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प्यार के फूल (Flowers of love)
प्यार के फूल (Flowers of love)… कहानी है रोहन और दीपा की… रोहन एक पढ़ा-लिखा और समृद्ध परिवार का नव युवक… वहीं दीपा एक हादसे में अपनी ऑंखें खो चुकी युवा लड़की… दोनों के प्यार की कलियों ने किस प्रकार फूलों को रूप लिया… आइये जानते हैं इस कहानी के माध्यम से… इस कहानी के कहानीकार हैं मनोज कुमार “मंजू”… उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जनपद के एक छोटे से गाँव में जन्मे मनोज कुमार “मंजू” साहित्य जगत में एक अच्छी पहचान बना चुके हैं… इनका नाम गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड, वर्ल्ड बुक ऑफ़ लन्दन, इंडिया बुक ऑफ़ रिकार्ड्स आदि कई विश्व कीर्तिमानों में शामिल है… तो चलिए पढ़ते हैं ये कहानी…
“दिखाई नहीं देता क्या…?”
रोहन, जो अपने कमरे के सामने बरामदे में खड़ा छोटे-छोटे बच्चों को खेलते हुए देख रहा था, अचानक पीछे से किसी के टकराने पर उसके मुख से ये शब्द अनायास ही फूटे थे।
“क्षमा करना… मैं देख नहीं सकती… इसलिए आपसे टकरा गई…।” दीपा ने दुःख भरे लहजे में कहा था।
रोहन को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। हुश्न की साक्षात देवी उसके सामने खड़ी थी, जिसकी बेजान आँखें शांत थीं। इतनी खूबसूरत लड़की भी अंधी हो सकती है, जैसे वह यकीन ही नहीं कर पा रहा था। परन्तु सत्य को कौन झुठला सकता है?
“माफ़ करना… मुझे नहीं मालूम था कि…।” रोहन के शब्द उसके गले में ही घुटकर रह गए।
“कोई बात नहीं… गलती तो मेरी ही थी… मैं ही आपसे टकराई थी…।” दीपा ने सहज स्वर में कहा।
कहना चाहा था रोहन कुछ, लेकिन किसी की आवाज ने उसे चौंका दिया।
“क्या हुआ बेटी…?” ये दीपा की माँ थी, जो उसी ओर आ रही थीं।
“कुछ नहीं मम्मी… यूँ ही इधर जा रही थी कि इनसे टकरा गई…।” दीपा ने जबाब दिया।
“बेटा ये देख नहीं सकती… इसीलिए…।”
“आंटी जी… मुझे मालूम हो चुका है… सचमुच… ईश्वर भी भयानक भूलें कर जाता है… उसके आगे हम कुछ कर भी तो नहीं सकते… हम तो बस उसके हाथों की कठपुतली मात्र हैं…।” रोहन ने दुखद भाव से कहा था।
“बेटा… ईश्वर जो कुछ भी करता है, उसके पीछे उसका कुछ न कुछ प्रयोजन जरुर होता है… उसने मेरी बेटी के साथ ये खिलवाड़ किया है तो जरुर उसका कोई सुनियोजित तथ्य होगा…। शोभा देवी ने सरल स्वरों में कहा था।
“अच्छा बेटा… हम चलते हैं…।” शोभा देवी ने कहा था, और अपनी बेटी का हाथ पकड़कर अपने घर की ओर चली गई थीं। रोहन देखता रहा था तब तक, जब तक वे अपने घर के दरवाजे में प्रवेश न कर गयीं।
रोहन कल ही यहाँ आया था। उसे आसानी से इस कॉलोनी में एक कमरा किराये पर मिल गया था। उसके अपने नगर में कोई डिग्री कॉलेज न था, इसलिए उसके माता-पिता ने उसे इस शहर में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा था। चलते समय उन्होंने समझाया था- “बेटा… सबसे विनम्र भाव से पेश आना… वहां शहर में तुम्हारा अपना कोई न होगा… तुम्हें अपने अच्छे स्वभाव से ही पराये लोगों का अपनत्व मिल सकेगा…।” पिता की यह बात उसने अपने मन में गाँठ की तरह बाँध ली थी।
अचानक ही इस घटना से दीपा के प्रति उसकी हमदर्दी बढ़ गयी थी। अपने मृदुभाषी स्वभाव के कारण रोहन को पूरी कॉलोनी का अपनत्व मिलने लगा। धीरे-धीरे दिन व्यतीत होते गए। एक दिन रोहन ने बातों बातों में शोभा देवी से पूछ लिया-
“आंटी जी… दीपा को यह रोग क्या बचपन से ही है…?”
