गुरु जी (Guruji) भूखे रहे
गुरु जी (Guruji) भूखे रहे: बात १९९० की है जब महेश के गाँव का स्कूल केवल आठबी कक्षा तक ही था। आगे दसबी तक की पढ़ाई के लिए उसे दूर के गाँव के स्कूल में जाना पड़ता था। महेश को आज गुरुपूर्णिमा पर एक अच्छे गुरु जी की याद आ गई। गुरु जी कही बाहर से बदली होकर आये थे और बही स्कुल के पास उन्होंने किराए का मकान ले रखा था। एक ब्राह्मण जाती से ताल्लुक रखते थे।
उनकी सगी बहन महेश के गाँव के साथ लगते गाँव में उसकी ससुराल थी जो की महेश के स्कुल के रास्ते में पड़ता था। गुरु जी को शायद खाना ठीक से बनाना नहीं आता था। इसलिए बहन की ममता उन्हें सुबह-सुबह दिन भर का खाना महेश के साथ जो स्वर्ण बच्चे जाते थे उनके हाथ खाना भेज देती थी। यह रोज़ का नियम था। जिस लड़के के हाथ खाना भेजती थी उसे बह और उनका परिवार निजी रूप से जानता था कि यह बच्चा ऊँची जात का है। इसलिये बह हमेशा उसी के पास खाना देती थी। महेश के बच्चे मन को यह तो मालूम था कि उसे ही क्यों नहीं चुना जाता था।
एक दिन बह बच्चा छूटी पर था और महेश भी स्कुल से लेट था। सारे बच्चे जा चुके थे और गुरु जी (Guruji) की बहन इन्तजार कर रही थी और समझ चुकी थी श्याद महेश ही अंतिम बच्चा था जिसका सहारा लिया जा सकता था मगर उसे यह मालूम नहीं था कि महेश छोटी जात से ताल्लुक रखता था शायद महेश की वेष भूषा और चेहरे से उसे धोखा लग गया और उन्होंने जल्दी-जल्दी महेश को बुला कर बह रोटी का थेला दे दिया की अपने गुरु जी को दे देना।
महेश को पता था कि यह गुरु जी की बहन मुझे नहीं पहचानती है मगर उनके घर बालो को सब पता था। एक क्षण महेश ने सोचा में उन्हें बता दूँ मगर दूसरी और मन में विचार आया की अगर मेने बता दिया तो शायद बह यह खाना मुझे नहीं देंगी और गुरु जी आज भूखे रह जायेंगे। महेश ने भी बड़े फक्र के साथ खाना ला कर गुरु जी को दे दिया और उन्होने बड़ी ख़ुशी की मुस्कराहट से महेश का धन्यवाद भी किया।
महेश को भी बहुत अच्छा लगा की श्याद आज उसे भी इज़्ज़त मिली है जिसके लिए बह तरस जाते थे। हालाँकि अपनी क्लास में महेश का मॉनिटर बनना उन्ही गुरु जी की देन थी। उन्होंने कभी भी एक पल के लिए भी भेद भाव नहीं किया। महेश को लगता था कि बाक्या ही सच्चे गुरु मिले है जिसके कारण महेश की पढ़ाई में भी काफ़ी सुधार आया।
दूसरे दिन भी उसी तरह उस बच्चे को खाना ले जाने के लिए दिया जो महेश के साथ स्कूल जा रहा था तो गुरु जी (Guruji) की बहन ने बताया कि कल ये लड़का गुरु जी का खाना ले गया था तो उस लड़के ने उन्हें महेश की जाती के बारे में बता दिया। कुछ दिनों बाद भी जब कभी बह लड़का छुट्टी पर होता तो उनकी बहन दूसरे लड़को के पास खाना देती मगर महेश के पास कभी भी खाना नहीं दिया गया। इस कारण कई बार गुरु जी (Guruji) भूखे ही रह गए क्योंकि उन्होंने खाना बापिस लेजाना अच्छा समझा मगर महेश को ले जाने के लिए नहीं दिया।
बिडंबना यह भी थी की बहुत बार गुरु जी का पानी का घड़ा महेश ही उनके यहाँ भर कर रख आया करता था। गुरु जी हमेशा महेश से ऐसे कामो के लिए बोलते थे शायद बह इस तरह की चली आ रही रूड़ीबादी मानसिकता को तोड़ना चाहते थे हमेशा क्लास में इसके बारे में चर्चा करते थे। आज उनकी बो महान सोच को महेश सलाम करता है क्योंकि बह बाक्या में ही सच्चे गुरु थे।
अन्यथा तुलनात्मकता से देखे तो इससे पहले महेश को कभी अपने गुरुओं को पानी पिलाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो पाया था क्योंकि सभी गुरुजन हमेशा क्लास में से स्वर्ण बच्चे को ही पानी पिलाने के लिए बोलते थे। महेश को आज भी याद है कि प्राइमरी स्कूल में एक बड़ा घड़ा जिसे मट्ट बोलते थे ज़मीन में गड़ा होता था मगर उसमे भी छोटी जात के बच्चे छू नहीं सकते थे उन्हें पानी भी स्वर्ण बच्चा अपने हाथों से पिलाता था।
पानी पीने के लिए किसी साथी स्वर्ण बच्चे की खुशामद करते रहते थे तब जा कर उन्हें पानी नसीव होता था। बहाँ भी गुरु थे मगर उन्हें क्या गुरु कहना उचित होगा जिन्होंने भेद भाव को मिटाने की जगह हमेशा भेद भाव को भड़ाबा दिया। उन्हें केवल वेतन भोगी शिक्षक ही कह सकते है क्योंकि गुरु और शिक्षक में बहुत फ़र्क़ होता है। गुरु शिष्य के अंदर के अन्धकार को मिटा कर सिद्धान्तिक मूल्यों को भरने का काम करता है। न जाने आज भी कितने ही महेश इस हीन भावना को ताउम्र ढो रहे है।
नारायण डोगरा
चण्डीगढ़
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