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वोट मुझे ही देना भैया
वोट मुझे ही देना भैया
हाथ जोड़कर नेता बोला
वोट मुझे ही देना भैया
बिजली पानी और मोबाइल
तुमको फ्री दिलवाऊंगा।
और अगर मैं जीत गया तो
सारे वचन निभाऊंगा।
एक बार अवसर दो मुझको
सबका साथ निभाऊंगा।
कोयला चारा नौटंकी सब
गोबर सोना उगलेगा
अंडा सोने का देगी मुर्गी
गुठली से रस निकलेगा
चोर उचक्के बेईमानों की
नहीं चलेगी कोई चाल
मेरे होते कहाँ ज़रूरत
नहीं गलेगी उनकी दाल।
लूटपाट का शोर न होगा
पटरी पर दौड़ेगी रेल
अपनी कुर्सी रहे सलामत
चाहे अर्थव्यवस्था फेल।
दोस्ती
रिश्ता दोस्ती का बड़ा ही अनमोल होता है
यह तो जैसे ईश्वर का कोई वरदान होता है
बड़े ही खुशनसीब होते हैं वे लोग दुनिया में
जिन्हें दोस्ती जैसा खूबसूरत उपहार मिलता है।
दोस्ती तो एक ऐसा सुखद एहसास होता है
दूर रहकर भी अपनेपन का आभास होता है
छोड़ देती है साथ अपना जब दुनिया सारी
तब दोस्ती का रिश्ता ही हमारे पास होता है।
दोस्ती की ना कोई सीमा ना उम्र का बंधन
त्याग प्रेम विश्वास ही इसकी बुनियाद होती है
खून के रिश्तो से भी बढ़कर साथ निभाती है ये
यही तो दोस्ती की अनुपम सौगात होती है।
दोस्ती से बड़ा नहीं है इस जग में रिश्ता कोई
जिसमें शक की नहीं कोई गुंजाइश होती है
विपत्ति में निस्वार्थ साथ निभा कर जाना
सच्ची दोस्ती की यही पहचान होती है।
घबराती है मौत भी देखकर दोस्ती के रिश्ते को
क्योंकि ये तो काल के लिए भी महाकाल होती है
आए संकटों की हर घड़ी में हमको बचाती
दोस्ती ही जीवन के कठिन क्षणों की ढाल होती है।
लज्जा
भारतीय नारियों का गहना होती है लज्जा
आज नग्नता की सारी हदें पार हुआ करती है।
सिर पर बिठा दिया है सबने निर्लज्जता को अपने
तभी देखने वालों की नजरें खराब हुआ करती है।
परिधान जो स्त्रियों के तन को ढका करते थे कभी
अब लज्जा गरीबों की पहचान हुआ करती है।
अश्लीलता और अंग प्रदर्शन की भारी होड़ में
स्त्रियाँ भी आज कितनी निर्लज्ज हुआ करती है।
रहा ना लिहाज लज्जा का ज़रा भी मन में
शर्मसार करने की हर बात हुआ करती है।
यौवन के तूफानों की होती है परवशता
लज्जा सृष्टि का वरदान हुआ करती है।
लज्जा से ही बचे हुए थे नारी के सोलह संस्कार
आधुनिकता के रंग में अर्धनग्न हुआ करती है।
आंखों में थी लज्जा उनके रहती झुकी सम्मान में
मान सम्मान आदर इज़्ज़त शान हुआ करती है।
विलुप्त हो गई लज्जा पाश्चात्य संस्कृति हावी है
शालीनता तो अब पुराने खयाल हुआ करती है।
रति की प्रतिकृति है लज्जा शालीनता सिखाती थी
उद्दंडता में नारी अंगों की प्रदर्शनी हुआ करती है।
क्या यही रह गया जीवन नारी का अब शेष यहाँ
जो जग जीवन में पीयूष स्रोत-सी बहा करती है।
श्रृंगार है यह नारी का आंखों का नीर है लज्जा
मत रोंद इसे यह सामाजिक लाज हुआ करती है।
