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मेरे बचपन का गांव (my childhood village)
मेरे बचपन का गाँव (my childhood village) कितना सरल सलोना था।
भोर सुहानी दाना चुगने मोर स्वयं आँगन-द्वारे आता था।
चिड़िया का तो रैन बसेरा घर में ही होता था॥
मेर बचपन का गाँव कितना सरल सलोना था।
तारों की छाँव तले जब माँ की हाथ-चक्की चलती थी,
थोड़े में घर पूरे को तृप्त वह किया करती थी।
वो दादी माँ का दही बिलोना और मेरा ठंडी रोटी पर कच्चा माखन छककर खाना।
चूल्हे पर चढी माटी की हांडी के दही-राबड़ी का स्वाद निराला था।
मेरे बचपन का गाँव कितना सरल सलोना था।
कच्ची मिट्टी के घर-द्वारों में सौंधी ख़ुशबू से दादा-दादी,
चाचा-चाची और बुआ-फूफा जैसे रिश्ते महका करते थे।
सावन की रुत में नीम की मोटी डाल पर झूला जब पड़ जाता था।
बहु-बेटी के बीच का भेद वहाँ ख़त्म हो जाता था।
मेरे बचपन का गाँव कितना सरल सलोना था।
अब ना वह सौंधे से घर-द्वार रहे,
पत्थर के मकान बने वहाँ और पाषाण जहाँ हृदय हुए।
आधुनिकता की चकाचौंध में खो गया मेरा वह गांव।
कितना सरल सलोना था मेरे बचपन का गांव।
भाभा! मेरे दादा जी
मेरे पीहर की फुलवारी का,
माली हमसे रूठ गया,
स्नेहमयी साया नयनों से दूर हुआ।
जिसकी छत्रछाया में,
ये उपवन महका करता,
इस उपवन का रखवाला,
उपवन को बिलखता छोड़ गया।
रोये कलियाँ सिसके फूल,
ढाढ़स अब दिलाए कौन,
‘चांधन’ का वह चन्द्रमा!
झिलमिल तारों को छोड़,
संसार पट से ओझल हुआ।
भाभा! मेरे थे सरल स्नेही,
मीठी थी उनकी बोली,
अब मधुर स्नेही आवाज़ दे,
मुझ ‘गीत’ को कौन बुलाएगा।
नाम से थे ‘तिलोकी’
उनमें समाए तीनों लोक हमारे थे,
ये लोक हमारा सूना करके,
मोह बंधन सारे तोड़,
मुस्कराहट के मोती बिखरे,
भाभा! मेरे अनजाने लोक चले गए।
अब वह मधुर वाणी यादों में ही गुंजेगी,
आँखें अब उनके दर्शन को तरसेगी,
आशीर्वाद भरे हाथों से बोलो ‘गीत’
अब सिर कौन सहलाएगा।
माँ की आँखें ढूँढ रही जीवन साथी को,
अपलक निहार रही जग सारे को,
वो सुख दुःख का साथी क्यों उनसे रूठ गया,
उनका माँझी उनको बीच भँवर में छोड़ गया।
अब किसको उलाहना देगी ‘गीत’
अब कौन लाड लडा़एगा,
चौबारा घर का चुपचाप है,
छड़ी भी ख़ामोश कौने में पड़ी है,
अब कोई सदा नहीं सुनाई दे रही है।
भाभा आप तो निरमोही से जग विदा ले गए,
लेकिन हम मोह आपका छोडे़ कैसे?
इस दिल को समझाए कैसे?
थोड़ा वक़्त दिया होता मुझको,
चिरनिंद्रा में सोने से पहले,
अंतिम विदा लेने से पहले,
‘गीत’ आपसे क्षण भर भी बात कर पाती,
अब कभी नहीं वह पल आएगा,
पोती दादा दोनों ही अब कभी नहीं बतियाएँगे,
यादों की तस्वीरों में ही अब वह क्षण थमे रह जाएँगे।
मैंने ही तो पहली बार दादा कहके बुलाया था,
भाभा कह कर अंतिम बार पुकारने का,
एक बार ही सही अपनी ‘गीत’ को अवसर दिया होता।
मेरे मन मंदिर में छवि आपकी रहेगी शाश्वत,
इणखिया कुल उपवन के हम सभी फूल!
