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नसीहत
नसीहत: अख्तर अली शाह
हैदर अली की पत्नी का स्वर्गवास हुए सवा महीना बीत गया था। कल ही सवा महीने की फातिहा थी। जाति बिरादरी के लोग जो फातिहा में सम्मिलित होने को आए थे लगभग सभी जा चुके थे, कुछ मेहमान बाक़ी थे जो आज रात को चले जाएंगे।
शाम का वक़्त था हैदर अली अपनी बैठक में अकेला बैठा था यह देखकर उसका दोस्त रहमत अली उसके पास आकर बैठ गया और मोन को तोड़ते हुए उसने इस तरह कहना शुरू किया “हैदर भाई पता नहीं मुझे यह बात कहनी चाहिए या नहीं लेकिन तुम्हें इस तरह अकेला बैठा देखकर कहने की हिम्मत कर रहा हूं” हैदर अली जो भूतकाल के इन्हीं विचारों में खोया था वर्तमान में लौट आया, बोला “कहो क्या कहना चाहते हो” हैदर अली से बातचीत हेतु हरी झण्डी मिल जाने पर बोला”दोस्त अकेलापन बड़ा बुरा होता है जिसकी ज़िन्दगी में आ जाता है उसे अंदर ही अंदर खोखला बना देता है आदमी वर्तमान का नहीं रह जाता वह भूत का हो जाता है और भूत हर काम पर अपनी छाया इस तरह डाल देता है कि सुनहरा भविष्य कहीं नज़र ही नहीं आता।
कई बार बिना सिर पैर के ख़्याल आने लगते हैं जिसका कोई ओर छोर नहीं होता, न जाने किन-किन कल्पनाओं के कल्पित किनारों से टकराकर व्यक्ति पुनः अपने यथार्थ के किनारे पर आ जाता है। इस समयावधि में न कोई काम कर सकता है, न कोई नई पुरानी योजना को मूर्त रूप दे सकता है, मतलब यह कि व्यक्ति नाकारा होकर रह जाता है।”
“मैं भी इस अकेलेपन से गुजरा हूँ जब तुम्हारी भाभी का स्वर्गवास हो गया था लेकिन मित्रो के कहने पर मैंने एक साल में ही नई शादी कर ली थी और अब मैं दो बच्चों का बाप बन गया हूँ। तुम्हारे आगे भी अभी काफ़ी लंबी ज़िन्दगी पड़ी है, क्या हुआ जो एक बेटा इकबाल और एक बेटी रजिया है। रजिया तो १८ साल की भी हो गई है उसकी शादी दो चार साल में करनी ही पड़ेगी तब वह ससुराल चली जाएगी और तुम इकबाल के साथ अकेले ही रह जाओगे। इकबाल अभी १५ साल का भी नहीं है तुम कहाँ तक ज़िन्दगी का सफ़र अकेले तय करते रहोगे, मेरी मानो तो मेरी एक दूर के रिश्ते की बहन है वह जवानी में ही बेवा हो गई है उससे बात चलाऊँ?”
