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कविता का सर्जन (creation of poetry)
कविता का सर्जन (creation of poetry)
कविता का सर्जन (creation of poetry): मन के कोमलतम भावों ने
ह्रदय के आहत उच्छवासों ने,
सिसकते हुए गुलाबों ने,
दम तोड़ते ख्वाबों ने,
जब कवि को विकल किया होगा,
कविता का जन्म हुआ होगा।
स्वार्थों की कुत्सित दलदल में,
प्रतिपल धंसती मानवता ने,
वैभव उजियारों के सम्मुख,
निष्प्रभ होती दीपक लौ ने,
जीवन संदेश भरा कोई,
युग हस्ताक्षर किया होगा,
कविता का जन्म हुआ होगा।
ममता के भीगे अंचल ने,
आकुल बिलखाते शैशव के,
रूखे-सूखे से अधरों पर,
रस का संचार किया होगा,
कविता का जन्म हुआ होगा।
पावस की मलय बहार ने,
मधुपों की मधु गुंजार ने,
निर्झर की गति और ताल ने
इठलाती इतराती लहरों को,
तट का आधार दिया होगा,
कविता का जन्म हुआ होगा।
कलिंग धरा की लाली ने,
अणु की भक्षक रखवाली ने,
मनु के प्रियदर्शी मानव को,
करूणा उपहार दिया होगा।
कविता का जन्म हुआ होगा।
या कवि श्रापित व्याध ने फिर,
क्रौंच-युगल को शर से बेधा होगा,
इस शर-बेधन पीड़ा को सह,
भाषा ने प्रसव किया होगा।
कविता का जन्म हुआ होगा।
भाषा
पुण्य धार है यह गंगा की,
कलकल बहता निर्मल पानी।
भाषा पर पहरे मत डालो,
भाषा तो है मन की बानी।
आदि कवि का प्रथम छंद यह
भवभूति की करुण-बयानी।
शिशु की तुतली बोली भाषा
यह नानी-दादी की कहानी।
कवि की अकथ कल्पना यह,
यह है नवयुग की अगवानी। ,
भाषा पर पहरे मत डालो,
भाषा तो है मन की बानी।
भाषा राजनीति न जाने,
मंदिर-मस्जिद न पहचाने,
सबको हंसकर गले लगाती,
सबको प्रेम भाव सिखलाती
रक्तपातों की निंदा करती,
संस्कृति की जय कथा पुरानी
भाषा पर पहरे मत डालो,
भाषा तो है मन की बानी।
भाषा है प्रकृति की व्याख्या
यह है विहगों का कलगान।
मन को तरल-तरंगित करती
सामवेद की मधुरिम तान।
मलय पवन के संग झूमती
फूलों की नटखट नादानी।
भाषा पर पहरे मत डालो
भाषा तो है मन की बानी।
भाषा परिवर्तन की आशा,
भाषा है श्रम का जयनाद।
शोषित मानवता का सम्बल,
अन्यायों का भग्न प्रासाद।
सूरज की उजली किरण है,
है यह अंधकार की हानि।
भाषा पर पहरे मत डालो
भाषा तो है मन की बानी।
हिंदी
हिंदी है भारत की भाषा,
हिंदी है अपनी पहचान।
हिंदी राष्ट्र-प्रगति की द्योतक,
हिंदी से ही स्वाभिमान।
है हिन्दी का वैभव अनंत,
कल्पना का अमित संसार।
यह कबीर की साफ़ बयानी
तुलसी का मानस उद् गार।
यह है प्रेम दीवानी मीरा,
सूरदास की वत्सल धार।
प्रेमचंद का सहज ग्राम्य यह
निराला का शक्ति-हुंकार।
पंत की सुकुमार प्रकृतिबाला,
दिनकर का आक्रोश साकार।
मैथिली शरण की भारत-भारती,
रेणु का आंचलिक-विस्तार।
महादेवी का रहस्यवाद यह,
परसाई का व्यंग्य प्रहार।
