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हाशिए पर धूप: लोकोन्मुखी कविता का सशक्त स्वर
पुस्तक समीक्षा
हाशिए पर धूप: लोकोन्मुखी कविता का सशक्त स्वर
• अनिल कुमार राजभर
कविता मानवीय मूल्यों एवं भावों की सहज अभिव्यक्ति हैं। अगर कविता सामाजिक सरोकारों को भी अपने में समेट लेती है तो उसके वैभव के चरमोत्कर्ष की संभावनाएँ और अधिक बढ़ जाती हैं।
शिक्षक एवं वरिष्ठ साहित्यकार प्रमोद दीक्षित मलय के संपादन में प्रकाशित साझा काव्य संग्रह ‘हाशिए पर धूप’ के ६४ पृष्ठों में बेसिक शिक्षा उत्तर प्रदेश में कार्यरत २८ रचनाधर्मी शिक्षक-शिक्षिकाओं की बहुरंगी रचनाओं को स्थान मिला है। संपादक प्रमोद दीक्षित मलय संपादकीय में लिखते हैं कि इन कविताओं में लोक की आग अपने पूरे आवेग एवं ताप के साथ विद्यमान है तो वहीं लोकराग भी आम जन की पीड़ा का स्वर सहेजे साथ-साथ गतिशील है।
तो भूमिका में जनवादी चिंतक कवि महेशचंद्र पुनेठा विचार व्यक्त करते हैं कि मेरी नज़र में कविता की एक बड़ी कसौटी उसकी पक्षधरता है अर्थात वह किसके पक्ष में खड़ी है। ऐसी कविता जो किसी सत्ता या ताकतवर के पक्ष में खड़ी है और यथास्थिति को पोषित करती है, उसका मेरी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है। अच्छी कविता लोकोन्मुखी होती है। प्रमोद दीक्षित मलय एक लोकोन्मुखी संवेदनशील नवाचारी शिक्षक हैं। वह मानवीय मूल्यों, समता, न्याय, विश्वासयुक्त एवं हिंसामुक्त समाज-रचना के पक्षधर व्यक्ति हैं। उनके संपादन में ‘हाशिए पर धूप’ शिक्षकों की रचनाशीलता को सामने लाने की सराहनीय पहल है।
पाठक जब ‘हाशिए पर धूप’ को पढ़ना शुरू करता है तो जहाॅं एक ओर उसे ऋतुराज बसन्त के बहाने प्रकृति के सुरम्य रूप का दर्शन होता है तो दूसरी तरफ़ उसे पर्यावरणीय चिंता को उजागर करती रचनाएँ प्रकृति संरक्षण को प्रेरित भी करती हैं। आरती साहू की ‘आया बसंत छाया बसंत’ , श्रेया द्विवेदी की प्रकृति एवं पर्यावरण, प्रियंका विक्रम सिंह की बसंत-गीत, आलोक तिवारी की पूस की साॅंझ, प्रदीप तेवतिया की वर्षा ऋतु आई, जमीला खातून की एक प्रयास आदि ऐसी ही रचनाऍं जो पर्यावरण के स्वर को सहेजती हैं।
अर्चना सिंह की कविता ‘गंगा का आग्रह’ मानव और प्रकृति के डोर को बाॅंधे रखने में सहायक होती है। विद्यालय परिवेश का दृश्य विभा शुक्ला तथा शहर-गाॅंव की दूरी का दृश्य दुर्गेश्वर राय की रचना में दिखाई देता है। मगर पुस्तक के नाम पर केंद्रित अरुण यादव की रचना ‘हाशिए पर धूप’ सामाजिक मूल्यों के पतन की सूक्ष्म झाॅंकी प्रस्तुत करती है।
समाज का केवल सौम्य रूप प्रस्तुत करना कविता का उद्देश्य बिल्कुल नहीं होना चाहिए। वरन समाज को मानवीय पीड़ा का एहसास कराना भी कविता का उद्देश्य होना चाहिए। इस उद्देश्य को पूर्ण करने का सफल प्रयास किया है संपादक प्रमोद दीक्षित की रचना ‘भूख’ ने जो अमीरी-गरीबी के द्वंद्व में पिसते मानव के मनोदशा को बखूबी बयाँ करती है। इसी कड़ी में सन्त कुमार दीक्षित तथा प्रभात त्रिपाठी ने मजदूरों-किसानों के दर्द को अपने कविता में स्थान दिया है।
सृष्टि का सर्जन तथा परिचालन नारी-शक्ति के बिना संभव नहीं हो सकता। नैमिष शर्मा, नीलू चोपड़ा, आसिया फारूकी, रीता गुप्ता, अमिता शुक्ला की रचनाएँ नारी के स्नेहिल रूपों माॅं, बेटी के मनोभावों को प्रतिबिंबित करती हुई पाठक को बाँध लेती हैं। अनुराग मिश्रा की रचना ‘हिंदी हमारा अभिमान है’ हिन्दी के गौरव में वृद्धि करती है तो नीतेश सिंह की रचना राष्ट्र-प्रेम का आरोहण करती है। प्रीति श्रीवास्तव की रचनाएँ मानव-मन के नैराश्य से पार पाने की सफल कोशिश करती दिखती हैं।
तो कविता के विविध रूपों तथा प्रकृति के नैसर्गिक, सामाजिक मूल्यों का रसास्वादन करने के लिए इस पुस्तक को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। कुंवर रवींद्र द्वारा तैयार किया पुस्तक का आवरण आकर्षक है। छपाई साफ़ और स्पष्ट है, काग़ज़ बढ़िया गुणवत्ता का है। विश्वास है, पुस्तक पाठकों, साहित्यकारों एवं समीक्षकों द्वारा सराही जायेगी।
पुस्तक का नाम- हाशिए पर धूप
संपादक- प्रमोद दीक्षित ‘मलय’
प्रकाशक- शैक्षिक संवाद मंच बाॅंदा उ०प्र०
प्रकाशन वर्ष- २०२०
मूल्य- ₹ १५० / , पृष्ठ- ६४
समीक्षक शिक्षक एवं साहित्यकार हैं। वाराणसी, उ०प्र०
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