हैदर अली बड़े ग़ौर से रहमत अली की बातें सुन रहा था और सोच रहा था उसका प्रस्ताव कोई अजूबा भी नहीं था। वह वही तो कह रहा था जो दुनिया में होता आया है। उसके अपने परिवार में भी अगर कोई वृद्धजन जैसे पिता, बुआ, बड़ी बहन आदि होते तो क्या वे भी ऐसी ही बातें उससे नहीं कहते। मानना ना मानना तो उस पर है। हैदरअली ने बुरा नहीं माना। उसने कहा “दोस्त तुम्हारा प्रस्ताव अच्छा है मैं इस पर विचार करूंगा लेकिन अभी मैं तुम्हारी भाभी की यादों के सहारे कुछ दिन और जीना चाहता हूँ।” तब फिर कुछ इधर-उधर की बातें हुई और रहमत अली भी इजाज़त लेकर, फिर मिलने का वादा करके चला गया।
रात को हैदर अली को नींद नहीं आई, करवटें बदलता रहा। अतीत की यादें उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी। उसकी स्वर्गवासी पत्नी जैसे हर घड़ी उसके साथ अब भी थी, लेकिन आज शाम को रहमत अली ने जो प्रस्ताव दिया था उसने भी हैदर अली के मन के किसी कोने में घर बना लिया था। वह कभी इस प्रस्ताव के बारे में सोचता और कभी अपनी स्वर्गवासी पत्नी के साथ गुम हो जाता।
इन्हीं दो तरह के परस्पर विरोधी विचारों में उलझा हुआ वह अतीत के उस दौर में चला गया जब वह कुर्सी लगाकर बरामदे में बैठा था। सामने चौक में रेत पर उसका बेटा इकबाल जो मुशकिल से तीन साल का होगा, अपनी पालतू पुसी के साथ खेल रहा था। पुसी बिल्ली की बच्ची थी तभी वहाँ एक कुत्तिया अपने दो बच्चों के साथ आई और रेत पर बैठ गई उसके बच्चे उसका दूध पीने लगे। तभी हैदर अली ने देखा कि पुसी भी उन बच्चों के साथ उस कुत्तिया का दूध पीने लगी थी और इकबाल के बार-बार उसके पास से हटाने पर भी वह फिर-फिर कर उसके पास पहुँचकर दूध पीना चाहती थी। कुतिया को भी कोई आपत्ति नहीं थी। वह मजे से उसे दूध पिला रही थी। सभी प्रसन्न थे। सभी खुश थे, कोई ख़ौफ़ नहीं।
हैदर अली तब सोच रहा था, यह अल्लाह की कैसी दुनिया है जहाँ एक दूसरे के दुश्मन भी, दोस्ती से प्यार से, एक दूसरे के साथ खेल रहे हैं। कुत्ते और बिल्ली में जन्म जन्मांतर का बैर है फिर भी यहाँ प्यार की जीत हो गई है, ममता की जीत हो गई है। इकबाल तो इंसान का बच्चा है, ये भी उनके साथ कैसे हिल मिल गया है धूल धूसरित। दूर से कोई देखे तो पहचान भी ना पाए कि ये इंसान का बच्चा है।
हैदरअली का मन बाग़ बाग हो गया था। उसके हृदय में भी प्यार का सागर हिलोरे मारने लगा था। उसके मन में आया कि वह उनके साथ खेलें, किंतु वह बच्चा नहीं था। उनके साथ खेलने की हैदर अली की साध मन की मन में रह गई थी। तभी हैदर अली ने देखा, पड़ोस की एक छत पर इरफान खड़ा था उसके हाथ में गुलेल थी और वह उस में पत्थर रखकर आसमान में उड़ते हुए एक कबूतर पर निशाना लगा रहा था और उसने देखा निशाना सही लगा था। कबूतर फड़फड़ा कर ज़मीन पर गिर गया था और इरफान खड़ा हुआ हंस रहा था, एक क्रूर हंसी। हैदर अली ने अपने आंगन में हिलोरे ले रहे प्यार के सागर की तुलना इरफान के घर की छत के क्रूर परिवेश से करना चाही, उसका विचार प्रवाह अब इसी एक दिशा में बढ़ता चला जा रहा था।
