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किसान
किसान
खुदा के ही भरोसे वह रहा है हर बुवाई में
मुनाफा कुछ नहीं होता यहाँ खेती जुताई में
बहाता खून भी अपने पसीने संग ही देखो
मिले कुछ भी नहीं उसको खेती की इस कमाई में
दिखें नेता किसानों के लिये राजनीति करते ही
खडा है कौन सच में साथ इनके हक़ लडाई में
उठा के फायदा हालात से इनकी मजबूरी का
तिजोरी लोग भरते हैं किसानों की रूलाई में
जमीं को और नीले आसमां को देखता रहता
गिने है रात दिन दो वक़्त की रोटी दवाई में
नज़ारे खूबसूरती के खिले मेहनत से उसकी
उसीके खेत में कुदरत दिखाये मुँह दिखाई में
किसानों संग ही देवेश सुंदर है हमारा कल
भले इनके भला है हम सभी की ही भलाई में
नये साल में
जी रहे थे हम सभी, कैसे इस हाल में
साल गुजरा है बुरा, कोरोना काल में
हो नहीं फिर से, दुआ ऐसी हम ये करें
दें बधाई एक दूजे को, नये साल में
कल ठहर से जो गये, आगे बढते कदम
मिल गये हैं पथ नये, क्या बचा सवाल है
ढूँढ लेता आदमी, सब कष्टों की दवा
बस रहें हम अब सदा ही सुरक्षा ढाल में
शांति सुख हो सभी के, जीवन में सदा
एक नयी उर्जा भरी हो हर एक लाल में
लोग जो खो चुके हैं, अपना सब-सभी
हम सहारा दें, मिला ताल अपनी ताल में
जो बीता है भूल जायें सपना समझ कर
प्रभु सहारा साथ है बस अपने ख़्याल में
नाचिये अब झूमिये, हो बातें जश्न की
फिर ख़ुशी हो फिर मचे जादूई धमाल है
हो नया उत्साह नव अवसर नव हो समय
हो नये संकल्प नई संभावना हर चाल में
आने वाला साल लग जा मेरे तू गले
जग जले यह देख यारी के इस कमाल में
दौर गुजरा है बडी कठिनाईयों भरा
अब नयी देवेश यात्रा, इस नव साल में
आज नये संकल्प बनायें
आज नये संकल्प बनायें
स्वप्न नये एक बार सजायें
ज्ञान सफल हो मानवता हित
वह पथ प्रभु हर समय दिखायें
त्रस्त अभावों से क्यों हम हैं
उत्तर इसका खोज बतायें
अनुभव ने बतलाया हम को
सजग रहें दिन मस्त बितायें
राह सृजित हो लक्ष्य मिलेंगे
आज क़दम हम साथ मिलायें
ठान लिया हमने अब यह तो
भारत माँ का नाम बढ़ायें
बात वही देवेश सुनाता
आपस में बस प्रेम जतायें
आकाश
पंच तत्वों में हुआ एक आकाश है
प्रभु रहे उस पार मन में विश्वास है
दूर अनंत तक दिखे वह हमको कहे
पार जाना छोडकर सब बकवास है
है रहस्यों से भरी दुनिया दूर गर
मनुज को रहती सदा वही तलाश है
रंग नीला आसमानी काला दिखे
इन्द्रधनुष का कौन रंग तराश है
थाह इस आकाश की किसको है पता
यह ज़मीं ही ओढ ली कोई लिबास है
चांद तारे सूर्य रहते आकाश में
फैलता उनकी दया से ही प्रकाश है
उड रहे पंछी गगन में हर एक तरफ
हम उडानें ही भरें तो हर आस है
जो उडे हैं धन नशे में ही रात दिन
वो गिरे आकाश से खजूर तलाश है
वो सितारे देख भटका देवेश भी
क्यूं लगे दुल्हन सजी यह आभास है
पतंग
आसमां में उड रही तरह-तरह की पतंग है
और ऊंची और हो रही लगे ये विहंग है
नाज़ इतराने मचलने का बहुत है इसे अपने
भूल जाती डोर और इस हवा का भी संग है
उत्तरायण सूर्य हो रहे हैं सक्रांति पर्व यह
अब ख़ुशी है बहुत और इस फिज़ा में उमंग है
सर्द मौसम मार डाल देगा इस बार तो मुझे
है गनीमत ये रज़ाई और मेरा पलंग है
यूं गले मिलती लगे सभी पतंगे एक साथ ही
पर गलों को काटती रही जो सबसे दबंग है
जो उडी है दूर आँख से ही औझल हुई कहीं
