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एक थे भोंदू राम
भोंदू राम सचमुच भोंदू थे। उसके इस भोंदूपन के पीछे उसके माता-पिता का पूरा-पूरा हाथ था, जिन्होंने उसे प्रेम, सत्य, परोपकार आदि जीवन-मूल्यों की घुट्टी पिलाई थी। वह खटमल तक को मारना पाप समझता था। दूसरों का दुःख देखकर उसका मन रो पड़ता, दूसरों की ख़ुशी को अपनी ख़ुशी मान खुश हो जाता। उसकी शिक्षा उतनी ही थी जिससे उसे एक नौकरी मिल गई और उसका जीवन यापन होने लगा। वह ठीक समय पर कार्यालय जाता और ठीक समय पर वापिस आता। वह संतुष्ट जीव था और इसी लिए बुद्धुराम था।
वह मानवता में विश्वास करता था। ईश्वर से डरता था। सत्संगति में बैठता था दूसरों के आड़े वक़्त में काम आता था। कई बार तो वह दूसरों की लड़ाई बचाव करते हुए पिट भी चुका था। वह साहसी भी था। महल्ले में आए चोर को उसी ने पकड़ा था। एक एक्सीडेंट में घायल आदमी को अस्पताल पहुँचाने के कारण उसे काफ़ी परेशानी उठानी पड़ी थी। लेकिन वह अपने काम से पीछे नहीं हटा वह दुखियों का मसीहा था। वह आशावादी था। कुल मिलाकर वह वहीं अब्दुल्ला था, जो दूसरों की शादी में दीवाना बना नाच रहा था।
उसका जीवन समतल गति से चल रहा था। वह अधिक तरह शांत रहता था, लेकिन उसके मन में सुख दुःख के भाव उठते रहते थे, वह इनसे मुक्ति पाना चाहता था। अपनी व्याकुलता को शांत करने के लिए उसनेे धार्मिक पुस्तकें चाट डालीं। संतों के प्रवचन सुनने लगा। और अब वह एक सच्चे गुरु की तलाश में था। एक दिन जब वह सवेरे की सैर कर रहा था, तो उसने पार्क के एक कोने में कुछ लोगों को बातें करता देखा। सभी लोग बड़े उत्साह से किसी महात्मा जी की बात कर रहे थे जिनका कल ही उनके नगर में शुभागमन हुआ था।
भोंदू राम की जिज्ञासा भी बढ़ने लगी, उसे लगा कि शायद यह महात्मा उसकी कुछ सहायता कर पाएँ। वह ही उन लोगों के पास जाकर खड़ा हो गया और उनकी बातें सुनने लगा। एक सज्जन के पास एक समाचार पत्र था, जिसमें उन महात्मा का चित्र और परिचय छपा था। भोंदू राम ने भी यह सब पढ़ा। प्रभावित हुआ। सोचने लगा कि मुझे भी इनकी संगति में करनी चाहिए शायद मेरा भी उद्धार हो जाए अब तक भोंदू राम ने किताबें चाटने में दीमक को भी मात दे दी थी लेकिन दुनिया की किताब का एक भी पन्ना पलटकर नहीं देखा था। उसे एक पछतावा-सा होने लगा। अब तक जो नहीं पाया था, उसे पाने के लिए उसका मन दुगुना, तिगुना विकल हो उठा।
वे कल्पना-जगत में उड़ान भरने लगे और जब वास्तविकता के धरातल पर उतरे, तो देखा लोग जा चुके थे। बस अख़बार वाले सज्जन अख़बार पढ़ते बैठे थे। भोंदू राम ने सोचा कि इससे ही इस सच्चे गुरु का अता-पता पूछा जाए। सकुचाते हुए पास जाकर अभिवादन किया। सज्जन उसे पहचान ने की असफल चेष्टा करते हुए बोले, “कहिए, क्या सेवा करूं?”
