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मध्यम वर्ग (middle class)
मध्यम वर्ग (middle class) महेश राजा जी द्वारा लिखी एक लघुकथा है… महेश राजा जी एक बेहतरीन लघुकथा लेखक हैं… अब तक उन्होंने सैकड़ों लघुकथाएं लिखी हैं… उनकी लघुकथाएं यथार्थ से जुडी होती हैं… तो आइये पढ़ते हैं उनकी लिखी हुई कुछ लघुकथाएं…
तालाबँदी के दौरान कुछ लोग कवि बन गये। आनलाईन कवि सम्मेलन का चलन बढ़ गया। कुछ गद्य लिखने लगे और काफ़ी सारे कापी पेस्ट से ही अपना काम चलाने लगे।
एक प्रबुद्ध समूह थाः वे सारे वाट्सअप या वीडियो कालिंग के द्बारा चेट कर लेते। आज शाम को भी वे सब तात्कालिक विकट समय की बात कर रहे थे।
तभी मुसद्दी लाल ने कहा-“भाईयों इस महामारी ने तो तंग कर के रख दिया है। समझ में ही नहीं आता, हम क्या करें, अर्थ व्यवस्था पूरी तरह से बिगड़ गयी है, करे तो क्या करें।”
दूसरे ने कहा-“ठीक कहते हो मित्र। सबसे ज़्यादा तकलीफ़ तो हम मध्यम वर्ग (middle class) लोगों की है, न सह सकते न कुछ कह सकते। शासन ने भी हमारे लिये कुछ नहीं किया।”
एक व्यंग्य कार कवि मित्र ने कुछ इस तरह से कहा। ज्यों का त्यों प्रस्तुत-
” गरीबों को सब्सिडी मिली, अमीरों को मिली रिबेट।
मिड़ल क्लास (middle class) तुम टी.वी. देखो, तुमको मिली ड़िबेट।
बात सच थी, सब देर तक हँसते रहे। तभी मुसद्दी लाल कह उठे-“चलिये मैं फ़ोन रखता हूँ, टी.वी. पर महाभारत आने वाली है।”
सब मित्र एक बार फिर हँस पड़े॥
अतिआवश्यक कार्य हेतू
एक प्रगतिशील परिवार था। पिता पुत्र में अच्छी ट्यूनिंग थी। दोनों शौकीन भी थे। जैसे ही शराब बिक्री शुरू होने की ख़बर आयी, पिता मचल उठे। पिता पुत्र में कुछ बात हुई।
बेटा एक थैला लेकर बाहर जाने निकला तो माँ ने रोका-” बेटा, कहाँ जा रहे हो। बाहर संपूर्ण कर्फ्यू है। ?
पिता बचाव में सामने आये-“भाग्यवान, सरकार की गाईडलाईन है कि अति आवश्यक कार्य होने पर बाहर जाया जा सकता है। बेटा कुछ ज़रूरी सामान लेने जा रहा है।”
पाकेट से पांचसौ रूपये के तीन नोट लेकर बेटे से बोले-“बेटा सब अच्छा सामान लाना, ब्राँड़ेड़।”
सबक
वे सब्जी बाज़ार पहुँचे। सब्जी खरीदने एवं रूपये देने के उपरांत वे धनिया पत्ती और हरी मिर्च माँगने लगे। साहू सब्जी वाले को आश्चर्य हुआ। वह इन्हें जानता था। उन्होंने पहले कभी ऐसा नहीं किया। थोड़ी मिर्च दे दी। -“धनिया तो दस रूपयों का ही मिलेगा-” वह बोला। इस पर वे बोले-“, हमारे उधर तो सब्जी के साथ मसाले के रूप में धनिया, हरी मिर्च, अदरक और कढ़ी पत्ता फ्री में देते है।”
सब्जी वाला हँसा, -, साहब, ऐसे कोई मुफ्त में थोड़े ही देते है। सब्जियों की क़ीमत बढ़ाकर दाम लेते होंगे। ” दरअसल वे अपने देश गये थे। वहाँ सब्जी के साथ मसाला मुफ्त में देने का चलन है।
शाम को वे पोते के साथ किलकारी गार्ड़न गये। वापसी में नेहरू चौक के पास उन्हें प्यास लगी। कांग्रेस भवन के पास एक पंड़ाल लगा था। वहाँ भारी भीड़ थी। किसी धर्म विशेष का जुलूस था। पानी और शरबत बाँटा जा रहा था।
उन्होंने पोते से कहा-“जाओ बेटा, वहाँ से पानी की बातल ले आओ।” इस पर पोता बोला-” नहीं… नहीं… दादाजी, पापा कहते है किसी से कोई चीज माँग कर नहीं लेनी चाहिए और नहीं मुफ्त में। लाईये आपका वालेट। वह पास की डेली नीड्स से पानी की बातल ले आया।
बात छोटी थी, पर उसमें बड़ी सीख छिपी थी। उन्हें सुबह सब्जी मार्केट में घटी घटना याद आ गयी। शर्मिंदगी महसूस हुयी।
फिर खुश होकर पोते को पचास रूपयों का नोट देकर बोले, -“जाओ अपने लिये केडबरीज ले आओ।” पोता बोला-“नहीं दादा जी, मम्मी ने कहा है, चाकलेट खाने से दाँत खराब होते हे। हाँ, अगर आप पीयेंगे तो वह सामने प्रकाशजी का गन्ना रस भंड़ार है। वे ताज़ा और साफसुथरा गन्ना रस देते हैं। एक-एक गिलास हो जाये।”
वे पोते का हाथ पकड़ कर मन ही मन एक निर्णय लेते हुए प्रसन्नता पूर्वक गन्ना रस भंड़ार की तरफ़ बढ़ चले।
मासूम बचपन
शाम को टहलना उनकी दिनचर्या में शामिल था। वे तिराहे तक जाते और लौट आते, फिर तिराहे तक जाते। एक आलीशान बंगले के अहाते में एक पाँच वर्षीय बच्चा हमेंशा अकेले खेलता दिखता।
आज भी जब वहाँ से गुजरे तो बच्चा साँप-सीढ़ी का खेल-खेल रहा था। उन्हें देख कर मुस्कुराया तो वे बोले-“बेटा आपके घर में तो सब है, दादा, दादी, पापा मम्मी, भाई-बहन फिर आप इस तरह से अकेले खेल रहे हो?”
पहले तो बच्चे ने उन्हें ग़ौर से देखा-“पूछा, आपके घर कौन-कौन है?” इस पर वे बोले-“मैं और तुम्हारी आँटी, अकेले। बस! तुम तो लकी हो। घर में सब है।”
बच्चा हँसा-“आप अकेले कहाँ हो, आपके साथ बात करने आंँटी तो है…और मैं…बिल्कुल अकेला…सब बंद है तो सभी घर पर है। वे सभी अपने में व्यस्त है। किसी को मेरे साथ खेलने को समय नहीं।” एक क्षण रूक कर वह फिर बोला-“आप खेलोगे अंकल। मेरे साथ। नहीं… न। किसी भी बड़े के पास छोटे बच्चों के लिये समय न हीं है। जाईये, अंकल। आँटी अकेली होगी…वह ड़र जायेगी…”
वे अचंभित रह गये। वहाँ से तेज चाल चल कर अपने घर की तरफ़ जाने लगा। मन में एक कसक थी। सभी ही अकेले है। शायद! यह समय ही ऐसा है। पर, यह बच्चा… वह तो एकदम से बड़ा हो गया है…ऐसा उन्हें लगा…वे ड़र गये।
मंजिल
वह गिरता पड़ता एक राज्य की सीमा तक पहुँच गया था। अभी मंझिल दूर थी। घर पहुँचना ज़रूरी था। सारे कारखाने बंद थे। मालिक ने बिना वेतन दिये उन सबको जवाब दे दिया था। सब प्रतीक्षा में थे कि कब सरकार कोई क़दम उठाये और वे सब घर पहुँच सके।
उन्हीं में से एक था वह। उसे घर की चिंता थी। पैदल ही निकल पड़ा था। भूख और प्यास ने उसे व्याकुल कर दिया था। रास्ते में भी कोई ख़ास मदद नहीं मिल पायी थी। आँखों में सिवाय आँसूओ के और कुछ नहीं था।
तभी अँधेरे कोने से दो व्यक्ति आकर झपट पड़े-“कहाँ से आ रहे हो? कहाँ जा रहे हो? बताओ और जो कुछ नकदी है, दे दो हमें। नहीं तो पुलिस बुलाकर हवालात भिजवा देंगे।”
और कुछ भी कहने का मौका न देकर उपरी जेब से पैसे छीन कर भाग गये। यह उसका अंतिम पचास रूपयों का नोट था। वह निढ़ाल होकर गिर पड़ा। उसने स्वयं को हालात पर छोड़ दिया या तो महामारी से या भूखमरी से मौत तो निश्चित थी।
वह बेहोश होने को था। तभी सायरन बजी, कुछ लोग उतरे, उसे पानी पिलाया और नींबू का रस पिलाया। वे उन्हें अपने साथ ले जा रहे थे। साथ ही आपस में बात कर रहे थे, -अब इन लोगों को घर पहुँचाने का जिम्मा सरकार का है। साथ ही आज ही शासन ने गरीब मजदूरों के लिये ढ़ेर सारी योजना बनायी है। बीस लाख करोड़ के पैकेज का एलान हुआ है। अब इन्हें भूखे नहीं रहना होगा।