“नहीं बेटे… वो बचपन से अंधी नहीं है… वह भी दूसरों की तरह देख सकती थी… खेल सकती थी… परन्तु…।”
“परन्तु क्या आंटी…?”
“एक कार एक्सीडेंट में दीपा ने अपनी आँखें खो दीं…।”
“कार एक्सीडेंट…?” पूंछा था रोहन ने।
“हाँ बेटे… तब दीपा दसवीं में थी… स्कूल से लौटते समय एक अनियंत्रित कार से टकरा गयी… उसके सिर में काफी चोटें आई थीं… डॉक्टरों ने बताया कि कुछ दिमागी नसों में कमी आने से उसकी आँखों की रोशनी चली गई…। तब से उसका जीवन अँधेरे में डूब कर रह गया है…।” शोभा देवी ने आह सी भरी थी।
“आपने उसे कहीं और नहीं दिखाया…?” रोहन ने पूछा।
“हमारे पास इतना पैसा नहीं है बेटा… कि हम उसे कहीं और दिखा पाते…।” शोभा देवी ने अपनी असमर्थता बताई।
रोहन ने सुना था, और उसकी आँखों में कहीं चमक सी उभरी थी, जिसे शोभा देवी नहीं देख पाई थीं। उसके बाद रोहन, शोभा देवी और सुधाकर के परिवार का एक अंग सा बन गया था।
आज रोहन को इस शहर में आये एक महीना बीत चुका था। इस बीच वह निरंतर कॉलेज जाता रहा था। रोहन के पास मोबाईल फोन था, जिससे वह अपने बारे में घरवालों को बताता रहता था। आज उसका मन फिर पिता जी से बात करने को कर रहा था। अतः उसने नंबर मिलाया और दूसरी ओर से-
“हैलो…! श्याम स्पीकिंग…।”
“पापा… मैं रोहन…।”
“अरे रोहन बेटा… कहो कैसे याद किया…।”
“पापा… मुझे आपसे एक जरुरी बात करनी थी… आप लोग चाहते हैं न… कि अब मैं शादी कर लूँ… पापा मुझे एक लड़की पसंद आ गई है…।” रोहन ने कुछ शरमाते हुए बताया।
“क्या…?” ख़ुशी और आश्चर्य भरे अंदाज में पूछा था, श्याम बाबू ने।
“हाँ पापा…।”
“अच्छा बेटा… बहू भी ढूढ ली और हमें अब बता रहे हो… कोई बात नहीं…।” श्याम बाबू ने मुस्कुराते हुए ताना मारा।
“परन्तु पापा वो… वो…।”
“क्या बात है बेटे…?”