भेंट यही श्रद्धा सुमन करते हैं,
खुशबू से महके आपके जीवन आदर्श हम सबके जीवन में,
संस्कार सदा आपके दमके हम सबके आचरण में।
मेरे पीहर की फुलवारी का,
माली हमसे रूठ गया,
स्नेहमयी साया नयनों से दूर हुआ।
रुक जा घड़ी भर घर पर
रुक जा घड़ी भर घर पर
घड़ी ये मुश्किल बड़ी है
घड़ी भर में ना सही
देर सवेर ये घड़ी भी बीत जाएगी
माना अपनो से दूर है हम
मजबूर हालातों में जकड़े है हम
थम कर ज़रा पिछे पलटकर देख
कुछ पल का है ये विराम
याद फिर से बचपन को कर
बच्चों संग बचपन फिर से जी ले जरा
अपनो का साथ रहे उम्र भर इसलिए
आज उनसे थोड़ी दूरी रख ज़रा
आज फिर से थोड़े में गुज़ारा कर लें
अपनो के लिए अपनी दुनिया
घर तक सीमित कर लें
बीते लम्हो में फिर से जी लें जरा
सुनहरी यादों की घड़ियों का
उल्लास दिल में भर तो ले ज़रा
रुक जा घड़ी भर घर पर
घड़ी ये मुश्किल बड़ी है
घड़ी भर में ना सही
देर सवेर ये घड़ी भी बीत जाएगी
सुख का साथी ना भी बन
दुःख में जो हो आँसू उसके पौछ ज़रा
रोते हुए को मुस्कान दे ज़रा
उम्मीद खोते मन में हौसले की लहर भर जरा
मुश्किल है ये दौर, हारने का है डर
मगर मानव कब हार मानता है
इतिहास यही तो कहता है
जब जब मानव को समय ने आजमाया है
स्वयं समय ने विजयी तिलक
मानव के भाल पर चमकाया है
रुक जा घड़ी भर घर पर
घड़ी ये मुश्किल बड़ी है
घड़ी भर में ना सही
देर सवेर ये घड़ी भी बीत जाएगी
सेनानी हरपल तत्पर खड़े
सम्मुख शत्रु के ढाल से अड़े
खाखी, धवल वस्त्रों में है कर्मशील
भयरहित जान हथेली पर लिए हुए
अनजाने अनगिनत कर्मवीर
हैं डटे हुए और टिके हुए
है कोरोना प्रबल शत्रु समक्ष
लेकिन मानव कब भय खाता है
प्रयासों की ख़म ठोंक
हर शत्रु पर विजय पाता है
रुक जा घड़ी भर घर पर
घड़ी ये मुश्किल बड़ी है
घड़ी भर में ना सही
देर सवेर ये घड़ी भी बीत जाएगी
हर युग में प्रश्न क्यों स्त्री से
हर युग में प्रश्न क्यों स्त्री से,
हर युग में कठघरे में खड़ी क्यों है स्त्री?
दोष नहीं उसका फिर भी,
हर बार हारे क्यों है स्त्री?
तार तार होता आँचल उसका फिर भी,
जवाब उसी पूछे क्यों है? जमाना दंभी।
हर युग में प्रश्न क्यों स्त्री से,
हर युग में कठघरे में खड़ी क्यों है स्त्री?
नींव वह नवजीवन की, ऊष्मा वह परवरिश की,
खोती वही है रिश्ते तप से सिचिंत जिनको किया।
एकाकीपन का भविष्य है मिलता,
तपस्वीनी हर बार प्रताड़ित होती,
फिर भी क्यों त्यागी जाती?
हर युग में प्रश्न क्यों स्त्री से,
हर युग में कठघरे में खड़ी क्यों है स्त्री?
आँखों में उसके सदा अश्रु की धार क्यों है?
