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शोषण
शोषण
छलनी करके बदन को,
मुझसे तूँ खेल गया…
ज़रा भी ना सोचा,
मैं कौन हूँ?
तुझे भी कोई,
अधिकार नहीं
जीने का’
जो मुझे नोच खाया हैं॥
कभी इज़्ज़त को मेरे,
कभी आबरू को,
अपने गन्दे मेले,
हाँथों से छूकर,
मुझे लूट खाया हैं।।
इतना निर्दयी, क्रूर तूँ,
मेरी आत्मा को मुझसे
अलग कर गया हैं…
मेरा जीवन,
खाकर तूँ…
भूखे,
तूँ अपनी
हवस की आग
बुझा गया हैं।।
पल पल इसमें,
मैं मरूँगा…
तूँ तो,
हर पल अपनी
भूख शान्त करेगा।।
तूँ तो हर पल अपनी
भूख शान्त करेगा…॥
जो तुम ये सब,
अधर्म-कुकर्म करते हो
कभी बहला-फुसलाकर
कभी ज़ोर ज़बरदस्ती से…
हर बच्चे को,
हर नारी को,
हर देवी को,
हर शरीर को,
हर प्राणी को,
छलनी छलनी
करते हो…
शर्म-हया,
सब बेच खाये हो…
तुम बेशर्म-बेहया,
पापी को,
जीने का हक़ नहीं।।
तुम्हारी सोच, तुम्हारी गन्दगी,
इसे पलने का, बाटने का,
क्षय नहीं॥
जब भी तुम बलात्कारीयों को,
भरी अदालत में पुकारा जाता हैं…
आवाज़ तुम्हारी नहीं,
पीड़ित की दब जाती हैं।
तुम बड़ी शान से,
गर्व से,
अपना सीना तान,
खड़े रहते हो।।
लज्जा तो पीड़ित को,
उसके परिवार को होती हैं॥
जब जब तरह-तरह के सवाल
किए जाते हैं,
पीड़ित शर्म से चूर
हो आता हैं।
तुम्हारे चेहरे पर पापी
वही हँसी हमेशा बनी होती हैं॥
ऐसा क्या जीवन?
जो पीड़ित को,
पीसता जाता हैं।
और तुम्हें सींचता जाता हैं।
ये जो सोच तुम्हारी होती हैं,
नारी तुम छोटे कपड़े
क्यों पहनती हो?
ये जो सोच तुम्हारी होती हैं,
शाम ढलने बाद
घर से क्यों
निकलती हों?
ये सोच तुम्हारी
नीच हैं मूर्ख,
फिर भी
फिर भी
एक १ साल की बच्ची को,
अपना शिकार बनाते हो।।
वो जो अभी
उदय भी नहीं हुआ…
जिसने अभी अभी
उँगली थामना सिखा हैं,
वो कौनसा बाहर गई,
चलना उसे कहा आया हैं!
पापी मूर्ख बेशर्म
वो कौनसा समझदार हुईं!
वो कौनसा समझदार हुईं!
अरे तुम तो,
बच्ची हो या बच्चा
सभी पर गन्दी नज़र अपनी
डालते हो॥
मूर्ख तुम,
उन्हें धमका कर,
बहला फुसलाकर,
उनका बार-बार हर बार,
शोषण करते हो॥
काश ऐसा कोई
साथ तुम्हारे भी करता,
तो दर्द से रूबरू
तुम भी हो आते॥
किसी की,
ज़िन्दगी
छिनने का दर्द,
तुम्हें भी बया हो आता॥
कुछ आवाज़ें,
जो अब भी ख़ामोश हैं…
इज़्ज़त की आबरू में,
छुप गई हैं…
कुछ जो आवाज़ें,
उठ गई थी…
उन्हें निर्ममता से,
तुमने मार दिया हैं…
कुछ जो ये सब,
सहन करता हैं…
समाज उन्हें भी,
ठोकर देकर
गाली देता हैं॥
क्या क़ुसूर है उसका,
वो भी यहाँ
सबकी तरह
सामान्य इन्सान हैं॥
पर इस पापी
दुनिया ने,
उससे उसका वजूद छिना हैं॥
उससे उसका ग़ुरूर छिना हैं॥
जब भी चल पड़ेंगे वो,
तब भी इन
नज़रो का शिकार
पल पल बन बेठैंगे॥
ये जो सोच,
तुम्हारी गन्दी हैं…
सब गुनाह,
इन गन्दगी भरी
नज़रो का हैं…
शरीर-शरीर को,
नोच रहा हैं…
आज इंसान,
जानवर से भी
बुरा बन रहा हैं…
एक चिर हरण
द्रौपदी का हुआ,
एक आवाज़
कृष्ण ने सुनी॥
आज सुनता
कोई नहीं …
उसे भी भरी सभा में
नग्न करना चाहा॥
कहते सुना हैं
रघुकुल रीत
सदा चली आई
ऐसे चलेगी
पता ना थी!
जानवर तो फिर भी
भगवान हैं
इन्सान तूँ तो
शैतान का हथियार हैं…
तूँ तो दानवो का
संसार हैं…॥
तूँ तो दानवो का
संसार हैं॥
मैं और वह
मैं और वह
मन पिशाचः
बुद्ध:
शिकार:
शांत: अशांत:
प्रण: अहिंसा
धर्म: अहिंसा
कर्म: अहिंसा
मन: शांति हेतु
उद्देशित भला
दृश्यित है।
हैवान मैं
छुपा शैतान हू।
दिखावटी हूँ, मौन मैं
दिल में दबी, बात हू…
संकी हूँ, आवारा मैं
फिर कहीं, शांत मैं
धूप मैं, छाव मैं
छाव दबी धूप मैं,
हू बारिश विचारो की,
बादलो में छुपी आवाज़ मैं,
हूँ अग्नि मैं, तपस्या मैं
इक छलावा हूँ, दिखावा मै
हू स्वार्थ मैं, दबा राज हू
बर्फ-सी, ज़ुबान मैं
तितली-सी, बात हू
मैं कौन हूँ,
मैं मौन हूँ,
मैं द्वन्द्व मे,
मैं अन्तर्द्वन्द्व हू।
मैं सृष्टि का विचार,
मैं मन का विकार,
मैं कौन हूँ
मैं मौन हूँ
मैं अशांत हूँ
मैं शांत मैं!
✍ अंजली सांकृत्या की क़लम से
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