संस्कारों का पतन (collapse of rituals)… दोष किसको दे…?
संस्कारों का पतन (collapse of rituals) समाज को खोखला कर रहा है…समाज को खोखला करने में ऐसी कई शक्तियाँ काम कर रही है जिसको देखकर समाज की युवा शक्ति जल्दी भटकती है… औऱ भटक भी रही है। हम टकटकी निगाहों से निहारने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकते। परिस्थितियों व युवा शक्ति को प्रदत्त शक्तियों ने माता पिता व बड़े बुजर्गों को लाचार बना दिया है … पिता चाह कर भी कुछ कह नहीं पा रहा है और बेटा उस लाचारी का काफ़ी हद तक फायदा उठाने में कामयाब रह रहा है… दोष शिक्षा को दे अथवा संस्कारों को यह कोई भी साफगोई से कहने को तैयार नहीं है।
मैं मेरे लिहाज से एक बार संस्कारों के पहलू से ही आंकलन करू तो मैं यह सोचने को मजबूर हूँ कि आख़िर यह संस्कारों का पतन कहाँ थमेगा। युवा शक्ति को समझाने जाए तो तानाशाही, स्वतंत्रता का हनन, जीने की आजादी छीनने के आरोपों के अलावा बहुत सारी तोहमतें लगाई जाती है। आख़िर समाज में टूटते-बिखरते संस्कारों को कैसे रोका जाए औऱ इसकी शुरुआत कहाँ से करें यह समझना बहुत ही मुश्किल है। हम अपनी गली मोहल्लों में आवारा युवाओं को देखकर इसलिए नहीं उलझते की आख़िर कौन उलझे… मेरे शब्दों के भावों को आप समझ गए होंगे पर कब तक … हमें हमारे परिवार के हर सदस्य को अपनी सामाजिक विरासत से अवगत करवाना होगा।
आधुनिकता की दौड़ से बाहर निकल कर यथार्थवादी दृष्टिकोण भी अपनाना होगा… मेरा मकसद सिर्फ़ यहीं है कि अगर समय रहते हम नहीं चेते तो हालात विकट होते देर नहीं लगेगी। संस्कारो को पनपाने की जो बड़ी पाठशाला सँयुक्त परिवार प्रणाली थी उसको आर्थिक लालचा ने तहस नहस पहले से ही कर दिया है। कोई इक्के दुक्के परिवार आपको सयुंक्त परिवार के रूप में मिल जाये तो मैं कह नहीं सकता…घर की चार दिवारी में जो संस्कारों की खेती पनपती थी वह आज विद्यालयों की बड़ी-बड़ी कक्षाओ में नसीब नहीं हो रही है।
शिक्षा का मकसद भी ऊँचे ओहदे तक पहुचना ही रह गया है…किताबी ज्ञान के अलावा तो सभी ज्ञान स्कूलों से गायब है जिसका खामियाजा हमें भुगतना भी पड़ रहा है… स्कूलों को छोड़कर हम अगर अपने घरों के आँगन में झाँके तो वहाँ हाल बद से बदतर है…न तो दादा की अंगुली पकड़ कर पोते के स्कूल जाने की तस्वीर दिखाई देती है औऱ न ही दादी की कहानियों की गूंज घरों में सुनाई दे रही है। पिता अपने बेटों से ऐसे डरे हुए है जैसे कोई जहरीले साँप को देखकर आम इंसान डरता है क्योंकि की पिता पुत्र के रिश्तों में भी ज़हर घुल गया है… मुझें तो यह चिंता छताये जा रही है कि आख़िर हम कौनसी दिशा में जा रहे है औऱ आने वाली युवा पीढ़ी कौनसी दिशा में जाएगी। समाज में संस्कारों का पतन हो रहा है यह सबको पता है पर दोष किसको दे… यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है…
गुलाब कुमावत खीमेल
सांचौर, जालौर (राजस्थान)
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