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सावन में
सावन में
काली-काली घटा छा रही अंबर में
घनी अंधेरी रात बिजली कौंध रही सावन में
करवट बदल-बदल तिरिया जल रही यौवन में
मोर, पपीहा चहक-चहक कहीं बहक न जायें सावन में
बागों में झूला पड़ गये, यौवन गाए मस्ती में
चहुंओर हरियाली हंसती-खिलखिलाती सावन में
जब अंग-अंग भीगा सिहर गई वह सावन में
लबालब होकर ताल-तलैया झूम उठे सावन में
मेघों की बूंदें चांदी-सी बरस रहीं दिशा-दिशा में
नैन मिले सुनैना से तो हृदह घायल हुआ सावन में
मस्ती भर-भर मस्ती में मेंढक टर्राये सावन में
प्रियवर की याद उर झुलसाये बरसते सावन में
भंवरा पगलाया रंग-बिरंगी कलियों की महक में
कर-कर आलिंगन तान छेड़ता प्रेमालाप दिखाता सावन में
कुदरत बनी अति मनोहारी सुंदर सावन में
सतरंगी परिधान ओढ़कर गोरी शर्माती सावन में
वो पंख खोल आज़ादी से उड़ना चाहती सावन में
पिया से प्रेमभरी दो बातें करना चाहती सावन में
हे प्रभु!
हे ईश्वर!
हे विधि के विधाता!
ये कैसा विधान है तुम्हारा?
तुम सर्वव्यापक
तुम सर्वांतर्यामी
तुम दयानिधि
तुम दया के भंडार।
फिर क्यों करते हो भेदभाव-
कोई महलों का वासी
तो किसी पर झोपड़ा तक नहीं
कोई एयर कूलर में
तो कोई तपता भरी जेठ की दोपहरी
कोई खाता काजू, बादाम, पिस्ता
तो कोई दो जून की रोटी को तरसा।
हे प्रभु!
मुझे शिकायत है तुमसे
तुम न्यायकारी नहीं हो…
स्वार्थी इंसान और तुम्हारी नियत में
मुझे कुछ ख़ास अंतर नज़र नहीं आता।
जीवों के साथ तुम्हारा यह खिलवाड़
मुझे राजनीतिक नज़र आता है
मैं चाहता हूँ,
सब एक समान हो जायें
जैसे सब नंगे जन्म लेते हैं
और खाली हाथ मरते हैं।
मुकेश कुमार ऋषि
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