उसने थमती साँसों सेआसमान को देखख परमपिता परमेश्वर के आगे सिर झुकाया। उसेलगा अगर अब जीवित रह गया तो शायद यह लाभ मिल पायेगा, तो अपने परिवार के लिये कुछ कर पायेगा। उसे अबअपनी मंज़िल मिल पायेगी। अपने भीतर की शक्ति को समेटा। एक लंबी साँस ली। फिर। आँखे मूँद ली। चलतीजीप की खिड़कियों से चल रही ठंड़ी हवाओं के झोंके उसे प्राणदायिनी शक्ति प्रदान कर रहे थे।
राष्ट्रीय सँपति
शहर के चिडिय़ा घर में एक नन्हें शावक को गर्मी से बचाने के लिये कूलर की व्यवस्था की गयी थी। शहर में इस बार पारा ४५डिग्री पहुंँच गया था।
यह समाचार पढ़ कर हमारे मित्र बोले, -“देख रहे हो, अपनी सरकार जानवरों का कितना ख़्याल रखती है…और एक हम है कि गर्मी के कारण मरे जा रहे है। फाईलों पर न जाने कितने पसीने की बूंदे, हमारी नोटशीट के साथ, इस आफिस की जानलेवा गर्मी की चश्मदीद गवाह है।”
मैंने कहा, -“मित्र, शावक राष्ट्रीय संपति है और उन्हें बचाना देश का कर्तव्य है। अभी सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय संपति की परिभाषा में नहीं आते है।”
उसका रविवार
सुबह के लगभग साढ़े नौ बज रहे थे। रीमा किचन में ही थी। भले ही आज रविवार था। पर, उसके हिस्से में पेन्डिंग काम की लंबी फेहरिस्त थी। तभी मोबाइल बज उठा। वह समझ गयी ज़रूर राज ही होगा। एक हाथ से फ़ोन कान पर रखा, दूसरा हाथ से कड़ाही में चम्मच चलाती रही।
राज उसके बचपन का साथी। साथ खेले, पढ़े। वह अच्छी जाब में था। हर रविवार फ़ोन करना न भूलता था। हमेशा की तरह राज की वही रोबीली, उत्साह भरी आवाज़ थी-“हे…क्या कर रही हो? आज तो मजे होंगे, रविवार जो है।”
रीमा प्रत्युतर में हँस पड़ी-“पुरूष हो न तो मजे सूझ रहे है। एक महिला को छुट्टी में ज़्यादा काम होते है, साफ़ सफाई, सप्ताह भर के कपड़े, इत्यादि।”
सुनकर राज भी हँस पड़ा, -“पर, तुम तो फुर्तीली हो। चुटकी में सब निपटा लोगी।”
रीमा ने पूछा-“आज जल्दी उठ गये। चाय वगैरह हुयी?”
राज-“हमारे ऐसे नसीब कहाँ। हमें कौन चाय बनाकर देगा?”
रीमा ने चुटकी ली-“तो कौन मना कर रहा है, ले आओ चाय बनाने वाली।”
राज-“कहाँ से लाऊँ। तुम-सा कोई मिल ही नहीं रहा।”
रीमा-“रहने दो। इतने गुडलुकिंग हो। शानदार सर्विस। अकेली जान। कोई भी लड़की तैयार हो जायेगी।”
राज ने गहरी साँस ली-“तुम कहाँ तैयार हुयी थी?”
कुछ देर की चुप्पी के बाद रीमा बोली-“हम लोग घर परिवार, संस्कार, जाति-धर्म से बंँधे हुए थे। तुमने भी तो ज़्यादा कोशिश न की।” राज ने बात बदलते हुए कहा-“छोड़ो, यह बताओ, आज नाश्ते में क्या स्पेशल बना रही हो? मेरे यहाँ तो भोजन बनाने वाली आंटी देर से आयेगी और दोनों समय का खाना बना कर चल देगी।”
रीमा-“आ जाओ, तुम्हारी पसंद के भरवाँ आलू परांठे बने है देशी घी में। दहीं के साथ। रिची बेटे को बहुत पसंद है।” राज ने फिर गहरी साँस लेकर कहा-“लकी! मैं कहाँ आ पाऊँगा।”। फिर धीरे से पूछा-“, रीम, अपना ध्यान तो रखती हो न। उपवास, सोम, गुरु अभी भी है कि बंद और खाने में तो तुम बिल्कुल बच्चे जैसी हो।”
रीमा की आँखे भर आयी मुश्किल से स्वयं को संँभालते हुए झूठ बोली, -“ये है न। बहुत ख़्याल रखते है।” राज को उसकी आँखे बहुत पसंद थी। वह उसे मृगनयनी कहता। पर, अब…आँखों का क्या बुरा हाल हो गया है…मोटे मोटे चश्मे… डाक्टर ने कोई गंभीर बीमारी बतायी है। बहुत ख़्याल रखने को कहा है।
फिर आँसूओं को पीकर संँभले स्वर में बोली-“राज, अब फ़ोन रखो। ढ़ेर सारे काम है। ये रात को देर से सोते है। इनके उठने का भी समय हो गया है। मैं तुमसे फुरसत से शाम को बात करूंगी।”
वह जानती थी, आज वह राज को फ़ोन न ही कर पायेगी। आज दिन भर वह रोती रहेगी, हालांँकि डाक्टर ने बिल्कुल ही मना किया है। पर, भीतर के दावानल को वह कैसे रोक पाती?
फोन रख दिया था। मन भर आया था। कड़ाही में भून रहे आलू के मसालों से एक भाप-सी उठी और रीमा के आँख से एक आँसू लुढ़क आया। जिसे वह पी गयी।
नमक का मोल
तालाबँदी (लॉकडाउन) के दौरान जीवनशैली बदल गयी थी। कोई भी काम अपनी रूटीन से न हो रहा था। वे दो ही लोग थे। ज़रूरतें कम थी। संग्रह ण का भी विचार न रखते थे। सादा जीवन उच्च विचार शैली अपनाते। एक सुबह पत्नी ने उन्हें बताया कि नमक समाप्त हो गया है, महीने के सामान की सूचि में वे लिखना भूल गयी थी। उन्हें भी लगा, चलो बाज़ार हो आते है। बहुत दिनों से घर से बाहर निकले ही न थे।
मास्क लगा कर सोशल डिस्टेंस का पालन करते हुए वे परिचित किराना दुकान पहुँचे। नमस्कार आदि की औपचारिकता के बाद उन्होंने सामान की सूचि बतायी। इस पर दुकानदार बोले, -“नमक तो आज नहीं दे पाऊँगा। सारा स्टाक समाप्त हो गया है।”
उन्हें आश्चर्य हुआ, नमक जैसी रोजमर्रा की सामान्य वस्तु के स्टाक में कमी कैसे हो सकती है? दो तीन लोगों से बात करने पर पता चला कि कल किसी ने सोशल मीडिया पर अफवाह फैला दी थी कि भारत में आने वाले दिनों में नमक की शार्टेज रहेगी। बस, फिर क्या था, कल शाम से देर रात तक लोगों ने कतार लगा कर नमक की खरीदारी की। दो पैकेट उपयोग करने वाले पाँच पैकेट खरीद करले गये।
मुनाफाखोरों ने लाभ उठाया। बाजार से नमक ही गायब कर दिया। प्रशासन की आँखें खुली, उन्होंने स्टाक और कालाबाजारी करने वालों पर कार्य वाही करने की ठानी। अब दुकानदारों ने नमक बेचना ही बंद किया।
इस देश और यहाँ के कुछ लोगों की मनोदशा पर मन में क्षोभ हो आया। महामारी के इस संकट में सब अपनी जान बचाने में लगे है: ऐसे में यह लोग अफवाह और नमक की कमी करवा रहे है; क्यों?। गुस्सा भी आ रहा था और रहम भी।
वे थैला लिये वापस लौट रहे थे कि आज दाल सब्जी, बगैर नमक के ही खानी होगी। तभीएक दुकानदार ने उन्हें आवाज़ दी…और फुसफसाते हुए कहा, “-चाचा आप घर के हो। आपका इस तरह से परेशान देखना मुझे अच्छा नहीं लग रहा…आप ऐसा करना…, …चार बजे चुपचाप दुकान पर आ जाना मैं आपको दो पैकेट नमक दे दूंगा। हाँ दाम थोड़े ज़्यादा लगेंगे।
वे देश, नागरिक, पत्नी और नमक विषय पर विचारणा करते हुए घर पहुँचे। पुराना खून था। दुःख भी हो रहा था, और स्वयं कोविवश भी महसूस कर रहे थे…
मन ही मन सोच रहे थे क्या यही मेरा भारत देश है…क्या इसी देश के लिये हमारे पुरखों ने खून बहाया था। अफसोस। साथ ही याद हो आया, जब वे छोटे थे, हाथ से नमक गिर जाता तो माँ कहती थी, बेटा नमक का बड़ा मोल है, इसे इस तरह नहीं गिराना चाहिये। पाप लगता है। उन्हें आज नमक का मोल समझ में आ गया था।
बदलाव
उन्होंने जब वे छोटे से थे, हमेंशा देखा मांँ पिता को और उसे भोजन करा कर ही स्वयं भोजन करती। कई बार पूछने पर मांँ ने बताया था, यही जगत की रीत है। सदियों से यह चली आ रही है। घर के पुरुषों के भोजन उपरांत ही हम नारियाँ भोजन पाती है।
पिता के जाने के उपरांत मांँ उन्हें खिला कर ही स्वयं खाती। बड़ा हुआ। जाब लग गयी, विवाह हुआ, फिर बेटा। माँ अब भी उन्हें और अपने पोते को खिलाकर ही भोजन करती।
