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अष्टावक्र – Ashtavakra
अष्टावक्र (Ashtavakra) पहले व्यक्ति थे जो सत्य को वैसा ही कह देते थे जैसा वह होता था बिना उसका रूप बदले। वह कहते थे शास्त्रों में नियम, सिद्धांत होते हैं, सत्य और ज्ञान नहीं क्योंकि वह ख़ुद आपके भीतर विराजमान हैं। ऐसा नहीं था कि वे धर्म के विरुद्ध बात करते थे बल्कि वे धर्म के मर्म की बात करते थे। उनका शरीर आठ स्थानों से टेढ़ा या यूँ कहूँ कि विकृत था। लेकिन उन्हें इस पर कोई शर्म नहीं थी क्योंकि उनमे आत्मविश्वास था। वह शारीरिक कमी को अपनी-अपनी गलती या निज का अस्तित्व नहीं मानते थे लोगों द्वारा जब उनका उपहास उड़ाया जाता था तो वे सवाल करते थे कि आप। घड़े पर हँस रहें हैं या कुम्हार पर?
कहते हैं कि वे राजा जनक की सभा में गए तो सभा में मौजूद सभी सभासद उन पर हँसने लगें ये देखकर अष्टावक्र (Ashtavakra) भी ज़ोर जोर से हँसने लगें तब राजा जनक समीप आकर उनसे पूछने लगें कि आपका हँसना मेरी समझ में नहीं आ रहा हैं तब वे बोलें मैंने सुना था कि आपकी सभा में विद्वान, बड़े-बड़े गुरु हैं पर ये सत्य नहीं। यहाँ वह लोग हैं जो चमड़ी के पारखी हैं मेरा विकृत शरीर देख़ रहें हैं पर मैं उन्हें नज़र नहीं आता, मेरी चेतना भी नहीं। क्या घड़े के फूटे होने से कहीं आकाश फुटता हैं या मंदिर के टेढ़े होने से आकाश टेढ़ा होता हैं ये सुनकर जनक लज्जित हो गये।
उन्होंने अष्टावक्र गीता लिखी व्यक्ति की गरिमा की बात कहीं। अगर हम वर्तमान की बात करें तो इरा सिंघल जो रीढ़ की वक्रता से पीड़ित हैं उन्होने सामान्य श्रेणी में यूपीपीएससी में टॉप किया। शारीरिक अक्षमता आपके ज्ञान या आपके आत्मविश्वास को हरा नहीं सकती तो शारीरिक रूप से सक्षम होकर भी हम कैसे किसी की प्रतिकूल टिप्पणी या एक असफलता से विचलित हो सकते हैं। कमजोरी शरीर की नहीं हमारे मन की हैं जिसका मन मज़बूत हैं वही विजेता है।
वाजपेयी जी ने कहा है ” छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होताऔर टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता। मानव संसधान से बड़ी कोई शक्ति स्रोत नहीं बात अपनी ताकत के आंकलन की हैं। शारीरिक रूप से स्वस्थ होने के बाद भी हम रोते रहते हैं उसने ऐसा कह दिया, उसने ऐसा कर दिया, मेरे पास ये नहीं वह नहीं शिकायतें बस। लिंकन स्ट्रीट लाइट की रोशनी में रात को पढ़ते थे क्योंकि उनका जन्म बेहद ग़रीब परिवार में हुआ था। अमेरिका में दास प्रथा को ख़त्म करने का श्रेय उन्ही को हैं हमारे पास हर चीज के लिए बहाने होते हैं क्योंकि हमारे पास मज़बूत लक्ष्य नहीं हैं। एकाग्रता नहीं हैं हमारे अंदर भटकन हैं, हौसलों की कमी हैं ख़ुद पर यक़ीन नहीं हैं लेकिन हम इन सबके लिए हालातों को ज़िम्मेदार ठहरातें हैं।
नवचेतना के संवाहक, युग विधायक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य में एक नवीन युग के प्रवर्तक थे। जिसे उनके नाम पर द्विवेदी युग की संज्ञा दी गयीं। ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली हिन्दी को काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय उन्ही को हैं, उनका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य हिन्दी भाषा का संस्कार और परिष्कार था। उन्होंने भारतेन्दु युग की भाषागत त्रुटियों को दूर किया।
