अब तो मैं भी लिखूँगा
अब तो मैं भी लिखूँगा: बेड के बगल में मेज, मेज के ऊपर 10-20 किताबें, किताबों के ऊपर बैग, बैग के ऊपर पर्स, पर्स के बगल में पहिए के आकार में लपेटा हुआ बेल्ट, पेन, पेंसिल, पेंसिल–कटर और भी बहुत कुछ, मेज के नीचे ट्रॉली बैग। दूसरी ओर बेड पर मच्छरदानी, कुछ धुले कपड़े, कुछ प्रेस कपड़े, दर्जन भर तकिया, चादर, और भी न जाने क्या-क्या। बेड के नीचे कोई सात आठ अलग–अलग चीजें पड़ी हुई थीं।
सुबह उठते ही यह नजारा देखकर मन अशांत हो उठा। पिछले तीन दिनों से दो कमरों में अलमारी निर्माण का कार्य चल रहा था जिसके कारण उन दोनों कमरों का भी सामान शेष कमरों में शिफ्ट किया गया था। मन बेचैन हो उठा कि कैसे इन सारी चीजों को सुव्यस्थित तरीके से रख लें ताकि कोई भी देखे या इन कमरों से गुजरे या इन कमरों को महसूस करे तो तरोताजा हो उठे। सभी वस्तुएं एक से बढ़कर एक थीं। सबके अपने-अपने कार्य थे जो अत्यंत उपयोगी और महत्वपूर्ण थे।
लेकिन उनका इस तरह से बेहतरीब होना सबको निरर्थक की संज्ञा प्रदान कर रहा था। सच में सर्जना का कार्य बहुत ही पीड़ादायक होता है। मगर इस दर्द को वही समझ पाता है जो सर्जना की प्रक्रिया में शामिल होता है। चाहें वह मां हो, प्रकृति हो, शिक्षक हो या लेखक। इसी उधेड़बुन में था कि बिटिया ने फोन पकड़ाते हुए कहा कि घंटी बज रही है।
“हेलो!”
“नमस्कार! कैसे हैं?”
“जी प्रणाम! ठीक हूं।”
“कार्यशाला के लिए लिंक सभी साथियों को भेज दिया जाय। अन्य साथियों से भी बात कर आवश्यक तैयारी कर ली जाय।”
“जी बिल्कुल, बस चाय पी लूं।”
मैने इस तरह जवाब दिया जैसे चाय सामने मेज पर ही रखी हो।
दरअसल बात यह है कि शैक्षिक संवाद मंच उत्तर प्रदेश द्वारा शिक्षक साहित्यकार प्रमोद दीक्षित मलय के संपादन में ‘मेरी शिक्षकीय यात्रा’ नामक आत्मकथा विधा आधारित एक साझा संग्रह शीघ्र प्रकाश्य है। हमेशा की तरह मंच द्वारा लेखकों को प्रशिक्षित करने के लिए शाम साढ़े चार बजे से एक आनलाइन प्रशिक्षण का आयोजन किया गया था जिसमें डॉ. मुरारी झा द्वारा “लेखन की बुनियाद : देखना, समझना और व्यक्त करना” विषय पर शताधिक शिक्षकों से संवाद होना था।
शिक्षक पढ़ाएं या लिखें, शिक्षक क्यों लिखें, शिक्षक क्या लिखें, शिक्षक कैसे लिखें, शिक्षकों के लेख किसको पढ़ना चाहिए, क्या शिक्षकों के लेखों का संज्ञान लिया जाना चाहिए, इन सवालों के तह तक जाना शिक्षा, शैक्षिक व्यवस्था, बच्चे और समाज सबके लिए बहुत आवश्यक है। ठीक 4.30 बजे शाम को प्रशिक्षण आरंभ होते ही प्रमोद दीक्षित मलय द्वारा प्रशिक्षक डॉ० मुरारी झा का परिचय देते हुए स्वागत किया गया।
मुरारी सर ने बड़ी शालीनता और सहजता के साथ विजयादशमी के अवसर पर इतने सारे लोगों को जोड़ने के पीछे कहानियों के महत्व के साथ अपनी बात शुरू की। आपने साहित्य को लोगों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने, उनके बीच सामूहिकता के विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बताते हुए दलित साहित्य, राष्ट्रवादी साहित्य और स्त्री साहित्य का सटीक उदाहरण दिया।