पति पत्नी दोनों कामकाजी थे। सब ठीक चल रहा था। एक रोज़ उन्हें विचार आया तो पत्नी से पूछ बैठे, तुम भी नारी हो और माँ भी फिर कभी-कभी हम सबसे पहलेभोजन कर लेती हो, माँ ने सारी ज़िन्दगी बाद में ही भोजन किया।
पत्नी कहने ही वाली थी कि हम दोनों कामकाजी है, आने जाने के समय का ठिकाना नहीं रहता। आप भी देर से आते हो, बेटा आपके बिना भोजन नहीं करता। इसी बीच छोटा बच्चा मासूमियत से कह उठा-“यह नारी या माँ थोड़े ही है।” सभी भोंचक बच्चे को देखते रहे। बच्चा आगे बोला-“ये तो मम्मी हो गयी है।”
खरी-खरी
एक चैनल के स्टुडियो में लाइव टेलीकास्ट चल रहा था। विषय था, सरकार का फ़ैसला शराब दुकान को खोलने बाबत, उचित या अनुचित।
पक्ष-विपक्ष के नेताओं के अलावा वरिष्ठ पत्रकार, एक धर्म गुरु साथ ही एक प्रसिद्ध राजनीतिक विशलेष्क महोदय को भी आमंत्रित किया गया है। वे मानव मन के भी जानकार थे।
डिबेट सफल रही। खासकर विश्लेषक महोदय ने शराब की बुराइयों का जोरदार वर्णन किया। सब उनकी वाक प्रतिभा का लोहा मान गये।
काफ़ी आदि की औपचारिकता के बाद विश्लेषक महोदय रवाना हुए। बाहर स्टुडियो के गेट पर एक पुराने मीडिया कर्मी से उनकी मुलाकात हो गयी।
मीडिया कर्मी ने विश्लेषक महोदय को साधुवाद देते हुए कहा-“आज आपने ख़ूब खरी-खरी सुनायी। सबकी बोलती बंँद हो गयी।”
विश्लेषक महोदय ने मीडिया कर्मी के कंँधे पर हाथ रखा, -वो तो भाई जोश-जोश में सब कह गया। “
फिर धीमे स्वर में बोले-” राज की बात बताऊँ। बिना हलक में उतारे ज्ञान की बात निकलती ही नहीं। सच कहूँ, एक माह से ज़्यादा हो गया था, गला तर किये हुये। घर में एक बूँद भी न थी। जैसे ही सरकार ने खोलने का एलान किया, वैसे ही सहायक को भेज कर चार पांच अच्छे ब्रांड की बातल मंगवा कर रख ली। जाने कब बंद करने का आदेश आ जाये।”
थोडी़ देर रूकने के बाद बोले, “—चलता हूँ। रूचि रखते हो तो शाम को बंगले पर आ जाना। तुम्हारी भाभी प्याज के पकौड़े बढ़िया बनाती है।” फिर फुसफसाते हुए बोले, -“मिल बैंठेगे दो यार…पर हाँ सोशल डिस्टेंशन मेंटेन करते हुए। फिर ढ़ेर सारी बातें करेंगे, समाज की, शासन की और शराब की।”
उन्होंने ज़ोर का ठहाका लगाया और बढ़ गये अपनी कार की तरफ।
कुत्ते की पूंछ
एक टेढी पूंछ वाले कुते ने सीधी पूंछ वाले कुते से पूछा, “क्यों पार्टनर! तुम्हारी दूम सीधी कैसे हो गयी? क्या तुम्हारे मालिक ने इसे पोंगली में डाल दिया था” ?
सीधी पूंछ वाला कुता पहले हीन भावना से ग्रसित हुआ फिर साहस बटोर कर उसने कहा, “बात दरअसल यह है कि मैं अपनी पूंछ सीधी करने की प्रेक्टिस कर रहा हूँ।”
टेढी पूंछ वाला कुता बोला, “कुते की पहचान को क्यों संकट में डाल रहे हो। अभी हम कुत्ते इतने स्थापित नहीं हुए है कि चुनाव में खडे हो सके। जब तक हमारी पूंछ टेढी रहेगी, आदमी हमेशा हम कुत्तों से डरेगा।”
ऑनलाइन डिलेवरी
पत्नी तीन चार रोज़ से कह रही थी, घर की कुछ ज़रूरी वस्तु एँ समाप्त हो गयी है। गैस भी दो या तीन दिन की ही शेष है। आप ऑनलाइन बुक कर दिजिये।
वे हमेंशा टाल देते। घर से बाहर निकलना भी नहीं हो पा रहा था। ऐसे में एक रोज़ ख़बर आयी की राज्य में अब शराब बिक्री शुरू होगी। अतिरिक्त शुल्क देने पर होम डिलेवरी सँभव है।
अब वे तत्परता से मोबाइल पर अपनी पसंद का ब्रांड बुक कर रहे थे।
लॉकडाउन: १, २, ३
लॉकडाउन एक:
वे बहुत साधारण परिवार के धार्मिक दंपति थे। पुत्री का विवाह मध्यप्रदेश के एक वणिक पुत्र से हुआ था। बेटा एक बड़े शहर में एकाऊंट का कोर्स कर रहा था। अचानक महामारी प्रकट हुयी। संयोग से बेटी, दामाद और पुत्र साथ ही थे। मन को ढ़ाढ़स था कि सब साथ है। परंतु लॉकडाउन हो गया। सब जहाँ थे, वहीं फँसे रह गये।
कुछ दिनों तक सब ठीक चला। जो पूंजी पास थी धीरे-धीरे समाप्त होने लगी। अब वे चिंता में पड़ गये। बच्चों को जाने को भी नहीं कह सकते थे और नहीं वे मदद करने में सक्षम थे। बच्चों को भूखे भी न रख सकते थे। ऐसे में कोई उधार देने को तैयार न था। घर के मुखिया को पहली बार एहसास हुआ कि समय रहते कुछ बचत कर ली होती, तो आज यह नौबत न आती।
बच्चें छत पर उन्मुक्त पतंग उड़ा रहे थे। उन्हें किसी प्रकार की कोई चिंता न थी। दंपति पूजापाठ के समय ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि सब पहले जैसा हो जाये, तो सब अपनी-अपनी जगह सेट हो सके। फिर सब ठीक हो जायेगा।
लॉकडाउन दो:
शाम होते ही कुछ लोग हमेंशा की तरह कालोनी में सैर करने निकल पड़े। ऐसे ही कोने वाले मकान की एक किशोरी घर से चुपचाप बाहर निकली। उसके हाथ में मोबाइल था। थोडी़ दूर जाकर उसने एक नंबर लगाया। उधर से जवाब आने पर बोली, -” यह सब कब तक चलेगा…अब मुझसे सहन नहीं होता…
सामने से कुछ जवाब आया तो वह फूट पड़ी, -” कुछ भी हो मैं ज़्यादा दिन तुमसे बिना मिले, तुम्हें बिना देखे नहीं रह सकती। मम्मी कहीं जाने नहीं देती। पापा भी अब घर पर ही रहते है। मोबाइल छूने नहीं देते। किसी तरह से पांच मिनट के लिये, चुपचाप मोबाइल लेकर निकली हूँ।
सामने से फिर कुछ कहा गया। तब वह आश्वस्त हुई-” फिर ठीक है। जल्द ही सब ठीक हो, और हम फिर से मिल सके।
लॉकडाउन तीन:
लॉकडाउन तीन का दूसरा दिन था। सुबह दरवाजे की घंटी बजी। अनिला जी ने दरवाज़ा खोला। देखा तो कामवाली निशा थी। उसे अँदर ले जाकर पूछा-“ऐसे में बाहर क्यों निकली। अभी समय ठीक नहीं चल रहा है।”
इतने में निशा रो पड़ी-” मैड़म कल से सरकार ने शराब दुकान खोल दी। छुटकी के बाबू ने कतार में लगकर शराब खरीदी। खूब पी। गालीगलौज की। मुझे पीटा भी। अब रुपए माँग रहे है। हो तो दूँ। लगभग डेढ़ माह से घर पर ही रह रहे थे। आपने जो प्रबंध कर दिया था तोघर चल रहा था। सब ठीक चल रहा था। पर, सरकार ने यह निर्णय लेकर फिर गड़बड़ कर दी।
फिर वह बोली, -“मालकिन मैं पूरी सावधानी रख कर काम करूंँगी, मुझे आसरा दे दिजिए, घर पर रहने से पति फिर से तंँग करेगा।”
वह पाँव पड़ रही थी। अनिला ने उसे पानी चाय और रोटी दी। वह नीची नजरें किये चाय-रोटी खाने लगी।
दूरियाँ
द्बितीय लॉकडाउन का पंदरहवाँ दिन था। घर पर आटा समाप्त हो गया था। पिछली बार पैकेट वाला आटा लाये थे तो रोटियाँ अच्छी नहीं बनी थी, तो इस बार गेंहूँ लेकर आये थे।
पत्नी ने धूप दिखा कर एक झोले में भर दिया, साथ ही बड़ी वाली पन्नी भी दी थी। जैसे ही बाहर निकले पड़ोस के विनोद जी ने पूछ लिया, कहाँ जा रहे है? बताने पर वे फिर बोले-‘ “उन लोगों की आटा चक्की पर मत जाना, समझ गये न, आज कल कोई भरोसा नहीं कौन क्या कर बैठे।”
अब वे हिचके। थोडी़ दूर गंजपारा वाली चक्की पर गये तो पता चला, वहाँ आटा मोटा पीसा रहा है।
अब वे हिम्मत कर अपनी पुरानी जगह बाज़ार चौक गये। दो तीन लोग ही थे। जैसे ही वे पहुँचे, चक्की वाले ने पूछा, -“बड़े दिन बाद आये साहब?”
