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खुशी की चाहत
खुशी की चाहत: राजकुमार अरोड़ा
हर समय खुश रहना कौन नहीं चाहता! खुशी हमारी चाहत है! ख़ुशी हमारी चाहना है पर सिर्फ़ चाहने से क्या होता है? ख़ुशी को अपना नैसर्गिक स्वभाव बनाना होगा, यह कहना जितना आसान है, इस पर अमल करना उतना ही अधिक मुश्किल! जब बरसों से सँजोई अपेक्षायें कुछ ही समय में टूट जाये, अपनों से ही उपेक्षा, तिरस्कार मिले, बहुत मेहनत करने के बाद अपेक्षित सफलता न मिले या किसी स्वजन का साथ एकाएक छूट जाये तो ख़ुशी बरकरार रखने के लिये स्वयँ को अन्दर से मज़बूत कर इसे प्रभु की मर्ज़ी स्वीकार कर अपने अन्दर की खिलखिलाहट को फिर से बाहर लाना होगा।
खुशी तो हमारे मन का एहसास है, भावनाओं कीअभिव्यक्ति है। अपने ही सामर्थ्य के प्रति भ्रामक धारणा व वास्तविकता को स्वीकार न करने की प्रवर्ति ख़ुशी की राह में सबसे बड़ी बाधा है कोई कभी भी सर्वगुणसम्पन्न नहीं हो सकता। अपनी क्षमता का आकलन हमें ख़ुशी देता है व एक भी अक्षमता का एहसास ख़ुशी से दूर कर देता है, गर इसी को स्वीकार कर लें या दूर कर लें तो ख़ुशी फिर से वापस! यह समय निराश होने का नहीं है, आशा चाहे कितनी भी कम हो, निराशा से बेहतर होती है। परछाई से कभी मत डरिये, उसकी उपस्थिति का अर्थ है कि कहीं रोशनी है। साँप सीढ़ी के खेल में निन्यानवे पर साँप काट तो भी जीत की गुंजाइश ख़त्म नहीं होती।
जब सहसा उत्पन्न परिस्थितियाँ अपने बस में ही नहीं हैं, तो उनमें ख़ुशी ढूँढने का, उसे अच्छे से मनाने का अवसर समझ लेंगे, तो हमारे जीवन में बस खुशियाँ ही खुशियाँ होंगीं। खुशियाँ सहेजने में समय लगता है, बिखरने में कुछ क्षण। ख़ुशी तो हमारे मन की ही उपज है, उपजती भी अंदर से ही है। यदि तेज़ मिर्च लग रही हो, थोड़ा-सा गुड़, उसके एहसास को शांत कर देता है, बस अपने अंदर से किसी के प्रति घृणा, नकारात्मक विचार नहीं रखें तो ख़ुद को भी अच्छा लगेगा व क्रोध भी नहीं आयेगा। मन ख़ुशी के एहसास से भर जाएगा। जब तक जीवन है तब तक
तक जीना है तो उदास हो के भी क्यों रहना। योग, मेडिटेशन, पूजा और धार्मिक-साहित्यिक पुस्तकों के पठन, लेखन की अभिरुचि को पूरा कीजिये न! टी वी पर न्यूज़ व मनोरंजन वाले कार्यक्रम देखिये, सोशल मीडिया पर ज्ञानवर्धक जानकारी का लाभ लीजिये। अपने हमउम्र साथियों के साथ मिलते जुलते, बतियाते व घूमते रहिये, समय तो यूँ ही पंख लगा कर उड़ जाएगा व मन ख़ुशी से चहचहाने लगेगा।
खुशी, प्रसन्नता व उल्ल्लास की यह सीढ़ी तो हर एक के पास है, बस पहला पग पहली सीढ़ी पर रख, उसे हर हाल में क़ायम रखते हुए मस्त व आनन्दमग्न होने का अभिनय नहीं करना अपितु रहना है, ऐसे में अभिनय कभी भी लम्बे समय तक नहीं रह सकता और अन्दर ही अन्दर कचोटता है सो अलग। खुशी शब्द ही ख़ुशी का एहसास कराता है चेहरे पर मन्द मुस्कान, मन में उमंग-सी महसूस होती है, हर परिस्थिति मेंअपने को सयंत रखते हुए, सब्र के साथ, खुशी का मन की गहराइयों से अनुभव करना है। कुछ न कुछ कमी तो प्रत्येक में होती है, आसमाँ के पास भी तो ज़मीं नहीं है, ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में रहने वाला चिंतित दिखाई देता है, नींद उससे कोसों दूर होती है, एक दिहाड़ी मज़दूर व उसका परिवार मस्त हो किसी बात पर ठहाका लगा रहा होता है, जमीन पर लेटते ही गहरी नींद के आगोश में चला जाता है।
