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घूंघट प्रथा (ghunghat pratha) : नारी गुलामी का एक प्रतीक
घूंघट प्रथा (ghunghat pratha) : नारी गुलामी का एक प्रतीक
भारत में मुगलों के ज़माने से घूँघट प्रथा का प्रचलन ज़्यादा बढ़ा क्योंकि मुस्लिम शासक महिलाओं को देखकर उन्हें उठा ले जाते थे, धीरे-धीरे ये प्रथाएँ बन गई। भारत के अधिकांश ग्रामीण अंचलों में घूंघट प्रथा का प्रचलन आज भी जोरों शोरों से चल रहा है। पुरुष वर्ग भी महिलाओं को घूंघट में रखना पसन्द करता है उन्हें घर की चारदीवारी में रहने के लिए मजबूर करता है। भारतीय संविधान बनाकर डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने घूंघट जैसी कुप्रथा से महिलाओं को आजादी दिलाने का प्रयास किया लेकिन ग्रामीण अंचल की महिलाएँ अपने अधिकारों को नहीं जानती, इसलिए वह इस प्रथा को ढो रही हैं। घूंघट नहीं करने वाली शहरी महिलाओं को वह फूहड़ समझती है मगर ऐसा नहीं है, महिलाओं को भी खुलकर सांस लेने की आजादी होनी चाहिए उनका अधिकार है। क्या उनका चेहरा इतना बुरा होता है जो किसी को दिखा नहीं सकती, क्यों न चाहते हुए भी उन्हें मजबूर किया जाता है? उनकी पशुत्व ज़िन्दगी को इंसानी ज़िन्दगी में तब्दील क्यों नहीं किया जाता? यह एक तरह की गुलामी ही होती है।
जहाँ-जहाँ नारी शक्ति ने संविधान में प्रदत्त अपने अधिकारों को जाना है उन महिलाओं ने ज़रूर अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाई है एवं इस कुप्रथा को बन्द करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जब संविधान ने सबको आजादी से जीने का अधिकार दे रखा है तो क्यों महिलाएँ घूंघट को अपना सम्मान समझती है? क्यों अपने चेहरे को ढकती है? विदेशी नारियों में भारतीय नारी की अपेक्षा खुलकर जीने की आजादी है ठीक वैसे ही भारत में भी है लेकिन केवल संविधान के पन्नों पर। धरातल पर अमल करने वाले सीमित लोग हैं जो नारी को हर प्रकार की आजादी देते हैं।
राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र में घूंघट प्रथा बहुतायत में प्रचलित है जोधपुर सम्भाग के जालोर, सिरोही, जैसलमेर, बाड़मेर, नागौर और पाली जिलों में ना तो कोई घूंघट प्रथा के खिलाफ बोलता है और ना ही बन्द करवाने का मुद्दा उठाता है। मात्र कुछ लोग आवाज़ उठा भी ले तो समाज के अन्य ठेकेदारों द्वारा उन पर लांछन लगाया जाता है उन्हें घूंघट का विरोध करने से रोका जाता है क्योंकि उन्हें औरतों को गुलाम बनाकर काम करवाना पसन्द है। आये दिन आलेख, कविताओं और कहानियों में नारी समानता की बात करते हैं पुरुषों के बराबर हक़ देने की बात करते हैं, पर अधिकांश क्षेत्रों में नारी गुलामी के प्रतीक घूंघट प्रथा पर किसी का ध्यान नहीं जाता। ना कोई इस पर खुलकर बात करता है।
ताज्जुब की बात तो ये है कि घूंघट को महिलाएँ ख़ुद अपना सम्मान मानती है। जब उन्हें कहा जाता है कि घूंघट एक प्रकार से आपकी गुलामी को दर्शाता है न कि सम्मान। फिर भी वह इसी बात पर अड़ी रहती हैं कि नहीं हम बिना घूंघट कैसे रह सकती हैं। सास-ससुर, जेठ और बड़े बुजुर्गों के सामने घूंघट नहीं निकालेंगी तो हमारी इज़्ज़त का क्या होगा? अब उन्हें कौन समझाये कि ये उनकी प्रगति में बाधा है। माना कि बहुत-सी स्त्रियाँ इसे शौक समझती है या अपना सम्मान मानती है लेकिन कई स्त्रियाँ इस तरह के दंश को झेलकर अंदर ही अंदर घुटती रहती है ना समाज में खुलकर बोल सकती है ना इसका विरोध कर सकती है। कई सालों से उन पर यह प्रथा इस तरह से मढ़ दी गयी है जिसके तले वे आज तक दबी है उन्हें बाहर निकालना मुश्किल हो रहा है। लेकिन इस दुनिया में कोई भी काम नामुमकिन नहीं है सब मिलकर इसके खिलाफ आवाज़ उठाएंगे तो सबकुछ मुमकिन है।