पायल और चूड़ी की खनकार में होती है लज्जा
ये माँ बेटी और बहन का संस्कार हुआ करती है।
देह क्षुधा की तृप्ति वश बिकती है मलिन बस्ती में
हर गली चौराहों वीरानों में बेखौफ लूटा करती है।
नदी
पिघल कर बड़े हिमखंडो से
बर्फीली बूंदे बन टपकती है
पर्वत के सीने पर बह कर ये
धारा बन गिरती जाती है
पथ की चट्टानों से टकराती
बाधाओं से नहीं घबराती है
अविरल गति से आगे बढ़ना
नदियाँ ये सीख सिखाती है।
अपना अस्तित्व बचाने को ये
दिन-रात परिश्रम करती है
आंधी तूफान बाढ़ बवंडर
हंसकर सब सह जाती है
मैदानों में आकर नदियाँ
खेत खलिहान में जाती है
नदियों का संकल्प है सेवा
हमें पर उपकार सिखाती है।
सर्वस्व समर्पण करके अपना
जीवन की बगिया महकाती है
हर पल कितने जीव जंतु की
बनकर गंगा प्यास बुझाती है
इस संसार के पाप पुण्य को
सहकार अश्रु ख़ूब बहाती है
क्षमा दान देकर नदियाँ उनको
मां का फ़र्ज़ निभाती है।
अंत समय में जाकर के
सागर में मिल जाती है
सब कुछ अर्पण कर देती
जीवन साकार बना देती है
जब तक मंज़िल ना पा लेती
कल कल अविरल बहती है
जीवन में सर्वस्व समर्पण
नदियाँ ही हमें सिखाती है।
लाचार हथिनी
बेजुबान हथिनी की जान
क्रूर हत्यारों ने ले ली है।
मानव रूप धरे दानवों ने
मर्यादाएँ सारी भूली है।
हथिनी वह जो गर्भ से थी
उसको मार गिराया है।
कच्चे गर्भ को मार दिया
तुमने विस्फोटक खिलाया है।
खाना खोजती गर्भवती मां
जब अन्नानास चबाती है।
इंसानों की शैतानी हरकत
सबको आज रुलाती है।
पटाखे ने जबड़े को उसके
टुकड़ों टुकड़ों में फाड़ दिया।
पत्थर दिल इंसान हो तुमने
इंसानियत को गाड़ दिया।
तड़प उठी वह बेजुबान भी
दर्द सहन कर जाती थी।
गर्भस्थ शिशु की जान बचाने
हर दावं खेल वह जाती थी।
जीवन शेष अभी था उसका
आशाएँ सारी बाक़ी थी।
नव जीवन को जीवन देने
अंतिम संघर्ष की झांकी थी।
मरते दम तक इंसानों को
नुकसान नहीं पहुँचाया उसने।
तड़प रही थी अंतिम क्षण में
मानवता का पाठ पढ़ाया उसने।
सीमाएँ लांघ चुका मानव अब
इंसान कहाँ बच पाएगा।
अतिवृष्टि, भूकंप, बाढ़ और
कोरोना ही तो आएगा।
संभल जाओ हे मनु संतानों
सम्मान करो इस प्रकृति का।
पक्षी, पौधे, जल-जीव, जानवर
करो सम्मान हर ईश कृति का।
क्षमा कठिन इन असुरों की
अब तो सबक सिखाना होगा।
एक एक को चुन-चुन कर
दंड कठोर दिलाना होगा।
जैसे मारा था हथिनी को
उनको वैसा ही दंड मिले।
चौराहे पर लाकर उनको
विस्फोटक भोजन प्रचंड मिले।
कानूनों की लाचारी कितनी
दंडित जल्द उन्हें करना होगा।
मौत के बदले मौत मिले
आजीवन कारा में सड़ना होगा।
मानवता पर यह कलंक है
हथिनी हम शर्मिंदा हैं।
तब तक न्याय नहीं तुझको
जब तक कातिल तेरे ज़िंदा है।
चिड़िया की कहानी
मेरे घर एक चिड़िया आती
ची ची करके गीत सुनाती
कभी उछलती कभी फुदकती
दाना चुगती मौज मनाती।
एक दिन घर में चिड़ा आया