“पापा वो लड़की देख नहीं सकती…। मैं चाहता हूँ कि आप हाँ कर दें तो मैं उसके माँ-बाप से बात करूँ…।” रोहन ने गंभीर होते हुए कहा था।
“बेटा… तुम्हारी ख़ुशी में ही हम सब की ख़ुशी है… मुझे तो गर्व है कि तुम में इतनी समझ है कि तुम एक ऐसा फैसला लेने जा रहे हो… जो किसी के जीवन में उजाला ला देगा… तुम उसके माँ-बाप से बात कर सकते हो…।”
“थैंक्स पापा… मैं कल ही उनसे बात कर लेता हूँ…।” रोहन ने कहा था और फोन रख दिया।
उस शाम रोहन बहुत खुश था। भविष्य के नए सपनों में खो गया था वह। अगले ही दिन वह शोभा देवी के समक्ष प्रस्तुत था-
“आंटी जी… मैं आपसे कुछ जरुरी बात करना चाहता हूँ…।”
“कहो बेटा… क्या कहना चाहते हो तुम…?” शोभा देवी ने पूछा था।
“आंटी जी… म… मैं… कहना चाहता था कि… कि… मैं दीपा से शादी करना चाहता हूँ…।” अंतिम शब्द रोहन ने एक झटके के साथ कहे थे।
“ये क्या कह रहे हो बेटा तुम…! बेटा शादियाँ भावनाओं में बह कर नहीं की जातीं… क्या तुम्हारे माँ-बाप दीपा को स्वीकार कर सकेंगे…? अपना सकेंगे उसको…?” शोभा देवी ने पूछा था।
“आंटी जी… आप मेरे माँ-बाप को नहीं जानती… वे साक्षात् ईश्वर का स्वरूप हैं…मैं उनसे बात कर चुका हूँ… और उनकी अनुमति के बाद ही मैं आपसे बात करने की हिम्मत जुटा पाया हूँ…।” रोहन ने समझाया था।
सुनते ही शोभा देवी प्रसन्नता से खिल उठी थीं। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या कहें।
“मैं तुम्हारे अंकल से बात करुँगी… वे ना नहीं करेंगे…।” शोभा देवी ने कहा था।
“अच्छा आंटी… अब मैं चलता हूँ…।” रोहन ने खड़े होते हुए कहा था, कमरे के बाहर दीपा खड़ी सब सुन रही थी… उसके पास से गुजरते हुए वह फुसफुसाया था- “अंकल के साथ-साथ मुझे तुम्हारा भी जबाव चाहिए…।” और अपने कमरे की ओर बढ़ गया था।
दीपा ख़ुशी से झूम उठी थी। वह कैसे कहे कि उसे तो जैसे सारा संसार ही मिल रहा था।
शाम को सुधाकर जी जब ऑफिस से लौटे तो शोभा देवी ने उन्हें सारी बात बताई। सब कुछ सुनकर वे भी बहुत खुश हुए थे। उन्होंने कहा था- “मेरी अंधी बेटी को अगर रोहन जैसा पति मिल जाये तो मेरा तो जीवन ही धन्य हो जाये… जो हमारे घर अँधेरे को अपने घर का उजाला बनाना चाहता हो… वो सचमुच महान है…।”
जब दीपा ने अपने पापा की बातें सुनी तो ख़ुशी के मारे उसकी आँखें छलछला आई थीं। उसने तो आशा ही छोड़ दी थी कि कोई उसे अपना जीवन साथी चुनेगा। लेकिन रोहन के रूप में उसे एक देवता मिल रहा था। उसके दिल में रोहन के प्यार का बीज पनपने लगा। अब वह बेझिझक रोहन के कमरे में चली जाती, और दोनों अपने भविष्य के सुनहरे सपनों में खो जाते।
सोमवार का दिन था। सुधाकर जी ऑफिस गए थे। शोभा देवी कुछ जरुरी सामान खरीदने बाजार गयी थीं। रोहन अभी अभी कॉलेज से लौटा था। रोहन के कमरे की आहट पाकर दीपा उधर ही बढ़ गई थी कि किसी से टकरा गई।