उन्होंने बताया, हालात ही कुछ ऐसे है। आजकल किराने की दुकान से आटे की थैली ही ले लेते है।
उन्होंने एक उसाँस ली कहा-” आपसे कोई शिकायत नहींजनाब। काफी सारे लोग हमारे यहाँ नहीं आ रहे है। हम अलग जातिधर्म से हैं न साहब। पर क्या बताऊँ कि पचास बरसों से हमारे बाप दादा यहीं के वाशिंदे रहे। यहाँ का नमक खाया। यहाँ की हवाओं में साँस ली
मेरा जन्म यहीं हुआ, बेटे का भी। आप तो हम लोगों को जानते ही है। पिछले तीस बरसों से आपके घरवालें हमारी ही दुकान पर आते रहे है। समय खराब है। कुछ लोगों की नासमझी से हम सब गुनाहगारों की श्रेणी में आ गये है जनाब। “
आसमान की तरफ़ ईशारा कर बोले-“अब तो इन्हीं का सहारा है। वे कुछ करें। वरना दिलों में तो दूरीयाँ आ ही गयी है। वे ही सबके गुनाह माफ़ करें, और जल्दी सब ठीक हो।”-वे हाथ जोड़े खड़े रहे।
आटा पीस गया था। पैसे देकर वे भरे दिल से लौट रहे थे। उन्हें मलाल था कि उनके मन में भी कुछ ऐसे ही विचार आ गये थे, जो पड़ोसी के मन में थे। मन ही मन ईश्वर से क्षमा मांँगते हुए वे घर लौटे।
अभाव में भी जिम्मेदारी
चित्रा जी नगरीय क्षेत्र से रिपोर्टिंग पूरी कर लौट रही थी। अचानक कुछ ख़्याल आते ही उन्होंने अपनी गाड़ी सुदूर ग्रामीण इलाके की तरफ़ मोड़ दी। सब तरफ़ सूनापन पसरा पड़ा था। प्रकृति भी थककर, नाराज होकर अलसायी-सी पड़ी थी।
ऐसे में एक वृक्ष के नीचे उन्हें एक आदिवासी बाला दिखी, गोद में एक छोटा शिशु था, और मुंह पर तेंदुपत्ते का मास्क। चित्राजी कोयह देखना भला लगा कि अभाव के बीच भी सुरक्षा का जुगाड़।
चित्राजी ने अपनी गाड़ी रोक ली। एक तस्वीर खिंची। पास पहुँच कर बच्ची से पूछा, -“कौन हो तुम, और यहाँ क्या कर रही हो बेटी?” “
पहले वह ड़री। चित्रा जी ने बहुत स्नेह से उससे बात की। पारले जी का एक पैकेट और पानी की बोतल दी। पहले वह ना करती रही। फिर छोटे बच्चे के सूखे चेहरे को देखकर ले ली।
टूटेफूटे शब्दों में उसने बताया, हम लोग यहाँ से थोड़ी दूर ग्रामीण अँचल में एक झोंपडी में रहते है। पिता नहीं रहे। माँ बीमार है। छोटे भाई को लेकर वनसंपदा बीनने निकली है। कुछ हाथ लगे तो बेचकर चावल आदि का जुगाड़ करे। पूछने पर बताया कभी एकाद बार कोई सरकारी गाड़ी आती है, और भोजन और कच्चा राशन दे जाती है।
चेहरे पर बँधे मास्क के बारें में पूछने पर बच्ची ने बताया कि स्वास्थ्य विभाग से कोई शकुन दीदी आयी थी। उन्होंने सबको बताया कि एक बड़ी बीमारी फैली है। सब मुंह बाँध कर रखो, और दूरी बनाकर रखो। तो मेरे पास कपड़ा नहीं था तो तेंदुपता का मास्क बनाकर स्वयं और बच्चे को पहनाया।
चित्राजी ने पर्स से सौ रुपये देकर उसके सिर पर हाथ फेरा। और कहा-“जल्दी ही सब ठीक हो जायेगा बेटा। भगवान पर भरोसा रखना।”
अब वे सोच रही थी-आज ही कलेक्टर महोदय और एसडीएम सर से बात कर इन आदिवासियों की मदद के लिये कुछ काम करेगी।
उनके चेहरे पर आत्मविश्वास था, और कुछ कर गुजरने की लगन। उन्होंने एक बार बच्ची की तरफ़ मुस्कुराकर देखा और गाड़ी शहर की ओर मोड़ ली।
नासमझ
शाम हो रही थी। वे अपने घर के बाहर अहाते में टहल रहे थे। उन्होंने देखा, चार युवक एक साथ गपशप करते चले आ रहे है। न उन्होंने मास्क लगाये थे और नहीं दूरी बनाये रखी थी। ठहाके लगा कर एक दूसरे को हाई-फाई भी कर रहे थे।
उनसे रहा नहीं गया। जैसे ही वे पास आये, उन्होंने कहा-“बच्चों तुम लोगों को पता है न। महामारी फैली हुई है। अपना और सबका ख़्याल रखना ज़रूरी है। तुमलोगों ने मास्क भी नहीं लगाये है और नहीं सोशल डिस्टेंशन अपना रहे हो।”
उनमें से एक ने उग्र स्वर में कहा-“आप बुज़ुर्ग हो, घर में जाकर बैठो। हम जवान है, हमें कुछ नहीं होने वाला।”
वे चुप हो गये। तभी उनमें से सबसे छोटा था, -“बोला-” जी, अंकल। आगे से हम ध्यान रखेंगे। “
उसने और एक दूसरे युवक ने जेब से रूमाल निकाल कर मुंह पर बाँध लिया।
नवयुवक आगे बढ़ गये। वे स्तब्ध अपने स्थान पर खड़े रहे। फिर हाथ जोड़कर आसमान को देखते हुए बोले-“है प्रभु, ये नादान है। यह नहीं समझ रहे कि वे क्या कर रहे है। उन्हें सद्बुद्धि प्रदान करना, उनकी रक्षा करना प्रभु।”
भूख और मानव धर्म
महामारी का प्रकोप जारी था। यथायोग्य उपाय किये जा रहा थे। लॉकडाउन, कर्फ्यू और लोगों तक मदद पहुँचाने के अन्य तरीके अपनाये जा रहे थे। परंतु कुछ लोगों की नासमझी के कारण यह युद्ध और कठिन हो गया था।
ऐसे समय में कामकाज बंद थे। लोग भूख और ग़रीबी से जूझ रहे थे। मजदूर वर्ग पलायन कर रहे थे। भूखमरी की स्थिति आ गयी थी। प्रशासन ने अपने खजाने खोल दिये थे। उनका पूरा प्रयास था, हर लाचार, गरीब लोगों तक अनाज पहुँचे। अनेक सामाजिक संस्थाएँ भी सामने आयी थी। लोग भी जुड़ने लगे थे।
निर्णय लिया गया कि सब देश सेवक अपने वेतन का तीस प्रतिशत इस विपदा से निपटने के लिये प्रदान करेंगे। पुलिस कर्मी, सामान्य कर्मचारी, सरकारी हो या प्राईवेट सभी अंशदान ज़रूर देंगे। यहाँ तक जेल के कैदियों ने भी अपनी मेहनत से कमाये धन का हिस्सा इस काम के लिये दिया। यही हमारे देश की महान ताकत है कि संकट में सब एक हो जाते है।
शुरू में ज़रूर कुछ लोग या संस्थाएँ नाम या फोटो खिंचवाने की लालसा में रहे। बाद में उन्हें समझ में आ गया कि यह समय इन बातों के लिये नहीं है। समाजसेवी, सेलिब्रिटी और क ई लोग साथ में कुछ मंदिर ट्स्ट भी सामने आये। सबने खुले ह्रदय से इस काम में अपना योगदान दिया।
एकता, अखंड़ता हमारे देश की सँस्कृति का मूलमंत्र है। सब एक होकर इस विपदा से लड़ने में अपने-अपने ढ़ंग से जुट गये। परंतु अक्सर होता है, अच्छे कामों में नुक्स निकालना कुछ लोगों की आदत में होती है। वे कहने लगे हम अपने क्षेत्र में रह कर पी.एम.फंड़ या बाहरी सँस्थाओं को दान क्यों दें?
