हैं। उन्हें लगता है लोग उनकी भावनाओं को नहीं समझ पाएँगे। वह अपनी बात कहने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं और सोचते हैं कि लोग क्या कहेंगे।
ऐसी स्थिति में आत्महत्या का प्रयास करने वाले लोगों के परिवार और दोस्तों भूमिका सबसे अहम हो जाती है। हमें ज़रूरत है अवसाद से ग्रसित लोगों को पहचाननें की। उनसे बात करने की और उनकी भवनाओं को समझनें की। हमें उनकी मदद के लिए हाँथ बढ़ाना होगा। ऐसी निराशा से जूझ रहे लोगों को ये विश्वास दिलाना होगा कि वह अकेले नहीं हैं…उनके परिवार और दोस्त हर परिस्थिति में उनके साथ हैं और वे अपनी सारी बातें बेझिझक कह सकते हैं।
उन्हें विश्वास दिलाना होगा कि विपरीत या कठिन परिस्थितियाँ हमेशा नहीं रहती। नकारात्मक सोच से बाहर आकर किसी अन्य चीज़ में ध्यान लगाना जैसे गाने सुनना, बागवानी करना, अपनी पसंद की पुस्तकें पढ़ना, योगा या व्यायाम करना आदि बहुत फायदेमंद साबित होगा। हमें ऐसे लोगों जो कि निराशा या अवसाद से ग्रसित हैं उन्हें अकेला कभी नहीं छोड़ना चाहिए, उनसे बात करनी चाहिए और समस्याओं को सुनना चाहिए। अगर कोई परेशानी साझा करने वाला हो तो आधी मुश्किल तो वहीं ख़त्म हो जाती है।
अतः आत्महत्या के कारण और निदान को जानकर ही इस समस्या से निबटा जा सकता है। ज़रूरत है हमें ऐसे निराश और अवसाद से ग्रसित लोगों के प्रति संवेदनशील होने की …उन्हें विश्वास और प्यार से उनमें सकारात्मकता जगानें की तभी इन घटनाओं पर रोक लगाया जा सकेगा।
अग्नि / आग
सृष्टि का आरंभ जिस शक्ति पुंज के विराट स्वरूप से हुआ है वह अग्नि का एक प्रचंड रूप है जिसे हम सूर्य के नाम से जानते हैं। इसी अग्नि पुंज की ऊष्मा और प्रकाश करोड़ो मील दूर पृथ्वी तक आती है और समस्त जीव जंतुओं और वनस्पतियों के लिए ऊर्जा का स्रोत बनती है। अगर ये अग्नि ना हो तो चारों ओर अंधकार छा जाए और पृथ्वी एक हिमखंड बन कर रह जाए।
हम मनुष्यों और सभी जीव जंतुओं का शरीर जिन पांच तत्वों से मिलकर बना है उनमें सबसे प्रमुख अग्नि ही है। ये अग्नि ही है जो हमारे शरीर में अति सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहती है जिसे प्राण कहते हैं। जिसके निकल जानें से शरीर मृत और ठंडा हो जाता है।
धरती पर पाए जाने वाले सभी वनस्पतियों भी सूर्य की अग्नि के प्रकाश में अपना भोजन तैयार करते हैं जो उनके जीवन चक्र का अभिन्न अंग है। वनस्पतियों द्वारा निर्मित भोजन फलों और बीजों के रूप में एकत्रित होकर रहता है जो हम खाद्य पदार्थ के रूप में उपयोग में लाते हैं। यहाँ तक कि एक नन्हें से बीज में भी ये अग्नि सुसुप्तावस्था में मौजूद रहती है और उपयुक्त वातावरण मिलनें पर ऊर्जा देती है जिससे बीज अंकुरित होता है और नए पौधे का जीवन आरंभ होता है।
हमारे शरीर को सुचारू रूप से चलानें के लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है। हम जो कुछ भी खाते हैं वह हमारे पाचनतंत्र की विभिन्न जठराग्नियों द्वारा पचता है। पाचन क्रिया के बाद जो ऊर्जा निकलती है वह भी अग्नि का ही अत्यंत सूक्ष्म रूप है। यही अग्नि हमारे शरीर को विभिन्न कार्यों को करनें के लिए ऊर्जा देती है।