हिंदी के आलोक से सारा,
भारत हो रहा देदीप्यमान।
हिंदी है हम सबकी भाषा,
हिंदी है अपनी पहचान।
हिन्दुस्तान के मन भावों को,
अभिव्यक्ति देती है हिंदी।
कुटिया से महलों तक बहती,
भाषा की यह पुण्य कालिंदी।
भाव, ताल, रस से मदमाती,
निज अस्मिता का पाठ पढ़ाती,
राष्ट्रभाषा का गौरव पाती,
मां सरस्वती का है वरदान।
हिंदी है भारत की भाषा,
हिंदी है अपनी पहचान।
इसकी उन्नति, अपनी उन्नति,
प्रचार है इसका धर्म हमारा।
हिंदी जननी, हिंदी सर्वस्व,
तन, मन, धन सब इस पर वारा।
इसके लिए प्राण हैं अर्पित,
आज से यह संकल्प हमारा।
हिंदी का उपवन हो कुसुमित।
सुवासित हों सबके मन-प्राण।
हिंदी है भारत की भाषा,
हिंदी है अपनी पहचान।
हिन्दी राष्ट्र-प्रगति की द्योतक
हिन्दी पर हमें अभिमान।
आस
प्रभु तुम जानत हो सब मन की।
चहुँ ओर दाहक मरूथल है,
आस तुझी से शीतल कण की।
विषय-भोग के नाग विषैले,
मार कुंडली हैं बैठे घेरे।
अपनी अमिय कृपा दे दो,
शरण तुम्हारी चंदन वन सी।
यह संसार अगम सागर है,
मन-पंछी आकुल उड़ता है।
पल भर कहीं ठौर न पाता।
तुम ही नाथ शरण-अशरण की।
कल्पवृक्ष हो तुम तो प्रभु,
करो अभिलाषा पूरी मन की।
संशय, दुविधा सभी मिटाओ,
लगन लगी तव दरशन की।
तुम पारस मणि अमोल,
कोई भेद-भाव न मानो।
जो भी परस पाए तुम्हारा,
आभा हो जाए कंचन सी।
प्रभु तुम जानत हो सब मन की।
पुकार
अंतस में उठी,
आकुल पुकार।
प्रभु दो दरस,
कृपा परस।
पुकार, यह अनवरत है,
अथक है।
इस पर मेरा बस नहीं है।
यह करुण है, दैन्य से परे है।
इसमें आस है, उजास है।
उजास है तेरी अनुभूति की।
आस है भटकाव से मुक्ति की।
वैभव, यश, मान,
नहीं चाहिए मुझे।
चाहिए तेरा साथ।
धैर्य, दृढ़ता, विश्वास।
तर लूँगा यह भवसागर।
जीवन बने सार्थक।
विराम दो व्याकुलता को,
कृपा करो प्रभु।
अर्पण
मन वीणा के
तार झंकृत,
नेह भरा
मन-प्राण अर्पित।
दग्ध मानस-पटल पर,
आश्वास मृदु लेप चर्चित।
तेरी कृपा से प्राप्त जो,
सब शूल वंदित,
फूल वंदित।
नत सिर,
तव चरणों में मैं।
मान अर्पित,
अभिमान अर्पित।
बाँह पकड़
मुझ को उठा लो,
करूणा लहरों में डुबा दो।
मैं चिर प्रतीक्षित।
रहूँ न वंचित।
याचना
हे प्रभु!
महिमा अपार तेरी,
अग-जग तेरा पसारा।
सुख-दुःख में पाया मैंने,
सदा तेरा ही सहारा॥
पकड़ी जो बांँह तेरी,
तूने पार ही उतारा।
तेरी अपार कृपा पा,
मैं तो सर्वस्व हारा।
सिर झुकाए खड़ा हूँ,
याचक ढीट बड़ा हूँ,
बिन लिए न टलूँगा,
दर से नहीं उठूँगा।
रखना दयानिधि अब,
मर्यादा अपने प्रण की,
मंझधार में पड़ा हूँ,
दे दो सबल किनारा॥
दर्शन
जब चली पुरवाई,
किसलय ने ली अंगडाई,
जब चली नदी इतराकर,
पिघली चाँदी से निर्झर,
जब रिमझिम बदली बरसी,
चम-चम चपला चमकी,
फूलों ने इत्र बिखेरा,