कब कटी माटी मिली कहे ज़िन्दगी भी जंग है
अब नदी में डूबकी लगा मिठाई तिलों की खा
देखता देवेश जिधर मस्त फैली तरंग है
ये इंतजार
ये इंतज़ार कहाँ करती हैं हसीं बहारें
ख़ामोश ही रहो तुम तो ये नहीं पुकारें
बेखबर ही सही हूँ मैं पर सदा रखी है
हर वक़्त नज़र उम्मीद की सभी कतारें
इस रौशनी की है क्यूं उम्मीद सूर्य से ही
अहमियत दीप जुगनू की भी नहीं नकारें
जो राह में दिखी हर बाधा मिटा सके हैं
वो तोड दें शिलायें दिखी अगर दरारें
ता उम्र धडकता दिल उम्मीद में किसी की
ये ज़िन्दगी सकूँ से दहलीज़ में गुजारें
उम्मीद पर टिकी है सारी यही तो दुनिया
हर काम सफल होगा हर पल यही विचारें
देवेश क्यूं रखे है उम्मीद हर किसी से
पहले ज़रा स्वयं को ठीक से तो सुधारें
देशभक्ति का अथाह सागर
देशभक्ति का अथाह सागर, भरा हुआ सीने में।
मातृभूमि की रक्षा का लक्ष्य, था जीवन जीने में।
स्वाभिमानी वीर प्रताप की, गाथा हम सब गायें।
कुछ अलग ही शान-सी दिखती, मेवाड नगीने में।
सारे शत्रु नाम सुनकर ही, भय से थर्राते थे।
अकबर की घबराहट दिखती, आ रहे पसीने में।
उन्नत ललाट, विशाल कंधे, वह अद्भुत कद काठी।
फिर चेतक की टाप गूंजती, शत्रु को भगाने में।
हर माँ की अभिलाषा है, प्रताप-सा सपूत हो।
जननी बन कर धन्य बने, यही गाती गाने में।
दर्पण झूठ नहीं कहता है
धूल ज़मीं तेरे चेहरे पर तो, दर्पण पौंछने से क्या होगा
अक्स दिखाता है तेरी सूरत, तेरे सोचने से क्या होगा
चेहरे की धूल को ज़रा, साफ़ करके देख ये आईना
दर्पण झूठ नहीं कहता है, उसे कोसने से क्या होगा
आगे बढना ही ध्येय हुआ, जिनका अपने उसूलों पर
डगमगाने उनको पथ से, उनके भौंकने से क्या होगा
फाड दो खंभों को, नरसिंह के नखों की ताकत से तुम
वरना खिसयानी बिल्ली से, उन्हें नौंचने से क्या होगा
देख कर दर्पण में ख़ुद को, उसे तूने क्यों फेंक दिया
हर किरचें में दिखे अब तू, मन मसोसने से क्या होगा
तलवार से ज़्यादा ख़ुद लहराते, जो ताकत घमंड से
मैदान ए जंग में उस शख़्स को झौंकने से क्या होगा
तुम्हारे यारों ने नाप ली कब गले लगकर तुम्हारी गर्दन
अब आस्तीन के सांपों को देख चौंकने से क्या होगा
देवेश को तो आदत लगी हुयी यही सब कहने की
जली हांडी में तुम्हारे अब, कुछ छौंकने से क्या होगा।
सब दिन नहीं एक समान
जीवन की ये रीत तू जान ले इन्सान
यंहा नहीं होते सब दिन एक समान
नये की भी कोई आहट नहीं होती
गुजरे के भी कब रहते हैं निशान
धूप छाँव तो लगे ही रहते जीवन मे
इसीलिए मंजिलें नहीं लगती आसान
अलग-अलग देखिये सारी अंगुलियाँ
साथ बंधे तो देखो मुट्ठी में भरे जान
परिवर्तन तो सृष्टि का नियम ही तो है
अच्छे को गले लगा, बुरे से सावधान
कर्म करते रहना देवेश हर हालात में
ऊंचे शिखर देख, गड्ढों पर नहीं ध्यान
वादा करो
वादा करो तो निभाना तुम भी
हो तुम खफ़ा तो बताना तुम भी
खामोश भी ग़र रहो यूँ ही तुम
पर प्यार को तो जताना तुम भी
तुम हाथ थामे चली हो मेरा
दिल में मुझे तो बसाना तुम भी
मैं तो गली में भटकता तेरी
छत पर कभी नज़र आना तुम भी
मर जाऊँगा ग़र मिली ना तुम तो
मत यूं करो फिर बहाना तुम भी
ना तडफना याद में तुम मेरी
बस छोड देना सताना तुम भी
देवेश ने तो मिटा दी यादें
लिखना ज़रा ये फसाना तुम भी
हसरतें जो थी
हसरतें जो थी हमारी सच में पूरी ना हुई
जिंदगी ने हराया, फिर ज़रूरी ना हुई