चिड़िया के मन को वह भाया
साथ साथ में दाना चुगते
कभी साथ में फुर्र से उड़ते।
आज थी चिड़िया धूल नहाई
शायद बादल ने करी चढ़ाई
चिड़े को उसने बात बताई
एक दूजे के हो गए भाई।
दोनों जाकर तिनके के लाए
कोई जगह सुरक्षित वह पाए
सुंदर-सा अपना घर बसाए
दोनों मिल परिवार बनाएँ।
चिड़िया ने अंडे दे डाले
उनको उसने ख़ूब संभाले
चिड़ा जाकर लाता दाने
थे उसको भी बच्चे पाने।
अंडे फूट निकले दो बच्चे
सुंदर कोमल अच्छे-अच्छे
उम्र नई थी थे वह कच्चे
मन के थे वह सीधे सच्चे।
चिड़िया ने ही उन्हें संभाला
चिडे ने उन सब को पाला
नीचे था एक सूखा नाला
रहता उसमें बिल्ला काला।
एक दिन उसने छलांग लगाई
सब डाली पर नज़र घुमाई
उसे देख चिड़िया घबराई
जोर-जोर चीखी चिल्लाई।
चिड़े तक आवाज़ पहुँचाई
दोनों ने मिल चोंच चलाई
कर दी उसकी ख़ूब धुलाई
बच्चों को अब दिए उड़ाई।
मौसम में बदलाव
मौसम में बदलाव हुआ, उसकी है मजबूरी।
तालमेल मानव का, संग उसके है ज़रूरी।
कुछ वर्षों से मौसम में, तेजी से बदलाव है आया।
ठंड में गर्मी, गर्मी में ठंड, बेमौसम बरसात है लाया।
कहीं सूखा तो कहीं, भयंकर बाढ़ का है मंजर।
कहीं बादल ख़ूब बरसता, कहीं भूमि है बंजर।
मौसम के मिज़ाज ने, कैसे संकट में है डाला।
इस बदलाव के मौसम में, हमने ख़ुद को है ढाला।
पल पल व्यवहार बदलना, मानव की यही है प्रकृति।
आंख मिचौली खेल खेलना, बादल की अद्भुत है नियति।
बरसाता अंगारे सूरज, गर्मी ख़ूब तपाती है।
शीतल वायु की शीतलता, प्रीत का मर्म लगाती है।
कैसा है बदलाव का मौसम, गर्म लूएँ हैं झुलसाती।
धूल भरी आंधी बादल में, बिजली भी है मुस्काती।
गुदगुदाती पवनों के संग, मदमस्त फुंवारें है आती।
इंद्रधनुषी सेहरा बाँधे, बदलियाँ है इठलाती।
बारिश की बूंदों की रिमझिम, सबको है हर्षाती।
कागज की नावें चलती, बच्चों को ख़ूब है लुभाती।
खुश होते कृषकों के चेहरे, उम्मीद नयी है जगाती।
तेज तपन के बाद यदि, बरखा है भारी हो जाती।
पर्यावरण नुक़सान मनुज ने, किया बहुत ही है भारी।
तापमान को बढ़ा दिया, कुल्हाड़ी पांव पर है मारी।
मारक बना दिया मौसम को, ग्लोबल वार्मिंग है जारी।
चक्रवात, लू, अतिवृष्टि और सूखे की है तैयारी।
दामन
भीगा है दामन मेरा टपकते आंसुओं की बूंदों से
कब तक पहरा बिठाओगे तुम मुझ पर।
बंदिशों के साए में घुट-घुट जी रही हूँ मैं
कब तक अपना हक़ जताओगे तुम मुझ पर।
मेरा दामन पाक है इसमें कोई दाग नहीं
मुझे बढ़ना है आगे कब तक रोक पाओगे।
मैं तो एक परिंदा हूँ इस आबाद जहाँ का
हजार बंदिशों से भी क्या मुझे रोक पाओगे।
दामन में मेरे खुशियाँ हो या हो कोई दुख
तुम्हें जिस्म की ख़्वाहिश मेरी परवाह नहीं।
ख्वाब कुछ सीने में दफन कर दिए मैंने
पूरे हुए अरमान कुछ तो कोई गुनाह नहीं।
अब भी दामन में कांटे हैं जो चुभते हैं मुझे
तेरी दुनिया में आकर भर लिया है आंखों में पानी।