तितली ने डाला डेरा,
शावक ने कूद लगाई
विहगों की बजी शहनाई,
सूरज ने आंँखे खोलीं
धरती पर बनी रंगोली,
जब दूब पुलक मुस्काई,
तब जग के सिरजनहार,
मुझे तू ही दिया दिखाई।
धर्म
धर्म है धारना
उन मूल्यों को,
अंलकार हैं
जो मनुज के,
बिना जिनके
जीवन निस्सार है।
आडंबर से दूर,
उदारता से भरपूर,
विवेक पूर्ण, समदृष्टि युत
संयत आचरण ही
धर्म कहलाता है।
कृपा याचना
करूण-अंतर प्रभु,
हम पर कृपा कर।
मिटे जड़ता सारी,
दे चेतना का वर।
अँधेरे हों जहाँ,
वहाँ आलोक भर दे।
पतझर से जीवन को,
मधुमास कर दे।
सद्भाव लें उर में,
चलें सच के पथ पर।
करूण-अंतर प्रभु,
हम पर कृपा कर।
मिटे जड़ता सारी,
दे चेतना का वर।
तृषित प्राणों की तू,
सब प्यास हर ले।
चातक को स्वाति-कण,
तू मधुर दे।
मन में शक्ति और
विश्ववास दे भर।
करूण अंतर प्रभु,
हम पर कृपा कर
मिटे जड़ता सारी,
दे चेतना का वर।
नयनों में समाया,
बस रूप तेरा।
प्राणों में गुंजित,
भक्ति-राग तेरा।
जीवन में अमित
उल्लास दे भर।
करूण-अंतर प्रभु,
हम पर कृपा कर।
मिटे जड़ता सारी,
दे चेतना का वर।
कर्म़युद्ध
जीवन है संधर्षक्षेत्र।
दैन्य, पलायन छोड़ सब।
शंखनाद हो चुका है,
प्रारंभ कर कर्मयुद्ध का,
चेतना और दृढ़ता से,
श्रम की आहुति दे।
समिधा बने उत्साह की,
लक्ष्य तेरा प्रशस्त है।
यज्ञशिखा विजय ललक है।
सद्आकांक्षाएँ प्रबल
देती रहें तुझे प्राणबल।
इस समय तू पार्थ है
कृष्ण तेरे साथ हैं।
अथ है मंगलमय तेरा,
इति हो सुखद,
आशीष मेरा।
ईश्वर
मंदिर, मस्जिद,
चर्च, गुरुद्वारा।
सब में तू है
यह स्वीकारा।
पर झांँक रहा जो
दीन-दुःखियों की आंँखों से।
बुलाता बार-बार तुझे
कातर निश्वासों से,
नर क्या वह
रूप नहीं है तुम्हारा?
प्रभु! अग जग में
जब तू समाया।
फिर क्यों मानव भरमाया?
क्यों घेरों में तुझे बाँधा?
स्वार्थ को बस साधा।
अब चेतना का वर दो
उजला, निश्छल अंतर दो।
हर पीर सबकी हर लो।
दो नाथ, सबल सहारा।
अब कैसा भय
अब कैसा भय?
जब अंतर में,
उजियाला दीप जलाया है।
सिमटी हुई दिशाएंँ सारी,
अब विस्तीर्ण हुई हैं।
नव आयाम दृष्टि ने पाया,
कुछ संकीर्ण नहीं है।
मन नवनीत द्रवित हो उठा,
स्नेह-ताप पाया है।
अब भय कैसा?
जब अंतर में,
उजियारा दीप जलाया है।
आतुर अभिलाषा जाग उठी,
चिर लक्ष्य पाने की,
रह-रह स्मृति मुझे हो आती,
बिछुडे़ हुए ठिकाने की।
कैसे पहुँचे पाखी तुझ तक,
मन सोच-सोच अकुलाया है।
अब कैसा भय?
जब अंतर में,
उजियारा दीप जलाया है।
तू ही बन जा शरण अब मेरी,
मेरी गति-मति तेरी चेरी।
कर गह, अवलंबन दृढ़ दे दे,
विश्वास नवल पाया है।
अब कैसा भय?
जब अंतर में,
उजियारा दीप जलाया है।
पाई तृप्ति और चिर तुष्टि,
पाकर तव पावन मृदु दृष्टि।
कृतज्ञ भाव से विह्वल मन,
छलक-छलक आया है।
अब कैसा भय?