“बड़ी जल्दी में हो… कहाँ जा रही हो दीपा जी…?” पूछने वाला राजू था, कॉलोनी के बदनाम लड़कों में से एक। होठों पर कुटिल मुस्कान थी उसके।
“तुम्हें इससे क्या…? कहीं भी जाऊं मैं… तुम कौन होते हो पूछने वाले…?” दीपा ने खिन्न स्वर में जवाव दिया।
“तुम बताओ न बताओ… लेकिन हम सब जानते हैं… आज कल तुम कहाँ आती जाती हो… कमबख्त… हमारे पास तो कभी आती ही नहीं…।” राजू वासना के सागर में गोते खा रहा था।
“मेरा रास्ता छोड़ो… जाने दो मुझे… मैं तुम्हारे मुंह नहीं लगना चाहती…।” दीपा ने उससे उलझना ठीक न समझा।
“लेकिन हम तो लगना चाहते हैं तुम्हारे मुंह… एक बार मेरी बाँहों में आ जाओ… खुदा कसम… जन्नत की सैर करा दूंगा…।” राजू ने दीपा को अपनी ओर खींचते हुए कहा।
“बद्तमीज… छोड़ मुझे… रोहन बाबू…!” दीपा चीखी थी। दीपा की चीख सुनते ही रोहन बाहर की ओर दौड़ा। बाहर का नजारा देखते ही उसका खून खौल गया। भागकर उसने राजू को धर दबोचा।
“कमीने… तेरी यह हिम्मत…।” कहते हुए रोहन ने राजू पर लात घूंसों की बरसात कर दी।
राजू को ऐसी आशा न थी। वह हड़बड़ा गया था।
शोर सुनकर कॉलोनी के लोग भी बाहर आ गए थे, और दर्शकों की तरह उस माजरे को देखने लगे। राजू को अपनी दाल गलती न दिखी तो उसने रोहन पर उल्टा आरोप मढ़ना चाहा।
“देखा मोहन काका… भलाई का तो जमाना ही नहीं रहा… मैंने इस लड़की को रोहन के कमरे में जाते देखा… टोकने पर यह रोहन का बच्चा मुझसे भिड गया…।”
“कुत्ते… तू इतना नींच होगा… मैंने तो सोचा भी न था…। तेरी तो…।” कहते हुए रोहन ने राजू के जबड़े पर एक और मुक्का जड़ दिया।
चोट खाकर राजू घायल शेर की तरह रोहन पर झपटा, और उसे ऐसा धक्का दिया कि रोहन का सिर दीवार से जा टकराया। उसके सिर से खून रिसने लगा। वह सिर थाम कर कराहने लगा। रोहन की चीख सुनते ही दीपा घवरा गई।
“क्या हुआ रोहन बाबू…?” दीपा ने लगभग रुआंसे स्वर में पूछा।
“कुछ नहीं… मैं ठीक हूँ दीपा…।” रोहन ने कहा था।
“मोहन काका… इससे पूछो… जिस लड़की के लिए इसने मुझ पर हाथ उठाया… उसका इससे क्या रिश्ता है…?” राजू ने कुटिल स्वर में कहा।
“रिश्ता भी बताऊंगा… लेकिन पहले तुझसे तो निपट लूँ…।” कहते हुए रोहन बुरी तरह जुट गया था राजू से। तब तक, जब तक वह गिर कर बुरी तरह छटपटाने न लगा था।
“तू जानना चाहता है कि… मेरा इससे क्या रिश्ता है…? तो सुन… और तुम लोग भी सुन लो…।” रोहन ने वहां खड़े लोगों से कहा- “ईश्वर को साक्षी मानकर… मैं दीपा को अपनी धर्मपत्नी के रूप में स्वीकार करता हूँ…।” कहते हुए रोहन ने अपने मांथे पर छलक आये खून से दीपा की मांग भर दी।
दीपा रोहन के पैरों से लिपट गई। उसकी आँखों में आंशू थे। रोहन ने दीपा को उठाकर सीने से लगा लिया। यह दृश्य देख राजू की आँखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गई थीं। धीरे-धीरे भीड़ छंट चुकी थी।
