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दिल का मैल
दिल का मैल
“अजी सुनते हो? इस बार सावन मनाने क्या गीता बीबीजी को नहीं बुलाओगे?” सरिता ने अपने पति सागर से पूछा।
“क्यों? तुम्हारा पिछले झगड़े से पेट नहीं भरा क्या, जो फिर उसे बुलाकर घर में महाभारत करवाना चाहती हो।
अभी तीन चार महीने पहले ही तो आयी थी वह जयदाद में हिस्सा माँगने। कितनी बातें सुनाई उसने हमें तरह-तरह की और तुम्हे तो अपनी हर परेशानी के लिए ज़िम्मेदार तक ठहरा दिया” सागर ने थोड़ा उदास होकर कहा।
उस समय अनायास ही उसकी नज़र अपनी कलाई की ओर चली गयी।
“अरे छोड़ो उन बातों को, भाई-बहन और भाई-भाई में ऐसी नोक-झोंक होना कोई नई बात नहीं है और फिर अगर उन्होंने कुछ कह भी दिया तो अपना समझकर ही कहा होगा। कोई किसी गैर से तो इतने अधिकार से झगड़ भी नहीं सकता” , सरिता ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
“ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी! तुम ही उसे फ़ोन कर लेना” सागर ने सपाट स्वर में कहा और ऑफिस के लिए निकल गया।
दोपहर में सारे काम से फुर्सत पाकर सरिता ने गीता को फ़ोन लगाया-
“हैलो… हेल्लो… मैं सरिता”
“नमस्ते भाभी कैसे हो और भैया कैसे हैं?” उधर से गीता की धीमी आवाज़ आई।
“सब ठीक है गीता बीबी जी, आपको तो हमारी याद भी नहीं आती अब” , सरिता ने उलाहना दिया।
“ऐसी बात नहीं है भाभी… वह घर के कामों में…!” गीता ने बात टाली।
“गीता बीबी जी सावन शुरू हुए कितने दिन हो गए आप आयी नहीं अपने घर?” सरिता ने बड़े अधिकार से कहा।
“मेरा घर? मेरा घर तो यही है भाभी। अब उस घर से मेरा क्या नाता रहा गया है” , गीता ने धीरे से कहा।
“क्यों? लाठी मारकर क्या पानी अलग होता है? और फिर अगर यहाँ कोई गैर है तो वह मैं हूँ। आप भाई-बहन का रिश्ता मेरी वज़ह से खराब हो रहा है। लेकिन क्या मेरी बजह से तुम राखी पर अपने भाई की कलाई सूनी रखोगी?” सरिता ने उदास होकर कहा।
“न…न…नहीं भाभी लेकिन भैया…!” गीता अटकते हुए बोली।
“हाँ तुम्हारे भैया ही कहकर गए हैं कि तुमसे पूछ लूँ, ख़ुद आएगी या कान पकड़ कर लेने आना पड़ेगा? देखो तीज से पहले ही आ जाना और सलूनो करके ही बापस जाना। बाक़ी रही बात झगड़े की, तो उसके लिए सावन के अलावा भी ग्यारह महीने बाक़ी पड़े हैं” , सरिता ने हँसकर कहा।
“भाभी…!” गीता की हिलकी भर गयी।
इधर सरिता की आँखे भी नम हो आयीं थीं। तभी आसमान में काली घटाएँ घिर आयीं और बारिश की तेज बौछारें पड़ने लगीं मानों बादल भी दिलों पर जमी मैल को धोने के लिए बरस रहे हों।
शिक्षा का मंदिर
जय प्रकाश कोई बीस साल बाद गाँव लौटा तो उसके क़दम अनायास की गाँव से सटे जँगल की और बढ़ गए जहाँ एक दूर तक फैला हुआ आश्रम था। आश्रम के मुख्यद्वार पर एक लकड़ी की बड़ी-सी तख्ती लगी हुई थी, जिसपर मिट चुके अक्षरों में लिखा हुआ था “शिक्षा का मंदिर”।
जेपी जी हाँ अब जयप्रकाश को शहर में लोग इसी नाम से जानते थे, ने अपना बचपन और अपनी प्रारंभिक शिक्षा इसी आश्रम में प्राप्त की थी। पण्डित बलदेव प्रसाद शास्त्री जी ने अपनी कोई चार एकड़ ज़मीन में यह आश्रम बनाया था जहाँ वे अपनी पत्नी सहित बच्चों को संस्कार युक्त शिक्षा देते थे। उनके आश्रम में दूर-दूर से बच्चे पढ़ने के लिए आते थे।