जब अंतर में,
उजियाला दीप जलाया है।
उपलब्धि
जीवन उपलब्धि है।
उपलब्धि नहीं,
भौतिक जड़ की।
प्राप्ति अमोल क्षणों की,
धन्य जीवन को बनाती है।
अमोल क्षण, जो हैं चेतना भरे,
जब भटकाव की मरीचिका
तुष्टि और विराम पाती है।
जब बूंद, सागर में समाहित
होने को अकुलाती है।
इन दुर्लभ आनंदित पलों में,
आत्म-परिचय पा जीवात्मा
संशय रहित हो जाती है।
सामीप्य चिन्मय का पाती है।
अंतर में होता है निनादित,
पल-पल अनहद दिव्य।
विह्वलता की परिणति,
चिरमौन में हो जाती है।
कृपा दृष्टि हो प्रभु तुम्हारी,
तो क्षण ये, उल्लास भरे,
धअमित अकथ, उजास भरे,
जीवन में मेरे चिर हो जाएंँ।
कालुष्य छँटे जीवन का,
अंतर्मन पावन हो जाए।
सानिध्य मिले आराध्य का,
जीवन हो सार्थक जाए।
आदमी और जूता
आदमी और जूते में पुराना नाता है।
जैसे मंदिर के बिना भगवान,
लाला के बिना दुकान,
मीठे के बिना पकवान,
शैतानी के बिना शैतान,
वैसे ही जूते के बिना इंसान,
नजर आता है।
जूते का इतिहास बहुत पुराना है।
सदियों से आदमी इसका दीवाना है।
इब्नबतूता जूते के चक्कर में,
जापान घूम आया था।
वॉस्कोडिगामा और कोलम्बस को भी,
जूते ने ही रास्ता दिखाया था।
बाबर जूता पहन कर ही,
समरकंद से हिंदुस्तान आया था।
अंग्रेजों ने जहाँगीर के जूते सीधे कर
अपना जाल बिछाया था।
कोेहनूर का दाम
महाराजा रणजीत सिंह ने
एक जूता बताया था।
जूता मानव जाति की,
उन्नति का आधार है।
बिना इसके अधूरा शृंगार है।
जूते ने बड़े-बड़े पूंजीपति बनाएंँ हैं।
जूते दिखाकर, ठीक कर करवा कर,
अनेक जीवन की बाजी जीत पाए हैं।
जूता शासन भी चलाता है।
भरत जी को इसने ही
दुविधा से निकाला था।
श्रीराम की एबसेन्स में इसने ही
अयोध्या का राज्य संभाला था।
चाँदी का जूता बड़े काम आता है।
असंभव को संभव कर दिखाता है।
बड़े से बड़ा भूत,
इसकी मार से घबराता है।
लंगोटी छोड़, सिर पर धर पाँव
भाग जाता है।
अभिनय के क्षेत्र में भी इसका कमाल है।
ट्रेजडी और कॉमेडी दोनों में ही,
यह बेमिसाल है।
फ़िल्मी नायक रो नहीं पाता,
मत धबराइए,
उसे कील वाला जूता पहनाइए।
अभिनय में जान पड़ जाएगी।
रोते-रोते दर्शकों की तबीयत बिगड़ जाएगी।
जूता ही फ़िल्म में सस्पेंस बनाता, खुलवाता है।
हीरो हीरोइन की प्रेमकथा को,
क्लाईमेक्स पर पहुँचाता है।
हीरोइन सैंड़िल उठाती है,
हीरो सर झुकाता है
प्रेम परवान चढ़ता है
विलेन जूते पर जूता खाता है।
प्रोड्यूसर ख़ुशी से जूते चटखाता है।
एक जमाना था, लोग जूते को
अंडर-एस्टीमेट करते थे।
मूर्ख थे, बड़ी मिस्टेक करते थे।
अब महिमा इसकी बखूबी जान गए हैं,
इस पॉवर फुल प्रक्षेपास्त्र को,
सीधे टारगेट पर चलाते हैं।
सुर्खियों में जगह पाते हैं।
जूते होते भी तो कितने प्यारे हैं,
मंदिर की सीढ़ियों पर रखे,
स्मार्ट ब्रैंडैड जूते किसका मन
नहीं लुभाते हैं,
इसीलिए तो अक्सर गायब हो जाते हैं।
कुछ लोग अक्लमंद होते हैं
जूते बगल में दाब पूजा कर आते हैं।
एक पंथ दो काज का उदाहरण दे जाते हैं।
जूता अभिनंदन के भी काम आता है,
जूतों का हार पहना”बड़े लोगों” का