भोंदू राम ने समाचार-पत्र में छपी तस्वीर की ओर संकेत करते हुए कहा आप इन्हें जानते हैं। वे बोले, “अरे पहुँचे हुए महात्मा हैं, इन्हें भला कौन नहीं जानता? अपने तो मित्र हैं। इसी शहर के हैं। लेकिन आप यह सब क्यों जानना चाहते हैं?” उनकी आंखों में गहरा रहस्य भर आया था। भोंदू राम विनती के स्वर में बोले, “हमारा भी इनसे परिचय करवा दीजिए। आपकी अति कृपा होगी।” अजी कृपा-वृपा छोड़िए। वैसे आप क्या कीजिएगा इनसे मिलकर? “भोंदू राम जी ने सारी बात बताई। सुनकर उन्होंने बड़ी गंभीरता से सिर हिला थे हुए कहा,” वैसे तो अपने मित्र हैं, लेकिन भैया बहुत व्यस्त रहते हैं। बड़े-बड़े वी आई पी मिलने के लिए समय लेते हैं।
अजी, एक बार आप भगवान् को पा सकते हैं, लेकिन इनसे मिलना तो—-“भोंदू राम को अपना मुक्ति-मार्ग बंद हो या नज़र आया। घबराकर बोले,” कैसे भी हो, भाईसाहब, आपको हमारा यह काम तो करवाना ही पड़ेगा। हम आपका यह एहसान—। “” अरे भई, यह एहसान-वहसान तो छोड़िए। लेकिन इनसे मिलने के लिए कुछ दान-दक्षिणा—। आप तो जानते हैं कि मंदिर में भी बिना भेंट चढा़वे के भगवान के भी दर्शन नहीं होते। “सज्जन अर्थ-पूर्ण चुप्पी लगा गए। भोंदू राम भोंदू थे, पर इतने भी नहीं कि नश्वर दौलत के कारण, परलोक सुधारने का अवसर गंवाते। फौरन दक्षिणा सज्जन के हवाले की, जिसे लेकर उन्होंने एक पर्ची भोंदू राम को थमाई और बोले, शाम इसे लेकर कलि-आश्रम में पहुँच जाना, आपका काम हो जाएगा और हम अब चलेंगे।” कहकर वे उठ खड़े हुए। भोंदू राम धन्य हो उठे और उनके प्रति कृतज्ञता दिखाते शीध्रता से घर आ गए।
भोंदू राम घर तो लौट आए, पर आज उनका मन उचाट-सा हो रहा था। बरामदे में समाचार-पत्र पड़ा था। मुखपृष्ठ पर तथाकथित तेजस्वी मुखमंडल था। कैसे-कैसे आरोप नहीं लगाए ज़माने ने इन पर? पर कैसे प्रसन्न दिखाई दे रहे हैं। कुछ क्षण भोंदू राम उन्हें अपलक देखते रहे। अपने जीवन की व्यर्थता का एहसास अब उन्हें पीसने लगा था। चाय पीकर लेट गए। आज उनका मन दफ्तर जाने को नहीं हुआ। आंखें बंद की तो वहीं मुख, वही सपने। समय बिताना कठिन हो गया। कब शाम होगी और कब होंगे गुरु के दर्शन। इसी व्याकुलता में उन्हें पूरा दिन पहाड़-सा लग रहा था।
आख़िर शाम आ ही गई। इधर सूर्य अस्त होने को था, उधर भोंदू राम के जीवन का सूर्योदय होने जा रहा था। पर्ची निकाल कर, पते को फिर एक बार देखा। याद किया और फिर उसे जेब के हवाले कर, कलिकानन की ओर चल पड़े। आश्रम को देखते ही द्वारका पहुँचे सुदामा-सी दशा हो गई। ठगे से खड़े रह गए। अहा! कैसी भव्यता है। ऊंची विस्तृत अट्टालिकाएँ, कांक्रीट के पथ, जिस पर सर्र से गुजरतीं मोटरें, लता-वितानों से सुसज्जित चहारदीवारी। मुस्तैदी से कार्यरत प्रहरी। भोंदू को देखते ही एक ने डपटकर पूछा, “क्या है? यहाँ क्यों खड़े हो, आगे चलो।”