हृदय पर उसके होता हर बार आघात क्यों है?
पूजन योग्य मानकर भी होती सदा अस्वीकार क्यों है?
उज्जवल चरित्रवान होकर भी,
समाज में उसका आज भी होता तिरस्कार क्यों है?
हर युग में प्रश्न क्यों स्त्री से,
हर युग में कठघरे में खड़ी क्यों है स्त्री?
ऐ मेरे हमनशी
ऐ मेरे हमनशी तेरी पलको के साये तले
मेरे जीवन के हसीन पल है ये सारे।
ये मस्त नजारे तेरी आँखों से जब हमने निहारे
लगे हमे ओर भी न्यारे ये दिलकश नजारे।
तेरे आने से हमने जाना बहार क्या है?
ये प्यारा प्यार का अहसास क्या है।
रौशन हर राह लगती है
ये ज़िन्दगी तेरे साथ से ही खुशगवार लगती है।
सफर ज़िन्दगी का हसीन हो गया
जब से तू मेरा हमसफ़र हो गया।
चले तुम मेरे हमराह बनकर
लगा जैसे मेरा हर दिन नवरोज हो गया।
जब से तेरा साथ मिल गया
जीवन पथ ये सरल हो गया।
जीने का उत्साह दोगुना हो गया
जब से अनुराग हमें तुमसे हो गया।
हमने हर ख़ुशी तुमसे जब पाई
मेरा हर ख़्वाब तुम्हारा हो गया।
ऐ मेरे हमनशी तेरी पलको के साये तले
मेरे जीवन के हसीन पल है ये सारे।
ये कैसा मंज़र है
ये कैसा मंज़र है,
हर शख़्स हैरान परेशान क्यूँ है।
खो गया अमन और चैन,
फिर भी सत्ता के ठेकेदार आराम से क्यूँ है?
हर रोज़ ख़बर का ये सिलसिला है,
कभी मारी जाती बेटी और
कभी पिटता किसान क्यूँ है।
फिर भी सत्ता के ठेकेदार आराम से क्यूँ है।
मजदूर का कोई ठिकाना नहीं,
कारीगर को कोई काम नहीं,
इंसान को इंसान से कोई सरोकार नहीं।
ये कैसा मंज़र है,
हर शख़्स हैरान परेशान क्यूँ है।
युवा भटकते रोजगार को
तलाश बस दो जून की रोटी की है।
नहीं मिलता इलाज़ गरीब को
दम तोड़ती बस खुद्दारी है।
ये कैसा मंज़र है,
हर शख़्स हैरान परेशान क्यूँ है।
फिर भी सत्ता के ठेकेदार आराम से क्यूँ है।
बहती जा रही जीवनद में
बहती जा रही जीवनद में
कभी ख़ुद से ख़ुद की बात कर।
झाँक कभी अपने भीतर
तलाश स्वयं को स्वयं के भीतर।
तन संवारना याद रहता तुमको
क्या मन का ध्यान रहता कभी।
मोह के बंधन तुझे बाँधते
विस्मृत तुझे स्वयं से करते।
तोड़ इस मोहपाश को
तलाश अविनाशी आत्म को।
मोक्ष प्राप्ति का जतन कर
बहती जा रही जीवनद में
कभी ख़ुद से ख़ुद की बात कर।
भटकाव के रास्ते हज़ार है
मंजिल तक पहुँचा पाए
राह ऐसी कोई तो तलाश कर।
सुकून तुझको अनहद दे
आत्मतृप्ती का प्रयास कर।
ना भटक सांसारिक मायाजाल में
लक्ष्य तक ले जाए तुझे
ऐसा मार्ग कोई तलाश कर।
बहती जा रही जीवनद में
कभी ख़ुद से ख़ुद की बात कर।
जीवनदाता
जीवनदाता होकर भी क्यों भूला दिए जाते है
अपनी ही संतानो का दीया संताप सदा सह जाते है।
अपनी दुआओं में मांगी हिफ़ाज़ततेरी मगर
बेगैरत बच्चों द्वारा धरती के खुदा ठुकरा दिए जाते।
ख्वाबों और ख़्वाहिशों का त्याग जिनके लिए किया
वही बच्चे अपने ख्वाबों के लिए तन्हा माँ बाप छोड़ जाते है।
ना जाने कितनी रातें जिनकी नींद के लिए जागे थे
वही बच्चे ही सदा के लिए जागते रहने की सजा दे जाते है।
बच्चों की तरक्क़ी के लिए जो हाथ मेहनत से ना कतराते थे
वही बच्चे उन हाथों को प्यार से थामने से कतराते है।
बच्चों की आंखों में देखकर हर हाल जो समझ लेते थे
वही बच्चे उन आँखों की उदासी नहीं पढ़ पाते है।
है अजब ये सिलसिला जो बोओगे वही फ़सल काटोगे
आज अगर ये तरसे प्यार को तो कल तुम तरसोगे।
कुछ ख़ास नहीं ये मांगते चाहते थोड़ा वक़्त हमारा है।
कभी इनके साथ दो पल बतिया कर, पास ज़रा बैठना तुम!