सजीव ही नहीं निर्जीव वस्तुओं में भी अग्नि रहती है। निर्जीव वस्तुओं में ये आण्विक ऊर्जा के रूप में रहती है। यही आण्विक ऊर्जा किसी भी पदार्थ या धातुओं के सभी अणुओं को आपस में जोड़े रहता है। इस आण्विक ऊर्जा की मात्रा ही किसी भी पदार्थ के गुण तय करता है।
इस अग्नि या ऊर्जा को नष्ट या संरक्षित नहीं किया जा सकता। ये एक जीव से दूसरे जीव या एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में परिवर्तित या स्थानांतरित होती रहती है।
हमारे हिन्दू धर्म में अग्नि को देवता माना गया है। किसी भी पूजा या हवन में हम पवित्र अग्नि जलाते हैं और पूजा करते हैं। आरती और हवन की अग्नि से निकलनें वाला धुआँ वातावरण को शुद्ध करता है और बुरी शक्तियों का नाश करता है।
नया पुराना
आज जल्दी-जल्दी रात के सारे काम निबटाकर जब बच्चों के कमरे में आई तो टी.वी. पर कोई म्यूजिक चैनल लगा हुआ था, आजकल के नए गानें आ रहे थे। रात को काम ख़त्म कर थोड़ी देर आराम से बैठना मुझे अच्छा लगता है। अक्सर इस वक़्त धीमी आवाज़ में पुराने गानें लगा लेती हूँ …कभी कभी कुछ लिखती हूँ या गाने देखती हूँ। इसी बहानें बच्चों के साथ बैठना भी हो जाता है।
लेकिन आज इन नए गानों को देख कर थोड़ी ही देर में चैनल बदलने के लिए रिमोट ढूँढनें लगी। पता नहीं क्यों इन नए गानों को देखकर उकताहट-सी होनें लगती है। ऐसा नहीं की सारे नए गानें बेसुरे हैं, कुछ-कुछ बहुत अच्छे भी हैं। लेकिन ज्यादातर का हाल बुरा है, उनमें न तो सुर ताल है, न राग, उस पर से कान फाडू संगीत का शोर… और गाने की ऊटपटांग लिरिक्स तो मेरे पल्ले बिल्कुल नहीं पड़ती…न ही समझ आये तो अच्छा है क्योंकि वह लिरिक्स सुननें लायक हैं भी नहीं। मैंने खींज कर जल्दी से चैनल बदलकर पुरानें गानों का चैनल लगा दिया।
पुरानें गाने आने लगे और उन्हें देख कर मैं सोचनें लगी… कहाँ गए वह गीतकार जिनके लिखे गीत की एक-एक लाइन सीधी दिल में उतर जाती थी…कितनें सुन्दर शब्दों में अपनें दिल की बात बयाँ करते थे। बातें तो वही थी मगर उन बातों को कहने का कितना नज़ाकत भरा अंदाज़ था। साहिर लुधियानवी, शैलेन्द्र, कैफ़ी आज़मी, शक़ील बदायूनी और गुलज़ार इन सबकी लिखे गानें सुननें वालों को आज भी मदहोश कर देते हैं।
वह मधुर संगीत और मीठी धुनें कहाँ गईं जो हमें अपनी ओर आज भी खींच लेती है और हम इनमें डूब कर गुम से हो जाते हैं। मदन मोहन, ओ पी नैय्यर, एस.डी. बर्मन, शंकर जयकिशन और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल… इन सबकी जादुई धुनें आज भी कानों को उतनी ही मधुर लगती हैं।
वह गानें वाले गायक कहाँ खो गए जिनकी मखमली सुरीली आवाज़ का जादू आज भी सिर चढ़कर बोलता है। लता मंगेशकर, आशा भोंसले, किशोर कुमार, रफ़ी, मुकेश, हेमंत दा और मन्ना डे… इन सबके गानों को भूलना नामुमकिन-सा लगता है।
मुझे लगता है किसी भी समय के गानें सिर्फ़ गानें नहीं होते हैं, वह उस समय के समाज और संस्कार के प्रतिबिंब होते हैं। उनमें उस वक़्त की बातें साफ़ झलकती हैं ठीक उसी तरह जैसे ५०’s, ६०’ s और ७०’ s के गानों में उस वक़्त के लोगों का सोचने और बातों को कहनें का ढंग पता चलता था।