आश्रम में बच्चों के रहने और खाने की भी बहुत उत्तम व्यवस्था थी। सभी बच्चों को स्वावलंबी बनाने की पण्डित जी की प्राथमिकता रहती थी। आश्रम से पढ़े अनखों बच्चे देश-विदेश में उच्च पदों पर कार्य कर रहे थे। जेपी भी शहर में एक मल्टीनेशनल कंपनी में मुख्य अधिशासी के पद पर कार्य कर रहा था। जेपी को आश्रम को उजड़ा देखकर घोर आश्चर्य हो रहा था। वह द्वार पर उग आयी जंगली लताओं को हटाकर द्वार के अंदर जाने लगा। अभी उसने क़दम बढ़ाया ही थी कि उसने पीछे से एक आवाज़ सुनी, ” कहाँ जा रहे हो साहब जी? अब यहाँ कोई नहीं रहता।
“लेकिन ये आश्रम…?” जेपी ने पलटते हुए पूछा।
जेपी ने देखा पीछे एक बूढ़ा आदमी लाठी पकड़े खड़ा था।
“हाँ साहब आये थे एक संत स्वभाव के पण्डित जी जिन्होंने अपना सबकुछ लगाकर ये मंदिर बनाया था, लेकिन धीरे-धीरे आधुनिकता की दौड़ में लोगों को ये संस्कारशाला अच्छी लगनी बन्द हो गयी और जब सन्त ने देखा कि लोगों को संस्कार और जीवन मूल्य सीखने से अधिक रुचि पाश्चत्य चीजों में हो रही है तो वे अंदर से आहत हो गए और एक दिन चले गए सबको छोड़कर। माता जी भी उनसे बिछोह सह नहीं पायीं और तीसरे ही दिन वे भी देह छोड़ गयीं।
बाक़ी रही बात आश्रम की तो साहब सन्त की माया थी जो उनके ही साथ चली गयी। आश्रम में छात्र तो ऐसे भी ना के बराबर ही रहते थे जो उनके जाते ही चले गए थे। किसी ने भी गुरु के काम को आगे बढ़ाकर इस आश्रम को संभालने की कोशिश नहीं कि। तो साहब ‘ अब यहाँ कोई नहीं रहता। “बूढ़े ने कहा और लाठी खटखटाता एक ओर चल दिया। जेपी का दिल जैसे बैठ-सा गया था। वह आश्रम को पुनः संचालित करने की योजना अपने दिमाग़ में बना रहा था। उसके कानों में बार-बार बूढ़े के शब्द गूँज रहे थे,” अब यहाँ कोई नहीं रहता साहब”
भगवान को चिंटू की चिट्ठी
सेवा में
भगवान जी
मैं आपका अपना चिंटू, मैं आजकल अपने घर में हूँ और ठीक ही हूँ। उम्मीद है आप भी अपने मन्दिर में ठीक ही होंगे। भगवान जी आप तो जानते ही हो कि हम हर साल गर्मी की छुट्टियों में नानी के घर जाते थे। हम वहाँ ख़ूब आम जामुन लीची और आड़ू खाते थे। हमारे नाना जी का बहुत बड़ा बगीचा है। जिसमें आम, अमरूद, आड़ू, लीची, नाशपाती, अनार, चीकू और भी बहुत सारे फलों के पेड़ हैं। हमारी नानी कहती थी, ” इतने आम खाये हैं अब जामुन भी खाओ, नहीं तो बीमार कर देंगे आम तुम्हे। फिर भी हम ठूँस-ठूँस कर आम खाते थे। जामुन मुझे बिल्कुल भी अच्छे नहीं लगते उनसे मेरे दांत गन्दे हो जाते थे। फिर भी मुझे जामुन खाने पड़ते थे।
भगवान जी आपको पता है? इस साल कोरोना के चलते हम नानी के घर नहीं जा पाएँगे। मुझे नानी के घर की बहुत याद आती है। नानी का गाँव कितना सुंदर है। चारों तरफ़ बाग़ बगीचे, तालाब और नदी। ” भगवान जी आप भी तो अपनी नानी के घर जाते होंगे? तो क्या इस बार आप भी मेरी ही तरफ़ घर में बंद होकर रहोगे? हाँ रहना ही पड़ेगा बाहर आपने कोरोना जो फैला रखा है। सुना है आपने अपने मन्दिर भी बंद कर रखे हैं जिससे कोई आपके पास शिकायत लेकर ना आये। भगवान जी हम बच्चों से ऐसी क्या गलती हो गयी जो अपने हमें घरों में क़ैद करवाकर ख़ुद मन्दिर में बन्द होकर बैठ गए। ऐसा तो मैं भी कभी-कभी करता हूँ जब मम्मी से रूठ जाता हूँ भगवान जी लेकिन मैं तो थोड़ी ही देर में मनाने से मान जाता हूँ।