जुलूस निकाला जाता है।
जूता आपकी हैसियत की पहचान है।
जूता यदि तगड़ा है, समाज में आपकी शान है।
फटा हुआ जूता आपको मुँह चिढ़ाता है,
आपकी पंक्चर हुई ज़िंदगी की
असलियत बताता है।
आज जूते की मांँग,
बढ़ती ही जा रही है।
सारी दुनिया जूते में ही
समा रही है
आप भी जूते के उपासक बनिए,
सुबहो-शाम उसकी ही महिमा गाइए
उसे सीधा कीजिए, पॉलिश लगाइए,
तकदीर आपकी संवर जाएगी।
परिभाषा ज़िंदगी की बदल जाएगी।
शिक्षक
शिक्षक हूँ मैं,
मैंने अनगढ़ माटी लेकर,
अनगिन दीप बनाए।
स्नेह डाला, त्याग निष्ठा का,
चिनगी आस छुआकर
रखे जब तमस-देहरी पर
ये पुलक-पुलक मुस्काए।
मैं शिक्षक हूँ,
अपने ज्ञान-आंगन में मैंने
अनगिन कुसुम उगाए।
अनुशासन माटी में रोपे,
झंझा, तूफानों से बचाकर,
जगती को महकाया।
मैं शिक्षक हूँ,
संतुष्ट हुआ तब,
जब सत्य और शिव का
मैंने मंगल-शंख गुंजाया।
प्रलय, सृजन में समभाव का
मैंने पाठ पढा़या।
मैं शिक्षक हूँ।
प्रथम वंदनीय भारत
लिखता हूँ मैं गीत कोई भी,
नाम प्रथम भारत का आए।
धरती है यह इतनी पावन,
देव जन्मने को ललचाएँ।
सामवेद की तान गूंँजती,
मुखरित होतीं दिव्य ऋचाएँ।
ज्ञान-भानु की किरणें मनहर,
प्राण चेतना को सरसाएँ।
त्याग, प्रेम, शौर्य गाथाएंँ,
मन में स्वाभिमान भर जाएँ।
गीता कर्मयोग सिखलाती,
नीर-क्षीर का भान कराती।
निज-पर के लघुभेद मिटाकर,
विश्व यहाँ कुटुम्ब बन जाए।
लिखता हूँ मैं गीत कोई भी,
नाम प्रथम भारत का आए।
संस्कृति है अथाह सागर-सी,
हिमगिरि बनाडिग प्रहरी है।
पुण्य सलिला नदियाँ यहाँ पर,
शस्य-श्यामला धरा हरी है।
लड़ आँधी, तूफान, प्रलय से,
रक्षा इसकी सदा करी है।
हम मानव मूल्यों के हामी,
समता निज अंतस लहरी है।
दर्शन, योग, शिल्प, कौशल में,
अपनी सुभग ध्वजा छहरी है।
रंग-बिरंगे सुमन सुसज्जित,
अखंड एकता की डोरी है।
नील गगन में अपना झंडा,
झूमे मुक्त, सदा फहराए।
लिखता हूँ मैं गीत कोई भी,
नाम प्रथम भारत का आए।
सौमित्र
लेखनी आज गुणगान कर,
उस सौमित्र महान का।
राम के प्रिय अनुज का
बल, विक्रम, बुद्धिनिधान का।
रघुकुल के आभामय नक्षत्र
पिता दशरथ के नयनतारे थे।
रूपवान वे गुण निधान,
माँ सुमित्रा के दुलारे थे।
गौरवर्ण था सुभग अति,
श्वेत कमल की-सी थी छवि।
चंदन केसर-सा पावन,
मन था निश्छल दीपित रवि।
शेष नाग के वे अवतार थे,
अन्याय पर प्रबल प्रहार थे
शांत कांत ज्वालामुखी थे
सौम्यता रोष साकार थे।
बसे प्राण श्रीराम में उनके,
प्रतिपल उनका साथ निभाया।
विश्वामित्र यज्ञ रक्षा की।
मारीच-ताड़का को डरपाया।
सीता स्वंयवर में वे भी,
राम संग मिथिला आए थे।
मही हुई क्षत्रिय रहित,
सुन जनक वचन अकुलाए थे।
अभी करें धनुर्भंग राम,
देखे यह समस्त संसार।
रघुकुल शिरोमणि लखन
बोले थे करके सिंहोच्चार॥
गुरु आयुस पा राम ने,
किया था शिव धनुषभंग
पुलकित हर्षित हुए लखन
मन में भरी अपरिमित उमंग।
जब चले राम वनवास को
चले लखन भी साथ।
छोड़ अवध के राजसुख,
प्रिया उर्मिला मोह त्याग।
वन में बने सजग प्रहरी से
सहा शीत, वर्षा और घाम।
हर पल भ्राता का साथ निभाया
लिया नहीं पल भर विश्राम।