आज भी हम देश विदेश कहीं भी चले जाएँ ये पुरानें गानें हमारी भारतीयता की पहचान बनते हैं। इन पुरानें गानें पसंद करने वाले हर जगह मिल जाएंगे… किसी भी पार्टी में धीमी आवाज़ में बजते मिल जाएंगे या कोई न कोई इन्हें गाता मिल जाएगा… इतनें सालों बाद भी ये गानें दिल से करीब हैं, दरसल ये पुरानें गानें हमें जोड़ देते हैं आपस में। ये हमारी भारतीयता की पहचान बनते हैं
मैं सोच में डूबी.। गानों में खोई रह गई और वक़्त का पता ही नहीं चला …रात गहरा गई है… तो चलती हूँ… फिर मिलूँगी कुछ और बातों के साथ… सबको प्यार और आभार…
योग दिवस
सनातन काल से हमारे वेदों और पुराणों में योग का वर्णन मिलता है। प्राचीन काल में जब हमारे पास आज जैसी आधुनिक दवाइयाँ और उपचार की पद्धति नहीं थी तब इस योग की प्रक्रिया द्वारा लोग अपनें शरीर को स्वस्थ रखा करते थे। चाहे वह ऋषि मुनि हों या आम लोग, योग उनके जीवन का अभिन्न अंग हुआ करता था।
योग के प्रभाव से शरीर को स्वस्थ रखनें की विधि उस काल में आम बात थी। योगा तब हमारे जीवन की प्रतिदिन की दिनचर्या थी। सुबह सबेरे ब्रह्ममुहूर्त में उठकर वे लोग सर्वप्रथम सूर्य नमस्कार किया करते थे। सूर्य नमस्कार से शरीर को दिनभर कार्य करनें की ऊर्जा और स्फूर्ति मिलती है। इसी प्रकार प्रातः काल सूर्य को जल अर्पित करना भी इसी योग का ही एक हिस्सा था।
उसके बाद बाक़ी के सारे योगासन जैसे, अनुलोम विलोम, कपालभांति, भस्तिका, भ्रामरी, अर्धचंद्रासन, वज्रासन आदि सारे योग आते हैं। इन योगों को करने से शरीर में प्राण वायु (ऑक्सीजन) का संचार होता है। शरीर के हर अंग तक रक्त का संचार भली भांति होता है जिसके कारण हमारे शरीर के अंग सुचारू रूप से कार्य करते हैं साथ ही साथ उनकी मरम्मत भी होती है जिससे कि सभी अंगों को नया जीवन मिलता है।
योगा करने से हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है जो कि किसी भी बाहरी संक्रमण से हमारी रक्षा करता है। कई सारी व्याधियाँ जैसे मधुमेह, उच्च रक्तचाप, स्वास की समस्या, एलर्जी और मोटापे की समस्या में भी योग अत्यधिक लाभकारी है।
आज हम अपनी व्यस्त और भाग दौड़ भरे जीवन में योग को भूलते जा रहे हैं। लेकिन आज के इस प्रदूषण और संक्रमण भरे माहौल में योगा की महत्ता और भी बढ़ गई है। हमें अपनें शरीर को-को स्वस्थ रखने के लिए योगा करने के लिए समय निकलनें की आवश्यकता है।
आजकल कई स्थानों पर योग शिविर लगाए जा रहे हैं जिनमें इन योगों को करनें की सही विधि और उसकी महत्ता को बताया जाता है। हम इन शिविरों से प्रशिक्षण ले कर सही विधि से योगा सीख सकते हैं और उससे लाभान्वित हो सकते हैं। तो आइए हमसब आज इस अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर संकल्प लें कि हम योगा को न सिर्फ़ सीखेंगे बल्कि उसे अपनें जीवन में अपनाकर शरीर को रोगों से बचाकर स्वस्थ और सुरक्षित रखेंगे। आप सबको योग दिवस की अनेक-अनेक बधाई और शुभकामनाएँ… योग करें…स्वस्थ रहें सुरक्षित रहें… सबका बहुत-बहुत आभार…