हाथ प्यार से थाम कर, गले से लगा कर जरा-सा प्यार बरसा कर देखना तुम!
मुरझाये ये अनुभव के फूल जीने की ललक से फिर महक जाएंगे।
जीवन सांझ मात-पिता की सुहानी कर
अपना फ़र्ज़ जरा-सा निभाना है।
बचपन अपना फिर से अपने ही बच्चों के साये में जी भर जी पाएँ।
हमको बस इतना ही करना है।
मन की वीणा
मन की वीणा का साज लिए
मैं स्वयम् गुनगुनाना चाहती हूँ।
हृदय धड़कन की सरगम पर मैं!
गीत! गीत नया लिखना चाहती हूँ।
पावन पवित्रतम आत्मज्ञान का
आत्मबोध स्वयं ही करना चाहती हूँ।
मन की वीणा का साज लिए
मैं स्वयम् गुनगुनाना चाहती हूँ।
जीवन राग में मधुमास के
आने का आभास करना चाहती हूँ।
प्रेमरस का पान कर मधुर मैं!
मधुप-सी मधुवन में विचरण चाहती हूँ।
मन की वीणा का साज लिए
मैं स्वयम् गुनगुनाना चाहती हूँ।
संसार सागर में भटकते आत्ममोह से विस्मृत
आत्मज्योति की प्राप्ति का आत्मशोधन चाहती हूँ।
आत्मसंतोष और आत्मजय के लिए
आत्मोद्भव का आत्मघोष करना चाहती हूँ।
मन की वीणा का साज लिए
मैं स्वयम् गुनगुनाना चाहती हूँ।
संसार में आना और जाना
संसार में आना और जाना
ना तेरे बस में ना मेरे बस में।
क्या छोड़ जाना है
यह अवश्य है
मेरे और तेरे बस में।
कुछ कर्म ऐसे जिसमें
झलके तेरा उच्च चरित्र।
कष्टमोचन कभी उनका बन
जो आये याचक-सा तेरे दर पर।
दीन दुःखी जो मांगे तेरा संग
हाथ बढ़ा दे देना सहारा उसे।
जीवन का क्या?
एक माटी का खिलौना है
कब हाथ से छूटकर टूट जाए।
समेट सदा पल खुशियों के
गम की शाम आने से पहले।
कर्म ऐसे कर की सबके
दिल में याद बनकर मुस्काए तूं।
जीवन सफ़र में कुछ ऐसा कर
जब याद किसी को आए तो
उनकी आँखों की शबनम में
तेरा अक्स झलक जाए।
खुद के लिए जीते सब है
पराये दिल में जो समाए
जग वही जीत जाए।
जीते जो दिल सबके
अपने दुःख दर्द भूल के
इंसान वही जो ईमान पर मर मिट जाए।
संसार में आना और जाना
ना तेरे बस में ना मेरे बस में।
क्या छोड़ जाना है
यह अवश्य है
मेरे और तेरे बस में।
ना आना इस देश में बेटी
ना आना इस देश में बेटी
यहाँ कोई ना समझे तेरा दर्द बेटी!