“जिस देश में 28 करोड़ से अधिक बच्चे पढ़ रहे हों, एक करोड़ से अधिक शिक्षक पढ़ा रहे हों वहां शिक्षा और शिक्षकों के बारे में शिक्षकों द्वारा लिखी किताबें गिनने पर हाथों की अंगलियां भी पूरी नहीं होती हैं। यह शिक्षा व्यस्था का दुर्भाग्य है कि शिक्षा के बारे में एक ऐसा व्यक्ति लिख रहा है जिसका शिक्षा से कोई लेना देना नहीं है। और इससे भी अधिक दुर्भाग्य यह है कि इन्हीं पुस्तकों को आधार बनाकर नई नीतियों का निर्धारण किया जा रहा है।
सोच कर देखिए कि एक फ्लाइट का मेंटेनेंस उस इंजीनियर को करना हो जिसे उसी फ्लाइट में यात्रा करना है तो उसके कार्य की गुणवत्ता कितनी उच्च स्तर की होगी। शिक्षा के बारे में शिक्षक से बेहतर कोई नहीं लिख सकता क्योंकि जब वह लिख रहा होता है तो उसका वजूद दांव पर लगा होता है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के रूपरेखा-2005 में स्वीकार किया गया कि कोई भी शिक्षा व्यवस्था अपने शिक्षकों की गुणवत्ता के बाहर बिल्कुल नहीं जा सकती है। नई शिक्षा नीति-2020 भी स्वीकार करती है कि हमें शिक्षण के पेशे में अत्यंत प्रतिभाशाली लोगों को आकर्षित करने का प्रयास करना चाहिए।”
“अरे! शिक्षकों का लेखन इस स्तर तक शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित कर सकता है क्या? तो क्या लेखन के माध्यम से किसी व्यवस्था में भी गुणात्मक परिवर्तन किया जा सकता है?”
“बिल्कुल किया जा सकता है। महिलाओं के बारे में जब तक पुरुष लिखते रहे तब तक उनके सौंदर्य, कोमलता आदि का ही जिक्र अधिक किया गया। लेकिन जब महिलाओं ने महिलाओं के बारे में लिखना शुरू किया तब समानता, स्वतंत्रता, कंधे से कंधा मिलाकर चलने के भाव का विकास हुआ और आज महिलाओं के प्रति समाज के दृष्टिकोण में जो बदलाव हुआ है वह सब आपके सामने है। इस संदर्भ में फ़्रांसीसी लेखिका सिमोन डी ब्यूवोइर की किताब द सेकेंड सेक्स को पढ़ा जा सकता है।”
“चलिए, यह बात तो समझ में आई कि शिक्षकों का लिखना जरूरी है। मगर शिक्षक लिखें तो क्या लिखें?”
“सीखना और सिखाना दोनों ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया है। जो व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया से गुजरता है वह निर्माण के पश्चात खुद को एम्पावर्ड महसूस करता है। शिक्षक की स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। कौन है जो सिर्फ पुस्तक लेखन के लिए दो-तीन वर्ष शिक्षा के क्षेत्र में काम करे। शिक्षक बच्चों की आवाज को सबसे नजदीक से सुनता है। यदि शिक्षक बच्चों की आवाज लिखेगा तो वह सर्वश्रेष्ठ लिखेगा। बाकी जो भी बच्चों की आवाज उठाता है वह बहुत दूर से उठाता है। शिक्षक को अपने अनुभवों को दर्ज करना है क्योंकि उसके अनुभव सबसे शानदार, प्रामाणिक और उपयोगी हैं। यह रिफ्लेक्टिव नोट आगे चलकर बहुत उपयोगी होने वाला है।”
“ये अनुभव तो तमाम अलग-अलग आयामों में होते हैं। दिन भर छोड़िए, एक ही कक्षा में शिक्षक कई सारे अनुभवों से गुजरता है। तो इन अनुभवों के मध्य सामंजस्य कैसे स्थापित करें?”