शाम को जब शोभा देवी व् सुधाकर वापस लौटे तो दीपा ने उन्हें सब कुछ बता दिया। सुनकर सुधाकर जी आग बबूला हो उठे, और राजू को पुलिस में देने को कहने लगे। परन्तु दीपा ने ही समझाया कि उसे अपने किये की सजा मिल चुकी है, और मुझे मेरा रोहन। जैसे-तैसे मामला शांत हुआ तो रोहन ने सुधाकर जी से कहा कि वह दीपा से विधिवत रूप से शादी करना चाहता है। सुधाकर जी ने सहमति जताई। तारीख भी निश्चित कर ली गई।
रोहन ने श्याम बाबू को फोन करके बताया कि अगली 10 तारीख को बारात लाने की तैयारी करें। श्याम बाबू ने इतनी जल्दी शादी करने का कारण जानना चाहा तो रोहन ने उन्हें संक्षेप में सब कुछ बता दिया।
“ठीक है बेटा…। लेकिन तू कब आएगा…? हम क्या बिना दूल्हा के बारात ले जाएँ क्या…? जल्दी आ जाना तू भी…।” श्याम बाबू ने मुस्कुराते हुए कहा।
“अच्छा पापा… आ जाऊंगा…।”
और अगली ही 10 जनवरी को रोहन और दीपा विधिवत रूप से शादी के बंधन में बंध गए। सभी काफी खुश थे। शादी के बाद की सारी रश्में पूरी करने के बाद रोहन वापस लौट जाना चाहता था। श्याम बाबू ने दीपा को भी साथ ले जाने को कहा। रोहन ने मना किया तो उसकी माँ ने भी समझाया- नई-नई शादी हुई है और तू बहू को यहाँ छोड़कर जाने की बात करता है… बहू क्या सोचेगी? उसके भी तो कुछ अरमान होंगे।”
“अरे माँ… वो कुछ नहीं सोचेगी… बल्कि वो तो आप लोगों के साथ बहुत खुश रहेगी…।” रोहन जिद पर अड़ा था।
“सीधी तरह मानेगा या उठाऊं लाठी…।” श्याम बाबू ने मुस्कुराते हुए डपट लगाईं थी।
“ठीक है पापा… जैसी आपकी मर्जी…।” रोहन ने हार मान ली।
अगली सुबह रोहन दीपा को लेकर लौट गया था।
रोहन खाना परोस रहा था। दीपा पास ही छोटे से बैड पर बैठी थी। रोहन ने दीपा के सामने थाली रखते हुए कहा- “दीपा… चलो अब शुरू हो जाओ… खाना तैयार है…।”
दीपा की आँखों से दो बूंद आंशू छलके और उसके गुलाबी कपोलों पर ढलकने लगे।
“दीपा… क्या हुआ…?” रोहन ने आश्चर्य से पूछा था।
“कुछ नहीं… बस यूँ ही…।” दीपा ने आंशू पोंछते हुए कहा।
“तुम्हारी आँखों में आंशू हैं… और तुम कहती हो कि… कुछ नहीं… जब तुम उदास होती हो तो मेरा कलेजा मुंह को आने लगता है… क्या तुम मेरे साथ खुश नहीं हो…?” रोहन ने व्यथित होते हुए पूंछा।
“ये क्या कह रहे हैं आप…! आप जैसे पति को पाकर कौन पत्नी खुश नहीं होगी…? मैं तो ये सोच रही थी कि… मैं कितनी बदनसीब हूँ… जो अपने देवता जैसे पति की सेवा करने के बजाय… उसे और परेशानी में डाल रही हूँ…। जो काम मुझे करने चाहिए वो… वो सारे काम आपको करने पड़ते हैं… ये दर्द हमेशा मेरे सीने में रहता है…।” दीपा ने रुआसे स्वरों में कहा था।
“पगली… जरा सी बात और इतने बड़े-बड़े आंशू… फिर कभी ये विचार अपने मन में मत लाना… तुम दुखी होती हो तो मुझे लगता है… जैसे मेरे प्यार में जरुर कोई कमी रह गई है…।” रोहन ने प्यार से दीपा के चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए कहा।
