Table of Contents
मन मस्त (Cool Mind) हुआ जब
मन मस्त (Cool Mind) हुआ जब वीणा गुप्त जी द्वारा लिखा गया एक बेहतरीन व्यंग्य है… वीणा गुप्त जी दिल्ली से हैं… लेखन में इनकी बेहद रूचि है… अब तक इन्होंने बहुत सारी बेहतरीन रचनाओं का सृजन किया है… तो आइये पढ़ते हैं वीणा जी का यह व्यंग्य…
आज मैं खुश हूँ। क्यों खुश हूँ? नहीं पता। हाँ, इतना अवश्य है कि मेरे खुश होने से बहुत से दुःखी हो गए हैं, जल-भुन गए हैं। खैर, छोड़िए, इन बेमतलब के दुखियारों को। मैं अपनी बात कर रहा था। वैसे मैं कई बार अचानक दुःखी भी हो जाता हूंँ और मेरे दुःखी होने से, मेरे बहुत सेआत्मीय, परिचित, प्रियजन, बंधुबाँधव खुश हो जाते हैं। उनकी बांछें खिल जाती हैं। कुछ तो इतने खुश हो जाते हैं कि ख़ुशी पचा नहीं पाते, अपनी झूठी संवेदना का टोकरा उठाए मुझ तक चले आते हैं। मुझे दुःखी देखकर आत्मिक शान्ति पाते हैं और “हम हैं तो क्या ग़म है,” टाइप जुमला उछालते हुए, घड़ियाली आँसू बहाते, ख़ुशी से लबरेज घर लौट जाते हैं।
मैं भावुक प्राणी हूँ। समझ नहीं आता कि मुझे ऐसी स्धिति में खुश होना चाहिए या दुःखी। यदि मैं परोपकार जैसी बातें मद्देनज़र रखूँ तो मुझे चिर दुखी होना चाहिए। ऐसे में एक प्रेरणा गीत मेरे उलझन भरे मन के रिकार्ड प्लेयर में बज उठता है, “कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।” मैं अपने को तसल्ली देता हूँ और एक अपराधबोध से मुक्त हो जाता हूँ कि भई, जब लोगों का काम ही कहना है तो तुम उन्हें उनका काम करने दो और अपने दोनों कान बंद कर, अपने सुखी और दुखी होने का काम बदस्तूर करते रहो। लोगों के फंडों में उलझ, दाल-भात में मूसरचंद का किरदार मत निभाओ।
हाँ, तो यह तय रहा कि आज मैं खुश हूंँ, कितना खुश हूँ, यह जानने के लिए मैं आईने के सामने जा खडा हुआ। किसी विद्वान का कथन “आईना झूठ न बोले,” मुझ पर पूरी तरह खरा उतर रहा था। आईने के रूबरू होते ही वहाँ जो एक अदद छबि उभरी, उस पर से खुशी, गधे के सींगों की भाँति नदारद थी। मेरे चेहरे की घड़ी पर हमेशा की तरह बारह बजे थे। चूसे हुए आम जैसे पिचके-पिचके, गाल, बरसाती सड़क में धँसे गढ्ढों-सी आँखें, बिसूरते होंठ, कुपोषण की गोद में पला आत्म विश्वास ले कर, मैं भला कैसे खुश हो सकता हूँ, मगर मैं खुश था। खुश दिखने के लिए मैंनै फौरन अपने चेहरे का भूगोल बदला। तीन-चार बार गाल फुलाए, पिचकाए। होंठों को मिस यूनीवर्स वाले अंदाज़ में फैलाया, काॅलगेटी मुस्कान वाली बत्तीसी झलकाई। चेहरा कुछ ठीक हुआ। किसी कुशल नृत्यांगना की भाँति आँखों से ख़ुशी के भाव प्रकटाए। अब सब परफैक्ट था।
और फिर मैं सोचने लगा कि मैं खुश क्यों हूँ? इसका कुछ तो कारण होगा ही। बिना कारण कार्य नहीं होता। कारण तो ढूँढना ही होगा। हो सकता है कहीं बारिश हुई हो और उसकी ठंडी हवा मुझ तक आने वाली हो, हो सकता है मेरे शुभचिन्तकों ने मेरे लिए कोई दुआ माँग ली हो, हो सकता है मेरा कोई दूरदराज का बेऔलाद चाचा, ताऊ निकलने वाला हो और अपनी चल-अचल संपत्ति मुझे सौंपने का इरादा बना रहा हो। हो सकता है…।