हमें हर हाल में अपनी खुशियों का हनन नहीं होने देना, मनन कर उसे कई गुना बढ़ाना है। यही बात मेरी एक कविता के अंश में इंगित है-“मंगल पर जीवन सब ढूँढते हैं, जीवन में मंगल ढूँढे तो कोई बात बने, मिल जाये अपार वैभव भी तो क्या, खुशी भी संग मिले, तो कोई बात बने।”
शब्द-निःशब्द या स्तब्ध
शब्द ही तो हैं जब कोई इन्हें बड़े प्यार से कहता है तो सुनने वाला निःशब्द हो जाता है, वह भावातिरेक में इतना भावविभोर हो जाता है, उसे प्रशंसा व आभार व्यक्त करने के लिये शब्द ही नहीं मिलते ओर कभी यही शब्द जब कारण, अकारण दर्प व घमंड के साथ नीचा दिखाने के लिये कहे जाते हैं तो सामने वाला स्तब्ध रह जाता है, हक्का बक्का रह जाता है। बरसों से चले आ रहे आत्मीयता व अपनेपन के रिश्ते ख़ाक में मिल जाते हैं पर जब एहसास होता है कि क्या खो दिया तो समय निकल चुका होता है!
बोलने से पहले शब्द मनुष्य के वश में होते हैं, बोलने के बाद मनुष्य शब्दों के वश में हो जाता है, अतः सोच समझ कर मीठा ही बोलना चाहिए। सच ही तो कहा गया है कि ज़ुबान में कोई हड्डी नहीं होती, पर यह ग़लत और अप्रिय बोलने पर आपकी हड्डियाँ तुड़वा सकती है, एक बात और शब्दों के भी तो अपने ज़ायके होते हैं, परोसने से पहले चख लेने चाहिए। चखने में कमी रह जाने से ज़ुबान कड़वी होने के कारण ही भाई भाई, पति पत्नी, सास बहु, देवरानी जेठानी, जेठानी, ननद भौजाई, माता पिता व सन्तान में, दोस्त-दोस्त में मन मुटाव हो जाता है। रिश्तों की अहमियत भुला दी जाती है। पूरे ब्रह्मांड में ज़ुबान ही ऐसी है, जहाँ एक ही समय में अमृत व विष दोनों विद्यमान रहते हैं।
शब्दों के दाँत नहीं होते, पर ये काट लेते हैं दीवारें खड़ी किये बगैर हमको बाँट देते है। मीठे बोल की दो बूंदे, रिश्तों को पोलियो से बचाती हैं। शब्दों में बड़ी जान होती है, यही आरती, अरदास, अजान, होती है, ये समुन्दर के वह मोती हैं, जिनसे आदमी की पहचान होती है। शब्द ही सब कुछ होते हैं, दिल जीत भी लेते हैं, दिल चीर भी देते हैं। मरहम जैसे होते हैं कुछ लोग, जिनके शब्द बोलते ही दर्द गायब हो जाता है।
शब्द प्यार की बहार है, खुशियों का संसार हैं। शब्द ही तलवार की धार है, सीने को चीरती कटार है। कड़वी ज़ुबान क्रोध की जननी है, क्रोध माचिस की तीली की तरह है, पहले ख़ुद जलती है, फिर दूसरों को जलाती है! यह सही है कि व्यक्ति की वाणी ही उसका पहला परिचय होता है। यदि हम मधुर व हितभरी वाणी बोलेंगें तो दूसरों को सदा आनंद, प्रेम और शांति की अनुभूति होती है। यदि कड़वी वाणी बोलेंगे तो दूसरों को शूल की तरह भेदती है। अगर हम किसी को गुड़ नहीं दे सकते तो गुड़-सी बात तो कर ही सकते हैं। यह वाणी का ही प्रभाव है कि मीठा और-और मधुर बोलने वाला मिर्च का व्यापारी शाम तक सारी मिर्च बेच जाता है और कर्कश और कटु बोलने वाला गुड़ का व्यापारी, गुड़ लिये बैठा रह जाता है। इसलिए कहते हैं कि कठोर वाणी पत्थर से भी ज़्यादा तेज़ गति से टकराती है।