इसी बात पर एक समूह में चर्चा हो रही थी। सभी ने इस नकारात्मक विचारों का विरोध किया। ऐसे समय में किसी भी तरह का अवरोध या राजनीति नहीं होनी चाहिए। एक कवि मित्र ने कहा, -भाई यह समय इन बातों का नहीं है। हम सबको आगे बढ़कर, एकजुट होकर इस विपदा से निपटने की बात पर ध्यान देना चाहिये।
सबने उनकी बात का सम्मान किया।
एक लेखक मित्र ने कहा’ “-इस समय महामारी के अलावा एक और व्यथा है जिस पर विचार करना ज़्यादा ज़रूरी है। वह है पेट की आग। हमारे बीच क ई ऐसे है जो कार्य नहीं कर पा रहे है, जिन तक किसी कारण से शासकीय मदद पहुँच नहीं पा रही। उनको हम सब की सहायता की ज़रूरत है। हमें इस बात पर ध्यान देना है, पूर्ण प्रयास करना है कि हमारे आसपास कोई भी भूखा न रहे। मानव धर्म भी यही कहता है।”
कीमत
रात के सन्नाटे में छिपते-छिपाते वह घर पहुँचा। उसने धीरे से दरवाज़ा खटखटाया। बाबा ने दरवाज़ा खोला। वह भीतर चला गया। टूटती आवाज़ में बाबा बोले-“आ गये बरखुरदार। पुलिस तुम्हें चारों तरफ़ ढ़ूंढ़ रही है।”
तीन बरस के बच्चे ने अपने पिता की आहट सुनी, वह दौड़ कर अपने पिता से लिपट गया। घर में बाबा, मांँ, पत्नी और छोटा बच्चा। जब से वह बाहर गया था, सब उसके लिये चिंतित थे। बाद में तो देश की स्थिति और भी बिगड़ गयी थी।
वह सोच रहा था, अपने एक मित्र के बहकावे में आकर दिल्ली के कार्यक्रम में चला गया था। तब महामारी शुरू भी हो गयी थी। बाबा ने कितना मना किया था। पर, उसने एक भी न सुनी थी।
कार्यक्रम में बहुत भीड़ जमा थी। लोग नज़दीक जमा थे। वहाँ हालात बिगड़ रहे थे, तो एक रात चुपचाप भाग निकला। पीछे बहुत सारी गिरफ्तारीयाँ हुई। संक्रमण भी बढ़ते चला जा रहा था।
कई दिनों की भटकन के बाद बमुश्किल आज घर पहुंँच था। मन आशंकाओं से धिरा हुआथा। टीवी पर भी इस कार्यक्रम के बारे में बुरी खबरें आ रही थी। संक्रमण बढ़ने का कारण उस कार्यक्रम में हुए जमावड़े को माना जा रहा था। वहांँ के मुखिया ने प्रशासन की बात सुनने से इंकार कर दिया था। न ही अस्पताल जाने को तैयार थे।
उस रात ठीक से खाना भी न खा पाया। रात आँखों में ही कटी। सुबह उसे बुखार-सा लगने लगा। जो तेजी से बढ़ता जा रहा था। घर के लोगों को चिंता होने लगी। डाक्टर के पास भी जा न सकते थे। शाम होते-होते बच्चे को भी खाँसी और बुखार जैसा महसूस होने लगा। बाबा भी थके-थके नज़र आ रहे थे।
अब वह ड़र गया। मन ही मन अपनी गलती के लिये पछतावा महसूस करने लगा। वहाँ जाने कितने लोगों के संपर्क में आया था वह। ज़रूर इस भयानक बीमारी ने उसे भीजकड़ लिया था। साँस लेने में भी तकलीफ़ हो रही थी। वह ऊपरवाले से प्रार्थना करने लगा कि उसकी गलती की सजा बच्चे को न मिले। अपने किये अपराध की क़ीमत उसे इस तरह से न चुकानी पड़े।
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। किसी पड़ोसी को उसके आने की भनक मिल गयी थी, तो उसने पुलिस को फ़ोन कर दिया था।
पुलिस अपने साथ डाक्टर और एम्बुलेंस लेकर आयी थी। उसे तो गिरफ्तार कर लिया गया और बच्चे को अस्पताल ले जाया जाने लगा। शेष सदस्यों को घर पर ही कोरेन्टाईन कर दिया गया था। आसपास की सारी जगह सील कर दी गयी।
पुलिस वाहन में बैठते हुए वह कभी बाबा को देख रहा था, जो बेहद दुःखी और बीमार नज़र आ रहे थे, तो कभी एम्बुलेंस में सवार बच्चें को निरीह नजरों से देख रहा था। आसमान की तरफ़ हाथ जोड़ कर वह चुप पुलिस जीप में बैठा रहा। जीप थाने की तरफ़ उड़ चली। उसकी आँखों से आँसुओं की धार झर-झर बह निकली…
मानवता अभी जीवित है
इन दिनों घर पर ही रहना हो रहा है। साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े रहने के कारण देश विदेश की खबरें क ई माध्यमों से सुनने और पढ़ने मिल रही है। इन दिनों हम सब एक वैश्विक महामारी के प्रकोप से जूझ रहे।है। हर रोज़ एक नयी खबर, एक नया हादसा। संपूर्ण लॉकडाउन है तो बाहर न निकल कर घर पर ही लेखन-पठन में समय गुजर रहा है।
ऐसे में कुछ अच्छी बातें ध्यान में आयी है कि हमारे डाक्टर्स, पुलिसकर्मी, पैरामेडिकल स्टाफ और पत्रकार और अन्य योद्घा अपनी जान की परवाह किये बिना देश सेवामें जी जान से जुटे है। हालांकि उन्हें बहुत सारी तकलीफों का सामना करना पड़ रहा है। क्योंकि यह लड़ाई हमारी अपने आप से ही है। परंतु बिना कोई हिचक वे अपने कार्य में मशगूल है।
अनेक घटनाएँ सामने आयी। क ई डाक्टर और पुलिस मेन को जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ा। लोग अपनी जान की क़ीमत ही नहीं समझ रहे। उल्टे प्रशासन के काम में दखल दे रहे है। आये दिन ग़लत हरकत कर हमें शर्मिंदा होने को मजबूर कर रहे है।
ऐसे में अपने परिवार को छोड़कर हर कोई अपनी ड्यूटी निभा रहा है। ख़ास कर पुलिस विभाग में। महिला पुलिस अपने छोटे-छोटे बच्चों को साथ लेकर ड्यूटी कर रहे है। एक महिला पुलिस अधिकारी ने अपने विवाह की तिथि आगे बढ़ा दी। रायपुर में एक डीएसपी अधिकारी गर्भवती होने के बावजूद अपना कर्तव्य पूर्ण मुस्तैदी से निभा रही है। उनका एक ही आग्रह है, आप सब घरों में रह कर हमारा साथ दिजिये, हम आपकी पूर्ण सुरक्षा का वादा करते है।
हमें इन सब पर गर्व है, साथ ही जनता से शिकायत भी कि वे सोशल डिस्टेंशन का पालन नहीं कर रहे। अनावश्यक घूम रहे है। न मास्क लगा रहे है न ही सैनेटाईजर या साबुन से अपने हाथ साफ़ कर रहे है।
कितने दुःख की बात है कि हमारे देश के कर्णधार, सामाजिक कार्य कर्ता सबकी मदद को आगे आ रहे है और हम अपना छोटा-सा कर्तव्य जो हमारी सुरक्षा से जुड़ा है, नहीं निभा पा रहे है।
ऐसे में एक समाजसेवी मित्र का फ़ोन आया कि क्या समाज, क्या हम इन पुलिस अधिकारी के बच्चों को अपने पास नहीं रख सकते। प्रश्न उचित था, पर ऐसे कठिन समय में विश्वास की बात भी आड़े आ रही है।
सच्चाई यही है कि हम सबको मिलजुल कर इस विपदा का सामना करना है और ध्यान रखना है कि एक भी व्यक्ति भूखा न सोये। इतना तो हम सब कर सकते है। साथ ही हमारे इन योद्धाओं को हम दिल से नमन करते है। इनकी मानवता, इनके द्बारा की गयी निस्वार्थ सेवा की बातआने वाली पीढ़ी युगों-युगों तक याद रखेगी।
अन्नपूर्णा
अरूण कुमार जी एक बहुत बडी़ कंपनी में आफिसर थे। वे हमेंशा दौरे पर ही रहते। कार, ड्राइवर और वे। उनके जीवन का अधिक तर समय दौरे में ही बीता। कभी रेस्ट हाउस में रूकते, कभी किसी बडी़-सी होटल में। भोजन अक्सर बाहर होता। सप्ताह दो सप्ताह में घर पर रहते तो भी भोजन बाहर ही होता। आदत थी।
उनकी श्रीमती सुधाजी कुशल गृहिणी थी। एक प्यारा-सा बच्चा भी था। उन्होंने पति की इन आदतों से समझौता कर लिया था, कभी कोई शिकायत न करती। एकाएक इस महामारी ने आ घेरा। संपूर्ण लॉकडाउन हुआ। अरूण जी को भी घर पर रह कर काम करना पड़ा। एक दो दिन तो बड़े बूरे बीते। घर पर रहने की आदत जो न थी। सुधाजी और बच्चे को बड़ा भला लगा। सुधाजी रोज़ नये नाश्ते और भोजन बनाती।