सीता हरण का प्रसंग अशुभ,
लक्ष्मण मन को करे व्यथित।
विकल हुई कैसे वैदेही,
सुन राम स्वर कातर भ्रमित।
राम गए स्वर्ण मृग के पीछे,
मान सिया का मृदु मनुहार।
पकड़ लाने को चले उसे,
देने सिया को यह उपहार।
छलना-मृग मारीच बना था
कपट पूर्ण था उसका वेष।
रावण का कुत्सित षडयंत्र,
धारा दुष्ट ने साधुवेष।
स्मृति आज भी है उस पल की
जब भगिनी रावण की आई थी
उस कामातुरा की प्रणय-याचना
राम-लखन ने ठुकराई थी।
अपमानित हो लंकेश को तब,
उसने अपनी व्यथा सुनाई।
सीता हरण की कुत्सित योजना।
उसने तभी बनाई थी।
स्वर्ण-मृग था वह बहुत मनोहर,
इधर-उधर चौकडी़ भर-भर कर,
सीता माता का मन ललचाए।
प्रिया की इच्छा पूरी करने,
राम उसी के पीछे धाए॥
रखना ध्यान सिया का लक्ष्मण,
लखन को आदेश दिया था।
भ्राता की आज्ञा को उन्होंने,
सहर्ष ही शिरो धार्य किया था।
तभी राम का कातर स्वर सुन,
सीता माता अकुलाई थीं।
तात भ्रात है तव संकट में,
लक्ष्मण को शंका बताई थी।
बहुत समझाया था जननी को,
पर आकुल मन नहीं माने बात।
बार-बार करने लगीं लखन पर,
निज वचनों से तीव्र आघात।
होना है जो वह होकर रहे,
नहीं इसमें किसी का दोष।
सहायता हेतु चले भ्रात की,
मान सिया का कातर अनुरो। ध
जाता हूँ मैं भ्रात समीप मात,
रखना तुम बस अपना ध्यान।
छद्म वेष में विचरते यहाँ पर,
मायावी, खल, असुर बलवान।
फिर उन्होंने निज धनुष से,
खींची अग्निमय लक्ष्मण-रेख।
मत करना उल्लंधन इसका,
माँ, यह तव रक्षा-परिवेश।
शंकित मन से चले फिर
वे उसी दिशा की ओर।
जिस ओर से था आ रहा,
स्वर अधीर, कातर घनघोर॥
अभी गए कुछ दूर ही थे
आते देखे भ्रात श्रीराम।
दोनों का माथा ठनक उठा,
कर अमंगल का अनुमान।
लक्ष्मण क्यों आए यहाँ
छोड़ सिया का साथ?
चरण पकड़ कही तब,
सकल कथा बिलखात।
तब बतलाया राम ने
छल मृग मारीच प्रसंग।
दोऊ भ्रात व्याकुल भए,
मन अति व्यथित, सशंक।
सूनी कुटी थी सिया रहित,
विकल राम लखन बिलखाय।
खग, मृग तरू, वन वासिन से
पूछत चले अति अकुलाय।
मिले आहत जटायु से,
पता लगी सब बात।
मुक्ति दे कर उन्हें तब,
आए ऋष्यमूक गिरि पास
भेंट भई श्री हनुमान से
जोहते वे प्रभु की राह।
मैत्री भई सुग्रीव से
मेटा उसका दुःख दाह।
बालि का संहार कर
दिया अभय का दान।
सुग्रीव के निर्देश से,
फिर हुआ सिया संधान।
हर स्थिति में तुमने दिया,
भ्रात राम का साथ॥
परछाईं बन साथ रहे
दिन हो, या हो रात।
रावण के संग युद्ध में
लगा दांव पर प्राण।
प्रबल शक्ति आघात सह
किया इंद्रजीत का घात।
ले राम-जानकी मात को,
लौटे सब अवध प्रदेश।
जय-जय कीशुभ ध्वनि से,
गूंज उठा सकल परिवेश।
सहज भाव से किया सदा,
निज मर्यादा का निर्वाह॥
उर्मिल के प्रिय कांत तुम
तव महिमा अपार अवगाह।
श्रीराम अधूरे तुम्हारे बिना,
तुम बिनअपूर्ण विजय अभियान।
रघुकुल के पावन तिलक,
युग-युग हो तव महिमा गान।
सूर्यवंश की उज्ज्वल कांति,
भ्रात-प्रेम के अप्रतिम प्रतिमान।
सार्थक हुई लेखनी मेरी,
तुम्हें मेरा शतशत प्रणाम्।
वीणा गुप्त
नारायणा विहार, दिल्ली
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