उन्होंने पर्ची जेब से निकाल कर उसे थमाई।”
पहरेदार ने पहले पर्ची को और फिर उन्हें रहस्य भरी मुस्कान से देखा। उसकी दृष्टि अब अर्थपूर्ण हो गई थी। भोंदू राम अब उस दृष्टि का महत्त्व भली-भांति समझते थे। उसे एक नोट थमाया और आश्रम में प्रवेश किया। कितने ही लोगों से पूछताछ कर अंत में वे गुरूजी के पास पहुँचे। गुरूजी एक भव्य सिंहासन पर विराजमान थे। सामने अनेक भक्त जन बैठे थे। उनके चेहरे पर भरे-पूरे पेट की तृप्ति छाई थी। आंखों में एक विशेष चमक थी। चेले चपाटे-उनसे कुछ पूछते, तो वे हंस-मुस्कराकर उसका उत्तर देते। भोंदू राम को लगा कि यहीं हैं वे, जिसकी उन्हें तलाश थी। जाकर, हाथ जोड़कर एक कोने में खड़े हो गए।
काफ़ी देर बाद गुरु जी की दृष्टि उन पर पड़ी। उन्होंने फ़ौरन आगे बढ़ कर साष्टांग प्रणाम किया। गुरूजी प्रसन्न नज़र आए। गंभीरता से बोले, “उठो वत्स! ज़माने के सताए नज़र आते हो। क्या करते हो?” भोंदू राम गद्गदस्वर में बोले, “साधारण जीवन हूँ महाराज। समाज और देश की सेवा करता हूँ। सत्य, अहिंसा का पालन करते हुए परोपकार में जीवन—”। “चुप रहो।” गुरु जी धिक्कार भरे स्वर में बोले। “तभी तो यह दशा है। अरे भाई, पहले अपनी सेवा तो कर लो, देश सेवा को बहुतेरे पडें हैं। प्रजातंत्र में हर कोई देश-देश ही चिल्ला रहा है। छोड़ो इसे। एक से एक बैठे हैं। आत्म-सेवा ही परमात्म सेवा है। नर में नारायण का वास है। आत्मा ही परमात्मा है, लगता है यह बात तुम ने अभी सुनी नहीं। अरे मधुआ! इन्हें बाहर का रास्ता दिखाओ। अब हम विश्राम करेंगे।” भोंदू राम घबरा गए, बड़ी मुश्किल से तो गुरु मिले और वह भी रूठे जाते हैं। अब सुख शांति का मार्ग कौन दिखलाएगा। फौरन गिड़गिड़ाने लगे, “क्षमा करें गुरु वर! अब तक अविद्या में भटकता रहा अब आपकी शरण में आया हूँ। मुझे अपना शिष्य बना कर ज्ञान का मार्ग दिखलाइए।” गुरुजी कृपा भाव से मुस्कराए। बोले, “वत्स, तुम्हारे पश्चाताप में हमें सच्चाई की झलक दिखाई दे रही है। हम तुम्हें अवश्य ही ज्ञान का मार्ग दिखाएंगे, बस इसके लिए तुम्हें कुछ दिन हमारे आश्रम में रहना होगा।” अंधा क्या चाहे, दो आंखें। भोंदू राम प्रसन्न हो गए। सत्संगति और नित्य गुरुदर्शन से उन्हें अपना जीवन सार्थक होता लगने लगा। फौरन ही ऑफिस में एक महीने की छुट्टी की अर्जी दी और मोक्ष साधना में लग गए।