इरफान २५ साल का नवयुवक था। ५ साल पहले ही तो उसकी माँ का स्वर्गवास हुआ था। इरफ़ान के पिता हाशिम अली ने सलमा के साथ दूसरा निकाह कर लिया था लेकिन सलमा ने इरफान को कभी अपना बेटा नहीं माना। वह उसे हमेशा सोतेला ही नज़र आता था और जब उसके फरीद पैदा हो गया था तब से तो सलमा का बर्ताव इरफान के साथ और खराब हो गया था बात-बात में झगड़ा करना और खाना इरफान को नहीं देना आम बात हो गई थी। इसी बर्ताव ने इरफान को भी बागी बना दिया था उसने पढ़ना लिखना भी छोड़ दिया था। वह घर में सौतेली माता के बर्ताव से दुखी होकर बुरी संगत में भी पड़ गया था। उसके कई दोस्त जरायम पेशा वर्ग के थे।
हाशिम अली भी अपनी पत्नी के बहकावे में आ गया था। उसे पत्नी की हर बात भली लगती थी और इरफान उसे भी कांटे-सा खटकने लगा था। जिंदगी गुजरती जा रही थी। दो साल पूर्व ही तो उसके मोहल्ले के मदरसे में बाहर का एक मौलानानुमा व्यक्ति आकर ठहरा था जो आई. यू. बी.आई. (इस्लामिक यूथ ब्रिगेड ऑफ इंडिया) नाम की संस्था की शाखा खोलने आया था। उसके हावभाव और बातचीत से तोलकर हैदर अली ने उसे अपने अन्य साथियों की मदद से मदरसे से तो निकलवा दिया था लेकिन उस चालबाज ने हनीफ मियाँ को प्रभावित कर उनके यहाँ डेरा डाल लिया था और लगातार तीन दिन तक बैठकें कर-कर के आसपास के आठ, दस लड़कों को संस्था का सदस्य बना लिया था।
साल भर पूर्व ही हैदरअली ने सुना था कि इरफान अपने तीन साथियों के साथ कानपुर किसी बड़े आई. यू. बी.आई. (इस्लामिक यूथ ब्रिगेड ऑफ इंडिया) के सम्मेलन में गया था, जहाँ से वह १५ दिन में लौटा था। हाशिम अली को इससे। हाशिम अली को इससे अली को इससे कोई लेना-देना ही जैसे नहीं था। उसकी तरफ़ से तो इरफान जैसे मर गया था। बाप बेटों में संवाद हीनता की स्थिति बन गई थी। हैदर अली ने एक बात ज़रूर मार्क की थी कि कानपुर से आने के बाद इरफान जैसे एकदम बदल-सा गया था। उसका रहन-सहन खान-पान ख़र्चा आदि रईसी ढंग का हो गया था। अब वह गैंग लीडर था उसके साथ भी पांच-सा लड़के जी हुजूरी में बने रहते थे। कहीं भी हिंदू मुस्लिम फसाद होता तो इरफान का नाम उसमें ज़रूर आता था।
एक दिन इंदौर जहाँ पर वे रहते थे, के दूसरे सिरे पर एक आतंकी घटना घटी, कोई साइकिल पर बम रखकर कुछ ही दूर गया होगा कि बम फट गया, लोगों ने देखा जिस व्यक्ति ने बम रखा था वह भी विस्फोट की चपेट में आ गया था और क्षत-विक्षत हालत में सड़क पर पड़ा था। लोग पहचानने की कोशिश कर रहे थे। अपने जन्मदिन का कुछ ज़रूरी सामान खरीदने के लिए हैदरअली तब उसी इलाके में था, उसने भी पास जाकर आतंकी को पहचानने की कोशिश की, लोग उसे उलट पलट रहे थे। हैदर अली को पहचानने में देर नहीं लगी कि वह कोई और नहीं इरफान था जो उसका पड़ोसी था।
हैदरअली अतीत में चला गया। वह सोच रहा था अगर हाशिम दूसरा विवाह नहीं करता तो इरफान का जो हश्र हुआ, शायद नहीं होता क्योंकि तब उसे सौतेली माँ की प्रताड़ना नहीं सहना पड़ती, तब उसे हाशिम अली के गुस्से का शिकार नहीं होना पड़ता, तब उसे कुसंगत में जाने का मार्ग नहीं सूझता और वह आतंकी नहीं बनता जहाँ से उसे मर कर ही बाहर निकलना था।
तभी हैदर अली ने मजबूती से एक निर्णय कर लिया, वह निर्णय पुनः विवाह न करने से सम्बंधित था उसने तय कर लिया कि इकबाल और रजिया के लिए सौतेली माँ नहीं लाएगा। इकबाल को आतंकी कभी नहीं बनने देगा। वह उसे बड़ा होने पर सेना में भर्ती करवाएगा और जननी जन्मभूमि की सेवा के लिए सौंप देगा।
अख्तर अली शाह “अनंत”
नीमच
एम. / / / -५९ न्यू इंदिरा नगर नीमच ज़िला नीमच
(मध्य प्रदेश)
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