बस ज़रा होशियारी हम दिखा भी ना सके
आशिकी में दोस्त! हमसे जी हजूरी ना हुई।
हसरतें टूटी, शुरू पीना हम कर बैठे प्रिये
और कोई भी हमारी आदत बुरी ना हुई
मैं गले भी मिल रहा हूँ, तुम सभी से हंसते
बगल में बस हमारे साहब, छुरी ना हुई
बिछडना तो था मुझे, अरमान लुट गये सारे
जख्म़ खाये बहुत हमने, मगर दूरी ना हुई
हसरतें दम तोडती हैं, पर मैं खुश हूँ दोस्तों
खत्म हुई है यह कहानी, पर अधूरी ना हुई
सोचता देवेश क्यूँ शिकवा नहीं करता कभी
आदतें ही कुछ ऐसी है यह मजबूरी ना हुई।
अन्नपूर्णा तुम हो
अन्नपूर्णा तुम हो घर की चलता तुमसे परिवार है
संकट जब भी गहराया मिटाया कष्ट और भार है
गृहिणी तुम हो घर की जीती हो बस इसके लिये
तुम से ही हो रहा भरन पोषण तुम्हारा आभार है।
दिल द्रवित होता तुम्हारा बन जाती दया की खान
कौन निराश लौटा कभी खडा जो तेरे द्वार है।
रखती हो तुम सदा घर परिवार को एक जोडकर
हर खुशहाल घर का केवल तुमसे ही तो सार है।
अन्न की अधिष्ठातरी बनी रही हो तुम युगों से
परिवार की सेहत ख़ुशी के पीछे बस एक नार है।
नाना भांति के व्यंजनों की तुम तो जादूगरनी हो
तेरे हाथों के खाने से मुँह में पानी ही हर बार है।
जिस घर में तेरी पूजा हो वहीं देवता वास करें
तेरा ही मार्ग दर्शन हम सबको ही स्वीकार है।
धर्म-नीति मार्ग पर चलकर तू देती है संस्कार
हमारे जीवन की माली तू सींचती अमृत धार है।
कह संजय देवेश अन्नपूर्णा हर नारी को नमन
इनको आदर दीजिये हर भवसागर पार है।
इन दिलों में
इन दिलों में बस यही जीने की चाह
साथ हो तुम अगर आसां हो ये राह
हमसफ़र हैं हम चलें एक-दूजे साथ
कौन रोकेगा हमें, किसकी परवाह
ठोकरों ने सबक में दी है मुस्कान
उठ खडे होंगें ख़ुशी से, फिर क्यूं आह
साथ हो तुम मंजिलें क्या लगती दूर
जब थके हैं हम, बढ़ा दी है बांह
लोग जीने ही नहीं देते, हम को तो
देख कर फिर साथ, ये करते हैं डाह
इश्क से जब भी जमाना यह हारा है
चेहरे देखे सभी के, पडते स्याह
साथ दो तुम अगर फिर क्यूं यंहा कोई
तुम बनी ‘देवेश’ की, हर वक़्त पनाह।
कवि सत्य बोलेगा
भरी महफिल में जाने किसने मुझे कवि कह दिया
मैंने फिर जो दिल में था, सच-सच ही कह दिया
खफ़ा हो गये थे मुझसे पहली सफ़ में बैठे लोग
फिर उस हुजूम को ही मैंने, अलविदा कह दिया।
कुव्वते सदाक़त होती है कवि की क़लम में बसी
हूँ शायद समझ के बाहर आपकी, मैनें कह दिया।
बेच रहें हैं अपना लिखा, बाज़ार में दुकान लगा
मेरे अल्फाज़ तो रहे हैं अनमोल, मैंने कह दिया।
हंसते हैं कई हरदम मेरे कमजोर बदन को देख
देखा कर तू मेरी यह क़लम भी, मैनें कह दिया।
वो ढूँढ रहें हैं मात खाकर, उस एक शख़्स को
सच्चा कवि था, जिसने शब्दों से ही शह दिया।
अपनी लिखी इमारतें, दिखायी मुझे गरूर से
चुरा ली हैं तुमने मेरी कुछ ईंटें, मैंने कह दिया।
दो वक़्त रोटी के लिये, खुदा झूठ ना बुलवाये
बुरा लगे तो लगता रहे हजुर, मैंने कह दिया।
दिल और दिमाग़ झलकते हैं, हर कहे हर्फ में
देवेश कवि है, सच बोलेगा ही, मैंने कह दिया।
नये ज़माने की हवा
यह नये ज़माने की हवा है जनाब
हम पुरानों को लगती है खराब
पूछना नहीं कभी हाल तुम इसका
पलट कर देगी कोई उल्टा जवाब।
सही ही कहा है हवा हवाई इसको
उड उड कर दूर तक देखती ख्वाब।
उडा ले गयी है पुरानी सारी बातें
