विध्वंस का युग
विध्वंस का युग
ऐ कविश्रेष्ठ! अब लिखो,
उन स्त्रियों को अपने काव्य में,
जिन्हे झोंका जाता हैं,
हिंसा, विरोध, दंगा और दहेज की आग में।
उन अबोध बालिकाओं की कोख भी लिखना,
जो हवस का शिकार हो जाती हैं,
अगर लिख सके कलम तो लिखना,
उन वस्त्रहीन स्त्रियों का अभागा भाग्य,
जिनको घुमाया गया है,
सड़कों पर नुमाइश की तरह,
लिखना उन निर्दोष पुजारियों की किस्मत
जो नही जानते उनकी मृत्यु का कारण।
ऐ कविराज! लिख सको,
तो लिखो एक नया भारत,
जिसमें लिखो वो अभागी स्त्रियां,
जो जुबां में सत्य रखती हैं,
जिनकी इज्ज़त से दंगाइयों की भूंख मिटती है,
जिनकी चीख नही भेद पाती,
संसद की मजबूत दीवारों को,
जो मौन हो दफ़न हो जाती हैं खुद में कहीं,
जिनके क्रंदन से नही जागते,
ये बड़बोले नेता और न्यायपालिका।
ऐ कविराय! लिखना अपनी कलम से,
उन नेताओं का भाषण,
जो व्यर्थ में वाणी विलास करते हैं,
लिखना वो प्रखर अग्नि,
जिसमें हर रोज भारत जलता है,
हर हिंसा और झड़प को,
काव्य का हिस्सा बना लेना,
हर उस जाहिल शख़्स को लिखना,
जिसने किसी मासूम की जान ली है,
लिखना क्रोध की ज्वालाओं में तपती वो सड़कें,
जिनमें अबोध प्राणियों की चीखें समा जाती है।
ऐ कविवर! लिख सकना,
तो अब लिख देना; वो भारत,
जिसके हिस्से में आती हैं,
दर्दनाक कहानियां जिनमें न जाने,
कितने किरदार खून के आंसू रोते हैं,
वो सड़के जिनकी गोद को,
मरघट बना दिया जाता है,
वो मोहल्ले जो झोंक दिए जाते है,
किसी वर्ग विशेष की क्रोधाग्नि में।
ऐ कविज्येष्ठ!
अब प्रेम और श्रृंगार को कहीं दूर छोड़ कर,
लिखना अपनी कलम से,
अभागे भारत के हिस्से में….
दंगे, हिंसा, आगजनी और मौत का ताण्डव।।
शिवम् गुप्ता
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