खैर, इन सभी हो सकताओं के बारे में सोचते-सोचते मुझे एक ठोस कारण मिल ही गया। यह कारण बिल्कुल मेरे पास था, बगल में छोरा वाली कहावत को चरितार्थ करता यहाँ से वहाँ तक भटक रहा था। । ठोस कारण, यह कि मैं भारत वासी हूँ। हैरान हो रहे हैं न कि जो बात मेरे पढ़े-लिखे अनेक देश-प्रेमियों के दुख का कारण है, वह मेरी ख़ुशी का कारण कैसे हो सकता है। लेकिन भाई, मेरे लिए तो यह बात सौ टके सही है। मैं लक्कड़-पत्थर हज़म भारत वासी हूँ। मुझे हर परिस्थिति में खुश होने का अधिकार है। अजी खुश न भी होओ, तो खुश दिखने में क्या बुराई है।
है अंधेरी रात, पर दीपक जलाना कब मना है। ये ग़लतफ़हमियाँ ही जीवन को खुशफ़हमियों की ओर ले जाती हैं। सकारात्मकता भी तो इसी चिड़िया का नाम है। वैसे भी जो होता है, अच्छे के लिए होता है, यह बात मैं घुट्टी पीने के ज़माने से जानता हूँ। हम अपने बाप-दादा की हर बात (चाहे कितनी बेतुकी हो) को पत्थर की लकीर मान कर चलने वाले फकीर, यानी सीधे-सादे लोग हैं। हांँ, पिताश्री की बात नकद नारायण से परे की होनी चाहिए, हमें फालतू की महाभारत नहीं चाहिए।
मुझे गर्व है मेरे महान देश ने मुझे खुश होने के और भी अनेकानेक कारण दिए हैं। इतनी सुनहरी बातें हैं कि इन्हें जान सुनकर मन-मयूर बिना बादलों के भी थिरक-थिरक उठता है। जी हाँ, सुनहरी बातें यानी आदर्श। आदर्शों की संजीवनियों का यह हिमालय मेरे देश के उत्तर में ही नहीं, चारों दिशाओं में खड़ा है। कितनी भी संजीवनी उखाड़ो और परोस दो मूर्छित लक्ष्मण को। इसमें न हींग लगती है, न फिटकरी, रंग चोखो ही चोखो। वैसे रंग के चोखेपन की कोई गारंटी नहीं। फौरन एक्सपायर हो जाए, या सदियों चले, यह यूजर की मेन्टेननैस क्षमता पर निर्भर करता है।
हमारे देश में आदर्श, आसान शब्दों में कहूँ तो ज्ञान बाँटने का काम युद्ध-स्तर पर किया जाता है। आप लें, न लें, लेकर डस्टबिन में सरका दें, इससे ज्ञान बाँटने वाले को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यह उसका काम है, वह इसे करके ही रहेगा। बडे-बडेगुणीजन, ज्ञानी-ध्यानी, साधु संत, इसी ज्ञान का वितरण दिन-रात अपनी भक्त मंडली में करते हैं। बदले में कुछ नहीं लेते। बडे़ निस्वार्थ भाव से लोगों को मोह-माया का त्याग करने को कहते हैं। बेचारे दुखियारे कृतज्ञ लोग बड़ी श्रद्धा से अपना कोट पैंट, बटुए समेत उतार कर इनके हवाले करते हैं और इनकी लंगोटी ले कर खुशी-ख़ुशी घर लौट जाते है और घर जाते ही नए कोट पैंट कमाने की जुगाड़ में लगते हैं।
आजकल प्रचार मीडिया का जमाना है ज्ञान बाँटने का काम दूरदर्शन, वाट्सअप, यू ट्यूब आदि ने बखूबी सँभाल लिया है। ज्ञान की कोई कमी नहीं है, भंडारे भरे पड़े हैं। डिमांड से ज़्यादा सप्लाई हो रही है। अर्थशास्त्र नया परिधान धार रहा है। देश में ख़ुशी बाँटने के अलग-अलग काउंटर बन गए हैं। हमारी राजनीति के गलियारे इसमें बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे हैं। ऐसे-ऐसे सुहाने सपने देश को खुली आँखों दिखाते हैं कि बेचारे शेखचिल्ली को अपनी फेंकू क्षमता पर तरस आने लगता है।