मेरा अपना मानना है कि मानव के जीवन में जितने भी गिले शिकवे हैं, वह आधे से ज़्यादा ख़त्म हो जाएंगे यदि वह एक दूसरे के बारे में बोलने की जगह एक दूसरे के साथ सिर्फ़ क्या और कैसे बोलना है, सीख ले! समय व शब्द दोनों का उपयोग लापरवाही से नहीं करना चाहिए क्योंकि दोनों न तो दोबारा आते हैं, न ही मौका देते हैं।
शक्ति नहीं, शक्ति पुँज हैं हम
मनुष्य की शक्ति का एहसास स्वयं उसके सिवा और कौन कर सकता है? अपने अन्दर की ऊर्जा को तभी जान पायेंगे, जब आप उमंग से भर कर कुछ नया करने की ठान लेंगे। विभिन्न वैज्ञानिकों ने बहुमूल्य खोजों से जहाँ जीवन को इतना आसान बना दिया उसके पीछे उनके अंतर्मन की शक्ति थी, जो एक शक्ति पुंज के रूप में उभरी और वह कर दिखाया जो कभी सबकी कल्पना से परे की बात थी। आज जल, थल, नभ, अंतरिक्ष पूरे ब्रह्मांड में मनुष्य ने अपना अधिपत्य-सा जमा लिया है। यह सब तभी तो सम्भव हुआ जब उसने अपने अन्दर की उस शक्ति को पहचाना, जिसे केन्द्रबिन्दु में रख कर परमात्मा ने मनुष्य का निर्माण किया था।
शक्ति एक एहसास है, एक आभास है, अपने सम्पूर्ण होने के गर्व का, अधूरापन तो टूटन का ही प्रतीक है, उसको हर हाल में, पूरा करने के प्रयास में जुटे रहकर विजय पा कर ही दम लेना है। हम में से कोई भी अपनी आंतरिक शक्ति के बल पर दिखने में अशक्त होते हुए भी बड़ी चुनौती को पार कर एक अलग ही नया इतिहास रच सकता है। अधिक दूर क्योँ जायें, हमें तो हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इसी आंतरिक शक्ति के बल पर ब्रिटिश साम्राज्य से टक्कर ले भारतमाता को स्वाधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराया। हमें स्वयं को सदा यही विश्वास दिलाना है कि हमें समस्याओं के सही समाधान हेतू व आजीवन सुखी रह कर, अद्भुत, अभूतपूर्व, आसाधारण ज़िन्दगी जीने के लिये बनाया गया है। अपने विचारों व भावनाओं के द्वारा ही हम अपने आसपास सकारात्मकता या नकारात्मकता का वातावरण बना देते हैं।
केवल एक शब्द ही हमें जीवन के सारे बोझ व दर्द से मुक्ति दिला देता है, वह शब्द है-प्रेम, हमारे मन में जो भी बनने, करने या पाने की प्रबल इच्छा है, वह प्रेम की वज़ह से ही उतपन्न होती है। यह प्रेम व्यक्तिगत या आपसी भी हो सकता है, देश या धर्म के प्रति भी। यही प्रेम ही तो शक्ति के रूप में प्रस्फुटित होता है। यही कुछ कर गुजरने के हमारे इरादे को मज़बूत कर हर हाल में सफलता की ओर अग्रसर करता है-
बाँधे जाते इंसान कभी, तूफान न बाँधे जाते हैं।
काया ज़रूर बाँधी जाती, बाँधे न इरादे जाते हैं॥
यही इरादा ही मंज़िल तक ही पहुँचा देता है।