सजा बन जाती है बंदीशें लोक लाज के डर की
मिट गए नक्श कदमों के अजीब है ये कहानी।
तोड़ दो आईने अपने चलो अनजान बन जाएँ
मिले थे शायद कभी हम तुम इस जिंदगानी में।
भर दो दामन मेरा खुशियों से कि खुश हो जाएँ
मोहब्बत में वफ़ा का यकीं हो तेरी मेहरबानी में।
अहंकार की ज्वाला
कलयुग की काली दुनिया ने
महाभारत कितने रचा दिए
नव सृष्टि रच नारायण ने
माणक से भाल सजा दिए
अप्रिय वाक्य के बदले ही
भारत में युद्ध महान हुआ
धन और पुत्र मोह के मद में
हस्तिनापुर शमशान हुआ
जब क्रूर असुरों का युग में
बढ़ जाता अत्याचार कहीं
त्रास मिटाने जग जीवन में
होता दुर्गा का अवतार यही
अनीति से कोसों दूर अनीता
सुनीति का व्यवहार यहाँ
मुख मंजू में गरल सुधा
अंतस में सद्विचार कहाँ
जर जोरू वैभव धन का
पग पग होता व्यापार यहाँ
लहू पान हुआ नित नारी का
जननी पर अत्याचार महा
अहंकार की विष ज्वाला ने
अभिमन्यु को लील दिया
भौतिकता की झूठी शानों ने
अनुराधा को जलील किया
इस घोर घमंड के सागर में
वटवृक्ष कुटुंब को डुबो गया
अशोक था जिनका ताज कभी
वह शोक का शूल चुभो गया
फैले इस कंटक जंगल में
अब दिन-दिन जलते जाते हो
फिर बाज नहीं आते लत से
जीवन बर्बाद किए जाते हो
क्या पुत्र शोक की पीड़ा से
ह्रदय तुम्हारा फटा नहीं
आंखों में अभिमान लिए हो
ईर्ष्या का दामन हटा नहीं।
दो जून की रोटी
धूप पसीने से भीगा तन
उलझी है माथे की चोटी
करती मेहनत कड़ी बेचारी
मिलती तब दो जून की रोटी
तप्त हुई रेती की ढेरी
उस पर खेल रही है छोटी
मां पत्थर को तोड़ रही
पाने को दो जून की रोटी
भरी दुपहरी में प्यासी थी
काम कठिन था कसी लंगोटी
अश्रु पीकर प्यास बुझा ली
खाने को दो जून की रोटी
भटक रहे भूखे मजदूर
शायद इनकी क़िस्मत खोटी
सरकारों की क्या व्यवस्था
कहाँ मिली दो जून की रोटी
महलों के निर्माता है ये
गिरते इनकी आंखों से मोती
कौन करेगा इनकी चिंता
कौन खिलाए दो जून की रोटी?
हमसफर
निकल पड़े हम सफ़र में अकेले
अब तुम भी पीछे मेरे आजाओ
अपने हिस्से का प्रेम दिखा कर
प्यारी-सी हमसफर बन जाओ।
मेरी पीड़ा में साथ निभा कर
हर दर्द की दवा बन जाओ
अपने हाथों से प्यार परोस
मेरी आत्मा तृप्त कर जाओ।
सपनों की दुनिया की सपना हो
आओ प्यारी हमसफर बन जाओ
रहती हो तुम ही अंदर उर के मेरे
चाहे आंखों से ओझल हो जाओ।
थक जाऊँ मैं जब जीवन पथ पर
सम्बल देकर नव ऊर्जा बन जाओ
सफर सुहाना बन जाए जीवन का
प्रिये तुम मेरी हमसफर बन जाओ
हमसफर तुम ही मेरे जीवन की
अब ओर तुम यूं ना तरसाओ
धड़कन से रग-रग में बह कर
आओ मेरी रूह में समा जाओ।
सावन
आज रात जब सावन बरसा
भीगी धरती तन मन सारा
असमंजस में बैठा हूँ कब से
सावन बरसा या प्यार तुम्हारा।
घुमड़ घुमड़ घिर आए मेघा
गर्जन करते घोर गगन
कोयल बोले सावन के सुर
म्याऊँ म्याऊँ में मोर मगन।