‘कैसे समझाऊं आपको…।” दीपा ने कहा था- “एक पत्नी का फर्ज मैं नहीं निभा पा रही… ये टीस हमेशा मेरे मन में रहती है…।”
“अब समझाना छोड़ो… और खाना शुरू करो… आज मैं तुम्हे अपने हाथों से खिलाऊंगा…।” रोहन ने निवाला उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा था।
और दीपा ने निवाला मुंह में रखते हुए रोहन की अँगुलियों को जूठा कर दिया था। दोनों साथ-साथ खाते रहे फिर।
अगली सुबह कॉलेज से लौटते हुए रोहन ने बताया था कि उसने एक प्राइवेट कंपनी में ठेकेदारी का काम संभाला है। रात में आठ बजे से बारह बजे तक का काम है। काम क्या, बस मजदूरों की देख रेख करना। तनख्वाह की कोई सीमा नहीं, जितना काम उतना कमीशन। उसने आज से ही फैक्ट्री जाना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे दिन गुजरने लगे। पढाई के साथ-साथ रोहन ने फैक्ट्री के काम में भी खूब तरक्की की।
चार महीने में रोहन ने ठेकेदारी से पांच लाख रुपये कमाए। दीपा काफी खुश थी। रोहन ने फोन पर अपने पिताजी को बताया कि उसने एक फैक्ट्री में काम शुरू किया है, तो उन्होंने नाराजगी जताते हुए कहा था- “तुम्हारे घर पैसों की क्या कमी थी जो तुमने फैक्ट्री में काम करना शुरू कर दिया।” इस पर रोहन ने समझाया था कि वह दीपा की आँखों का इलाज अपनी कमाई से कराना चाहता है। ऑपरेशन के लिए रूपया होते ही वह फैक्ट्री जाना बंद कर देगा, और दीपा को किसी बड़े हॉस्पिटल में दिखायेगा।
आज दीपा की आँखों का ऑपरेशन हो चुका था। रोहन के माँ-बाप भी आ चुके थे। दो दिन बाद दीपा की आँखों पर बंधी पट्टी काट दी जाएगी।
मंगलवार था आज। दीपा की आँखों पर पट्टी बंधी थी। डॉक्टर आ चुके थे। सभी की आँखों में एक अजीव सी व्याकुलता थी। आँखों की पट्टी काटते हुए डॉक्टर ने पूंछा था-
“सबसे पहले तुम किसे देखना चाहोगी बेटी…?”
“अपने भगवान को…।” दीपा ने भावुक होते हुए जबाव दिया।
“मैं समझा नहीं…।” डॉक्टर ने असमंजस में पूंछा।
“सबसे पहले मैं अपने पति परमेश्वर को देखना चाहती हूँ… वही तो मेरे जीवन में देवता बन के आये हैं…।” दीपा ने कहा था।
डॉक्टर ने आँखों से पट्टी हटाई और धीरे-धीरे आँखें खोलने को कहा। दीपा ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं, उसे कुछ धुंधला सा प्रतीत हुआ। उसने कई बार आँखें खोली और बंद कीं। उसके सामने रोहन खड़ा था।
“मैं देख सकती हूँ… मैं सबकुछ देख सकती हूँ…।” ख़ुशी से चीखते हुए दीपा ने कहा- देखिये न… अब मैं आपको देख सकती हूँ…।”
रोहन की ख़ुशी की तो कोई सीमा ही नहीं थी, आकर बैठ गया था दीपा के पास, और धीरे से उसके सिर पर हाथ फेरा था उसने। दीपा अपनी भावनाओं को रोक न सकी थी, और उसने रोहन के हाथों को अपने हाथ में लेकर चूम लिया था। और खुद रोहन के सीने में दुबक गई थी। रोहन की माँ की आँखें ख़ुशी से छलक पड़ी थीं। ख़ुशी के आंशू थे उनमें। सबके चेहरे ख़ुशी से खिल उठे थे।