कामयाबी की नई इबारत लिख देता है।
हमें तो बस यही करना है, जटिलता में सरलता खोजें, विवाद में सद्भाव खोजें, अवसर तो वास्तव में मुश्किलों के बीच में ही छिपा होता है। यदि हम अनावश्यक छोटी-छोटी बातों को ज़्यादा महत्त्व देंगें तो न अच्छा महसूस कर पाएंगे, न ही कुछ नया रच पायेंगे। कोई भी चीज़ अच्छी या बुरी नहीं होती, सिर्फ हमारी सोच ही उसे वैसा बना देती है। हमें तो अपनी सोच में परिवर्तन कर स्वयं को शक्ति का प्रतीक बन यह एहसास कराना है—
“हम उफनती नदो हैं, हमको अपना कमाल मालूम है।
जिधर भी चल देंगे, रस्ता अपने आप बन जायेगा।”
रूद्रावतार संकटमोचक हनुमानजी को विशाल शक्ति पुंज होते हुए भी, हज़ार योजन का समुन्द्र लांघने के समय नल नील जामवंत आदि को उनकी महान शक्तियों का, जो किसी श्राप के कारण उनको विस्मृत थीं, याद दिलानी पड़ी थी। आज हम भारतीयों को फिर से अपने प्राचीन गौरव को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये अपनी शक्तियों का स्मरण करना होगा, ऐसे हालात में जब पूरा विश्व एक महामारी के संकट से जूझ रहा है।
विश्व में अब पौने पांच करोड़ से ऊपर संक्रमित हैं, १२लाख से अधिक काल के गाल में समा चुके हैं। चीन से उपजी इस महामारी के आगे अमेरिका, रूस, स्पेन, जापान, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, ब्राज़ील आदि महाशक्तियों ने इस के आगे घुटने टेक दिये हैं। भारत में भी यह संख्या संक्रमितों की संख्या ८३ लाख को भी पार कर गई है। मरने वालों की संख्या भी सवा लाख के लगभग है। राहत की बात यही है कि मृत्यु दर ११ प्रतिशत केआसपास ही है। विदेशों में भी कुछ समय संक्रमितों की संख्या में कमी आने के बाद फिर बढ़ रही है। ऐसा ही अब भारत में भी हो रहा है। शीतकाल में इसमें और वृद्धि की आशंका जताई जा रही है।
कोई निदान न मिलने के कारण पहले सब अपने-अपने घरों में पूरी तरह क़ैद थे, अब अनलॉक की स्थिति में व्यापारिक गतिविधियाँ, आवागमन, कार्यस्थल आदि खुलने से राहत मिली है तो थोड़ी-सी लापरवाही से आफ़त बढ़ने की भी पूरी उम्मीद है। कुछ असुर प्रवर्ति के लोगों की नासमझी के कारण हालात भयावह होते जा रहे हैं, प्रशासन पूरी ताकत व ऊर्जा के साथ सामना करने में जुटा है, अतीत में, भारत ने विश्वगुरू बन कर पहले भी गौरव अर्जित किया है, अब भी कुछ वैसा ही करना होगा!
अब सभी को एक शक्ति का स्रोत बन कर जूझते हुए विजय पानी है, अपनी शक्तियों का फिर नये सिरे से स्मरण कर, शक्तिपुंज बन, नया इतिहास ही रच देना है, हम में वह शक्ति है, हम में वह शक्ति है, हम ऐसा कर सकते हैं, कर के रहेंगे, करना ही है।
“कौन कहता है, आसमां में छेद नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!”
तबीयत से उछाला गया यह पत्थर एक नए युग का सूत्रपात करेगा। उठो, जागो, इस बार युद्ध क्षेत्र में नहीं, कर्तव्य निर्वाह के लिये बहुत ज़रूरी होने के अतिरिक्त घर में ही डटे रह कर, आने वाली पीढ़ियों के लिये एक नया विलक्षण और अनुपम इतिहास रच दो!