एक महीने बाद भोंदू राम खुशी-खुशी अपने घर जा रहे थे। अब वे समझ गए थे कि स्वार्थ ही सबसे बड़ा परमार्थ है। आत्म सेवा ही परमात्म सेवा है। आत्मकेंद्रित होना ही सबसे बड़ा योग है। आत्मचिंतन ही सबसे बड़ा ध्यान है। दूसरों के मामलों में टांग न अड़ाना, सबसे बड़ी समझदारी है। उनके सभी दुःख दूर हो गए थे, उन्हें जीने की एक प्रशस्त और कर्मभरी राह मिल गई थी। अपनी ढपली अपना राग ही अब उनका अनहद था। जीवन जीने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद उनके अस्त्र थे। अब जीवन अपने पूरे आकर्षण के साथ उनके सामने था। मोहल्ले के लोगों से नज़रें चुराते वे अपने घर में प्रविष्ट हो गए। नए ज्ञान का प्रवाह उनके मन-मस्तिष्क में उमड़ रहा था। बिस्तर पर जाकर पड़े, तो आँख कब लग गई, पता भी नहीं चला।
आधी रात के समय अचानक ही पड़ोस से आता तीव्र रूदन सुनाई दिया। भोंदू राम को याद आया कि उनके पड़ोसी से पिता काफ़ी समय से बीमार चल रहे थे। पड़ोसी की अनुपस्थिति में स्वयं वे कई बार उन्हें दिखाने अस्पताल ले गए थे। अवश्य उन्हें ही—। अपनी आशंका की पुष्टि के लिए उन्होंने कमरे की लाइट ऑफ कर, खिड़की की झिर्री से बाहर झांका। मोहल्ले के कुछ लोग पड़ोसी के घर के बाहर खड़े थे। पहले वाले भोंदू राम ने चप्पल पहन नीचे जाने के मन बनाया कि नए ज्ञानी भोंदू राम ने उन्हें चेताया। जीवन तो नश्वर है, मृत्यु अनिवार्य है। जो हो गया सो हो गया। अब तू जाकर क्या कर लेगा? इसी समय उनके दरवाजे पर दस्तक पड़ी और किसी ने उन्हें पुकारा।
भोंदू राम जी उस पुकार को अनसुनी कर फिर से बिस्तर में घुस गए। दो-तीन बार दरवाजे पर फिर दस्तक हुई और उसके बाद भोंदू राम जी ने सुना, “छोडो भाई, बेचारे भोंदू राम जी आज शाम को ही तो वापस आए हैं। सफ़र की थकान से थककर सो गए होंगे, वरना ऐसे समय में वे सबसे आगे रहते हैं। उन्हें आराम करने दो।” और वे चले गए। भोंदू राम जी ने चैन की सांस ली और चादर तान कर सो गए। सुबह काफ़ी देर से उठे। नीचे झांका तो सब जा चुके थे। अब वे आश्वस्त थे। दुःख सुख से परे जाने का उनका सपन साकार हो गया था। उनका जीवन सार्थक हो गया था।
माँ तो माँ ही है
जैसे ही पूसा रोड के चौराहे पर, हनुमान जी की विशाल प्रतिमा के सामने से स्कूल बस ने मोड़ काटा, वैसे ही मुक्ता ने सुंदरकांड के गुटके को बंद कर अपने पर्स में रख लिया और हनुमान जी को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। इतने में ही बस स्कूल के सामने पहुँच कर रुक गईऔर बच्चे एक दूसरे से बतियाते नीचे उतरने लगे। सबके बाद वह भी उतरी और अटैंडेस लगा स्टाफ रूम में चली गई। मुक्ता की बस स्कूल टाइम से दस पंद्रह मिनट पहले ही आ जाती थी। इस लिए स्टाफ रूम में रखे ताज़ा अखबारों पर वह एक सरसरी नज़र डाल लेती।