अरूण जी मुँह बिगाड़ते। खाते और कार्य करते रहते। इक्कीस दिन का लॉकडाउन फिर बीस दिन और बढ़ाया गया। अब धीरे-धीरे उन्हें घर का भोजन भाने लगा। बहुत प्यार से खाने लगे। बीच में तारीफ भी करते। सुधाजी मुस्कुरा देती।
घर पर रह कर अरूण जी ने महसूस किया एक गृहिणी को कितना काम करना होता है। फिर भी बिना शिकायत वे हँसते-हँसते करती रहती है। और पुरूष कभी इस बात की क़दर नहीं करते।
एक रात, जब सुधाजी उनके लिये गरम दूध लेकर आयी। पास बैठाया। गले लगाकर माफी मांगी, कहा-” , प्रिये, आज तक मैंने तुम्हारी कद्र ही नहीं की। सिर्फ़ अपने काम में जुटा रहा। परंतु पिछले दिनों मैंने महसूस किया कि नारी क्या होती है?। उसके बिना पुरूष अधूरा होता है।
नारी में कितनी शक्ति होती है। वे अपनी घर गृहस्थी को सजाने, सँवारनें में अपना जीवन लगा देती है। “
-“इन दिनों मैंने घर पर रह कर तुम्हारे हाथों बने व्यंजनों का स्वाद चखा तो महसूस हुआ कि पिछले बरसों में मैंने क्या कुछ खो दिया है। तुम साक्षात अन्नपूर्णा हो। तुम्हारे हाथों में तो जादू है। अब इस बात को मैं कभी नहीं भूलूंगा।”
“इस अवसर पर एक वादा करता हूँ, जैसे ही हालात ठीक होंगे, मैं छुट्टी ले लूंगा। हम तीनों एक साथ कहीं एकांत मेंरहेंगे। पिछले दिनों की भूल का मुझे प्रायश्चित जोकरना है।”
सुधा जी बस चुपचाप मुस्कुराती रही॥
मोह पाश
झूले पर बैठकर वे सुबह की चाय पी रहे थे। बैठक से टीवी पर प्रसारित खबरों की आवाजें आ रही थी। हालात और भी संँजीदा हो गये थे। संक्रमण तेजी से बढ़ रहा था। कोई भी हल कारगर नहीं सिद्ध हो पा रहा था।
रात सपनों में भी बच्चों के ख़्याल ही उमड़ते घुमड़ते रहे। दो बार उठना पड़ा। अजीब महसूस हो रहा था। एक गिलास पानी पीने से राहत मिली। बाहर निकलने का प्रश्न ही नहीं था। हल्का नाश्ता खाकर पड़े रहे। झपकी-सी आ गयी।
फिर ख्यालों में वे पुराने दिनों की तरफ़ लौट चले। बच्चे छोटे थे। सब साथ रहते थे। हर सुख-दुःख में साथ साथ। दोनों भाई लड़ते, आज पापा के साथ मैं खाना खाऊँगा। ये अच्छे दिन हाथ से जल्दी-जल्दी फिसलते चले गये। पता ही नहीं चला। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, फिर कैरियर, शादी और बच्चें अच्छी जगह सैटिल हो जाना। सब जल्दी-जल्दी हो गया। अब तो एक राजकुमार-सा प्यारा पोता भी है।
शुरू शुरू में बहुत तकलीफ़ हुई थी। बच्चों का बैड़रूम खाली-खाली लगताऔर वे दोनों अकेले। पत्नी जी धार्मिक विचारों की थी, तो वे भजन-पूजन और आस्था-सँस्कार में अपना वजूद तलाशती रही, और वे अपनी जनसंपर्क सेवा में व्यस्त रहने लगे। साल भर में तीन-चार सब का एक दूसरी जगह आना-जाना लगे रहता तो दिन कट जाते। अचानक से यह वैश्विक महामारी आयी, और सब दूर-दूर थे तो मन आशंँकित रहता। जाने और कितने दिन लगेंगे, सब ठीक होने में।
पत्नी जी भोजन के लिये आवाज़ लगा रही थी तो किंकर्तव्यविमूढ़ उठे, हाथ मुँह धोकर अपनी जगह पर जा कर आसन पर बैठ गये। फिर एक व्यामोह मुद्रा में कह उठे, -“भाग्यवान बच्चों को भी आवाज़ दे दो। आज उनकी पसंद का क्या कुछ बनाया है?”
पत्नी हाथ में थाल लिये आश्चर्य से उन्हें देखती रही। वे वर्तमान में लौट आये। देखा, तो कोई नहीं था। वे दोनों और वही सूना कमरा…अचानक आँखों की कोर से आँसूओ की बूंदे टपकने लगी। जिसे पत्नी से छिपा कर भोजन ग्रहण करनें में जुट गये।
उम्र बनी अड़चन
पानी पीने वे रसोई में पहुंँचे ही थे कि खिड़की से पड़ौस के कमलभाई ने आवाज़ दी, -“भाभीजी, भैया किचन में क्या पका रहे है?”
उनकी श्रीमती जी झट से बोली-“ये और, किचन के काम। भूल जाईये भाई साहब…इनको तो ठीक से गैस चालू करना भी नहींँ आता। हाँ, कभी-कभी जब चाय चढ़ी रहती है, तो चाय मसाला ड़ाल देते हैं या सब्जी पक रही होती है तो अधिक लालमिर्च ड़ाल देते है।”
कमल जी हँसे-” सभी पुरूषों का यही हाल है, भाभीजी।
यह सब सुनकर उनके भीतर एक हीन भावना ने जन्म ले लिया। महामारी के रहते लॉकडाउन चल रहा है, सभी पुरूष घर पर ही थे। महिलाओं का काम और भी बढ़ गया था।
मन में विचार आया कि पत्नी जी तो रेसिपी राईटर है, क्यों न समय का सदुपयोग करते हुए कुछ सीख लिया जाये। पत्नी की कुछ मदद भी हो जायेगी। पत्नी जी से कहा तो वे टाल गयी, रहने भी दिजिये, पता है न… एक बार प्याज काटते हुए अपनी ऊंगलियाँ काट ली थी। आपको कुछ खाने का मन हो तो शैलेन्द्र चोपड़ा भैया मस्त समौसे, आलूचाप बनाकर होम डिलेवरी करवातें हैं मँगवा लिया करें।
दरअसल घर में सबसे छोटे होने के कारण, पहले माँ फिर बहन और बाद में पांँच-पांँच भाभीयों के लाड़-प्यार ने उन्हें घर का कोई काम करने ही नहीं दिया। पढ़ाई करते रहे और खाते रहे। कभी अवसर ही न मिला कि सीख सकें। पत्नी जी भी ऐसी भली मिली कि पानी का गिलास भी हाथ से न ले पाते। माँगने से पहले ही हाज़िर हो जाता। चाय बनाना भी नहीं सीख पाये थे।
दोपहर भर इसी बात पर विचार करते रहे कि टी.वी. पर सभी सेलीब्रिटी’ ज कभी कपड़े, कभी बर्तन धोकर या कभी कोई रेसिपी बनाकर वीड़ियो शेयर कर रहे थे और वाहवाही लूट रहे थे। कल ही टी.वी. पर श्री। श्री। जी ने भी कहा था कि पुरुषों को घर के काम में हाथ बँटाना चाहिये।
दिन, शाम सोचते और रात भी इन्हींँ सपनों को देखते हुए बीती, कि वे कभी समौसे बना रहे है या ब्रेड़ पकौड़े; भरवाँ बैंगन बना रहे है या तो मटर पनीर। सब ऊंगलियांँ चाट-चाट कर उनके बनाये व्यंजन की तारीफ़ कर रहे है। अनेक महिला पत्रिकाओं में उनकी रेसिपी को प्रथम पुरस्कार मिला है। सभी उनसे व्यंजनों पर आलेख लिखने को कह रहे है; ईत्यादि।
सुबह उठे। पत्नी से कुछ कहना चाह ही थे कि बेटे-बहुओं के फ़ोन आना शुरू हो गये। बड़ी कह रही थी-, हम सबके रहते और मम्मी जी के रहते आपको यह सब करने की क्या ज़रूरत है पापा जी, बैंगलोर आ जाईये। तरह-तरह के व्यंजन बना कर खिलाऊंगी। छोटा कह रहा था-” क्या पापा, इस उम्र में, …यह सब—यह प्रयोग रहने ही दो…बड़ा बेटा भी नाराज हो रहा था।
दरअसल उनकी मम्मीजी ने सबको बता दिया था। उनकी सारी आशाओं पर तुषारापात हो गया। मन ही मन गुन रहे थे, कमबख्त उम्र बीच में आ गयी, नहीं तो वे भी व्यंजनों के विशेषज्ञ हो सकते थे। अवसर भी उपयुक्त था…॥। देश को एक संजीव कपूर या विक्रम बरार मिलते-मिलते रह गया…
भूख
ईश्वर का दिया सब कुछ था। अच्छे पति, जो एक कार्यालय में आफिसर पद पर कार्य रत थे। एक प्यारा-सा बच्चा, अद्यान। जिस कालोनी में वे रहते, घर के सामने गाय और कुत्तों का जमावड़ा रहता। वे सुबह से ही रोटी या चांँवल दिया करती। माताजी जीवित थी, तब से यह नियम था।
जब से यह महामारी आयी है, जानवर कुछ ज़्यादा ही भटकते रहते थे। वे हमेंशा ध्यान रखती, रोटी, चाँवल और पानी देती रहती। आज भी द्वार पर जानवर आया देखकर अद्यान ने आवाज़ दी, -“मम्मी गाय आयी है।”
-“ए आयी।-” कह कर एक बर्तन में दाल और चावल मिलाकर लायी। दरवाजा खोला फिर अचानक पास पड़ी लाठी से जानवर भगाने लगी।
अद्यान को अचरज हुआ, -“यह क्या कर रही हो, मम्मी गाय को क्यों भगा रही हो?”