हमारे यहाँ मीडिया वाले दर्शक-श्रोता को, बाप-बेटे को, बेटा-बाप को, माँ-बेटी को, बेटी माँ को, गुरु-शिष्य को, शिष्य-गुरु को, प्रेमी प्रेमिका को, प्रेमिका प्रेमी को, पति पत्नी को, पत्नी पति को, बेचक ग्राहक को, ग्राहक बेचक को, अस्पताल मरीज को, मरीज डॉक्टर को, बीमा एजेंट पॉलिसी धारकों को। जहाँ देखो, वहाँ ज्ञान बाँटो और खुश करो, का अभियान चल रहा है। कोई खुश हो रहा है या नहीं, यह देखना इनका काम नहीं। ये फलप्राप्ति की इच्छा के बिना काम करते हैं। जब तक ज्ञान वितरण का कोटा पूरा कर, ये टारगेट हासिल नहीं कर लेते, टस से मस नहीं होते।
चलो मैं खुश हूँ कि कोई तो सुंदर कार्य प्रगति पथ पर है, बाक़ी विकास कार्य तो अभी नित नई मीटिंग और वाद-विवादों में उलझे, मुफ्त के कबाब और शराब उडा़ रहे हैं। वैसे हम आशावान हैं, वह सुबह कभी तो आएगी, जब मुद्दे यथार्थ के धरातल पर उतरेंगे। वैसे मुझे ज्ञान लेने वालों ने बहुत निराश किया है। दरअसल ये नाशुक्री प्रजाति के जीव हैं, इन्हें कितना ही ज्ञान बाँटो, ये खुश नहीं होते। मनमानी करते हैं और अपनी कश्ती को मंझधार में फँसा देते हैं और तब, ज्ञान बाँटने वाले मन ही मन, “और लो मजा, जहन्नुम में जा” , कहते हुए वहांँ से खिसक लेते हैं।
ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास-पुराणों से लेकर, आज तक मिलते रहे हैं। युगानुसार उदाहरण देखिए। राजा हरिश्चंद्र को देखिए, पूरी संसद (विपक्ष ने भी) ने समझाया। महाराज, विश्वामित्र रियालबल नहीं है, इसे दान मत दो, मगर नहीं जनाब, मैं राजा हूँ। दरबारियों की क्यों मानूँ? दे दिया श् ऋषि को सर्वस्व दान और निकल पडे़ पत्नी और बच्चे को लेकर दर-दर की ख़ाक छानने। मजे की बात, दान की एक मेजर किश्त अब भी बची रही, जो भले आदमी ने बीवी-बच्चे को बेचकर चुकाई। खैर ये तो इंसान थे। भगवान ने भी ऐसी गलती कर दी। भस्मासुर ने कहा, प्रभु! मुझे सबको भस्म करने का वरदान दो, प्रभु ने दे दिया।
गौरा जी ने मना किया। पतिदेव इसे ऐसा वर मत दो। पर जो पत्नी की सुने, वह भला कैसा पति? फौरन तीसरा नेत्र खोल, पत्नी को घुड़का, “जा, जाकर भांग घोंट। मैं और मेरा भक्त आपस में निपट लेंगे।” और भोलेनाथ ने ऐसा निपटा कि भक्त उन्हें ही निपटाने को आतुर हो गया, बडी़ मुश्किल से तिकड़म लड़ाई और जान बचाई। त्रेता में रावण को समझाया हनुमान जी ने, विभीषण ने, अंगद ने, पत्नी मंदोदरी ने “सीता को लौटा दो।” पर मजा़ल कि रावण के बीसों कानों में से किसी एक पर भी जूँ रेंगी हो। ले लिया पूरा मजा, लंका फुँकवाई, पूरे ख़ानदान की बत्ती गुल करवाई। द्वापर में युधिष्ठिर को समझाया, सभी भाइयों ने, “बडे़ भैया! जुआ मत खेलो, आप को इसका ए.बी.सी भी नहीं आता।
मगर भाई साहब अपने को चैंपियन मानते थे, नहीं माने। हार कर ही माने। राजपाट छोड, तेरह प्लस वन वर्ष अज्ञात वास काटा और फिर जन-सिम्पैथी की पुकार लगाई। वैसे एक बात मैं अपने बारे में बता दूँ कि ऐसों के प्रति मेरी संवेदना कभी नहीं जागती। दुर्योधन को समझाया, विदुर ने, भीष्म ने, वेद व्यास ने, श्रीकृष्ण ने,” संधि कर लो भ्राताश्री। ” पर भ्राता श्री नहीं माने। हम रोज़ समझाते हैं पाकिस्तान को, भई मत ले पंगा हमसे, नहीं बाज आता। एक दिन भुगतेगा बच्चू बहुत बुरा।