लेकिन आज उसकी निगाह पेपर में छपी एक फोटो पर ठहर गई। यह किसी की तेरहवीं के कार्य क्रम की सूचना थी। फोटो उसे जानी पहचानी-सी लगी। किसी उषा गोखले के निधन और शोक सभा की सूचना थी। नाम पढ़ते ही उसे सब याद आ गया। आज से पच्चीस साल पहले का अतीत उसकी यादों में सजीव हो गया। भावेश की याद हो आई।
तब उसने इस विद्यालय में नया-नया जॉयन किया था। स्कूल बस से आती जाती। भावेश भी इसी बस से स्कूल आता। उससे दो स्टाप पहले चढ़ता। भावेश, छठी कक्षा में पढ़ने वाला, एक कमजोर-सा बच्चा था। एक दिन मुक्ता और उसके साथ जाने वाली टीचर ने देखा कि भावेश अपने प्लास्टिक के लंच बॉक्स को जोर-जोर से हिलाकर अपने आस-पास खड़े बच्चों को दिखा रहा था, उसमें रखा स्टील का चम्मच बज रहा था। बच्चे उसका लंच बॉक्स छीनना चाह रहे थे। “क्या हो रहा है वहाँ?” मुक्ता ने एक सीनियर छात्र से पूछा। वह बोला, “मैम, आज भावेश लंच लाया है और यह बात सबको अपना लंच बॉक्स बजा-बजा कर बता रहा है।” बड़ी अजीब-सी बात थी।
सभी बच्चे लंच लाते ही हैं। इसमें बताने की क्या बात है। मुक्ता और उसकी साथी अध्यापिका कुछ समझ नहीं पाईं। उनकी दुविधा देखकर सीनियर छात्र ने बताया, “मैम, भावेश कभी लंच नहीं लाता। उसकी मम्मी उसे कभी लंच नहीं देतीं। दूसरी मम्मी हैं न” दूसरी मम्मी शब्द सुनकर मुक्ता ने उस छात्र को डाँटती हुई नजरों से देखा। वह”सॉरी मैम” कह अपनी सीट पर चला गया। लेकिन मुक्ता के मन में एक अजीब-सी बेचैनी होने लगी।
स्कूल पहुँचते ही मुक्ता ने भावेश को बुलवाया। वह डरा-डरा-सा आया। “आज लंच में क्या लाए हो भावेश, ज़रा दिखाओ तो।” भावेश लंच बॉक्स पीठ के पीछे छिपा रहा था। मुक्ता के बार-बार कहने पर ही खोलकर दिखाया। वह खाली था। उसमें केवल एक चम्मच था, जिसे बार-बार बजा कर वह अपने साथियों को अपने खाना लाने का सबूत दे रहा था। मुक्ता का मन भर आया। उसने उसे अपना लंच बॉक्स दिया। लेकिन बारह बरस का वह स्वाभिमानी किशोर, इसके लिए कतई तैयार नहीं था।
लेकिन मुक्ता भी मानने वाली नहीं थी। बड़े बेमन से भावेश ने खाना ले लिया। “तुम्हारे घर में कौन-कौन है भावेश।” मुक्ता ने प्यार से पूछा तो उसने बताया कि उसके घर में मम्मी-पापा और एक छोटी बहन है। उसके पापा सरकारी कर्मचारी हैं। । उसने अपने घर का पता भी बताया। घर आकर जब मुक्ता ने यह बात अपनी सासू मांजी को बताई तो उनकी आँखें छलछला आईं। सफेद धोती के पल्ले से आँसू पोंछते हुए बस इतना ही बोलीं, “अरे, बे माँ का छोटा-सा बच्चा कितना दुःख झेल रहा है।” और फिर उन्होंने मुक्ता की ओर देखा। दोनों की आँखे एक ही बात कह रही थीं। एक ही बात की सहमति प्रकट कर रही थीं और अगले ही दिन से मुक्ता के बैग में एक और लंच पैकेट बढ़ गया। वह उस पर भावेश का नाम और कक्षा लिखकर स्कूल के बरामदे में रखे बैंच पर रख देती। वहाँ और भी बच्चों के लंच पैकेट रखे होते थे। लंच-ब्रेक होने पर बच्चे उन्हें वहाँ से ले लेते थे। ब्रेक होने पर मुक्ता ने छिपकर देखा कि भावेश ने वह पैकेट ले लिया था और अपने दोस्तों के साथ, खेल के मैदान में बनी सीढ़ियों पर बैठकर खा रहा था।