उसने धीरे कहा, -“बेटा, ये गाय नहीं गोल्लर है।” कह कर फिर से जानवर कोभगाने लगी।
अद्यान ने मासूमियत से कहा, -“तो क्या हुआ मम्मी, है तो यह भी जानवर। देखो तो कितना बड़ा पेट है इसका…इ से भी तो भूख लगी होगी न।”
अद्यान की बात सुनकर उसने सारा भोजन जानवर को दे दिया और आकर बच्चे को गले से लगा लिया, खूब लाड़-प्यार किया।
स्वाभिमान का प्रश्न
इस महामारी के चलते शासन ने एक अहम फ़ैसला लिया कि राशन या अन्य साम्रगी बाँटते समय फोटो या विडियोग्राफी करना मना है।
एक ने सुबह-सुबह अपने साथी को फ़ोन किया-“भाई, आज कितने बजे चलना है, नहर पारा। खाद्य सामग्री और मास्क वितरित करने?”
दूसरे ने ऊनींदे स्वर में जवाब दिया-“नहीं यार, आज नहीं। आज टोटल लॉकडाउन का पालन करना है। घर पर ही रहना है। सुरक्षित रहना है।”
दरअसल हो यह रहा था कि कुछ ही जगह पैकेट बँट पाते, लोगों का शेष ध्यान फोटो खिंचवाने में ही रहता। उन्हें यह निषेध नागवार लगा। कुछ हद तक यह सही था कि विडियोग्राफी आदि माध्यम से यह जानकारी हो जाती कि मदद कहाँ तक पहुंँची। पर इसकी अति चिंता का विषय थी।
फिर यह भी था कि गरीबों की अपनी ईज्जत का भी प्रश्न था। परिस्थिति याँ विपरीत थी, तो वे बाहर कमाने नहीं जा पा रहे थे। अधिक तर स्वाभिमानी ही थे। स्वयं कमाकर अपना और परिवार का पेट पालते। वे यह कदापि नहीं चाहेंगे कि उनकी यह विवशता सार्वजनिक हो।
अब तो सरकार ने यह निर्णय भी ले लिया है कि ज़रूरत मंदों के बीच अब खाद्य सामग्री का वितरण ज़िला प्रशासन करेगा। इन बातों से स्वाभिमान पर चोट भी नहीं पहुँचेगी, मदद भी हो जायेगी और यह विकट समय भी गुजर जायेगा।
सावधानी ज़रूरी
आज का आखरी टीकाकरण केस भी निपट गया था। रिपोर्ट भी तैयार हो गयी थी। शकुनजी ने हाथ चटखाये। शाम होने को थी सुदूर गाँव में ज़्यादा देर रूकना सुरक्षित न था। उन्होंने अपनी बैग समेटी। चेहरे पर मास्क लगाया और स्कूटी स्टार्ट की।
शकुनजी स्वास्थय विभाग से संँबंँधित थी। साथ ही समाज सेविका भी। बहुत मेहनती थी। सभी उन्हें दीदी कह कर पुकारते। वे हर किसी की मदद करने को हर समय तैयार रहती। जैसे ही वे एन.एम.डी.सी. कालोनी पहुँची, देखा सामने से दो महिलाएँ गपशप करती टहल रही थी। उन्होंने स्कूटी रोक कर पूछा, -” आप लोग, इस समय।इस तरह…?
एक महिला ने जवाब दिया, -“दिन भर घर में रह कर बोर हो रही थी, तो ताजी हवा खाने सैर पर निकल पड़ी।”
शकुन जी ने कहा, -“वह सब तो ठीक है मैड़म ।पर बिना मास्क या दुपट्टा बाँधे…? जानते नहीं हालात कितने खराब है।”
दूसरी बोली-“पर, यहाँ तो कोई समस्या नहीं है। तो फिर मास्क क्यों?”
शकुन जी ने उन्हें समझाया, -“मैडम ये कीटाणु बता कर नहीं आते। ईश्वर न करे, कब, किसको संक्रमित कर दें। इसलिए सावधानी ज़रूरी है। कहते है न…सावधानी हटी.।दुर्घटना घटी। इस सम्बंध में ध्यान रखना ज़रूरी है।”
फिर उन्होंने अपनी बैग से दो मास्क निकाल कर दिये। दोनों ने तुरंत वे मास्क लगाये। अपने घर की तरफ़ जाने लगी। शकुनजी ने उन्हें विदा करते हुए संदेश दिया-“घर पर रहिये।सुरक्षित रहिये।”
पाँच दृश्य: पाँच दृष्टि
समूचा राष्ट्र एक वैश्विक महामारी के प्रकोप से गुजर रहा था। चारों तरफ़ हाहाकार थे। लोग बीमार हो रहे थे। मृत्यु को प्राप्त हो रहे थे। शासन ने अपनी तरफ़ से सारे प्रबंध कर रखे थे। पहले जनता कर्फ्यू फिर धारा १४४, लाक डाउन। आवश्यक सेवाओं की पूर्ति, गरीबों के भोजन का प्रबंध, पलायन कर रहे मजदूरों के रहने खाने की व्यवस्था सुचारु रूप से जारी थी।
सेना के वीर, पुलिस महकमा डाक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ रात दिन एक कर जनता की सेवामें लगे हुए थे।
लोगों के घर में रहने की हिदायत थी। परंतु कुछ कट्टर और नासमझ लोगों की भूल और लापरवाही ने इस प्रकोप को बढ़ा दिया था। इसी सँदर्भ में एक छोटे से शहर के कुछ घरों में घट रही घटनाओं पर एक दृष्टि ड़ालते है।
१ :
एक छोटी-सी झोंपडी में एक नन्हीं बच्ची अपनी मांँ के साथ रहती थी। माँ कहीं से मांँग लाती।दोनों किसी तरह से अपना पेट भर लेते। बच्ची छोटी थी।सुबह से माँ कहीं नहीं गयी थी। पर दिन में एक गाड़ी में कुछ लोग आये थे। भोजन के पैकेट और कच्चा अनाज छोड़ गये थे। मोबाइल से फोटो खींचे थे, और आगे बढ़ गये थे। बच्ची की माँ हाथ जोड़ कर खड़ी थी। बच्ची ललचाई नजरों से भोजन के पैकेट देख रही थी। कितने दिनों बाद इतना सारा भोजन उसने देखा था। वह सोचना चाह रही थी, कुछ कहना चाह रही थी। पर, छोटी थी तो चुप रही। माँ बेटी मिल कर जल्दी-जल्दी खाना खाने लगी।
२ :
थोडा़ आगे एक कमरें वाले घर में मुन्ना, अपने बाबू और मांई के साथ रहता था। बाबू दिन भर रिक्शा चलाता और देर शाम घर लौटता। मांई आसपास की काँलोनी के दो तीन घरों में झाड़ू-कटका का काम करती। दिन भर थक कर दो रोटी कमा पाते।
परंतु आज वे दोनों घर पर ही थे। मांई कह रही थी, कोई भयानक बीमारी आयी है, तो मालकिन ने एक माह की पगार देकर उसे घर में रहने को कहा है। बाबू भी सोये हुये थे॥मांई बाजू की राशन दुकान से चावल, दाल, आलू, तैल आदि ज़रूरी सामान ले आयी थी। सरकार ने दो माह का मुफ्त राशन एक साथ दे दिया था। वह सोच रही थी। आज दाल, चावर रोटी और सब्जी सब कुछ बना कर मुन्ने को खिलायेगी।
मुन्ना सोच रहा, क्या हुआ है, यह उसे नहीं पता… पर…चलो…अब कुछ दिनों तक मांई बाबू को दिन भर खटना तो नहीं पड़ेगा। यह सोच कर वह खुश हो रहा था।
३ :
राजू खेलते-खेलते थक गया था। वह अपनी मम्मी के पास रसोई में गया और कुछ खाने को मांँगने लगा। मम्मी ने उसे बाजू में बैठाया, कहा, -“बेटा, बस झट से परांठे और गरम दूध देती हूँ।”
भोजन करते हुए राजू ने कहा, -“मम्मी मेरे सब दोस्तों से फ़ोन पर बात हुयी थी। सब कह रहे थे कि उनके पापा उन सबके साथ घर पर ही है। तो फिर मेरे पापा क्यों घर पर नहीं है? वे तो भोजन के लिये भी घर पर नहीं आते?”
