Table of Contents
पर्यावरण
पर्यावरण जो है धरती का आवरण,
ना करो उस का चीर हरण।
बदल लो अपना चाल चलन, देता है वह सबको जीवन॥
उसके स्वस्थ रहने से ही स्वस्थ रहेगा जहाँ।
वरना ऑक्सीजन के लिए इस तरह घूमते रहोगे यहाँ तहाँ॥
चीख-चीख कर कह रही धरा,
हे मानव रहने दे मुझे तू हरा-भरा।
फूलों की सुगंध से नाता जोड़ ले।
वृक्षों को काटने से पहले ज़रा सोच ले॥
कुल्हाड़ी लिए क्यों खड़े हो वजूद नहीं कुछ हमारे बिना।
भूल गए क्या दूभर हो जाएगा जीना हमारे बिना॥
हम से ही पाते तुम फल फूल हो।
फिर भी बार-बार करते यह भूल हो॥
हम से ही है खूबसूरत जीवन, हम ही हैं तेरी ज़रूरत।
हमें काट यूँ ना बन तू पत्थर की मूरत॥
बस इती-सी ही तो है बात, ना तोड़ो मेरी आस।
फिर से सब हरा भरा होगा,
मन में रखो यह विश्वास॥
चल उठ दिखाते हैं कुछ कमाल, मचाते हैं धमाल।
कुछ तू रख मेरा, कुछ मैं रखूँ तेरा ख्याल॥
कान्हा का श्रृंगार
कान्हा का श्रृंगार
करती हूँ मैं तो प्यार से,
अपने कान्हा का श्रृंगार,
लुटा दूँ मैं तो उन पर
अपना सब कुछ बारंबार।
किया आज जब कन्हैया का श्रृंगार,
आँखों में आँखें डाल,
बोले वे मुस्कुराकर,
क्यों करती हो मेरा इतना श्रृंगार
क्यों उड़ेलती हो मुझ पर
अपना प्यार।
तब मैं शरमाकर
बोली यूँ मुस्कुराकर,
तुम्हें सजाती हूँ मैं,
ना रहना इस भ्रम में।
मैं ख़ुद को ही पाती हूँ,
तुम्हारी स्नेहिल इन आँखों में।
स्वयं ही को सजाती हूँ तुम्हारे बहाने,
आँखों में तुम्हारी ख़ुद को निहार लेती हूँ इसी बहाने।
योगिता गुप्ता
भोपाल, मध्य प्रदेश
यह भी पढ़ें-
2 thoughts on “पर्यावरण”