“अरे भई हम भी खड़े हैं इधर…।” श्याम बाबू ने शरारती अंदाज में कहा था।
दीपा को समझते देर न लगी कि ये उसके ससुर जी हैं। थोड़ा सा घूँघट खींच लिया था उसने। और पास खड़ी सासू माँ के सीने से लग गई। शोभा देवी और सुधाकर बाबू बहुत प्रसन्न थे।
दो दिन बाद दीपा को हॉस्पिटल से छुट्टी मिलने बाली थी। और वह दिन भी आ गया जब दीपा अपने घर जाने के लिए तैयार थी। सुबह से ही वह काफी खुश थी। रोहन उसे लेने आ रहा था। परन्तु अभी तक वह नहीं आया था। काफी देर से दीपा कुछ सोच रही थी। और बार बार दरबाजे की ओर देखने लगती।
“मम्मी देखो न कितनी देर कर दी… पता नहीं कहाँ रह गए…।” दीपा ने अपनी सास की ओर देखते हुए कहा।
“आता ही होगा बेटी… अब क्यों परेशान होती हो… अब तो हम सब घर ही चल रहे हैं…।” उन्होंने समझाया था। तभी रोहन आ पहुंचा वहां।
“इतनी देर क्यों कर दी आने में…? मैं कब से इंतजार कर रही हूँ…।” दीपा ने व्याकुलता भरे स्वर में पूछा।
“घर चलो… खुद जान जाओगी…।” रोहन ने मुस्कुराते हुए कहा।
हॉस्पिटल की कुछ जरुरी फॉर्मेलिटी पूरी करने के बाद रोहन दीपा को ले जाने लगा। जैसे ही दीपा ने हॉस्पिटल से बाहर कदम रखा, फूलों से सजी कार उसका इंतज़ार कर रही थी। रोहन ने अगली सीट का दरबाजा खोला और दीपा को बैठने का इशारा किया, दीपा बैठ चुकी तो माँ को पिछली सीट पर बैठाने के बाद रोहन ने स्टेयरिंग संभाली और चल पड़ा था आगे। कार सीधी एक आलीशान बंगले के सामने रुकी। कार से उतर कर दीपा ने देखा, मैनगेट से लेकर अन्दर बरामदे तक महकते गुलाबों को बिखेर कर एक पगडण्डी सी बनाई गई थी। जिस पर दीपा रोहन की बांह थामे आगे बढ़ रही थी। बरामदे में पहुंचते ही रोहन की माँ ने रुकने का इशारा किया और दौड़ कर एक थाल सजा लायीं, जिसमे एक दीपक जल रहा था। उन्होंने दीपा की आरती उतारी और मंगल तिलक लगाकर अन्दर आने का संकेत किया। दीपा ने अपनी सास के पाँव छुए तो उन्होंने आशीर्वाद दिया- “तुम्हारे जीवन की बगिया सदा फूलों की तरह महकती रहे…।”
घर में प्रवेश करने के बाद दीपा को एहसास हुआ था कि वह कितने बड़े खानदान की बहू बनी है। आज तक उसने सुना था कि बड़े लोग रुपयों के भूखे होते हैं, वे इंसान की कीमत नहीं समझते। परन्तु रोहन और उसके माँ-बाप में उसे ऐसा कुछ भी नजर नहीं आया था। बल्कि उसके सास-ससुर तो उसके लिए ममता और वात्सल्य की मूरत ही थे। और रोहन, उसमें तो जैसे दीपा के प्राण बसे थे।