इस विस्तृत व्याख्या से स्पष्ट है कि ज्ञान देने वालों की कुछ-कुछ बातें मान लेनी चाहिए, ना जाने कब, कोई तुक्का लग जाए। मैं ने इसी उद्देश्य से आदर्शों का पोथा उठाया और घंटों की मगजपच्ची के बाद जीने की कला का एक ऐसा सुनहरी आदर्श खोज लिया, जिसने मेरे जीवन की दिशा और दशा टोटली बदल दी। यह गूढ़ ज्ञान भरा संदेश, मैंने अपने आचरण में उतार लिया। वैसे यह सिद्धांत अपने ओरिजनल रूप में कुछ और था, मैंने अपनी सुविधानुसार इसमें थोड़ा बदलाव कर दिया। यह आदर्श कथन रहीमजी का है और मैं रहीम का बहुत बड़ा फैन हूँ। कथन कुछ इस प्रकार है
रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उन से पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहीं।
अर्थात् रहीम जी के अनुसार माँगने वाला और माँगने वाले को न देनेवाला, दोनों ही मृत समान हैं। मैं ने गुरूजी के कथन का पहला आधा भाग बदला है। बाद वाला आधा भाग जस का तस ही रहने दिया है। मुझे रहीम जी की पहली आधी बात हजम नहीं होती। अजी जनाब, मर चुकने के बाद और न मरें, इसीलिए तो मांगने की नौबत आती है। मैंने अनेक बार मरे हुओं को माँगकर या उधार ले कर, मजे से जीते हुए देखा है। स्वयं रहीम जी के आगे रोज़ ऐसे मरे हुए लोग लाइन लगाकर खडे़ रहते थे और रहीम जी उन्हें देते रहते थे, देते रहते थे। न लोगों का माँगना ख़त्म होने में आता था, न रहीम जी का देने का सिलसिला। इसी देने के बलबूते पर वे दानवीर कहलाए। अब विचारिए, माँगने वाले न होते तो दानवीर जैसा सुंदर शब्द, शब्द कोष को गुडबॉय कह देता।
हमारे देश में दानवीरों की लंबी सूची है। महाराज शिवि, बलि, दधीचि, कर्ण से लेकर विश्वबैंक तक इसमें शामिल हो जाते हैं। अब हमारा यह प्रयास है कि हम भी अपने जीते जी एकाध दानवीर बना कर इतिहास रच लें। लेकिन रहीम जी का उक्त आब्जेक्शन हमारी नेकनीयती के आडे़ आता है। हाँ, तो हम माँगने में विश्वास रखते हैं। क्योंकि हम इसकी अहमियत से वाकिफ हैं। हमारी छोडिए, एक नन्हा नादान शिशु भी इसकी महिमा से सुपरिचित है। दृश्य देखिए। मम्मा चैटिंग पर है। आया, सास बहू के झगडो़ं में घुसी है।
दो घंटे हो गए, बेबी को दूध पिए। बच्चा अपने खाने-पीने का शेड्यूल देखता है। जानता है। कोई उसे दूध पिलाने नहीं आएगा। उसे ही कुछ करना होगा। वह बुक्का फाड़कर रोता है और फौरन ही माँ मोबाइल और आया रिमोट फेंककर आती है। दो मिनट बाद बच्चा खुशी-ख़ुशी दूध गटकता नज़र आता है। बच्चा जानता है बिना रोए-गाए माएँ दूध नहीं पिलातीं। इस होनहार शिशु से मैंने बहुत कुछ सीखा। आदरणीय शेक्सपीयर जी ने, “चाइल्ड इज़ दि फादर ऑफ अ मैन” यूँ ही थोड़े ही कहा था। माँगने की कला में, चीखने, रोने, चिल्लाने, गिड़गिडा़ने, खीसें निपोरने का भी अहम रोल होता है।
हम खुश हैं कि हमने ज़िन्दगी की सही सड़क पकड़ ली है, अब दिल्ली दूर नहीं है। हम अपनी इस नितांत मौलिक उपलब्धि पर इतराते हुए, यूरेका-यूरेका चिल्लाते, घर से रोड तक आए ही थे कि हमारा यह गर्व, एक स्पीड ब्रेकर से टकरा कर चूर-चूर हो गया। मैने पाया जीवन-समुन्दर की बीच पर मेरे जैसों की भीड़ लगी थी। जिसे देखो अलग साइज और अलग धातु का कटोरा लिए घूम रहा था। कुछ के कटोरे तो डिजायनर थे। भिखारी रेड लाईट पर, नेता मंच पर, आर. डब्लू. ए. वाले दर-दर भटक कर, माँगने का पुण्य कार्य कर रहे थे। भक्त मंदिर में भगवान के आगे माँग पत्र सरका रहे थे, भगवान पूजा माँग रहे थे, पुजारी चढावा चाह रहे थे। शिक्षण संस्थान डोनेशन माँग रहे हैं। कुछ आरक्षण मांँग रहे हैं। कुछ सब्सिडी मांँग रहे हैं। कुछ न्याय माँग रहे हैं, कुछ रोज़ गार मांँग रहे हैं। सरकार जी. एस. टी. माँग रही है। विपक्षी सरकार का बंटाधार माँग रहा है। माँगने का सीजन मेरे देश का परमानेंट सीजन है। हर तरफ़ ‘माँग भाई मांँग’ अभियान चल रहा है।