वे एक लेखक या रचनाकार ही नहीं बल्कि आदर्शो से परिपूर्ण व्यक्तित्व थे जो केवल दूसरों के लिए ही सीमाओं का निर्धारण नहीं करता था बल्कि नियमों, मर्यादाओं का पालन करते थे जो अभिमान से रहित और संयम से बँधा हुआ ज्ञान की पीपासा में लीन था। रेलवे की नौकरी के दौरान उन्होंने अपने लिए सिद्धांत निश्चित किए थे, समय की पाबंदी, रिश्वत न लेना, ईमानदारी से काम करना, ज्ञान की वृद्धि के लिए सतत प्रयास।
सतत अभ्यास से ही उन्होंने तार बाबू होकर भी टिकटबाबू, माल बाबू, स्टेशन मास्टर यहाँ तक कि रेलवे पटरियाँ बिछाने से लेकर सड़क की निगरानी करने वाले प्लेट लेयर तक का काम भी सीखा।
काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने द्विवेदी जी का अभिनंदन किया और उनके सम्मान में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन कर उन्हें समर्पित किया, इस अवसर पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने जो वक्तव्य दिया वह आत्मनिवेदन नाम से प्रकाशित हुआ इसमें वे कहते हैं “मुझे आचार्य की पदवी मिली हैं। क्यों मिली हैं मालूम नहीं। कब किसने दी ये भी नहीं मालूम। मालूम सिर्फ़ इतना ही हैं कि मैं बहुधा इस पदवी से विभूषित किया जाता हूँ। शंकराचार्य, सांख्याचार्य, आदि के समान किसी आचार्य के चरणरज कण की बराबरी मैं नहीं कर सकता हूँ। बनारस के किसी संस्कृत कॉलेज या विश्वविद्यालय में मैंने क़दम भी नहीं रखा फिर भी मैं इस आचार्य पदवी का मुस्तहक कैसे हो गया?”
उन्होंने अपनी पहली पुस्तक श्रीमहिम्न स्रोत की रचना की जो पुष्यदन्त के संस्कृत काव्य का ब्रज भाषा में काव्यरूपान्तर था। इन्होने कालिदास की आलोचना लिखी जो-जो हिन्दी की पहली आलोचनात्मक पुस्तक थी। उनके भावत्मक निबंधो में काव्यात्मक भाषा दिखाई पड़ती हैं। उन्होंने स्थान-स्थान पर संस्कृत की सुक्तियों के प्रयोग से भाषा को प्रभावशाली बनाने में सफलता प्राप्त की हैं। वे मुहावरेंदार भाषा का प्रयोग करने में सिद्धहस्त थे।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के कुछ संग्रह
उनके काव्य संग्रह काव्यमञ्जुषा, सुमन, कविता कलाप। आलोचना-वनिता विलास, कौटिल्य कुठार, साहित्य सीकर, कालिदास एवं उनकी कविता आदि। निबंध-कवि प्रतिभा, कविकर्तव्य, लोभ, कवि और कविता, मेघदूत आदि, मौलिक रचनाएं-कान्यकुब्ज, महिला मोद, अबला विलाप, कविता कलाप। अनुदित-बेकन विचारमाला, शिक्षा, गंगालहरी, रघुवंश, स्वाधीनता। अन्य रचनाएं-संकलन, जलचिकित्सा, अतीत स्मृति, सम्पत्ति शास्त्र।
उन्होंने अर्थशास्त्र, विज्ञान, चिकित्सा, राजनीति, इतिहास, जीवनी आदि से सामग्री लेकर हिन्दी के अभावों की पूर्ति की। हिन्दी साहित्य प्रयाग सम्मेलन ने उन्हें वाचस्वपति की उपाधि प्रदान की थी। उन्होंने सरस्वती पत्रिका का आजीवन सम्पादन करते हुए हिन्दी की महान सेवा की। किशोरी दास वाजपेयी के शब्दों में “उनके विशाल और भव्य कलेवर को देखकर दर्शक पर सहसा आतंक छा जाता था कि मैं महान ज्ञान राशि के नीचे आ गया हूँ।”
शब्द कम पड़ जाते हैं लेकिन क़लम चलते रहने को बरबस हो जाती हैं उनकी विशालता को कागज़ पर उतारने के लिए। धन्य है वह रायबरेली का दौलतपुर ग्राम जहाँ माँ भारती के इस पुत्र ने जन्म लिया। उस मिट्टी को कोटि-कोटि प्रणाम!
