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धरोहर (Heritage)
धरोहर (Heritage) : गुप्ता जी के घर के बाहर लोगों की अचानक भीड़ देखकर, मिसेज शर्मा ने नौकरानी से पूछा क्या हुआ…,
वोह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह,
कब,
कैसे?
अरे, अभी कुछ देर पहले ही तो मुझसे बात हुई थी। मुझे भी यही लगा कि मैडम अख़बार पढ़ते हुए सो गयी हैं, लेकिन फ़ोन की घंटी बजने पर भी जब नहीं उठी तो … और फिर सुबकते हुए कामवाली बोली-‘आप पहले इस नं। पर फ़ोन लगाओ।’
ट्रिन, …ट्रिन…ट्रिन…
क्या…! ,
कब…?
और कुछ देर बाद ही एक शख़्स हाथ में सफेद लिफाफा लिऐ हुए तेज कदमों से घर में प्रवेश करता है। लोगों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। “मिसेज गुप्ता एक समाजसेविका जो थी।” सबके सामने लिफाफा खोलकर पढ़ा जाता हैं, जिस पर वसीयत लिखा था। आप सबसे मेरी करबद्ध-प्रार्थना है कि-
१-शव को तुरन्त ही मेडिकल-कालेज, को दान कर दें, इसकी कागजी औपचारिकता मैं पूर हो चुकी है।
२-आप लोग मेरे मृत शरीर पर एक फूल भी न चढ़ाएँ, अपना समय और पैसा नहीं बिगाड़े।
३-मृत्योपरान्त “तेरह दिन” का कोई कार्यक्रम नहीं होगा।
लिफाफा भाई के काँपते हाथ और आँसुओं से भरी आँखों की वज़ह से छूट कर दूसरी बार मृत शरीर पर गिरता है। “अब क्या अपनी वसीयत भी तुझे ही पढ़ना है,” भाई ने झुंझलाते हुए पूछा।
४-पिंडदान, वगैरह सब कुछ मैं जीते जी कर चुकी हूँ।
“आप सबसे सिर्फ़ इतनी-सी चाहत है, कि समय देना ही है, तो जीते जी दिया करें, तेरह दिन नही। वृद्धावस्था में कुछ पल तो उनके साथ गुजारो।”
“लोगों को नही, बल्कि जीते जी उसे खिलाओ-पिलाओ, जिसके लिए तेरह का इतना लम्बा समय निकालकर आते हो।”
“मेरा कुछ था ही नही। अगर कुछ मेरे पास था, तो ईश्वर का दिया हुआ यह शरीर ही तो धरोहर था।”
धम्म्म्म्मम से नीचे गिरते हुए, बहन तू तो मरकर भी हम सबको बहुत बड़ी सीख दे गई। तू तो अब हम सबकी “धरोहर” बन गई मेरी बहन।
फाग का चोखा रंग
तारररररररररररा, होली है।
ढोल मंजीरो के साथ बच्चों के मस्ती भरी टोली घर में घूम रही थी और उस टोली की सरदारनी घर की नई बहु बनी थी। जिसके ऊपर बचपन की शोखी और चंचलता अभी तक अपना अधिपत्य जमाये हुए था। उसने तय कर रखा था कि इस बार परिवार में कोई भी सदस्य बिना रंगे नहीं रहेगा।
पतिदेव के साथ राधा की शर्त लग गयी। पति को रंग नहीं लगाना था और पत्नी को फाग का रंग चढ़ा था। पतिदेव ने बहुत डराया, कि-“घर गंदा होगा तो पूरा घर तुमको ही साफ़ करना पड़ेगा।”
“सब मंजूर है, लेकिन आज रंग तो सभी को लगाऊँगी।”
नयी बहु अकेले ही पानी का पाइप लेकर सबको छकाने में लगी थी। हँसी-ठिठोली की रंगत देखने पतिदेव जी आख़िर अपने को बंद कमरे से बाहर निकाल ही लिया। मौका लगते ही राधा-रानी ने सरपट दौड़ लगाई, तो पतिदेव भागकर दोस्तों की महफिल में जाकर बैठ गये। अब राधा ने नया पैंतरा मारा और कमरे के बाहर खड़ी होकर फाग गाने लगी।
” खेलो मेरे संग आज होली, वो रंग-रंगीले बाबू,
देखो आया है आज दिन रंग-रंगीला।
कैसे न खेलूँ मैं फाग सजन रे,
मेरी चुनरी है अभी धानी।
मैं लाज़ की मारी, पर लगा सजना
मुझे प्यार का गुलाल और थोड़ा पानी।
भीगें मेरी चुनरी और भीग जाए मेरी चोली। “
इतनी देर से फाग सुनते-सुनते दोस्तों ने पति के कान में फूँक मारी। मंत्र का असर चढ़ा, वह कमरे से बाहर आये और राधा ने जैसे ही रंगने के लिए हाथ बढ़ाया पतिदेव ने उसे गोद में उठा बाथरूम में नल के नीचे बिठा दिया।
“बोलो अब खेलोगी होली, लगाओगी मुझे रंग…?”