व्यक्तिगत जीवन भी इससे अछूता नहीं रहा। पत्नी गाडी़ माँगती है। बहना साडी़ माँगती है। लड़का जायदाद माँगता है। दामाद मकान माँगता है। बेटी उड़ान मांँगती है। बुज़ुर्ग पीढ़ी सम्मान माँगती है, मांँगों के इस चक्रव्यूह में हम भी अभिमन्यु बन घुस गए। ‘जिसने की शरम, उसके फूटे करम,’ को आचरण में उतारा। वैसे हम शर्मीले हैं, पर इतने मूरख नहीं है कि अपने करम फूटने दें। तो घुस गए मंगतों की भीड़ में, “दे दाता के नाम” की गुहार लगाते।
जैसे अभिमन्यु को चक्रव्यूह में जाकर पता चला कि यह काम बहुत टेढी़ खीर है, वैसे ही हमें भी समझ आ गया कि यह काम आसान नहीं है। इसमें महारत पाने के लिए “गिरगिटिया स्कूल ऑफ आर्ट” से ट्रेनिंग लेनी होगी। अवसर की नब्ज़ पहचानी होगी। देने वाले की हैसियत भाँपनी होगी।
अब आते हैं, कथन के दूसरे भाग पर। कविवर कहते हैं मांगने वाले को मना करने वाले लोग भी मृतक के समान होते हैं। वैसे अब रहीम जी के नजरिए से देखें तो देश की आधी से ज़्यादा जनता तो जीवित ही नहीं है। इस हिसाब से जन गणना वालों के आंकड़ों की भैंस तो गई पानी में। वैसे रहीम जी की इस बात से मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ। माँगने वाले घर बैठे बिठाए तुम्हें परोपकार का गोल्डन चांस दे रहे हैं। फोकट में स्वर्ग में सीट रिजर्व करवा रहे हैं।
समाज के प्रति कर्तव्य-पालन को प्रेरित कर रहे हैं और तुम नाशुक्री की सीमा लाँघ, उनके माँगने से पहले ही उन्हें पडोसी का दरवाज़ा दिखा देते हो, “माफ़ करो भाई, आगे जाओ।” जैसे अगले दरवाजे वाले के बही खाते तो तुम्हीं संभालते हो। उसकी नेटवर्थ से सुपरिचित हो। बेचारा माँगने वाला शूर्पणखा-सा कभी राम और कभी लक्ष्मण के पास जा जाकर, याचना कर रहा है। तीसरे-चौथै दरवाजे़ वाले सिचुएशन एन्जॉय कर रहे हैं। भई, सचमुच बडी़ मशक्कत का काम है यह माँगना भी। नाक-कान कटने की सौ परसेंट संभावना है इसमें। लेकिन क्या करें, ज़िन्दगी जोख़िम उठाना है।
वैसे मेरी दृष्टि में यह आत्म निर्भरता की दिशा में उठाया गया एक सराहनीय क़दम है। लेकिन लोग इसे काम ही नहीं समझते। वैसे लोग तो घर में माँ और पत्नी के काम को भी काम नहीं मानते। सोच अपनी-अपनी। हाँ, तो जो लोग दीन-दुखियारों की सेवा नहीं करते, उन्हें जीवित माने भी तो कैसे? लेकिन हम भी हार मानने़ वाले जीव नहीं है। दो चार को ज़िंदा करके रहेंगे। जब तक दम में दम है, माँगे चले जाएंगे। कभी तो “दीन दयालु के भनक पडे़गी कान” और भनक लगते ही वह अपना छप्पर फाड़ देंगे। हम आशावान हैं। आशा बड़ी चीज है। आशा से आकाश टिका है, तो हम भी टिक जाएंगे। जो महानुभाव मेरी बात से सहमत हैं, वे मेरे संग आएँ। माँगने के इस महा अभियान से जुड़ें। यही जीवन-सुख का आधार है। परोपकार का द्वार है। मुक्ति का सार है।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली
यह भी पढ़ें-
2 thoughts on “मन मस्त (Cool Mind) हुआ जब”