हमें भारतीय संविधान में प्रदत्त अधिकारों से नर नारी को अवगत करवाना चाहिए उन्हें खुलकर बोलने और पहनने की आजादी देनी चाहिए। जितनी शोषण की ज़िन्दगी नारी जीती है उतनी पुरुष जिए तो कैसा रहेगा? कोरोना काल में मास्क पहनने पर भी पुरुष वर्ग कतराने लगा है वह कहता है कि दम घुटने लगा है तो सोचो उन नारियों पर क्या बीतती होगी जिन्हें आप हरपल घूंघट में रखते हैं। हमें ज़रूरत है संविधान में दिए गए अधिकारों से सबको अवगत करवाने की और उन्हें अमल में लाने की। सबको समानता से जीने का हक़ है कोई किसी का गुलाम नहीं। करोड़ों महिलाओं को आजादी देने वाले महामानव डॉ. भीमराव अम्बेडकर अकेले इतना सबकुछ कर सकते हैं तो हम सभी संगठित होकर इस कार्य को सफलता की ओर ले जा सकते हैं। हम निस्वार्थ होकर घूंघट प्रथा के खिलाफ आवाज़ उठाएँ तो इससे निजात पा सकते हैं और नारी शक्ति को खुलकर जीने की आजादी दिला सकते हैं।
ऑनलाइन के चक्कर में खोते रिश्ते
हम बात कर रहे है रिश्तों की। हाँ! उन रिश्तों की जो अपनत्व की भावना रखते हैं लेकिन क्या आज के दौर में सच्चे रिश्ते हैं? हाँ या नहीं कह पाना मुश्किल है क्योंकि कुछ रिश्ते पाक है तो कुछ यूँ ही बेगाने रिश्ते। मतलब उन्हें सच्चे रिश्ते नहीं कह सकते।
वर्तमान दौर में रिश्तों की अहमियत नहीं रही है क्योंकि आज के दौर का इंसान सोशल मीडिया पर भटक रहा हैं। हाँ होना भी चाहिए सोशल मीडिया क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है और समय के अनुसार सबकुछ बदलता है लेकिन कहीं हम थोड़ा-सा हटके सोचे तो ज़रूर लगता है कि सोशल मीडिया की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में अपने रिश्ते कहीं खो रहे हैं। घर के सदस्यों को भूलकर किसी अनजान लोगों से ऑनलाइन चेटिंग कर रहे है और उनका हालचाल पूछ रहे है जबकि अपनत्व का रिश्ता घर वाले रखते है उन्हें भूल रहे हैं। ऑनलाइन रिश्ते टिके या न टिके इसका पुख्ता सबूत नहीं मिलता।
समयानुसार परिस्थितयाँ बदली रिश्ते बदले इंसान बदले लेकिन जज़्बात नहीं बदले। बदले है तो सिर्फ़ रिश्ते वह भी ऑनलाइन के चक्कर में। पहले हम किसी रिश्तेदारों के घर या किसी शादी समारोह में जाते तब वहाँ सबसे बातें करते और उनमें घुलमिल जाते थे और आज का समय देख लो कहीं पर जाते है तो नजरें मोबाइल में ही गड़ी रहती है अपनी। अगर थोड़ी देर भी मोबाइल को जेब में रख लेते है तो मानो मोबाइल हमें गालियाँ देता है कि मुझे जेब में क्यों डाला? निकालो और मेरा पूरा उपयोग करो।