घर जाते ही अम्मा जी ने इस बाबत पूछा और सारी बात जानकर खुश हो गईं। उनके चेहरे पर आई संतुष्टि को देख मुक्ता को भी खुश थी। लगभग तीन वर्षों तक यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा। जब कभी मुक्ता छुट्टी पर होती, तो भावेश का लंच नहीं पहुँच पाता। अम्मा यह सोचकर परेशान हो जातीं कि आज बेचारा बच्चा भूखा रहेगा। उन्होंने इस समस्या का समाधान भी ढूँढ निकाला। उन्होंने मुक्ता को सुझाव दिया कि वह भावेश को बता दे कि जिस दिन मुक्ता स्कूल न जाए, उस दिन वह स्कूल से लौटते हुए मुक्ता के घर आकर भोजन कर ले। यह उपाय काम कर गया। अब सब खुश थे। जब भावेश घर पर आता, अम्मा उसकी पसंद का खाना बनातीं और उसे ज़िद कर-करके खिलातीं। उसकी आवभगत में कोई कसर नहीं रखतीं। उनका वात्सल्य बेजोड़ था। मुक्ता तो देख-देख कर हैरान होती।
एक बार भावेश पांच दिनों तक स्कूल नहीं आया। उसकी कक्षा-अध्यापिका से पूछने पर पता चला कि वह बीमार है। मुक्ता ने जब अम्मा को उसकी बीमारी के बारे में बताया, तो वे बेचैन हो गईं। रोज़ मुक्ता से कहतीं, “चल बहू, उसे घर जाकर देख आते हैं। पता नही, उसका ठीक से इलाज़ हो भी रहा है या नहीं?” मुक्ता नहीं जाना चाहती थी। दूसरे के बच्चे पर बिना बात इस क़दर अधिकार जताना उसे ठीक नहीं लग रहा था। लेकिन वह नहीं मानीं तो एक दिन वे दोनों भावेश से मिलने उसके घर गईं। उसका घर मुक्ता के घर के पास ही था। वहीं उसकी माँ, उषा केलकर से उनकी भेंट हुई। वह एक साधारण-सी घरेलू महिला थीं। लेकिन उन दोनों का आना उसे अच्छा न लगा, यह बात उसके व्यवहार से साफ़ झलक रही थी। भावेश के पिता भी अजीब-सी दुविधा में दिख रहे थे। भावेश को वायरल हो गया था। अब वह ठीक था।
दो-एक दिनों में वह स्कूल जाने लगेगा, उसकी माँ ने बताया। अम्मा को यह सुनकर तसल्ली हो गई। लेकिन उन्हें भावेश की माँ का व्यवहार दिखावटी-सा लग रहा था। वह उसे बहुत कुछ कहना-समझाना चाहती थीं लेकिन, मुक्ता ने आँख के इशारे से उन्हें ऐसा करने को मना किया। वह मुक्ता की बात मान गईं तो मुक्ता ने भगवान का शुक्र मनाया॥लेकिन फिर भी चलते समय वे भावेश की माँ और पिता काे उसका ठीक से ख़्याल रखने की हिदायत देना न भूलीं।