जन्म से पहले ही मार दी जाएगी।
अगर जन्म लिया भी तो
कली कोमल कुचल दी जाएगी।
हर पल सहमी घबराई-सी
माँ! तेरी कब तक तेरा
संरक्षण कर पाएगी।
ना आना इस देश में बेटी
यहाँ कोई ना समझे तेरा दर्द बेटी!
घर, गली, मोहल्ले में
हरजगह तेरी अस्मत
के छुपे बैठे लुटेरे है।
इंसान के नकाब में
लिपटे दरिन्दे है।
ना आना इस देश में बेटी
यहाँ कोई ना समझे तेरा दर्द बेटी!
अपने रक्षण और संरक्षण का
दायित्व वहन स्वयं तुम्हें! ही
करना है।
दुर्गा और चण्डी सी
बनकर रक्तबीज का
वध तुम्हें ही करना है।
ना आना इस देश में बेटी
यहाँ कोई ना समझे तेरा दर्द बेटी!
तेरे रक्तपिपासु ही
है किसी न किसी माँजाये ही।
बहन उनकी भी कोई
लेती होगी बलाएँ भी।
ना आना इस देश में बेटी
यहाँ कोई ना समझे तेरा दर्द बेटी!
अब बस इतना करना
माँ! और बहन! मेरी
पुत्र पैदा होते ही
संस्कार सदा ये पहला करना
हर माँ! बेटी का आदर
अपनी ही माँ और बेटी-सा कर पाए
संस्कार सदा ऐसा ही देना।
ना आना इस देश में बेटी
यहाँ कोई ना समझे तेरा दर्द बेटी!
बेटियाँ
चिड़िया-सी चहकती बेटियों के पंखों को परवाज दो।
मेंहदी-सी महकती बेटियों को खुलकर महकने का अहसास दो।
छोटे छोटे ख़्वाब बुनती बेटियों को ख्वाबों का खुला आकाश दो।
खेल खिलौने से मन बहलाती बेटियों को हौसले का विश्वास दो।
हिरनी-सी कुलांच भरती बेटियों को संसार का खुला क्रीड़ांगण दो।
छोटी छोटी-सी इच्छा से खुश होती बेटियों को आकाक्षांओं का विस्तारित अम्बर दो।
देखना एक दिन ये हौसले की उड़ान भरकर,
आसमान पर अपनी सफलता का परचम लहराएगी।
केवल अपने ख़्वाब ही नहीं, आकांक्षाओं का विस्तारित अम्बर पाकर
गर्व से सर हम सबका ऊँचा कर दिखलाएगी।
आभासी दुनिया
आभासी दुनिया का हुआ मानव जीवन पर ये कैसा प्रहार है।
खेल खिलौने सब छूट गए संगी साथी सब दूर हुए।
फेसबुक और वाट्सऐप में सब मसरूफ़ हुए।
पारिवारिक उत्सव आँखों से ओझल हो गए।
इवेन्ट आयोजित होते पटल आभासी पर।
मन तरस गया दो पल आपस की बातों को।
बातें होती अब लिखे हुए कुछ चंद संदेशो में।
खेल-कूद सब भूल गए, पबजी के आनंद में मदहोश हुए।
दादी-नानी की अब कोई सुनता नहीं कहानी है।
इनका मन तरस गया सुनने को अब हमारी वाणी है।
परिवार के लिए समय नहीं, खो रहे अनमोल समय इस आभासी माया जाल में।
बच्चे भी अब उलझ गए, इस आभासी दुनिया में कहीं खो से गए।
दिन रात लगे हुए तकनीकी खेल खिलौनो में।
सन्नाटा पसरा रहता है घर आँगन में,
कहना सुनना भी होता अब उंगलियों के इशारो पर।
माना तकनीकी ज्ञान ज़रूरी है, पर इतनी निर्भरता इस पर ज़रूरी है?