अब सबकी सोच भी बदल गयी हैं। ऑनलाइन इश्क़ के चक्कर में रिश्ते बदनाम हो रहे हैं। युवा पीढ़ी ऑनलाइन इश्क़ के चक्कर में फंसी हुई है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि किसी ऑनलाइन चेटिंग एप्प से किसी लड़की की प्रोफाइल से चेट करते है लेकिन ये नहीं पता कि सामने लड़का है या लड़की। वो लड़का भी हो सकता है जो लड़की बनकर आपको धोखा दे रहा है। बना लेते है लड़की मानकर अपनी प्रेमिका। असल में निकलता कोई और है फिर मिलता है धोखा। इस प्रकार से ऑनलाइन तरीके से इसका दुरूपयोग होता है। अगर सकारात्मक दृष्टि से देखा जाए तो ऑनलाइन रिश्ते भी मज़बूत बन सकते है बस सोच सकारात्मक होनी चाहिए और बातों में भी विनम्रता होनी चाहिए तब सामने वाला भी सकारात्मकता लाएगा। हो सकता है वह परिवार का ही कोई सदस्य हो तो वह धोखा देने की कोशिश भी नहीं करेगा और सच उजागर कर देगा।
सोशल मीडिया पर रिश्तों का दुरूपयोग हो रहा है। साफ़ शब्दों में कहा जाए तो अपने भाई बहन को छोड़ किसी अनजान को भाई बहन बना लेते है केवल दिखावटी स्नेह के लिए और जो धरातल पर जुड़े है सगे भाई बहन उनसे स्नेह नहीं रखते। अपने देश भारत की बात करें तो ऑनलाइन रिश्ते युवाओं में अधिक व्याप्त है। बुढ़ापे का जीवन यापन करने वाले ऑनलाइन की बजाय ऑफ़लाइन रिश्तों को अहमियत देते है और मान सम्मान से पेश आते हैं जबकि युवा वर्ग ऑनलाइन के चक्कर में अपनों को दूर भगाकर ऑनलाइन रिश्ते अपनाते हैं।
समयानुसार ऑनलाइन रिश्ते घातक साबित हो सकते है और परिणाम भी अपने सामने है कहीं-कहीं पर ऑनलाइन प्रेम करके कोई ठगा जा रहा है। जब कोई प्रेमिका बन किसी को पैसों की मांग करता है और जब देने जाता है तो उसे धोखा मिलता है क्योंकि वह पुरुष होता है जो महिला बनकर उनसे ऑनलाइन चेट कर रहा होता था।
हमें अपनी सोच बदलनी होगी और ऑनलाइन रिश्ते भले अपनाएँ पर ऑफ़लाइन के रिश्ते क़ायम रखने है। अपने माँ पापा, भाई-बहन, दादा दादी, रिश्तेदारों के पास बैठकर बातें करनी चाहिए, उनका हालचाल पूछें और हो सके तो उनकी हरसम्भव मदद करें। जब भी वह कोई काम सौपें उसे पहले पूरा करें फिर ऑनलाइन की बात। ऑनलाइन रिश्तों की बजाय ऑफ़लाइन के रिश्ते ही ज़िन्दगी भर साथ निभाते हैं।
ऑफ़लाइन के रिश्तों में अपनत्व होता है उनकी संवेदनाएँ, दुःख, सुख हम सकते है जबकि ऑनलाइन रिश्तों की भावनाएँ हम नहीं समझ सकते क्योंकि जब तक धरातलीय जुड़ाव न हो तब तक किसी की भावना नहीं समझ सकते।
वर्तमान दौर में ऑनलाइन की ज़रूरत है लेकिन सोच समझ कर। गर २०वीं सदी का दौर देखा जाए तो वर्तमान दौर से काफ़ी हद तक बेहतर था क्योंकि ऑफ़लाइन का जमाना था रिश्ते नाते होते थे और आज का दौर देख लें। ऑनलाइन के ज़माने में रिश्ते तो भूल ही रहे है साथ ही मानव अपना रवैया भी बदल रहा। घण्टों मोबाइल, टीवी, लेपटोप पर आँखे गड़ाए कुछ न कुछ करते हैं जिससे आँखों की कमजोरी के साथ-साथ स्वभाव में भी चिड़चिड़ापन आता है और मानसिक बुद्धि का विकास अवरुद्ध होता है। किसी से बातें न करना, घरेलू झगड़े, ओछी बुद्धि इसके प्रमुख लक्षण कहे जा सकते हैं।
ऑनलाइन के चक्कर में रिश्ते खोते जा रहे है। इसे दूर करने के लिए और प्रेम सद्भावना बढ़ाने के लिए कम सोशल मीडिया का उपयोग ही कारगर उपाय हैं क्योंकि जब तक हम सोशल मीडिया से उचित दूरी नहीं बनाएंगे तब तक मानसिक और शारीरिक तनाव होगा और रिश्तों में दरारें आएगी। इसलिए जितना हो सके ऑनलाइन सिस्टम का सिमित समय तक उपयोग करें जहाँ तक हो सके ज़रूरी हो तब ही ऑनलाइन सिस्टम का उपयोग करें ताकि रिश्तों में आ रही दरार को कम करके प्रेम और सद्भावना क़ायम की जा सके।
~ अरविन्द कालमा
भादरूणा (साँचोर)
राजस्थान
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