मम्मी ने बताया, -“बेटा तुम्हारे पापा एक कर्तव्य शील पुलिस अधिकारी है। हमारे देश पर एक संँकट आया है। तुम्हारे पापा सब की सेवा में लगे है। इसलिये वे घर नहीं आ पा रहे। हम सबको उन पर गर्व है।”
राजू समझ गया। सिर हिलाकर दौड़ता हुआ अपने कमरे में जाकर ड्रांईग बनाने लगा।
४ :
पापा मम्मी टी.वी. पर देश की वर्तमान हालात के समाचार सुन रहे थे। तभी रूद्र और गुड़िया अपना-अपना गुल्लक लेकर आये। मम्मी कुछ कहती उससे पहले रूद्र ने दोनों गुल्लक फोड़ ड़ाले। अब वे दोनों उसमें निकले रुपयों और सिक्कों का हिसाब लगाने लगे।
पापा मम्मी अचरज भरी नजरों से उन दोनों को देखते रहे। दोनों बच्चे हर माह पापा मम्मी से कुछ रुपये लेकर उसमें ड़ालते और अगले वर्ष अपने लिये नये जूते या बैग खरीदते। रूद्र तो किसी को भी अपना गुल्लक छूने तक न देता।
पूरे रूपये गिन कर बच्चों ने एक साथ कहा, -“१७४०₹। यह लिजिए पापा, यह आप उन गरीबों को दे दिजिये, जिन्हें इसकी ज़्यादा ज़रूरत है।”
मम्मी ने समझाया, बेटा, पर तुम्हारे जूते। रूद्र बीच में ही कह उठा-“, वो फिर आ जायेंगें।”
पापा मम्मी को बड़ा गर्व हो आया बच्चों पर॥
५ :
महिला अपने कमरे में पति की तस्वीर के सामने चुप बैठी थी। उसकी आँखों के आँसू भी सूख चुके थे।
पिछले दिनों एक मरीज की सेवा करते हुए उसके डाक्टर पति, स्वयं संक्रमित होकर बीमारी से ग्रसित होस्वर्ग सिधार गये थे।
तभी बेटा युगल दौड़ता आया, -“मम्मी, मम्मी देखो, आज सारे समाचार पत्रों में पापा की फोटो छपी है और टीवी पर भी पापा की बहादुरी के चर्चे हो रहे है। पापा ने देश की बहुत सेवा की है। सब उनके गुणगान गा रहे है। मम्मी, मैं भी बड़ा होकर ड़ाक्टर ही बनूंँगा और देश और बीमारों की सेवा करूँगा।”
महिला ने बेटे को गले से लगाया और रूंधे गले से कहा, -“हाँ, बेटा, मैं तुम्हें ख़ूब पढ़ाऊंगी और ज़रूर ड़ाक्टर ही बनाऊँगी।”
याददाश्त
भाई साहब कह रहे थे, क्या बात है, आजकल कुछ याद नहीं रहता…बात करते-करते भूल जाता हूँ…किसी को बहुत दिनों बाद देखता हूँ या मिलता हूँ तो पहचानने में मुश्किल होती है। मैने उन्हें समझाया कि ऐसा थकान या बेवजह तनाव के कारण होता है। साथ ही वह बात जो दिल पर घाव या चुभन नहीं छोड जाती, हमारी याददाश्त से बाहर हो जाती है।
भाई साहब उम्र में मुझसे काफ़ी बडे है। ७६ वर्ष पार कर चुके है लेकिन मुझसे मित्र वत व्यवहार करते है। मैंने कहा-” सुबह शाम दूध के साथ बादाम लिजिए… याददाशत के लिये फायदेमंद होगा।
भाई साहब दार्शनिक अंदाज़ में हंसे, फिर बोले, -“दूध बादाम से कुछ नहीं होने वाला। मैं तो यह सोच रहा था कि ईंसान की पूरी याददाश्त ही खो जाये तो कितना अच्छा हो…जिन्दगी की सारी कटुता इस याददाश्त की वज़ह से ही तो है”।
जीत जायेंगे हम
मनोहर लाल जी के घर के सामने एम्बुलेंस रूकी। आसपास के घरों की खिड़कियाँ और झरोखे खुल गये। गाड़ी से मनोहरलाल जी उतरे साथ में डाक्टर और स्टाफ थे। सभी ने उनका अभिवादन किया। कमला देवी ने दरवाज़ा खोला। मनोहरलाल जी को पूर्ण स्वस्थ देखकर उनकी आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बहने लगी। एक मौन और धन्यवाद भरी आँखों से कमलाजी ने हास्पिटल स्टाफ को नवाजा। मनोहरलाल जी ने हाथ जोड़कर सबको नमस्कार किया। एम्बुलेंस आगे बढ़गयी। आसपास के लोगों ने अपने-अपने घरों से तालियाँ बजाकर उनका स्वागत किया।
दरअसल आज से कुछ दिनों पहले मनोहर लाल जी महीने का सामान लेकर आटो रिक्शा से उतरे। भीतर पहुँच कर पानी पीया और आराम करने लगे। शाम होते ही उन्हें बुखार जैसा महसूस हुआ और थोड़ी खांसी भी लगने लगी। कमलाजी को बताने पर उन्होंने तुलसी का काढा़ और अदरक वाली चाय पिलायी। रात को खिचड़ी खाकर सो गये।
मनोहरलाल जी अपनी पत्नी कमलादेवी के साथ एक छोटे से शहर में रहते थे। दोनों बेटे पत्नी व एक पोते सहित अलग-अलग शहरों में अपने काम के सिलसिले में रहते। साल में दोतीन बार वे आजाते। दो तीन बार मनोहरजी चले जाते। शरीर स्वस्थ था। हाँ उमर हो गयी थी। पर, इस छोटी-सी जगह का मोह छूट नहीं रहा था।
अगली सुबह उन्हें साँस लेने में तकलीफ़ हुयी तो ज़रा भी नहीं धबराये टीवी पर बताये ईमरजैंसी नंबर डायल किया। अपने को अलग कमरें में बंद कर लिया। उससे पहले कमला देवी को ढ़ाढ़स दी। समझाया। दरअसल महामारी ने समूचे विश्व को परेशान कर दिया था।
एम्स से डाक्टर और एम्बुलेंस आयी उन्हें अपने साथ ले गयी और आज वे अपने आत्मविश्वास और सम्बल की वज़ह से सही सलामत लौट आये थे। पत्नी कमला को रोते देखकर हँसे, -“अरी पगली, इतनी जल्दी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाले और अभी तो तुम्हें नाथद्वारा भी तो ले जाना है, प्रभु के दर्शन को।” कमलाजी हँस पड़ी।
मनोहर लाल जी समझदार थे। वे अब भी सोशल डिस्टेंशन का पालन कर रहे थे। खानपान का भी पूर्ण ख़्याल रख रहे थे। आख़िर ज़िन्दगी की जंग जीत कर आये थे। अस्पताल में भी डाक्टर्स ने उनकी हिम्मत और सहयोग की तारीफ़ की थी।
बेटे बहू और पोते के फ़ोन आ रहे थे। सब उनकी कुशलता जानने को ईच्छुक थे। पोता कह रहा था दादा, आपकी बड़ी याद आ रही थी, पर ट्रेन और हवाई यात्राऐंबंद है। हम सब घरों में बंद है। उन्होंने ने बताया, -“बेटा इस तरह की बीमारी, या महामारी से ड़रने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं, सिर्फ़ थोड़ी-सी सावधानी और समझदारी की ज़रूरत है। सोशल डिस्टेंशन बनाये रखना ज़रूरी है, और घर पर ही रहना है। प्रशासन हमारी पूरी मदद कर रहा है। वो फिर हँस कर बोले, -” बेटा कोई बात नहीं और हाँ चिंता मत करना। अभी तो मुझे तुम्हारे विवाह में शामिल होना है” और वे ठहाके लगा कर हँस रहे थे।
तभी उन्हें फ़ोन पर सूचना मिली कि थोड़ी देर बाद माननीय मुख्यमंत्री महोदय उनसे बात करने वाले हैं। वे पूर्ण उत्साह के साथ पत्नी के साथ मसाले वाली चाय पी रहे थे। टीवी पर सभी चैनल्स पर नीचे वाली पट्टी में उनके अस्पताल से सकुशल होने की ख़बर दिखायी जा रही थी।
महेश राजा
वसंत 51/कालेज रोड़, महासमुंद, छत्तीसगढ़
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