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गुनहगार
गुनहगार: उदय राज वर्मा
बड़ी तेज़ी से तूफान चल रहा था मैं अपने को निर्जन स्थान पर उस भंयकर तूफान के बीच पाकर बहुत ही डरा हुआ था। चारों ओर तमसाकार भीषण गर्जन के साथ मानो सारे संसार को अपने में समेटने को आतुर हो। हवा के प्रचंड झोंको की मार का सामना करने की शक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो चुकी थी। ऐसा लगता था जैसे मनीषियों द्वारा की गई सृष्टि प्रलय की भविष्यवाणी सच साबित होने वाली है।
तभी मेघ बड़े तेजी से घुर्रा कर अपनी बत्तीसी दिखाई तो सामने एक खंडहर नज़र आया। मैं सहमा हुआ उसमें प्रवेश किया किन्तु अंधकार वश आगे न बढ़ सका। फिर भी मुझे थोड़ी-सी राहत महसूस हुई क्योंकि वायु के वेग से छुटकारा मिल गया था। अभी मैं ईश्वर को धन्यवाद दे भी न पाया था कि तभी कोई भारी वस्तु मेरे सर से टकराईं और मैं चकराकर गिर पड़ा।
जब होश आया तो स्वयं को राजदरबार में पाया। मैं डर गया लेकिन तभी ध्यान आया कि ये दरबार तो भयहरणनाथ अवधेश के चारों कुमारों में ज्येष्ठ कुमार श्रीरामचन्द्र जी का है। मेरा डर दूर हुआ और मैंने तुलसीदास जी की तरह स्तुति शुरू की-‘जय रावनारि खरारि मर्दन निसाचर धारि।’ तभी पृथ्वी कंपी, शेषनाग गुस्से में फुफकार उठे-‘मूर्ख! तूने प्रभु के महाभक्त को निसाचर कहा।’ मेरी ज़ुबान भय से तालुओं में चिपक गई। ‘शांत वत्स शांत! रमापति का मधुर स्वर सुनाई दिया-‘ इनका कोई दोष नहीं है। ‘तभी मैं रावण को वानर राज के बगल में बैठे देखकर चौंका।’ दोषी वे हैं जिन्होंने महात्मा विश्रुवा के महान पुत्र को दुष्ट निसाचर कह कर घोषित किया।
‘मेरा डर कुछ समाप्त हो गया था लेकिन मैं कुछ समझने में समर्थ नहीं था। मेरा दिमागी घोड़े (जिसे एक ही रास्ते पर दौड़ना सिखाया गया था) ने दौड़ना शुरू किया जिसे रोका देवर्षि की सीरियल में सुनी वाणी ने-‘ नारायण नारायण! क्या इसलिए तुम महाराज रावण को दुष्ट कह रहे हो कि उसने माता श्री का अपहरण किया है और उसे प्रभु के समकक्ष देखकर आश्चर्य चकित हो ”
हाँ भगवन!
‘लगता है तुमने श्री मानस को ठीक से नहीं पढ़ा-सुर रंजन भंजन महि भारा, जौ भगवंत लींह अवतारा। तौ मैं जाग बैर हठ करहूँ प्रभु सर प्रान तजे भव तरहू।’ गोस्वामी जी सामने आते हुए कहा।
बीस बांह वाले ने कठोर आवाज़ में कहा-‘वत्स माता सीता तो स्वयं मेरे साथ गई थी ये मेरा सौभाग्य है मिट्टी को कंचन बना दिया वरन् मुझ जैसे नाचीज़ की औकात कहा।’ और रही स्त्री अपहरण की तो गोस्वामी जी कृपया बताएँ कि मैंने कितनी स्त्रियों का अपहरण किया है? हाँ उस समय कि परम्परा अनुसार ही मैंने अन्य स्त्रियों का वरण किया है और माता जी के दर्शन हेतु जब भी गया अपनी पत्नियों के साथ ही गया हूँ। ‘
बली में महाबली ने कहा-‘ये महत्मन रावण की भक्ति का प्रताप है कि स्वयं प्रभु ने उनसे युद्ध किया। ये सौभाग्य मुझे भी नहीं मिला।’
मैं कुछ-कुछ निर्भय हो गया था तो मैंने पूछा-‘और माता का अपमान!’
‘नहीं वत्स मैं भला माता का अपमान? माता के दर्शन के बाद प्रभु के दर्शन की आकुलता ही और उद्धार की सिफ़ारिश हेतु ही।’
‘महाराज आपने लड़ने का रास्ता ही क्यों चुना?’
‘वत्स आपका प्रश्न जायज है मगर मैं सिर्फ़ भक्ति से स्वयं का ही उद्धार कर पाता लेकिन इस तरह मैं अपनी पूरी कौम को भी प्रभु के चरणों में पहुँचा दिया जोकि मेरा परम कर्तव्य भी था।’ लगे हाथ मैंने पूछ लिया-‘अच्छा आपने अपने अनुज को लात क्यों मारी?’