लेकिन भगवान जी आपको तो सारे ही लोग रोज़ ही मना रहे हैं और अब तो गर्मी भी कितनी बढ़ गयी है भगवान जी मेरा नदी में नहाने का कितना मन होता है इस गर्मी में। भगवान जी आपको भी तो बन्द मन्दिर में बहुत गर्मी लगती होगी ना। पहले सारे लोग जल ले जाकर आपको कितना नहलाते थे। भगवान जी आप इस कोरोना को अब वापस बुला लीजिये ना। भगवान जी अब लोगों को बहुत सजा मिल गयी है। भगवान जी देखो ना सभी माफी मांग रहे हैं। इस बार माफ़ कर दो ना भगवान जी फिर कोई भी गलती नहीं करेगा। भगवान जी अब सब ध्यान रखेंगे। माफ़ कर दो ना भगवान जी।
तारीख
२६ मई आपका
चिंटू
रक्षा बंधन
रक्षाबंधन का दिन था चारों ओर रंग बिरंगी सुंदर राखियों और मिठाइयों की भरमार थी। सारे लड़के अपनी-अपनी कलाई पर बंधी रंग बिरंगी राखियाँ सबको दिखाते घूम रहे थे। मुन्नू भट्ठी पर चढ़ी कढ़ाई में चीनी और मावा एक बड़े से लकड़ी के घोटे से घोट रहा था।
“अबे जल्दी-जल्द हाथ चला कामचोर… देखता नहीं बर्फी ख़त्म होने वाली है। साला त्यौहार के दिन ही ना जाने क्यों इसकी नानी मर जाती है” , दुकान का मालिक राजू सेठ गुस्से से चिल्लाया।
मुन्नू जो किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था इस आवाज़ से झटके से हिला और उसके हाथ मशीन की तेजी से चलने लगे। मुन्नू की आँख से निकली आँसू की एक बूँद भट्ठी की आग में टपक गयी जिसकी “छुन्न!” की आवज मुन्नू ने साफ-साफ सुनी। मुन्नू कोई तेरह-चौदह साल का बालक था जिसके परिवार में उसकी माँ को छोड़कर कोई नहीं था।
वह घर चलाने के लिए राजू हलवाई की दुकान पर नौकरी करता था। अभी सेठ कुछ और बोलता तभी सेठ की दस साल की बेटी सजी-धजी दुकान में आयी, उसके हाथ में एक राखी थी।
“पापा…! पापा मैं किसको राखी बाँधूं? मेरा तो कोई भाई भी नहीं है… लाओ पापा हमेशा की तरह आपको ही राखी बाँध देती हूँ” , सेठ की बेटी मोनी ने कहा।
“अभी खेलो कुछ देर, देखती नहीं हो कितने ग्राहक हैं। अभी थोड़ी फुर्सत होने दो” , राजू ने चिढ़ते हुए लापरवाही से कहा।
उदास मोनी इधर-उधर देखने लगी, तभी उसकी नज़र मुन्नू पर पड़ी और वह उसकी तरफ़ बढ़ गयी।
“अरे मुन्नू…! तुम इतने उदास क्यों लग रहे हो? और तुम्हारी कलाई भी सुनी है। क्या तुम्हारी बहन से तुम्हारा झगड़ा हुआ है?” मोनी ने धीरे पूछा।
“मेरी कोई बहन नहीं है” , मुन्नू ने दुख भरी धीमी आवाज़ में कहा।
“क्या? अरे मेरा भी कोई भाई नहीं है देखो मेरी राखी… इसे अभी तक किसी ने नहीं बंधवाया। तुम मेरे भाई बनोगे मुन्नू?” मोनी ने मुस्कुरा कर पूछा।
जवाब में मुन्नू ने अपनी कलाई आगे कर दी और मोनी ने झटपट राखी मुन्नू के हाथ में बाँध दी।
मोनी दौड़कर फिर काउंटर पर पहुँची और बोली-“देखो पापा आज से मुन्नू मेरा भाई है। मैंने उसे राखी बाँध दी है। अब आप मुझे मेंरेे भाई का मुँह मीठा करवाने के लिए मिठाइयाँ दो।”
राजू ने सर उठाकर चौंककर मोनी को देखा और अगले ही पर जाने क्या सोचकर मुस्कुराते हुए कुछ मिठाई एक डिब्बे में रखकर दे दीं।
“लो भईया मिठाई खाओ” , मोनी ने कहा और अपने हाथ से मिठाई का एक टुकड़ा मुन्नू के मुँह में डाल दिया। इस बार फिर मुन्नू की आँख से आँसू टपका लेकिन हवा उस आँसू को उड़ा कर ले गयी।
नृपेंद्र शर्मा “सागर”
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
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