बहका बहका सावन आया
खुमारी बूंदों पर छाई
भंवरें चहक रहे बागों में
डाली पर है कलियाँ आई।
अलबेला मौसम झूलों का
हरियाली धरती मनभावन
निखरा यौवन बिरहन का
तन में आग लगाता सावन।
भीगें हम तुम इस सावन में
सुखद पल सौभाग्य हमारा
जाने कब बरसेगा सावन
दिल की बातों को स्वीकारा।
वर्षा के प्रिय स्वर उर में करते
प्रणय निवेदन के सुख गायन
टप टप झरती बूंदे कुछ कहती
खुले रहे अब सब वातायन।
गुरुदेव
अज्ञान के घोर अंधेरे में
सूरज बनकर जो आते हैं
हर लेते दुख आत्मिक सारे
आध्यात्मिक फ़सल उगाते हैं
ना कोई लालच उनके मन में
सच्चाई का पाठ पढ़ाते हैं
ज्ञान का सागर हिलोरे लेता
बस वही गुरुदेव कहलाते हैं।
परेशानियाँ दूर करें पल में
खुशियों की सौगात दिलाते हैं
जब परिस्थितियों से हारे हम
एक नई राह दिखलाते हैं
हालात हमें जब-जब भटकाए
तब तब संशय मिटाते हैं
एक विशिष्ट पहचान है जिनकी
बस वही गुरुदेव कहलाते हैं।
जिनके आशीष की छाया में
तूफानों में दीप जल जाते हैं
आश्रय उनका पा जाने से
वक्त बुरे भी पलट जाते हैं
बात सदा ही सत्य हो जिनकी
दुर्भाग्य भाग्य में बदल जाते हैं
समान हो शिष्य धनी निर्धन
बस वही गुरुदेव कहलाते हैं।
हर राष्ट्र के भाग्य विधाता है जो
सारा अनुभव अपना लुटा देते हैं
शिष्य का नाम रोशन हो जग में
अरमान ह्रदय में यही बसा लेते हैं
मान सम्मान त्याग कर अपना
मरते दम तक साथ निभा जाते हैं
अपने पैरों पर जो चलना सिखाते
बस वही गुरुदेव कहलाते हैं।
गीली मिट्टी को उलट-पुलट
निश्चित आकार बना देते हैं
अंदर दे थपकी पीटकर ऊपर
मिट्टी को घड़ा बना देते हैं
संसार से सारे परिचित करा
भले बुरे आभास करा देते हैं
जिनके ज्ञान का अंत न आदि
बस वही गुरुदेव कहलाते हैं।
शिष्टाचार की साक्षात मूर्ति जो
पंडित मूर्ख को बना देते हैं
बुझे हुए दीपक में फिर से
नई रोशनी जगमगा देते हैं
कृपा से जिनकी मुझ से प्राणी
शिक्षक कवि लेखक बन जाते हैं
जिनके उपकार अनंत है जग में
बस वही गुरुदेव कहलाते हैं।
रक्षाबंधन
रक्षा बंधन का त्यौहार है आया
अटूट प्रेम विश्वास है लाया
भाई बहनों को इसने मिलवाया
सारे जग की खुशियाँ है लाया।
सावन में रक्षाबंधन है आता
संग अपने रक्षा वचन है लाता
भाई-बहन का सौभाग्य जगाता
रेशमी धागे में प्यार बंधवाता।
नहीं मांगती धन दौलत उपहार
बहना चाहे भाई से केवल प्यार
देती है दुआएँ यही वह बारंबार
मिले खुशियाँ जीवन में उसे हजार।
देता संदेश रक्षाबंधन का त्यौहार
भाई बहन के जीवन में रहे बहार
हर रिश्ते से जुदा यह त्यौहार
ना आए इसमें कोई कभी दरार।
धागा नहीं ये है सच्चे रिश्ते की डोर
टूट जाए नहीं इतनी यह कमजोर
भाई बहन के प्रेम का नहीं ओर छोर
इसीलिए तो रक्षाबंधन का जग में है शोर।
निलेश जोशी “विनायका”
बाली, पाली, राजस्थान
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