इस घटना के छह महीने बाद ही भावेश के पिता का तबादला नागपुर हो गया। जाते समय वह अपने पिता के साथ मुक्ता से मिलने आया। अनेक आशीर्वादों और छोटे-मोटे उपहार देकर हमने उसे भारी मन से विदा किया। उसके पिता को उसका ठीक से ख़्याल रखने को कहा और कहा, “हमें भूल मत जाना, कभी-कभी फ़ोन भी करना।” भावेश ने फ़ोन करने काश्वासन दिया। अब वह नवीं कक्षा में पढ़ने वाला कुशाग्रबुद्धि छात्र था।
अक्सर अम्मा उसे याद करके भावुक हो जातीं। पता नहीं, कैसा होगा बेचारा बच्चा। वे निश्वास लेतीं। पता नहीं, उसकी माँ उसका ध्यान भी रखती होगी या नहीं”सोचकर वे परेशान हो जातीं। मुक्ता कहती,” सब ठीक ही होगा अम्मा। आप क्यों बेकार की बातें सोच-सोचकर परेशान हो रही हो। आपका ब्लड-प्रेशर बढ़ जाएगा और आप ही तो कहती हैं भगवान सबका ख़्याल रखता है, उसका भी रख लेगा। अम्मा नाराज हो जातीं, “वह तो ठीक है। लेकिन बेचारे भगवान भी अकेले किस-किस का ध्यान रखेंगे। कुछ हमारा भी तो फ़र्ज़ बनता है कि नहीं। मुक्ता’बेचारे भगवान’ के असंगत मेल में तालमेल बिठाने की कोशिश में लगती तो वे कहती” “भगवान किसी की सहायता का कोई तो निमित्त बनाएँगे ही। ख़ुद थोड़े ही भागे-भागे फिरेंगे।” भगवान दूसरों की सहायता में इधर-उधर भाग रहे हैं, इस कल्पना से मुक्ता की हँसी छूट जाती। अम्मा गुस्सा जाती।
समय के साथ-साथ सारी यादें धुंधली पड़ती गई। मुक्ता अपनी गृहस्थी में रम गई। पच्चीस साल का अरसा सब
बदल देता है। लेकिन आज सब याद आ गया। उसने सोच लिया वह इस शोक सभा में अवश्य जाएगी। भावेश से मिलने की इच्छा इतनी अधिक थी कि आज उसका मन स्कूल से पूरी तरह उचट गया। धर पहुँचते ही शाम का काम निबटाया। फिर बच्चों को ज़रूरी हिदायतें दीऔर शोक सभा में शामिल होने चल दी। चार से पांच का टाईम था। वह थोड़ा पहले ही पहुँच गई। मंच पर उषा जी की तस्वीर थी। कुछ महिलाएँ वहाँ बातें कर रही थीं। मरने वाली के भाग को सराह रही थीं कि उसे कितना योग्य बेटा मिला।
एक अन्य महिला फुसफुसा कर बोली-पता है आखिरी दिनों में तो पागल-सी ही हो गई थी। हर समय चिल्लाना, गालियाँ देना, तोड़-फोड। पड़ोसी तो कितनी बार पागल खाने भेज देने की सलाह दे चुके थे। लेकिन—। “उसकी बात को काट एक अन्य महिला बोलीं,” सुना है पैंतीस लाख का बिल थमा दिया अस्पताल वालों ने। “” जिस माँ ने इसे कभी एक दिन अपना नहीं माना, उसी की सेवा के लिए अपनी अमरीका की शानदार नौकरी छोड़ कर चला आया। आजकल तो अपनी औलाद मुंह फेर लेती है, यह तो सौतेला——। “उसकी बात वहीं रह गई, गायत्री मंत्र पाठ के साथ पंडित जी का प्रवचन शुरू हो गया था। मुक्ता ने आगे की पंक्ति में बैठे लोगों में से भावेश को पहचाना। वह पूरी निष्ठा से विधियाँ पूरी कर रहा था। बीच-बीच में चश्मा उतार रुमाल से आंखें पोंछते भावेश को देख वह भी भावुक हो उठी। शांति पाठ के बाद अब लोग भावेश को सांत्वना देकर जाने लगे थे। मुक्ता भी उठ कर उसके पास पहुँची और उसकी पीठ पर हाथ रखा।” मैम आप”कहते हुए उसकी आंखों में फिर आंसू छलक आए।