संयम व सहयोग, हारेगा कोरोना रोग
बहुत-सी दुखद खबरों से मन आहत और अशांत है। हमारे कई मित्र और रिश्तेदार आज इस कोरोना से पीड़ित हैं और जूझ रहे हैं और कुछ को हमनें असमय खो भी दिया है। जो आज हमारे बीच नहीं रहे उनके परिवारजनों के लिए ये दौर असह्य दुःख भरा है। अस्पतालों में बेड की कमी, ऑक्सीजन का उपलब्ध न होना, दवाओं की किल्लत और वेंटीलेटर की कमी जैसी बहुत-सी समस्याओं ने हालात को और भी खराब बना दिया है।
लेकिन बहुत-सी नकारात्मक बातों के बीच एक सकारात्मक बात भी देखने को मिल रही है। इधर कुछ दिनों से देख रही हूँ लोग एक दूसरे की मदद करने के लिए आगे आ रहे हैं। चाहे वह वाट्सएप्प ग्रुप हो या फ़ेसबुक या कोई अन्य सोशल मीडिया, इन सभी माध्यमों से आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए इन्फॉर्मेशन शेयर किए जा रहे हैं। किस जगह ऑक्सीजन उपलब्ध है, कहाँ से प्लाज्मा की व्यवस्था हो सकती है या किस शहर में कौन-कौन से अस्पतालों में बेड खाली मिल सकता है ये सारी बातें लोग आपस में साझा कर रहे हैं।
कई डॉक्टर्स और मेडिकल एक्सपर्ट्स वीडियो के जरिये सोशल मीडिया पर जागरूकता फैला रहे हैं और जानकारी दे रहे हैं। कोरोना और वैक्सीन से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने में लगे हैं। डॉक्टर्स बता रहे हैं कि अगर आपको हल्का संक्रमण है तो घर में ही रहकर दवाइयों, वैक्सीन और घरेलू उपचार के जरिये कोरोना को कैसे मात दी जाए। वह ये भी बता रहे हैं कि संक्रमण होने पर हमें किन-किन ज़रूरी बातों का ध्यान रखना है और कब अस्पताल जाना चाहिए। बहुत से मानसिक चिकित्सक भी इस काल में हमसे हमारी मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सचेत करने में लगे हैं। वह ये बता रहे हैं कि इस नकारात्मक स्थिति में योगा और मैडिटेशन से कैसे सकारात्मक रहा जाए क्योकि सकारात्मक सोच अभी के हालात में सबसे ज़रूरी है।
इन विपरीत परिस्थितियों में ये एक बहुत बड़ी बात है कि हमसब एकजुट होकर इस महामारी का मुकाबला कर रहे हैं। ये एकजुटता बताती है कि हम अगर साथ हों तो बड़े से बड़े मुश्किल हालात का मुकाबला कर सकते हैं, भले ही आज परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं लेकिन हमें एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ना है। आपसी संयम और सहयोग से ही हम इस आपदा से उबर सकते हैं। आप सब भी अपनी बातें और समस्याएँ साझा करें, किसी भी प्रकार की सूचना देनें या मदद करने से न चूकें… इस कठिन समय में सबके स्वस्थ और सुरक्षित रहने की प्रार्थना के साथ विदा लेती हूँ… सबको प्यार और आभार…
बचपन की होली
