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कर्मशीलता
कर्मशीलता
श्रीमद्भागवत गीता में श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है कि कर्म कर फल की इच्छा मत कर। इसी वाक्य को हमें अपनी ज़िन्दगी में अपनाना चाहिए कि हमें अपने कर्म करते रहना चाहिए बिना सोचे कि इस का फल क्या होगा? मनुष्य की ज़िन्दगी में बहुत सारी अवस्थाएँ आती हैं: बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था। मनुष्य की प्रत्येक अवस्था में उसके कर्म अलग-अलग होते हैं।
जैसे जब मनुष्य एक बच्चे के रूप में जन्म लेता है तो उसका कर्म खेलना, सोना, खाना-पीना बस यहीं तक सीमित होता है। लेकिन जब वह शिक्षा ग्रहण करना शुरू करता है तो वह एक विद्यार्थी के रूप में स्कूल जाता है उस समय विद्यार्थी का मुख्य कर्म शिक्षा ग्रहण करना है उसकी प्राथमिकता शिक्षा प्राप्त करना होनी चाहिए। यदि उस समय एक विद्यार्थी अपने कर्म से पीछे हटेगा तो वह अपने जीवन में कभी भी आगे नहीं बढ़ पाएगा।
विद्यार्थी जीवन पूरा होने के बाद जब मनुष्य युवावस्था में आता है तो हमारा कर्म बदल जाता है। तब हमारा कर्म मेहनत करके, कमाई करना अपने पैरों पर खड़े होना, आत्मनिर्भर होना यही होता है। सही दिशा में मेहनत करना, समाज में फैली बुराइयों से दूर रहना, समय-समय पर स्व-मूल्यांकन करना। युवावस्था में हमारा गृहस्थ धर्म शुरू हो जाता है। हमारा कर्म अपने परिवार का पालन पोषण करना हो जाता है।
वृद्धावस्था में हमें मोह त्याग कर भगवान का नाम जपना चाहिए। कर्म शीलता ही मनुष्य का वास्तविक सिद्धांत है। हमें कभी भी अपने कर्म से पीछे नहीं हटना चाहिए। जो मनुष्य, जो विद्यार्थी अपने कर्म से पीछे हटता है, अपने जीवन में आलस्य को अपनाता है, वह कभी भी सफल नहीं हो पाता। इसीलिए प्यारे विद्यार्थियों! हमेशा मेहनती बनो, कभी भी आलस्य को अपने पास मत आने दो और अपना एक उद्देश्य निश्चित करके उसकी तरफ़ हमेशा अग्रसर रहो।
मीनाक्षी
हिन्दी अध्यापिका
राजकीय (कन्या) वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय मलोट।
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