‘मैं जानता था कि मेरा अनुज अपनी भक्ति के बल पर प्रभु के चरणों में पहुँच जाएगा और अपने वंश को बनाए रखने के लिए ही मैंने उसे लात मारकर भगाया था नहीं तो अनुजश्री मुझे छोड़ कर कभी भी न जाते और ऐसे में लंका पुरुष विहीन हो जाती।’
‘आपका अगला सवाल है कि शक्ति प्रहार। तो सुनो! शक्ति का प्रहार ये जानने के लिए किया कि मुझे प्रभु की कृपा सचमुच प्राप्त हो गई है कि नहीं। लेकिन जब देखा कि भाई श्री के वार को प्रभु ने अपने सीने पर ले लिया तो उन्हें पूरा विश्वास है गया और फिर पूरे मनोवेग से लडने लगे।’ विभीषण की तरफ़ से ये उत्तर बिना पूछे मिल गया। हालांकि मेरे मन में ये सवाल बन रहा था। मैं एक क्षण के लिए चुप हो गया तभी देवराज इन्द्र ने खड़े होकर (शायद उन्हें मौका मिल गया था या फिर मेरे मन में उठने वाले सवालों का जवाब दिलाना चाहते थे) विनम्र शब्दों में पूछा-‘भगवन आपने मुझ देवताओं और-और ऋषियों मुनियों को बहुत सताया। क्या मैं…?’ शेषनाग अवतारी ने आँख तरेरी।
‘नारायण नारायण!’ देवर्षि नारद ने कहा-‘आपने महाराज विश्रवा को समाज देवताओं और ऋषियों-मुनियों के साथ मिलकर समाज से तिरस्कृत करके बहिष्कृत कर दिया क्यों? क्योंकि महात्मा ने दूसरे कुल की कन्या से विवाह कर लिया। लेकिन आपने ख़ुद अपनी पुत्री जयंती का विवाह दूसरे कुल के गुरु शुक्राचार्य से कर दिया और ख़ुद अपना विवाह भी असुर राज पूलोमा की कन्या शची से विवाह किया था तब तो आपके धर्म समाज संस्कृति पर ख़तरा नहीं आया क्योंकि आप चतुर समर्थवान है राजा है लेकिन एक सीधे-सीधे ऋषि ने कर लिया था प्रलय आ गई और आपने दो दिल को ही अलग नहीं किया वरन् एक-एक निर्दोष अबोध बालक को सुख सुविधाओं से वंचित अपने परिवार से अलग जंगल की ख़ाक छानने पर मजबूर किया था और रही बात देवेंद्र (कुछ गुस्से में) नीति की तो राक्षस राज मय की पत्नी हेमा को छीनकर कौन-सी नीति और मर्यादा का पालन किया। समर्थ कहूँ नहीं दोष गोसाईं। समाज मानता है लेकिन प्रभु नहीं, उसकी बदला लिया है महात्मा जी ने (जो एक मानवीय स्वभाव भी है) वैसे तुम्हें कम दंड मिला है।’
‘दुहाई प्रभु! दुहाई क्षमा करें। मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई।’
‘प्रभु क्षमा कर दें देवेंद्र को।’ ये शब्द रावण के थे। इंसान बोलने में तर्क और सवाल करने में तेज है इसे चरितार्थ करते हुए कहा-‘ भगवन एक सन्देह है अगर…?
शेषनाग गुस्से में आँख तरेरने वाले ही थे कि तभी प्रभु ने कहा-‘निसंदेह पूछो वत्स।’
‘महात्मा दसानन ने अपने अग्रज धनराज कुबेर पर आक्रमण किया…?’
देवताओं ने मेरे माता-पिता और छोटे भाई पर अत्याचार किया और मैं अपने माता-पिता के अपमान का बदला न लेकर धन के लालच में देवेंद्र का साथ दिया जो कि ग़लत था लेकिन उसकी सजा जब मिलने की बारी आई तो पिता श्री ने समझौता करवाकर मुझे सजा से बचा लिया। ‘
लक्ष्मण जी ने मुस्कराकर पूछ-‘अब भी कुछ पूछना चाहते हो, कोई शंका?’
‘हाँ एक शंका है।’
लक्ष्मण जी गुस्से से आग-बबूला हो गये और बोले तुम इंसानों को। ‘
प्रभु ने कहा कर लेने दो इसे अपनी शंका का समाधान, बोलो वत्स अब कैसी शंका है? ‘
‘प्रभु जो लोग दशहरा को महात्मा रावण के पुतले जलाते हैं ।’
‘ वे कहते हैं कि रावण बुराई का प्रतीक है उसके पुतले तो जलाते हैं लेकिन अपने और समाज के अंदर की बुराई को नहीं जलाते ऐसे लोगों का हाल देखना चाहोगे मैं देखो।
इस दृश्य को देखकर मेरी रुह कांप गई और मैं त्राहि माम त्राहिमाम करके प्रभु के चरणों में गिर पड़ा। तभी मेरी निंद्रा भंग हो गई और स्वयं को अपने विस्तर पर पाया।
उदय राज वर्मा उदय
छिटेपुर सैंठा गौरीगंज अमेठी उत्तर प्रदेश
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