“लिखते समय शिक्षक को यह विचार दिमाग से निकाल देना चाहिए कि वह जो लिख रहा है बहुत साधारण है। जो चीज आप लिखते हैं वह आपके लिए साधारण हो सकती है लेकिन पढ़ने वाले के लिए वह प्रेरक और उपयोगी हो जाती है। “अ थाउजेन्ड स्पेलेन्डिड् सन्स”, अफगान मूल के अमेरिकी लेखक खालिद हुसैनी का 2007 में रचित एक चर्चित उपन्यास है जिसमें उन्होंने अफगानिस्तान के बारे में साधारण सी बातें लिखी हैं मगर वह हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और विशिष्ट हो जाती है। ऐसे ही शिक्षक को अपने अनुभवों को नियमित रूप से दर्ज करते रहना चाहिए।
कुछ समय पश्चात जब आप उसे पढ़ेंगे तो उसके मध्य स्वयं ही पैटर्न बनते दिखाई देंगे और तब आप उसको एक महत्वपूर्ण पुस्तक के रूप में रि-प्रोड्यूस कर पाएंगे। यदि इन बातों को तारीख के साथ दर्ज करें तो आपके पुस्तक की ऑथेंटिसिटी और अधिक बढ़ जाएगी।” इधर कमरे में धीरे-धीरे अलमारी के खंड तैयार हो रहे थे। मै देख पा रहा था कि किस खंड में बेल्ट रखना है, किसमे बैग और किस खंड में प्रेस किये हुए कपड़े। अपने कमरे को व्यस्थित करने की राह पर चल पड़ा था मैं। संवाद जारी था, “लेकिन एक शिक्षक जिसने न तो कभी कुछ लिखा और न ही लिखने के बारे में कुछ सोचा वह लिखना कैसे शुरू करें?”
“एक शिक्षक इसलिए भी विशेष है क्योंकि वह ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल की भूमिका में है। एंटोनियो ग्राम्सी की यह अवधारणा शिक्षक की भूमिका को समझने में उपयोगी है। लिखने के लिए कुछ बातें अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। इनका क्रमबद्ध अनुसरण करके बेहतर लिखा जा सकता है। जैसे–पढ़ना, अवलोकन, समझना और चिंतन करना फिर व्यक्त करना।”
“शिक्षक तो पढ़ाने के लिए प्रायः पढ़ते ही रहते हैं। फिर लिखने के लिए हमें क्या पढ़ना चाहिए?”
“सर्वप्रथम ऐसी पुस्तकों का चयन करना चाहिए जो शिक्षकों द्वारा लिखी गई हैं। इसमें गिजुभाई बधेका की पुस्तक ‘दिवास्वप्न’ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मुझे तो लगता है कि जिसने गिजुभाई को नहीं पढ़ा वह कैसे पढ़ा सकता है? तेत्सुको कुरोयानागी की तोत्तो–चान, कृष्ण कुमार की बच्चेकी भाषा और अध्यापक , एस्टन वार्नर की टीचर आदि महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं जिन्हें लेखन शुरू करने से पूर्व अवश्य पढ़ना चाहिए। इस क्रम में आप रिफ्लेक्टिव डायरी ब्लॉग को भी पढ़ सकते हैं। इसके बाद दूसरा काम है अवलोकन। यह तो यह तो शिक्षक के लिए आम बात है।
शिक्षक का सामान्य अवलोकन पढ़ने वाले के लिए बहुत खास होने वाला है। शिक्षक अपने दैनिक जीवन में किए गए अवलोकन के प्रति चिंतन करता ही है। बस समस्या है इन चीजों को नोट करने की। नोट करने के प्रति शिक्षकों में एक रिजेक्शन सा रहता है। इस स्थिति से निकलने की जरूरत है। आप नहीं लिखेंगे तो आपके बारे में कोई और लिखेगा और फिर वही नरेटिव समाज में जाएगा जो वास्तविकता से बिल्कुल परे होगा। लोग आपके बारे में वैसी ही धारणा बनाएंगे। उसी के आधार पर पॉलिसी बनेगी और फिर वह पॉलिसी जब आपके ऊपर थोपी जाएगी तब आप कहेंगे की यह व्यावहारिक नहीं है। इन चीजों से बचना है तो शिक्षक को लिखना ही होगा।”
इधर बेड पर कुछ गंदे कपड़े भी पड़े थे। इन्हें धुलने का समय हो चुका था। कुछ धुले कपडे रखे थे। उन्हें प्रेस भी करना होगा। कुछ जो अनुपयोगी वस्तुएं हैं उन्हें घर से हटाना भी पड़ेगा। तभी शायद मेरा कमरा व्यवस्थित हो पाएगा।
“विकसित हो रही तकनीकी के साथ शिक्षक कैसे सामंजस्य स्थापित करें?”