अन्धेरे चौराहे पर अन्धा कुआँ
आज सच में हमारे देश की परिस्थिति कुछ ऐसी ही हो गई है, किसी को कुछ समझ ही नहीं आ रहा कि सही दिशा में, सही विकास की राह पर कैसे आगे बढ़ा जाये। हर कोई अंधेरे में ही हाथ पांव मारता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस के साठ साल के शासन को पानी पी-पी कर कोसने वाले आज प्रचण्ड बहुमत के बाद भी स्वयं को अजीब परिस्थितियों में उलझा हुआ पा रहे हैं। अपने को दूसरों से अलग कहने वाले अपने ही कार्यकलापों से जनता से अलग होते जा रहे हैं। यह तो सभी विपक्षी दलों का दुर्भाग्य है कि वह तथाकथित अपनी-अपनी चौधराहट की छोटी बड़ी गठरी व अपने-अपने स्वार्थ को ले कर येन केन प्रकारेण “कुछ” पाने की इच्छा में सलंग्न है। इन्हीं की नाकामयाबियों व बिखराव का फायदा उठा कर अच्छे दिन का झांसा दे कर जो सरकार छह वर्ष पहले दो तिहाई बहुमत से आई, अब पिछले वर्ष फिर वही दोहराव होने से इतनी भृमित व आत्ममुग्ध है कि वह अपनी असफलताओं का ढिंढोरा भी सफलता के गायन के रूप में यूँ पीटती है कि जैसे एक दिव्य पुरुष के नेतृत्व में मानो आसमान को धरती पर ही ला दिया हो।
बेरोजगारी पिछले पचास वर्षों की चरम सीमा पर हैं। लाखों करोड़ों को नौकरियाँ मिलना तो दूर, इतनों की तो नौकरियाँ ही चली गईं। जिन किसानों को दुगनी आय का झांसा ही देते रहे औरआज, उन्हीं के लिये बनाये, कृषि कानूनों का लाभ उन्हें सही ढंग से समझा नहीं पा रहे हैं। वही बेचारा मंडी में फ़सल ला कर, सही दाम मिलने की अभिलाषा में, तकनीकी ज्ञान के अभाव के कारण नित नए सरकारी फरमानों से कुंठित हो कर औने पौने दाम पर बेच कसमसाते हुए अपनी क़िस्मत को रोता हुआ घर जा रहा है। सुरसा की तरह रोज़ बढ़ती महंगाई ने तो लोगों का जीना ही दूभर कर दिया है, सब के घरों के बजट गड़बड़ा गये हैं, पहले की जमा पूंजी भी धीरे-धीरे ख़त्म हो रही है, रोज़गार के अभाव में आने वाले कल की सोच कुण्ठाग्रस्त कर रही है, कुछ पेट पालने की खातिर मामूली से वेतन में पूरा समय दे कर काम कर रहे हैं, कुछ को यह भी नहीं मिल पा रहा।
इस वर्ष के शुरू में पूरे विश्व में व्याप्त कोरोना महामारी को हल्के में लेकर मार्च के आख़िर में बिना परिणाम की चिंता किये लॉक डाउन को एकाएक पूरे देश पर थोप दिया जिससे हज़ारों, लाखों मज़दूरों, छोटे व्यापारियों, उद्योगपतियों के आगे रोज़ी रोटी का संकट छा गया। आवागमन के सभी साधनों पर रोक लगा दी गई, बेचारे मज़दूर मरते क्या न करते! मायूस हो सेंकडों किलोमीटर की यात्रा पर पैदल ही चल दिये, इसमें कितने काल कलवित हो गये, सरकार भी यह आँकड़ा बार-बार संसद में प्रश्न करने पर भी नहीं बता पा रही है, गरीबों को तो फिर भी कुछ जगह कुछ मिल गया पर मध्यम वर्ग तो नौकरी व रोजगार, व्यवसाय छिनने से अभी तक सकते में हैं, उसे तो कोई ढंग का झुनझुना भी नहीं मिल पाया जो उसके जख्मों पर मरहम लगा दे।