मानव अधिकार दिवस
रोटी, कपड़ा और मकान मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताएँ हैं लेकिन हम स्वास्थ्य से जुड़ी अनुकूल परिस्थिति को दरकिनार नहीं कर सकते हैं स्वच्छ पानी, वायु प्राप्त करना भी हमारा अधिकार हैं। स्वास्थ्य सेवाएँ पाना भी हर नागरिक का हक़ हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने १० दिसम्बर १९४८ को मानवधिकार दिवस की सार्वभौमिक घोषणा को अंगीकृत किया था। ऐसा नहीं हैं कि पहले भारत में मानवसमानता या अधिकारों की बात नहीं होती थी।
ऋग्वेद में सर्वे भवन्तु सुखिनः की ही बात की गईं हैं। कलिंग के युद्ध में जो भीषण रक्तपात हुआ, उसके बाद अशोक का हृदय शोकमग्न हो गया। मानवता के इस विनाश से सम्राट अशोक लज्जित हो गये और उसके बाद अपने प्रथम शिलालेख में जीव हत्या न करने का आदेश दिया। द्वितीय शिलालेख में मनुष्य और पशु दोनों के स्वास्थ्य की बात की गईं हैं। सातवें शिलालेख में सभी सम्प्रदाय के लोगों की सभी जगह बसने की बात की गईं हैं। नौवे शिलालेख में अपने दास से भी शिष्टाचार, मानवता के साथ बात करने का आदेश दिया गया हैं।
बादशाह अकबर ने सभी धर्मों का सम्मान किया और सभी जाति वर्गो के लोगों को एक समान माना। हिंदू और मुस्लिम के बीच की दूरियों को ख़त्म करने के लिए दीन ए इलाही धर्म की स्थापना की। द्वितीय विश्व युद्ध में जो नरसंहार हुआ, बच्चे यतीम हुए बेघर हुए इन सबको देखते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने व्यवहारिक रूप से मानवधिकारों की घोषणा की। हमारे संविधान के अनुच्छेद १५ में भी कहा गया हैं कि किसी के साथ भी धर्म, जाति, लिंग, स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। हमें समता, धार्मिक स्वतंत्रता, शिक्षा और संस्कृति, संवैधानिक उपचारों के मौलिक अधिकार दिए गये हैं।
इस प्रकार हर वह अनुकूल दशा जो एक मनुष्य के सुरक्षित जीवन के लिए ज़रूरी हैं, वह प्रत्येक व्यक्ति का हक़ हैं। लेकिन विडंबना ये हैं कि हाशिए पर जीवन जीने वाले या वंचित वर्ग जिसमें अनुसूचित जाति, जनजाति, प्रवासी श्रमिक, शरणार्थी, आते हैं।
दुःख की बात ये हैं कि विकसित देशोकी तुलना में विकासशील देशों में महिला और बालिकाऐं ज़्यादा असुरक्षित हैं वे भी वंचित वर्ग में आती हैं क्योंकि वे भेदभाव, यौन हिंसा, बलात्कार, घरेलु हिंसा, दहेज उत्पीड़न का शिकार होती रहती हैं। पितृसत्तात्मक समाज में औरत को समान नहीं समझा जाता हैं झुग्गी मलिन बस्ती में रहने वाली लड़कियों का जीवन तो और खराब हैं।
R.T.E. एक्ट के अनुसार सभी ६ से १४ वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य एवं निः शुल्क शिक्षा का अधिकार हैं लेकिन दलित, आदिवासी बच्चे विद्यालय में शिक्षक के भेदभाव का शिकार होते हैं, उपेक्षित होने के कारण विद्यालय छोड़ देते हैं।
मानव अधिकार दिवस हमें जाग्रत करता हैकि हम हर इंसान को वह अधिकार दे, जो प्रकृति ने भी सबको समान रूप से दिए हैं। हमें किसी की गरिमा को भंग करने का कोई हक़ नहीं हैं। साथ ही हमें ख़ुद भी ये प्रयास करना चाहिए कि हम वंचित वर्ग को हीन महसूस न कराएँ बल्कि उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने में अपना योगदान देना चाहिए।
बच्चे भगवान का रूप
कहते हैं बच्चे भगवान का रूप होते हैं क्योंकि वह मासूम होते हैं उनमे छल, फ़रेब नहीं होता। उनकी किलकारी हमें तनाव के पल में भी शुकून दें जाती हैं। हम अपने बच्चों को सीने से लगाकर रखते हैं उन्हें कुछ हो न जाए तो फिर वह सिसकियाँ किसकी हैं? वो गुमसुम बचपन मायूस चेहरा किसका हैं? ये कौन हैं जो हँसता ही नहीं? क्या ये किसी के कलेज़े का टुकड़ा नहीं?