“तकनीकी ने तो लेखन को और आसान बना दिया है। बोलकर लिखना, त्रुटियों को सुधार करना आदि कार्य में तकनीकी मदद ली जा सकती है।”
“शिक्षक एक और समस्या से प्रायः जूझता हुआ दिखाई पड़ता है। शिक्षक के सामने एक तरफ प्रशासनिक मशीनीकरण की बेड़ियां है तो दूसरी तरफ सीखने-सिखाने के स्वच्छंद और स्वतंत्र माहौल की आवश्यकता। इन दोनों के बीच शिक्षक कैसे सामंजस्य स्थापित करे?”
“शिक्षक प्रशासनिक ढांचे का एक हिस्सा है, बल्कि आखिरी हिस्सा है। मैक्स वेबर के अनुसार प्रशासन कंट्रोल और सबोर्डिनेशन के आधार पर कार्य करता है। इससे बचना मुश्किल है। अगर आप इसे निकलने का प्रयास करेंगे तो आप अपनी फाइनेंशियल सिक्योरिटी गंवा देंगे। इस द्वंद्व के बीच अवसर तलाशने ही होंगे।”
“यदि शिक्षक लिखने लगे तो उसके लिए क्या संभावनाएं हैं और वह शेष समाज को कैसे प्रभावित कर सकता है?”
“एक शिक्षक से पूछें कि वह क्यों लिखता है तो उसका प्रायः यही जवाब होता है कि वह अपने लिए लिख रहा हैं। यह उचित भी है। पहले स्वयं के लिए लिखिए और धीरे-धीरे आपका लेखन प्रभावी और धारदार होता चला जाएगा। एक एथलीट बार-बार दौड़ता है और अंततः ओलंपिक पदक तक पहुंच ही जाता है। आपका लेखन पाठ्यक्रम डेवलपमेंट के लिए, व्यवस्था निर्माण के लिए, असेसमेंट के तरीकों को डेवलप करने के साथ ही नीति निर्धारण में भी उपयोगी हो सकता है। इसके अतिरिक्त लेखकों के लिए देश और दुनिया में तमाम तरह की संभावनाएं भी उपलब्ध हैं। बस नियमित और एक ईमानदार कोशिश की आवश्यकता है।”
सत्र चल रहा था। मैं कमरे के एक कोने में बैठे–बैठे अपने घर को व्यवस्थित होता हुआ महसूस कर पा रहा था। अलमारी बन चुकी थी। जूते, कपड़े, किताबें, पेन, तकिया, चादर, बैग, बेल्ट और घर की लगभग सभी वस्तुएं एक व्यवस्थित स्वरूप में दिखाई पड़ रही थी। शायद आप भी मेरे इस सुव्यस्थित घर को देख पा रहे होंगे। देख नहीं तो महसूस तो कर ही पा रहे होंगे। सत्र पूरा हो चुका था। पड़ोस के मंदिर के की सायंकालीन आरती के मंगल स्वर कानों में घुलने लगे थे।
दुर्गेश्वर राय
लेखक शैक्षिक संवाद मंच उ.प्र. के संयोजक हैं। गोरखपुर
मोबाइल नं-7905664495
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