होली पास आ रही है, मैं जल्दी-जल्दी ढेर सारी तैयारियों में लगी हूँ। पर मन है कि बार-बार जाने क्यूँ भाग कर बचपन की गलियों में पहुँच जा रहा है। हर बार की तरह इस बार भी होली अपने साथ कितने ही यादों के रंग बिखेरे जा रही है। बचपन की होली की बात ही अलग थी। हम सुबह से रंग खेलने की तैयारी में लग जाते थे। माँ कहती रंग खेलने से पहले जल्दी से चेहरे, हाँथ-पैर और बालों में तेल लगा लो वरना रंग नहीं छूटेगा, और हम सब ढेर सारा तेल लगा कर और पुराने कपड़े पहन कर तैयार हो जाते अपनी गत बनवाने के लिए। मुझे रंग खेलनें का मन तो बहुत होता, लेकिन बाद में रंगों से चेहरे की जो गत बनती उसका सोच कर डर भी लगता। लेकिन एक नियम तो पक्का था कि जो ज़्यादा डरेगा और होली खेलने देर से निकलेगा उसकी और ज़्यादा पुताई होगी इसलिए चुपचाप निकल आने में ही भलाई होती।
रंग खेलनें के बाद बारी आती सबको कीचड़ पानी वाले गढ्ढे में डुबाने की। उसके लिए भईया लोग होली के २ दिन पहले से गढ्ढा खोद कर तैयार करते, बाकायदा पाइप लगा कर उसे पानी से भरा जाता और फिर रंग खेलने के बाद बारी-बारी से सबको उसमे छपाक… हमलोग की होली के बाद पापा लोग का ग्रुप होली खेलने निकलता। सबके घर जा-जा कर आवाज़ लगा कर बाहर बुलाया जाता, फिर सब मिलकर ख़ूब रंग लगाते और अगर किसी ने बचने की कोशिश की तो रंगों भरी बाल्टी सर पर पलट दी जाती। हमलोग ये सब देखकर ख़ूब हँसते। शायद वही एक दिन होता जब बड़ों को भी बच्चा बना हुआ पाते। फिर सब बड़े लोग घर के बाहर बैठ कर ख़ूब गाना बजाना करते। फिर पुआ और दहिबडों कि फरमाइश होती। कोई ठंढाई तो कोई भाँग ले आता और फिर किसे होश रहता कि किसनें कितने पुए खाये सबसे ज़्यादा हमें अच्छा लगता माँ और उनकी सहेलियों का होली खेलना।
माँ सुबह से जो पुआ बनाना शरू करती तो लगता ये कभी ख़त्म ही नहीं होगा। जब कॉलोनी की लेडीज टोली निकलती तो हम भाग कर माँ को ख़बर करते कि माँ अब पुआ बनाना बन्द करो तुम्हारी टोली होली खेलने आ गई हैं। जैसे ही माँ बाहर निकलती पूरी टोली टूट पड़ती रंग लेकर। मिनटों में ऐसी हालत कर दी जाती की पहचानना मुश्किल हो जाता। ख़ूब हँसी मज़ाक, पकड़ धकड़ और दौड़ा दौड़ी चलती…और ये सब देखकर हमें ख़ूब हँसी आती और अब आती रंग छुड़ाने की बारी। बेसन, नींबू साबुन और जितनें उपाय होते सारे आजमा लिए जाते फिर भी कहीं न कहीं रंग रह ही जाता। किसी का कान लाल दिखता तो किसी का गर्दन हरा।
थोड़ा-सा आराम कर शाम को नए कपड़े पहन कर तैयार होते, दादा दादी और सभी बड़ों के पैर पर अबीर रखकर प्रणाम करते और फिर दोस्तों के घर जाते या वह हमारे घर आतेऔर फिरअबीर वाली होली होती। वही पुआ और दही बडा सबके घर बनता और खाना ज़रूरी होता था। मुझे याद है तब होली में किसी को घर बुलाना नहीं पड़ता था, कॉलोनी के सब लोग बिना बुलाये ही आते थे और अगर कोई नहीं आता तो उलाहना भी दिया जाता। तो इस तरह मनती हमारी बचपन की होली।
अब तो शहर में बिना बुलाये कोई नहीं आता। गीले रंग भी अब कम ही खेले जाते हैं उनकी जगह अब सूखे अबीरों ने ले ली है। आज होली के गीले रंगों की जगह भले ही सूखे अबीर आ गए हों लेकिन हमारे मन सूखे नहीं होने चाहिए। इस उम्मीद के साथ कि आप सबके मन प्यार और अपनापन से भींगे रहें आज यहीं विदा लेती हूँ… बहुत सारे काम पड़े हैं, उन्हें निबटा लेती हूँ…फिर मिलूँगी किसी और कहानी के साथ।
सबको प्यार, आभार और होली की ढेरों बधाइयाँ…
रीना सिन्हा
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