“नहीं, नहीं।”
चिरौरी करती हुई राधा से नंदलाल (पति) बरजोरी पर उतर आए। ‘अब आगे-आगे राधा दौड़ रही थी और पीछे-पीछे नंदलाल, फिर प्रीत ने अंगड़ाई ली और सारे रंग फीके पड़ गये। साँसें हुई मृदंग, अंग-अंग फागुन चढ़ा। चूड़िया खनक गयी और बाजूबंद टूट गये। पिय रंग से कपोल रंजित और टेसू नयन हो गये।’ पिय ने प्रीत के रंग से ऐसा रंगा कि उसके चटक रंग से राधा अंदर तक भीग गयी। जिसे चाहे धोबिया ने कितना ही धोया लेकिन उसका रंग नहीं उतरा।
शाम होने को आ गयी, सबको रंगने के बाद अब राधा पिय के रंग से लथपथ हो थक चुकी थी लेकिन उसे ध्यान था कि अभी श्वसुर और जेठ जी को तो रंग लगाया ही नही। शर्त थी कि किसी का बदन आज बिना रंगे नहीं रहेगा। लेकिन राधा के सामने मुश्किल यह थी कि जेठ जी का पति से अनबन और श्वसुर जी को रंग पसंद नहीं था।
पति ने मना किया है, पापा को रंग मत लगाना वह नाराज हो जाएंगें लेकिन राधा कहाँ सुनने वाली थी। वह बच्चों की टोली के साथ श्वसुर जी के कमरे की तरफ़ चल दी।
“बाबासा, आपसे काकीसा को मिलना है।”
“मुझसे…?”
“ठीक है, बुलाओ।”
हाथों में गुलाल लिए राधा अंदर प्रवेश करती है।
“अरे यह क्या…?”
“नही, नहीं यह सब हटाइए।” माथे पर बल देते हुए श्वसुर जी बोले।
“पापा आज होली पर चरण-स्पर्श करके आपका आशीर्वाद लेने आयी हूँ।”
आशीर्वाद के लिए राधा नीचे झुकती है और श्वसुर जी के चरण गुलाल से रंग जाते हैं। “भाई की भाई से नाराजगी है, तो उसका असर भला मुझ पर क्यों?” कहते हुए जेठ जी के चरण भी स्पर्श के साथ रंगीन हो गये। बिखरे हुए दिलों पर रंग का कुछ ऐसा असर हुआ कि होली के पलाशी सांझ में पूरा परिवार साथ बैठकर ठंडाई पी रहा था और सबके हाव-भाव बोल रहे थे कि जब भूमि, मौसम, भौरें, तितली, पुष्प बौराए हैं, तो फिर इन खुशियों के रंग से हम सब क्यों दूर बैठे? “
“आज इतने वर्षों बाद भी उस स्नेहभरी होली को कोई भूल नहीं पाता है और परिवार में आने वाली नई बहुओं को होली के उस ‘रंगीन मीठी’ याद को ज़रूर बताया जाता है।”
काठ की हाड़ी
” अरे पता है, उसने शादी कर ली।
कौन…,
‘ अरररररररे मिसेज़ पाठक न,
सच तुझे नहीं पता है…,
नहीं, मुझे नहीं पता।
लेकिन अब पता चल गया न तुझे, तो भी तुझे कुछ आश्चर्य ही नहीं हो रहा है…
“नहीं इसमें आश्चर्य की क्या बात है, वह भी एक हाड़-मांस से बनी हुई इंसान है। उसने जीवन को देखा ही कहाँ है, अगर वह हिम्मत करके ऐसा निर्णय ले रही है, तो इसमें बुराई क्या है…?”
“अरे तो पहले ही कर ली होती।”
‘ तो क्या हुआ…,
उसे अब उचित लगा, तो वह अब कर रही है।
उसे भी चैन से जीने दो।
धीरे-धीरे होनी वाली फुसफुसाहट, अब मसाला ख़बर बनकर हर दरवाजे-खिड़की को खटखटाने लगी।
“देखो यह उसका जीवन है, तो निर्णय भी उसका ही होना चाहिए न, हम लोग दूसरों के जीवन का फ़ैसला ख़ुद क्यों करने लग जाते हैं…! ?”
“तुम ख़ुद को तो बहुत एडवांस समझती हो न, तो फिर अपने विचारों को क्यों इतने लम्बे घूंघट में क्यों रखती हो, क्या सिर्फ़ आधुनिक कपड़े पहनने से हम सही मायने में एडवांस बन जाते हैं?”