सुबह के छः बजे थे। दीपा की आँख खुली तो देखा कि रोहन किसी दुधमुंहे बच्चे की तरह उसके आँचल में छुपा सो रहा था। रोहन की भोली सूरत देख दीपा मुस्कुराये बिना न रह सकी, धीरे से उठी और दरवाजा खोल कर बाहर बरामदे में खड़ी होकर दूर आकाश की ओर देखने लगी। सूरज उगने ही वाला था। पक्षियों की चहचाहट वातावरण को सुखमय बना रही थी। उसने अपने सास-ससुर के कमरे की ओर भी नजर दौड़ाई थी। शायद अभी वे नहीं उठे थे। पलट कर देखा तो रोहन अभी भी सो रहा था। वह वापस मुड़ी और कुछ सोचकर मुंह हाथ धोने के बाद चाय बनाने में जुट गई, चाय बन चुकी तो उसने दो मगों में उड़ेलकर ट्रे में रख अपने सास-ससुर के कमरे की ओर बढ़ गई।
“मम्मी… चाय लाई हूँ…।” उसने देखा वे दोनों जाग चुके थे।
“अच्छा बेटा… लाओ इधर रख दो।
चाय रखने के बाद दीपा ने सास-ससुर के चरण छुए।
“सदा खुश रहो…।” दोनों ने आशीर्वाद दिया।
“साहब जादे उठे कि नहीं…।” श्याम बाबू ने चाय का कप उठाते हुए पूछा।
“नहीं पापा… अभी वो सो रहे हैं…।” दीपा ने मुस्कुराते हुए जबाब दिया।
“अच्छा… जनाब अभी तक सो रहे हैं… अरे भई उठाओ उन्हें… सुबह हो गई है…।” मुस्कुराते हुए श्याम बाबू ने कहा था।
“जी पापा…।” कहते हुए दीपा लौट पड़ी।
किचिन से दो कप चाय लेकर वह फिर अपने कमरे में आ गई। चाय टेबिल पर रख दी और रोहन को जगाने लगी-
“उठिए… सुबह हो चुकी है…।” दीपा ने रोहन की बांह पकड़ उसे उठाने की कोशिश करने लगी।
“ओह… नो… आज तो बहुत देर हो गई… मैं अभी चाय बनता हूँ…।” आँखें मलते हुए बोला था रोहन।
मुस्कुराई थी दीपा, अपने भोले पति को देखकर।
“चाय तैयार है…।” दीपा ने चाय उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा था।
“क्या…? मुझे जगा दिया होता…!” रोहन ने चाय का मग थामते हुए कहा।
“जनाब… आप भूल रहे हैं… कि आपकी बीबी अब देख सकती है… आज के बाद आप कोई भी काम नहीं करेंगे… अब आपके सारे काम मैं करुँगी… समझ रहे हैं न…।” दीपा ने उसके पास बैठते हुए कहा था।
रोहन ने देखा था उसकी ओर, दीपा मुस्कुरा रही थी। दोनों चाय पीते रहे थे फिर।
और कुछ देर बाद, दीपा खाना लेकर आ गई थी। बैड पर लेटा रोहन किताब के पन्ने उलट रहा था। दीपा ने थाली टेबिल पर रखकर रोहन के हाथ से किताब लेकर एक तरफ रख दी।
“खाना तैयार है… और हाँ… आज मैं आपको अपने हाथों से खिलाऊँगी…।” दीपा ने पास बैठते हुए कहा था।
“अच्छा… मम्मी-पापा ने खाया…।” रोहन ने पूछा था।
“हाँ जी… मम्मी-पापा को खाना खिला दिया है मैंने… अब आपकी बारी है… आइये न… मुझे भी भूख लगी है…।” दीपा ने रोहन का हाथ पकड़ उसे खाने की टेबिल की ओर चलने का आग्रह किया। और फिर दोनों एक दूसरे को खाना खिला रहे थे। रोहन सोच रहा था- जीवन की बगिया में जो कलियाँ उसने संजोई थीं, आज वे अपने पूरे यौवन पर थीं। उसके जीवन को खुशियों और प्यार से भरने के लिए तैयार थे वे ‘प्यार के फूल’। रोहन और दीपा ने अपने प्रेम रूपी सागर के जल से सींच कर इन प्यार के फूलों को खिलने योग्य बनाया था। सचमुच… रोहन जैसे पात्र जिस समाज में मौजूद हों, वहां सिर्फ ‘प्यार के फूल’ ही खिल सकते हैं।
मनोज कुमार “मंजू”
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