ऐसी परिस्थितियों से सात माह बाद भी अभी तक देश पूरी तरह उबर नहीं पाया है, अब जब कि कोरोना की रफ़्तार बढ़ रही है, सभी कुछ धीरे-धीरे खुल रहा है तो उद्योग, व्यापार में खरीदफरोख्त होने से कुछ राहत मिली है, पर सरकारी पैकेज के प्रोत्साहन को पाने के लिये इतनी पेचीदगियाँ है, औपचारिकताएँ हैं, जिनके कारण प्रोत्साहन का लाभ सब को नहीं मिल पा रहा है। आज पिचहत्तर लाख के आसपास कोरोना मरीज़ों की संख्या है, एक लाख पन्द्रह के आसपास काल के गाल में समा गये। बस सबसे बड़ी राहत की बात यही है कि ८५ प्रतिशत लोग ठीक भी हुई है। केन्द्र द्वारा राहत देने में अपनी व विपक्षी सरकार का फ़र्क़ व फ़िक्र भी हो रहा है।
कोरोना का सही उपचार नही, कारगर दवाई नहीं, बदलते लक्षण के कारण असमंजस ने आम आदमी के जीवन की दिनचर्या, उसके मनोभावों, भविष्य के प्रति चिन्ता को ही बदल दिया है केंद्र के साथ-साथ सभी राज्य सरकारोँ को अपने किये उपायों की सफलता पर ही सन्देह हो रहा है। पूरी निष्ठा, समर्पण, लग्न, सब के विकास की वास्तविक सोच को आगे रख कर ही कुछ ठोस करना होगा। आश्वासनों की दुकान का शटर तो खुला रख लोगे पर सामान के बिना क्या करोगे?
अभी हाल ही में हाथरस के एक गाँव में जो ह्रदयविदारक घटना घटी, उसमें पहले पुलिस, फिर प्रशासन ने जो सनसनीखेज़ व्यवहार किया, गलतियों पर गलतियाँ दोहराईं गईं, मानवाधिकार आयोग तथा न्यायालय को ख़ुद संज्ञान लेना पड़ा, सयुंक्त राष्ट्र संघ तक इसकी गूंज पहुँची। गैंग रेप या ऑनर किलिंग या अन्य उच्च जाति के लोगों को फ़ंसाया जाना, सभी राजनीतिक दलों द्वारा घड़ियाली आंसू बहा कर अपनी राजनीतिक ज़मीन तलाशने की कुत्सित लालसा, मीडिया द्वारा व्यापक कवरेज करने से मामला भले ही प्रकाश में आ जाये पर महज़ टी आर पी बढ़ाने के घिनौने हथकंडे अपनाने से उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठना, जबर्दस्ती परिवार वालों को बिना बताये आधी रात को प्रशासन द्वारा दाह संस्कार करने को हर बार अलग-अलग कारण से सही ठहराना, नैतिकता की धज्जियाँ उड़ा कर भी अपने को पाकसाफ साबित करना।
सौ करोड़ों के फण्ड से कुछ देशद्रोही संगठनों द्वारा दंगा कराने की साजिश, अपने ख़ुफ़िया तंत्र की असफलता को न मानना, बस अपना हर हाल में गुणगान कराना, घटना के अत्यधिक सर्वविदित होने पर मुआवज़े का मरहम लगा देना, कुछ पुलिस वालों को निलंबित कर लीपापोती करना, एस आई टी गठित करना, फिर मामले को अपने गिरेबान से दूर करने का स्वांग भर सीबीआई से जांच कराना—जनता इन सब क्रियाकलापों की असलियत को जानती है। बिल्कुल ऐसी ही घटना हाथरस से दो सौ किलोमीटर दूर बलरामपुर में भी घटी पर वहाँ एक आरोपी मुस्लिम समुदाय से था, बड़े छोटे विपक्षी दलों को उसमें अपना हित सधता नज़र नहीं आया तो राजनीतिक पर्यटन की आवश्यकता किसी को भी नहीं हुई।