एक आम धारणा थी कि लड़कियों के साथ ही दुराचार होता हैं छोटी बच्चियाँ यौन शोषण का शिकार होती हैं जब सत्य ये हैं कि छोटे बालक भी यौन हिंसा का शिकार हो रहे हैं। आख़िर बच्चों के साथ कुकृत्य क्यों हो रहे हैं? चौकाने वाले तथ्य ये हैं कि वारदात को अंजाम देने वाला बच्चों का परिचित ही होता हैं कभी-कभी वह रिश्तें जो मामा चाचा या पिता के ताने बाने से बुने होते हैं। कभी पड़ोस के अंकल, स्कूल का चपरासी, स्कूल बस ड्राइवर… बच्चे के साथ शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, यौन दुर्व्यवहार बाल शोषण की परिभाषा के अंतर्गत आता हैं। परिवार से ज़्यादा सुरक्षित बच्चे के लिए कौन-सी जगह हो सकती हैं लेकिन विडंबना वह भी अब जुर्म की स्थली बन गया हैं। ऐसे वारदात हर दिन होती हैं कुछ केस सामने आते हैं, कुछ अँधेरों में ही गुम हो जाते हैं।
बच्चों की सुरक्षा, उनके कल्याण के लिए पोक्सो एक्ट २०१२ अधिनियम बना जिसके अंतर्गत पहले अधिकतम सजा आजीवन करावास और न्यूनतम ७ साल की सजा का प्रावधान था तेजी से हो रहे बाल यौन शोषण को रोकने के लिए इसमें संशोधन किया गया जिसके तहत अब मृत्यु दंड का भी प्रावधान भी किया गया हैं हाल ही में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में नाबालिग बच्ची से दुराचार और हत्या के आरोपी को पोकसो कोर्ट के तहत मामले में १४० दिन की सुनवाई के अंदर सजा ए मौत दी गईं।
लेकिन क़ानून का डर भी इन मानसिक विकृत लोगों को नहीं हैं। हमें अपने बच्चों को सही और ग़लत के स्पर्श के बारे में बताना चाहिए। कौन से अंग कोई छू नहीं सकता। कोई आपको जबरन गले लगाए या आपको कोई ऐसी सामग्री दिखाए जो अच्छी नहीं हैं, तो आपको उसका विरोध करना हैं अपने बड़ो को बताना हैं। अगर घर के ही किसी सदस्य का व्यवहार आपको अच्छा न लगे तो माँ को बताइये।
बच्चों को चाइल्ड हेल्प लाइन नंबर याद कराना चाहिए। बच्चों को बताना हैं अगर आपके साथ कुछ ऐसा हुआ हैं जो आपको गुस्सा दिलाता हैं या डराता हैं तो डरें नहीं, इसमें आपकी गलती नहीं बल्कि निडर होकर बताओ। हमें बच्चों को तीन साल की उम्र से ही ये बातें समझानी होंगीं ताकि वह सुरक्षित रहे जागरूक रहें। आजकल अनाथ आश्रम, बालसुधार गृह में भी बाल हिंसा हो रहीं हैं। आरोपी वहाँ का संचालक, बॉर्डन, चपरासी, ट्रस्टी ही निकलता हैं। धड़ल्ले से अवैध आश्रम चल रहें हैं जो पंजीकृत भी नहीं हैं इन सबकी रिपोर्ट तैयार होनी चाहिए और जाँच होनी चाहिए क्योंकि यहाँ से मानव तस्करी के भी तार जुड़े हैं।
ये अवैध संस्थाए प्रशासन की निगरानी में रखी जानी होगी ताकि इन्हे रद्द करके कार्यवाही की जा सकें। सुधारगृहो में जिलाधिकारी द्वारा औचक निरीक्षण हो ताकि बच्चों के साथ हो रहें दुर्व्यवहारों के बारे में पता चल सकें और उन्हें बचाया जा सकें। वहाँ भी कॉउंसलर के सेशन होने चाहिए। विद्यालयों में भी ऐसे सैशन हो जहाँ बच्चों को इस विषय पर समझाया जा सकें।
पोस्टर, स्टोरी टेलिंग, एनिमेटेड वीडियो द्वारा बच्चों को बताइये कि अगर आपका शिक्षक भी आपको छूता हैं और आपको अच्छा नहीं लगता हैं या कोई आपको अपने कपड़े उतारने के लिए कहता हैं तो प्रतीकार करें। सहमे नहीं, मदद के लिए आवाज़ लगाइये अपने घर पर बताइए। माता पिता को अपने बच्चों से सहजता के साथ उनकी स्कूल गतिविधियों, पसंद नपसंद के बारे में बात करनी चाहिए। उनसे संवाद करने होंगे ताकि वह कुछ छिपाए नहीं। उन्हे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो, जिससे उनमे आत्मविश्वास विकसित हो।
नेहा अजीज़
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