” जब पुरूष कभी भी विवाह कर सकता है, तो औरत को क्यों काठ की हाड़ी बनाकर रख दिया जाता है, एक कुंवारी औरत अपने से बड़ी उम्र वाले बच्चों के पिता से शादी करती है, तब सबको सही लगता है, तब तो किसी को आश्चर्य नहीं होता है?
“सदियों से औरत ही क्यों काठ की हाड़ी बनकर जीती रहेगी…, आख़िर वह अपने ज़िन्दगी के फैसले के नकाब में ढंकी हुई, कब तक समाज की सोच पर अपने अरमानों, अपने ख्वाबों की कुर्बानी देती रहेगी, सही मायने में हमारा समाज कब विकसित सोच वाला बनेगा…?”
“अब इस चिन्हित और चिंतनीय प्रश्नों को छोड़, हर उस औरत को भी अपना जीवन सँवारने का पूरा हक़ है, जिसके हिस्से का रंग वक़्त ने उससे छीन लिया है।”
जीने की राह
दो प्यार भरे दिल रोशन हुए, लेकिन उनकी रातें बहुत अँधियारी थी। मिले और फिर मिलकर बिछड़ गये।
दिल की उस जगमगाती रोशनी को महुआ ने अपने काज़ल की कोर में छुपा लिया था, कि कहीं वक़्त की नज़र न लग जाए, लेकिन लाख छुपने-छुपाने के बाद भी वक़्त की नज़र तो लगनी ही थी।
आज कितना खुशनुमा मौसम है, ऐसा लगता है, जैसे सावन का यह सुहावना मौसम दिल पर डकैती ड़ालकर ही दम लेगा।
लेकिन महुआ भी कहाँ इतनी कमज़ोर थी। उसने झट नम्बर डायल कर कागज़ और क़लम को अपने गिरफ्त में बुला लिया और भरी बरसात में झाँक-झाँक कर ढूँढ़ने लगी, कि इस सौतन बरसात की रिपोर्ट में क्या-क्या और शिकायतें लिखूँ…, कि इस सावन के मौसम ने तो जीना ही मुश्किल कर दिया है।
“सन्न, सन्न, सन्न, सन्न, सन्न करती पवन ऐसे चल रही है, जैसे आगोश से चम्पई ऑचल को अपने साथ उड़ा ले जाएगी और उस पर से यह बारिश की बेशर्म बूँदें तो आज पूरी तरह से ही बेईमानी पर उतर आई हैं, टिप-टिप कर ऐसे छापें मार रहीं हैं, कि साँस तक लेना मुश्किल कर दिया है।”
‘ अभी आगे कुछ सोच ही रही थी, कि घुमड़ते हुए बादलों ने जैसे चुपके से आकर उसके कान में धीरे से कहा-
“ए सखी सुन, आज़ तू मेरे साथ चल, मुझे अपने संग ले ले, और चल हम दोनों पवन संग झूम-झूमकर गाएंगे-नाचेंगे।”
तभी बसंती हवाओं ने जैसे सूखे पत्तों पर ताल दी हो, और वह भी वीराने में खड़-खड़-खड़-खड़ाते बज उठे, उनके साथ झिंगूर के बोल ऐसे लगने लगे, जैसे झांझ, ढोल, करताल बजा जुगलबन्दी कर रहे हों।
बर्फ-सी ठंडी हवाएँ झूम-झूमकर लहराने लगी और बल-खाकर इठलाती हुई कहने लगी-
” देख सखी रंग-बिरंगे जो पुष्प तेरे बगिया में खिले हैं न, वह तुमको अपने सुगंधों से भरने को आतुर हो रहे हैं।
देख कितनी नर्म-नर्म मखमली हरी घास बिछी हुई हैं, जो तेरे चरणों को चूम रही हैं।
सखी तू उदास क्यों होती है …
हम सब तेरे ही संग-सखा हैं, हम सब भी तो सिर्फ़ इस दुनिया को कुछ रंग और संग देने ही आए हैं न। “
” देख, मौसम कितना सुहावन हो गया है, बाग-बगीचों के आँचल में खुशियाँ नहीं समा रही है, ऐसा लग रहा है, जैसे चारों तरह धरती हरी चुनर ओढ़ ली है। सावन की बदली के इस प्राकृतिक सौन्दर्य से प्रेम कर सखी और आज
इनसे ही अपना सोलह-श्रृंगार कर और बन जा तू भी दुल्हन। झूठा ही सही दो घड़ी तो तू भी जी ले, हम सब के संग-संग। “
डाॅ. क्षमा सिसोदिया
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१- प्यार के फूल
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