मुक्ता भी विह्वल हो उठी।” भावेश, ज़रा एक मिनट”किसी ने उसे बुलाया।” अभी आता हूँ मैम”कहता वह उसकी ओर लपका । मुक्ता कुछ-कुछ सोचती-सी वहाँ बैठी रही।” नमस्ते मैम”एक नितांत अपरिचित स्वर ने उसका अभिवादन कर, पैर छुए। यह एक सौम्य युवती थी।” आप मुक्ता मैम है न। भावेश ने मुझे आपके बारे में सब बताया है। आप सचमुच—। “तभी भावेश आ गया।” मैम, यह मोनिका है, मेरी वाइफ। “मुक्ता मुस्करा दी।” अभी हो न यहाँ? किसी दिन घर आ जाओ। ढेर-सी बातें करनी हैं तुमसे और हाँ, अम्मा भी तुम्हें याद कर रही थीं।”
अगले दिन शाम को वह मोनिका के साथ आया। चाय के साथ ढेर-सी बातें हुईं। अम्मा तो उनको देख कर बहुत खुश हुईं। “तुम तो अमेरिका में हो न?” मुक्ता ने पूछा। “जी मैम, हम दोनों ही वहाँ जॉब में थे, लेकिन अब यहीं रहेंगे। गुड़गांव में नौकरी मिल गई है।” “तुम्हारी छोटी बहन भी तो थी। वह कहाँ है आजकल?” मुक्ता ने जानना चाहा। “वो सिंगापुर में सैटल है। अपने पति और बच्चों के साथ। अभी नहीं आ पाई।” “और तुम्हारे पापा?” मुक्ता ने पूछा। “एक साल पहले पापा का एक एक्सीडेंट में निधन हो गया।” अरे! कुछ पता ही नहीं लगा। “मुक्ता ने बहुत दुख से कहा। एक पल की चुप्पी के बाद भावेश ने आगे बताया” पापा के बाद माँ एकदम अकेली हो गईं। उनकी तबीयत भी ठीक नहींं रहती थी। जबर्दस्त डिप्रेशन में थीं।
हमने उन्हें अपने पास अमरीका बुला लिया, लेकिन यहाँ तो उनकी तबीयत और भी गिरने लगी। उन्हें यहाँ का अकेला पन डराने लगा था। इसलिए हम ने उनके साथ ही इंडिया लौटने का फ़ैसला लिया। “” और मोनिका ने इस पर कोई एतराज़ नहीं किया। “मुक्ता ने हैरानी जताई। आज कल तो यहाँ पर भी बच्चे माता-पिता को बोझ समझने लगे हैं। जिसे देखो, विदेश की ओर भाग रहा है। ऐसे में तुमने तो—।”। “यह सब मोनिका की वज़ह से हुआ। उसने ही कहा, माँ के पास इंडिया आने के लिए। बहुत समझदार है मेरी मोनिका।” उसके स्वर में पत्नी के प्रति गर्व झलक रहा था।
आज के ज़माने में कहाँ होते हैं ऐसे बहू-बेटे। वह यह सोचते-सोचते कह ही उठी, “लेकिन जिस माँ ने कभी तुम्हें अपना—।” “मैम” माँ तो माँ ही होती है। अच्छी-बुरी नहीं। “भावेश बीच में ही भाव भरे कंठ से बोल उठा। उसकी आंखें फिर छलक आईं। मोनिका ने भी मुस्कुराकर उसका मौन समर्थन किया। मुक्ता भी भरे स्वर में बोली” सही कहा बेटा। माँ तो माँ होती है। ” पूरा माहौल एक आस, एक उजास से दमक रहा था।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली
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