नयी हवाऔं का है अलग रूआब।
अब तो बहरूपिये-सी रंग बदलती
कभी ये हवायें उडाती थीं नकाब।
उडते हैं लोग हवा पर बैठकर अब
तेज, तेज, समझ ख़ुद को नवाब।
पुरानी हवा तो केवल महसूस हुई
अब खुली घुमती, दिखती सहाब।
कभी हवाई किले बने खेल-खेल में
अब हर खेल में है पैसे का हिसाब।
कभी हवाओं में सकूँ बेमिसाल था
अब हवाऔं की खरीद का दबाव।
कभी एक ही हवा बही थी शहर में
अब एक नमस्ते, दुजी करे आदाब।
हवा भी जुर्म वालों के साथ देवेश
हवा में हवा होने की चालें नायाब।
आप इस कदर
आप इस क़दर सकपकाने क्यूं लगे
पूछता हाल, थरथराने क्यूं लगे
थाम कर गले से, लगाया आपको
छोड कर मुझे, लडखडाने क्यूं लगे।
बहुत सोचते थे, तमन्ना दिल लगा
यूँ तन्हाई में, बडबडाने क्यूं लगे।
ख्वाब आपके, बेलगाम दिखे मुझे
वो खडे खडे, हिनहिनाने क्यूं लगे।
बांह में घिरे थे, समझ अपना ही
कैद जो बनी, फडफडाने क्यूं लगे।
पलक में कभी, रोक लेते थे आंसू
आज बेवजह, छलछलाने क्यूं लगे।
रोक कर रखे थे, कई अरमान जो
हो बेकाबू, लपलपाने क्यूं लगे।
देख कर लगा, दुनियादारी मुझे
लोग इस तरह कसमसाने क्यूं लगे।
आखिरी उम्र का, पडाव डराता है
‘देवेश’ जल्दी टिमटिमाने क्यूं लगे।
ज़मानत
मुझे था कब यकीं तेरी महारत पे
कभी सोचा नहीं था इस अदावत पे
सजा भी तो मुझे तूने दिलवायी थी
छुडा कर भी मुझे लायी ज़मानत पे
रखा तूने मेरे दिल को गिरवी जानम
चला जाऊँ नहीं मैं फिर बग़ावत पे
मुझे तो जब मेरे दिल की करनी होती
यही जाना मुझे जीना हिदायत पे
ज़मानत तो मिले है जब सजा ही हो
दिया है तोहफ़ा तूने रफ़ाक़त पे
नचाती है मुझे तू जब जैसा चाहे
जरा यूँ मुस्करा देता शरारत पे
ज़मानत की ख़बर भी क्यूँ दबा दी है
नहीं देवेश को अब यकीं हिफ़ाज़त पे
खोल बाजू
खोल बाजू डरा नहीं करते
सामना कर भगा नहीं करते
जीत मिलती बहादुरों को ही
जो डरा है, मज़ा नहीं करते
हौसलों से मिले यही गगन
जो पडे हैं उडा नहीं करते
उठ दिखा दे जुनून तू सबको
लोग भी तो पता नहीं करते
जालिमों से ज़रा निभा रिश्ता
इश्क में ये भी मना नहीं करते
क्यूँ ख़ामोश हैं वही जानें
जख्म वह भी हरा नहीं करते
टूट देवेश इस क़दर क्यूँ गया
जाम खाली भरा नहीं करते।
ये नहीं गज़ल
ये नहीं गज़ल मेरी किसी के लिये
मैं लिखूं बात दिल की उसी के लिये
वह लजाती शर्माती मेरे सामने
क़लम से मैं कहूँ बात इसी के लिये
इन ग़मो में दुखी मैं कभी हूँ नहीं
शायद मज़बूर हूँ एक ख़ुशी के लिये
यूँ शुरू और यूँ ख़त्म मेरी दुनिया
बस मिटे रात दिन हमनशी के लिये
आज देवेश प्यार में गुम है कहीं
समझना कोशिशें खुदकुशी के लिये
मुर्दों के शहर में
क्या होगा खोखली जडों को सींचने से
जंग खा गये चिराग, व्यर्थ है घिसने से
जी रहें हैं इन्सान, की लेनी है चंद सांसे
मुर्दों के शहर बसे, तैयार हैं बिकने से।
बेबस लाचार लोगों की, बस्तियाँ बसी
सोच रहे हैं बच जायेंगे, आँखें मींचने से
सह-सह कर देखो, रूह कब की मरी
किससे उम्मीद हाथ उठा, मुट्ठी भींचने से।
साथ खडे या चल रहें, अजनबी दूजे से
एकता नहीं होती है भीड के दिखने से
शमशान की शांति भी सकूँ तो देती है
मुर्दों के शहर में, रौनक चमन लूटने से
सर झुकाये सह रहे, जुल्म औ सितम
देवेश इन तिलों में तेल नहीं पीसने से
संजय गुप्ता ‘देवेश’
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