बेचारी पीड़िता वहाँ भी दलित थी व यहाँ भी, भले ही वह दोनों भारत की बेटी थी, पर यहाँ राजनीतिक चश्मा भिन्न था। इस पूरे प्रकरण में हुई भयंकर गलतियों के लिये ज़िम्मेदार जितनी उत्तरप्रदेश की सरकार है, उससे कहीं ज़्यादा केंद्रीय सरकार। कितना अजीब लगता है यह सोच कर भी कि पिछले दिनों कुछ राज्यों में ऐसी ही बलात्कार, जलाने व हत्या जैसी बर्बरता पूर्ण घटनाये हुई जहाँ कहीं पक्ष तो कहीं विपक्ष की सरकार है, पर घटना को गम्भीरता से लेने का पैमाना, सब का अपने-अपने गणित से, अलग-अलग होता है, भिन्न भिन्न होता है, उसमें मानवीय संवेदना, एकरूपता, नैतिकता का दूर-दूर तक कोई स्थान नहीं होता।
लगता है इस हमाम में हम सब वस्त्रहीन है, एक वस्त्रहीन दूसरे वस्त्रहीन के क्या वस्त्र उतारेगा? आज एक आम नागरिक तो अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहा है, वह हतप्रभ, निराश, हताश, किंकर्तव्यविमूढ़ है उसे ऐसा कोई रास्ता दिखाई ही नहीं दे रहा जहाँ वह यह उम्मीद कर सके कि किस अमुक के हाथ में मैं व मेरा हित व मेरा देश सुरक्षित हैं। काले धन को बाहर लाने का हवाला दे कर नोटबन्दी की गई, उससे भले ही कितने हवाला कांड हो गए हों पर काला धन बाहर नहीं आया, हाँ बहुतों का काला धन सफेद ज़रूर हो गया। कुछ हद तक सफलता तो मिली पर अपेक्षित नहीं। जी एस टी को ले कर ख़ुद ही सरकार इतनी बार संशोधन कर चुकी है कि उसका मूल स्वरूप ही खो गया, रोज़ ही इस की आड़ ले कर फ़र्ज़ी कम्पनियाँ बनाने की ख़बर आ रही है। भृष्टाचार ने एक नये तरह के शिष्टाचार का रूप ले लिया है, हर विभाग में बदस्तूर किसी न किसी रूप में जारी है, सख्ती व पारदर्शिता के नाम पर उसका पैमाना और भी अधिक विस्तृत हो गया है।
आज हम एक ऐसे चौराहे पर खड़े हैं, जहाँ अँधेरा ही अँधेरा है और उसी चौराहे पर एक कुआँ भी हैं जो गहन अंधकार के कारण दिखाई नहीं दे रहा है, चाहे अनचाहे, एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ लगाए, नैतिक-अनैतिक, सही-गलत, पाप-पुण्य की चिन्ता किये बिना तात्कालिक लाभ को देखते हुए उसमे गिरते जा रहे हैं, यदि स्वयं को इन सब ने किसी भी तरह नहीं सम्भाला तो सोचो! हम सब का भविष्य क्या होगा! आख़िर हम ने-ने इन्हीं कर्णधारों के हाथ में देश प्रदेश की सत्ता ही नहीं, अपना भविष्य भी सौंपा है, अपना कल सौंपा हैं, बरसों से सँजोये सुनहरी सपनों को साकार होते देखने की चाहत सजाई है, पर इन्होंने अपने कार्यकलापों से हमारा आज ही खराब कर दिया।
आज हमारे सामने विडम्बना यही है कि अपने नेताका, कर्णधार का, जिसे अपने भविष्य की बागडोर सौंपनी है, उस के चुनाव में, यह तो प्रश्न ही नहीं रह कि वोट अच्छे को देना है या बुरे को, बल्कि यह चयन करना है कि हमारी नज़र में कम बुरा कौन है, ज्यादा बुरा कौन? शायद चयन का यही आधार बताता है कि हमारे सँस्कार, हमारी नैतिकता, हमारे आचरण जिस पर हमें मान था, गर्व था, अभिमान था, हमारे देश की प्रतिष्ठा विश्व गुरु के रूप में थी, का स्तर किस भयावहहद तक नीचे गिर गया है!
राजकुमार अरोड़ा गाइड
कवि, लेखक व स्वतंत्र पत्रकार
सेक्टर २, बहादुरगढ़ (हरियाणा)
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