आभासी दुनिया का हुआ मानव जीवन पर ये कैसा प्रहार है।
सियासत का ये दौर कैसा
सियासत का ये दौर है कैसा?
जब राजधर्म ही है अवचेतन।
सरकार मस्त बंद दरवाजो में,
जनता से रहा अब कोई सरोकार नहीं।
सत्ता के समीकरण बिगडे़ ख़ुद अपने प्यादो से है।
अवसरवादी लूट रहे, लोकतंत्र की अब इज्ज़त है।
सियासत का ये दौर है कैसा?
जब राजधर्म ही है अवचेतन।
भुगत रही है आम जनता,
ओर नेता के हृदय से कुर्सी का मोह नहीं जाता है।
सत्ता के लोभी ये नेता नहीं,
ये सबके सब रंगे हुए सियार है।
सियासत का ये दौर है कैसा?
जब राजधर्म ही है अवचेतन।
मत देकर भी बेचारी जनता! मजबूर है।
नैतिकता से नेता! का,
अब रहा नहीं कोई नाता नहीं।
नेता! तो बस नेता! है,
और पाँच वर्ष तक सिर्फ़ अपना घर भरता है।
सियासत का ये दौर है कैसा?
जब राजधर्म ही है अवचेतन।
गला घोंट कर लोकतंत्र का,
स्वार्थ की रोटी सेक रहे है।
दमन अपनी आत्मा का करके,
भारत! को भी बेच रहे हैं।
सियासत का ये दौर है कैसा?
जब राजधर्म ही है अवचेतन।
कहाँ? है अब सिद्धांतो पर अपना जीवन देने वाले।
लाल बहादुर और अटल सरीखे
राजधर्म वीर अब कहाँ?
जिन्होंने राजधर्म के निर्वाहन में,
ठोकर मार दी सत्ता सुख को।
सियासत का ये दौर है कैसा?
जब राजधर्म ही है अवचेतन।
कृष्ण
मन कृष्ण, तन कृष्ण
सांसो का अनुराग कृष्ण।
कृष्ण प्यास, कृष्ण तृप्ति
कृष्ण नयनों की अनुरक्ति।
कृष्ण विश्वास, कृष्ण आभास
प्राणो का आधार कृष्ण।
कृष्ण मीरा, कृष्ण राधा
कृष्ण बिना जीवन है आधा।
कृष्ण साज, कृष्ण राग
कृष्ण से संगीत सारा।
कृष्ण भक्ति, कृष्ण शक्ति
प्रकृति का हर रूप कृष्ण।
कृष्ण भोग, कृष्ण त्याग
संयम का अनुसरण कृष्ण।
कृष्ण ज्ञान, कृष्ण गीता
संसार का मर्म कृष्ण।
हर कृष्ण, जप कृष्ण
जय कृष्ण, जय-जय कृष्ण
मन! हर पल जप कृष्ण।
अन्तर्मन
मुझे प्रेरित करता मेरा अन्तर्मन,
चल अपनी जीत का बिगुल बजा।
कुछ ऐसा कर, हो नाज़ स्वयं अपने पर।
माना राह बहुत कठिन है,
चलना अभी बहुत दूर तक है।
मत घबरा मेरे मन,
तपश्चर्या नहीं सरल है।
अभी तो आरंभ हुआ सफर,
पथ में पत्थर भी आएंगे।
कांटो से पथ परिपूर्ण हो,
तुम! ना रूकना ना ठिठकना।
बस चलते रहना, ना थमना,
मंजिल स्वयं मिल ही जायेगी।
अभी तलक तो यूं हि भटक रहे थे,
उद्देश्यहीन जीवन राह में।
प्राप्त हुआ अब जीवन को एक उद्देश्य,
अब ना तुझको ठहरना है।
ना ही क़दम पीछे हटना,
चलते चल बस चलते चल।
मुझे प्रेरित करता मेरा अन्तर्मन है,
चल अपनी जीत का बिगुल बजा।
कुछ ऐसा कर, कि नाज़ हो स्वयं अपने पर।
दीपा चौहान (गीता इणखिया)
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